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Sunday, 31 January 2021

20-12-2020 (One day in the name of press club)


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प्रेस क्लब के नाम एक दिन

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दिनेश कुकरेती

स वक्त उत्तरांचल प्रेस क्लब की त्रैमासिक पत्रिका "गुलदस्ता" का वार्षिकांक मेरे हाथ में है। आज क्लब कार्यकारिणी की आखिरी आमसभा भी थी। इसी दौरान पत्रिका का भी विमोचन हुआ। इस बार विमोचन क्लब के वरिष्ठ साथियों के हाथों हुआ। पत्रिका का संपादन मैंने किया है, इसलिए मुझे तो उपस्थित रहना ही था। कार्यकारिणी की ओर से कुछ सदस्यों को "सक्रिय सदस्य" सम्मान से भी नवाजा गया। संयोग से इनमें एक मैं भी था। इसके लिए मुझे विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था। क्लब कार्यकारिणी की ओर से दोपहर के भोजन की व्यवस्था भी की गई थी।

कहने का मतलब आज का दिन मेरे लिए व्यस्तताओं भरा रहा। पूर्वाह्न 11 बजे के आसपास मैं क्लब पहुंच गया था। अपराह्न साढे़ तीन बजे के आसपास वहां से लौटना हो पाया, लेकिन रूम में नहीं, आफिस में। रूम में तो रुटीन के हिसाब से मैं रात 11 बजे के आसपास ही पहुंचा। खास बात यह रही कि वार्षिक आमसभा संपन्न होने के साथ ही नई कार्यकारिणी के चुनाव की प्रक्रिया भी आरंभ हो गई। इसके लिए बाकायदा मुख्य व सहायक चुनाव आधिकारी नामित कर दिए गए। चुनाव संभवतः 28 दिसंबर को होंगे, लेकिन इसकी अधिकृत घोषणा मुख्य चुनाव अधिकारी की ओर से होनी है।

 खैर! चुनाव किसी भी दिन हों, मुझे इससे क्या। कौन-सा मुझे चुनाव लड़ना है। मेरी भूमिका तो सिर्फ वोटर की है। दरअसल, कुछ साथी चाहते हैं कि मैं भी नई कार्यकारिणी का हिस्सा बनूं, लेकिन मेरी कतई इच्छा नहीं है। सच कहूं तो वर्तमान में मेरे लिए ऐसा संभव भी नहीं है। मैं फिलहाल अध्ययन को ज्यादा वक्त देना चाहता हूं। हां! भविष्य में परिस्थितियां अनुकूल रहेंगी तो जरूर चुनाव में उतरा जाएगा। सो, इस पर आज माथापच्ची क्यों की जाए।

एक बात और, जो मुझे कहनी तो नहीं चाहिए, पर हालात कहने को विवश कर रहे हैं। वह यह कि प्रेस क्लब के लगभग 300 सदस्यों में से गिनती के सदस्य ही पढ़ने-लिखने में रुचि दिखाते हैं। क्लब की लाइब्रेरी  भी पूरे दिन सूनी पडी़ रहती है। वहां से पढ़ने के लिए पुस्तक घर ले जाना भी किसी को गवारा नहीं। बामुश्किल पांचेक सदस्य ही ऐसा करने का जोखिम उठाते हैं। उनमें से एक मैं भी हूं। आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि मैं चुनाव लड़ने में क्यों रुचि नहीं ले रहा। क्योंकि, पढ़ने-लिखने का कार्य तो मैं बगैर चुनाव लडे़ भी कर सकता हूं और वर्तमान में भी कर रहा हूं।

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One day in the name of press club

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Dinesh Kukreti

At present I have the annual issue of "Guldasta" quarterly magazine of Uttaranchal Press Club.  Today was also the last general meeting of the club executive.  During this time, the magazine was also released.  This time the release took place at the hands of the club's senior teammates.  I have edited the magazine, so I had to be present.  Some members were also awarded "Active Member" honors from the executive.  Incidentally I was one of them.  I was particularly invited for this.  Lunch was also arranged by the club executive.

To say that today was a busy day for me.  I reached the club around 11 am.  Was able to return from around 3:30 pm, but not in the room, in the office.  According to the routine, I arrived in the room around 11 pm.  The special thing is that with the completion of the annual general assembly, the process of electing the new executive has also started.  For this, the Chief and Assistant Election Officers were nominated.  Elections are likely to be held on December 28, but it is to be announced by the Chief Electoral Officer.

Well!  Election should be held any day, what should I do with it.  Which one do I have to contest?  My role is only that of the voter.  Actually, some colleagues want me to be a part of the new executive, but I have no desire.  Frankly, it is not possible for me at present.  I want to give more time to study at the moment.  Yes!  If the circumstances are favorable in future, then definitely will be landed in the election.  So why should it be discussed today?

One more thing, which I do not want to say, but the circumstances are forcing me to say.  That is, out of about 300 members of the Press Club, only counting members show interest in reading and writing.  The library of the club is also dotted throughout the day.  It is also not acceptable to take a book home to read from there.  Barely five members risk doing so.  I am also one of them.  You can guess yourself why I am not interested in contesting elections.  Because, I can do the work of reading and writing without contesting elections and currently doing it.

Friday, 29 January 2021

10-12-2020 (There is no time to eat or sleep)

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खाने-सोने की भी फुर्सत नहीं

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दिनेश कुकरेती
पिछले बीस दिन से खाने-सोने की भी फुर्सत नहीं मिल रही। उत्तरांचल प्रेस क्लब की त्रैमासिक पत्रिका "गुलदस्ता" के वार्षिकांक की तैयारी में वक्त कब गुजर जा रहा है, पता ही नहीं चल रहा। ऐसा लगता है, जैसे काम घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा हो। सुबह दस बजे कमरे से निकल पड़ता हूं और फिर पांच घंटे स्वयं की भी सुध नहीं रहती। दोपहर का भोजन भी ऐसे होता है, जैसे जबर्दस्ती हलक में उडे़ला जा रहा हो। जब तक पत्रिका छपने के लिए प्रेस में नहीं पहुंचा दी जाती, तब तक सुकून की उम्मीद करना भी सपने देखना जैसा है। ऐसे में आफिस में भी ठीक से मन नहीं लगता, पर कोई चारा भी नहीं है। इस बार तो सब-कुछ अकेले ही निपटाना है। कोई सहयोग करने को तैयार ही नहीं है।

पत्रिका में प्रकाशित एक-एक लेख को संपादित करने से लेकर लेआउट तैयार करने तक, हर कार्य खुद ही करना पड़ रहा है। कुछ लेख तो नए सिरे से भी लिखने पडे़। इतना ही नहीं, हर लेख के लिए फोटो भी स्वयं ही मैनेज करने पड़े। सोच रहा हूं, बस! जैसे-तैसे साल के इस आखिरी अंक को निकाल लूं, फिर तो इस बारे में सोचूंगा तक नहीं। यह ठीक है कि मुझे पढ़ना-लिखना बहुत अच्छा लगता है, पर इसका यह मतलब कतई नहीं कि सारे जहां के बोझ को अपने सिर पर उठा लूं। कान पकड़ लिए बाबा अब तो।

दरअसल, इस बार काम का दबाव अधिक होने की वजह यह भी है कि 20 दिसंबर को प्रेस क्लब की आखिरी आम सभा होनी है। फिर नई कार्यकारिणी के लिए चुनाव की घोषणा के साथ तैयारियां भी शुरू हो जाएंगी और आज दस दिसंबर बीत चुका है। कल से क्रिकेट टूर्नामेंट का आयोजन भी होना है, जो चार दिन चलेगा। जाहिर है, अब पत्रिका को किसी भी सूरत में आज-कल पर नहीं टाला जा सकता। सबसे बडी़ दिक्कत पावर कट की वजह से पेश आ रही है। दिन में रोजा़ना कई बार बिजली गुल हो जाती है। कई बार तो आधा से एक घंटे के लिए। 
फिर नौकरी भी तो करनी है। आफिस से निकलते-निकलते रात के ग्यारह बज जाते हैं। ऐसी स्थिति में तनाव होना स्वाभाविक है। आज भी यही हाल है। सिर भारी-सा लग रहा है। ऊपर से जल्दी सोना भी अच्छा नहीं लगता। किसी मनपसंद पुस्तक या पत्रिका के दो-चार पन्ने पढ़ लेने के बाद ही सुकून मिलता है। शायद ये पुस्तकें ही मुझे ताकत देती हैं। कठिन परिस्थितियों में जीने का सलीका सिखाती हैं।
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There is no time to eat or sleep
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Dinesh Kukreti
For the last twenty days, there is no time to eat or sleep.  It is not known when the time is going to prepare for the annual issue of Uttarakhand Press Club's quarterly magazine "Guldasta".  It seems as if work is increasing rather than decreasing.  I leave the room at ten o'clock in the morning and then for five hours I do not even remember myself.  Lunch is also like being forced into the circle.  Until the magazine is sent to the press for publication, it is like dreaming to expect peace.  In this case, the office does not feel well, but there is no option.  This time everything has to be disposed of alone.  Nobody is willing to cooperate.

From editing each article published in the magazine to preparing the layout, every task has to be done by itself.  Some articles also had to be written anew.  Not only this, photos for every article also had to be managed by themselves.  Thinking, that's it!  As soon as I remove this last issue of the year, I will not even think about it.  It is okay that I like to read and write, but this does not mean that I should bear the burden of all the places.  Baba has caught his ear now.
Actually, this time the pressure of work is more because it is the last general meeting of the Press Club to be held on 20 December.  Then preparations will start with the announcement of elections for the new executive and today, December 10 has passed.  A cricket tournament is also scheduled to be held tomorrow, which will run for four days.  Obviously, now the magazine cannot be avoided on any occasion.  The biggest problem is due to the power cut.  Lightning flames occur several times a day.  Sometimes for half an hour.

Then you also have to do a job.  It is eleven o'clock at night.  In such a situation it is natural to have tension.  It is the same today.  The head looks heavy.  Sleeping too fast is not good.  Relaxation is attained only after reading two to four pages of a favorite book or magazine.  Perhaps these books give me strength.  Teaches them how to live in difficult situations.

Wednesday, 27 January 2021

11-11-2020 (Relaxed moments with family/परिवार के साथ सुकून के पल)

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परिवार के साथ सुकून के पल
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दिनेश कुकरेती
हीनेभर कोई खास गतिविधि नहीं हुई। बस! घर से आफिस और आफिस से घर। बीच में दो-चार दिन प्रेस क्लब भी। इस दौरान क्लब की त्रैमासिक पत्रिका "गुलदस्ता" के वार्षिकांक निकालने पर विशेष रूप से चर्चा हुई, लेकिन सामूहिक रूप से तय यह हुआ कि आठ नवंबर को दीपावली महोत्सव के बाद ही इस पर काम शुरू करेंगे। इस बार दीपावली 14 नवंबर को पड़ रही है, इसलिए मुझे भी इस आयोजन में हिस्सा लेने का मौका मिल गया। जबकि, बीते वर्षों के दौरान दीपावली महोत्सव ज्योति पर्व से दो दिन पहले आयोजित किया जाता रहा है। इस दौरान मैं छुट्टी पर अपने घर कोटद्वार में होता हूं। इन दिनों भी मैं छुट्टी पर ही हूं।

दीपावली महोत्सव के अगले दिन यानी नौ नवंबर को मैं कोटद्वार पहुंचा। इस दिन मेरा साप्ताहिक अवकाश भी होता है। अब हफ्ताभर कोटद्वार में रहूंगा। इसके बाद वापस लौटकर "गुलदस्ता" के वार्षिकांक पर काम करना है। कोशिश रहेगी कि दस दिसंबर से पूर्व पत्रिका छपने के लिए प्रेस में चली जाए, क्योंकि इसके बाद नई कार्यकारिणी के चुनाव की तैयारियां शुरू हो जाएंगी। लेकिन, फिलहाल ये पांच-छह दिन परिवार के साथ सुकून से गुजारने के हैं। फिर तो वही नौकरी का रुटीन। पूरी तरह न दिन अपना, न रात ही। आप सोच रहे होंगे कि ये क्या बात हुई, पर सच यही है। असल में मेरी ड्यूटी अपराह्न तीन बजे के बाद शुरू होती है और रूम में पहुंचते-पहुंचते रात के बारह बज ही जाते हैं।

खैर! मुझे इस सबका कोई अफसोस नहीं है, क्योंकि पत्रकारिता  की यह राह मैंने स्वयं चुनी थी। हालांकि, वर्तमान में यह राह मेरे जैसे लोगों के लिए नहीं है, पर चलना समय की जरूरत है और मैं इसी भाव से इस पर आगे बढ़ रहा हूं। हालांकि, यह पूरा साल कोरोना महामारी की भेंट चढ़ गया, लेकिन सृजन के लिहाज से मैं इसे बेहतरीन साल मानता हूं और संयोग से समाज एवं साहित्य की बेहतरी के लिए मुझे भी योगदान करने का मौका मिला। क्लब की पत्रिका "गुलदस्ता" इसी की परिणति है। इसके माध्यम से मुझे कई अच्छे लोगों से मिलने का मौका मिला और भविष्य के लिए उम्मीदों के द्वार भी खुले।
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Relaxed moments with family
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Dinesh Kukreti
There was no significant activity throughout the month.  enough!  Home to office and office to home.  Two or four days press club in between.  During this time, the club's quarterly magazine "Guldasta" was specially discussed to be released, but it was decided collectively that they will start work on this day only after the Deepawali Festival on November 8.  This time Deepawali is falling on 14 November, so I also got a chance to participate in this event.  Whereas, during the past years, Deepavali Festival has been held two days before the Jyoti festival.  During this time I am on leave at my house in Kotdwar.  These days I am still on vacation.

I reached Kotdwar on the next day of Deepawali festival i.e. November 9.  I also have a weekly off on this day.  Now I will stay in Kotdwar for a week.  Then return and work on the annulus of the "Guldasta".  Efforts will be made to go to the press to publish the magazine before December 10, because after this, preparations will start for the election of the new executive.  But at present, these five-six days are to be relaxed with the family.  Then the same job routine.  Neither the day nor the night.  You may be wondering what happened, but this is the truth.  Actually, my duty starts after 3 pm and it is twelve o'clock in the night by reaching the room.

Well!  I have no regrets for all this, because I had chosen this path of journalism myself.  However, at present this path is not for people like me, but walking is the need of the hour and I am moving forward with this feeling.  Although, this whole year was lost to the corona epidemic, but in terms of creation, I consider it a great year and incidentally I got a chance to contribute for the betterment of society and literature.  The club's magazine "Guldasta" is the culmination of this.  Through this I got the chance to meet many good people and also opened the doors of expectations for the future.
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Sunday, 24 January 2021

09-10-2020 (Meeting a literary friend/एक साहित्यकार मित्र से मुलाकात)

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एक साहित्यकार मित्र से मुलाकात
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दिनेश कुकरेती 
ज नौ अक्टूबर है। एक खास साहित्यिक मित्र का देहरादून आगमन हो रहा है। वर्तमान में वह बतौर गन्ना आयुक्त कुमाऊं मंडल में तैनात हैं, लेकिन मैं उन्हें एक साहित्यकार के रूप में ही ज्यादा जानता हूं। हालांकि, प्रत्यक्ष उनसे परिचय नहीं है, लेकिन उनकी दो पुस्तकें "खड़कमाफी की स्मृतियों से" और "अथश्री प्रयाग कथा" पढ़ चुका हूं। इसी आधार पर मेरे मनो-मस्तिष्क में उनकी जो छवि उभरती है, संभवतः वैसे ही होंगे भी। नाम है ललित मोहन रयाल। पत्रकार मित्र सतेंद्र डंडरियाल के बेहद करीबी हैं। डंडरियाल जी के माध्यम ही से उत्तरांचल प्रेस क्लब की त्रैमासिक  पत्रिका "गुलदस्ता" के कोविड-19 विशेषांक के लिए उनसे लेख भेजने का आग्रह किया था और उन्होंने  दूसरे दिन ही भेज भी दिया। सो, आज पत्रिका भेंट करने के बहाने उनसे मुलाकात करने का भी अच्छा मौका है। बीती शाम डंडरियाल जी ने जब मुझसे कहा कि रयाल जी आ रहे हैं तो मैंने उन्हें आज दोपहर के आसपास प्रेस क्लब में ले आने को कह दिया।

खैर! मैं भी ग्यारह बजे के आसपास प्रेस क्लब पहुंच  गया। डंडरियाल जी का भी फोन आ गया था कि वह भी साढे़ ग्यारह बजे तक पहुंच जाएंगे और वादे के मुताबिक पहुंच भी गए। उन्होंने मुझे बताया कि रयाल जी भी पहुंच चुके हैं और प्रेस क्लब के प्रवेशद्वार के पास स्थित उज्ज्वल रेस्टोरेंट में बैठे हुए हैं। तब मेरी समझ में आया कि क्लब के कैंपस में जो कार खड़ी है, वह रयाल जी की ही है। लेकिन, मैं उसे देखकर भी उनके पहुंचने का अंदाज नहीं लगा पाया। 

रयाल जी के उज्ज्वल में बैठे होने की सूचना ने मेरी उनसे मिलने की उत्कंठा बढा़ दी और मैं डंडरियाल जी के साथ सीधे उधर ही चल दिया। अंदर जाते ही देखा कि रयाल जी के साथ कथाकार मित्र मुकेश नौटियाल भी बैठे हुए हैं। खुशी दोगुना होनी ही थी। मेल-मुलाकात के बाद दोनों मित्रों से कुछ देर इधर-उधर की बातें हुई और फिर सभी चल पड़े क्लब की ओर। मुझे क्लब कार्यालय के बजाय लाइब्रेरी में बैठना ज्यादा पसंद है, इसलिए साहित्यकार मित्रों को भी लाइब्रेरी में ले जाना ही बेहतर समझा। आदतानुसार चाय की चुस्कियों के बीच कुछ मैंने अपनी कही और कुछ उनकी सुनी। साहित्य और पढ़ने-लिखने की आदत पर भी काफी बातें हुईं और फिर मैंने दोनों मित्रों को "गुलदस्ता" का कोविड-19 विशेषांक और इससे पहले वाला अंक भेंट किया। रयाल जी को कुछ और साहित्यिक लोगों से भी मुलाकात करनी थी, इसलिए बहुत देर बैठना नहीं हो पाया। हां, जाते-जाते वो यह जरूर बता गए कि जल्द उनकी नई पुस्तक आले वाली है, उसी के साथ फिर हम साथ होंगे। मैंने भी नई पुस्तक के लिए शुभकामनाओं के साथ उनसे विदा ली।
09-10-2020
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Meeting a literary friend
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Dinesh Kukreti
Today is October 9.  A special literary friend is coming to Dehradun.  Currently he is posted in Kumaon Mandal as sugarcane commissioner, but I know him more as a litterateur.  Although not a direct introduction to him, I have read two of his books, "From the Memoirs of Khadakmafi" and "Atashree Prayag Katha".  On this basis, the image that emerges in my mind and mind will probably be the same.  The name is Lalit Mohan Rayal.  Journalist friend Satendra is very close to Dandriyal.  Through Dandriyal ji, he was requested to send articles for the Kovid-19 issue of Uttaranchal Press Club's quarterly magazine "Guldasta" and he sent it on the second day itself.  So, today is also a good opportunity to meet him on the pretext of visiting the magazine.  Last evening when Dandriyal ji told me that Rayal ji was coming, I asked him to bring him to the press club around noon today.

Well!  I also reached the Press Club around eleven o'clock.  Dandriyal ji also got a call that he too would reach by half past eleven and reached as promised.  He told me that Rayal ji has also reached and is sitting in the bright restaurant near the entrance of the Press Club.  Then I understood that the car parked on the campus of the club belongs to Rayal ji.  But, even after seeing him, I could not guess his arrival.

The information about Rayalji sitting brightly increased my eagerness to meet him and I went straight along with Dandriyal ji.  As soon as he went inside, he saw that the writer friend Mukesh Nautiyal is sitting with Rayal ji.  Happiness had to be doubled.  After the meeting, both the friends talked for a while here and there and then everyone walked towards the club.  I prefer to sit in the library rather than the club office, so it is better to take the literary friends to the library.  According to the habit, I said something between the tea sips and I listened to them.  There was a lot of talk about literature and reading and writing habits, and then I presented the Kovid-19 special and the earlier number of "Guldasta" to both friends.  Rayalji also had to meet some other literary people, so it was not possible to sit for too long.  Yes, on the go he definitely told that his new book is soon going to be with us, we will be together again.  I also bid him good luck for the new book.

 09-10-2020

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Saturday, 23 January 2021

07-10-2020 ( "Guldasta" in your hand/"गुलदस्ता" आपके हाथ में)

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"गुलदस्ता" आपके हाथ में

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दिनेश कुकरेती

ज गुरुवार है। उत्साह का दिन। कोविड-19 पर केंद्रित प्रेस क्लब की त्रैमासिक पत्रिका "गुलदस्ता" का मुख्यमंत्री आवास पर उन्हीं के हाथों विमोचन होना है। साढे़ ग्यारह बजे का वक्त तय है। मुझे पहले प्रेस क्लब पहुंचना है। वहां से अन्य साथियों के साथ सीएम आवास जाने का कार्यक्रम है। हालांकि, बुधवार शाम सीएम आवास से विमोचन का कार्यक्रम सुबह दस बजे रखे जाने की बात कही गई, लेकिन बाद में सूचना दी गई कि कार्यक्रम एक घंटे बाद होगा। मैं भी ऐसा ही चाह रहा था। खैर! मैं ठीक दस बजे प्रेस क्लब पहुंच गया और तकरीबन ग्यारह बजे हम सभी लोग सीएम आवास के बाहर खडे़ थे।

अंदर जाने के लिए चेकिंग वगैरह कुछ औपचारिकताएं पूरी की जानी थी, सो 15-20 मिनट इसी में लग गए। मन में कोफ़्त हो रही थी, लेकिन अपने हाथ में कुछ नहीं था, सो चुप रहना ही बेहतर समझा। हालांकि, सच यह है कि इस सारे दिखावे की जरूत ही नहीं थी, क्योंकि सीएम आवास में मौजूद अधिकांश कार्मिक हम सभी दस लोगों से अच्छी-तरह परिचित हैं। अक्सर एक-दूसरे से मुलाकात भी होती रहती है। पर...किया क्या जा सकता था। इसी बीच अंदर से फरमाया आया कि हम सभी सभागार में पहुंच जाएं। पांच-दस मिनट बाद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत भी हमारे बीच थे। पत्रिका और उसमें छपी सामाग्री के बारे में कुछ औपचारिक बातें हुईं और फिर विमोचन।

पत्रिका की विषय-वस्तु से मुख्यमंत्री खासे प्रभावित दिखे और भरोसा दिलाया आगे भी हम ऐसा ही गंभीर एवं सार्थक प्रयास करते हैं तो उनकी ओर से पूरा सहयोग किया जाएगा। हमारे लिए यह निश्चित रूप से उत्साहवर्द्धन वाली बात थी। हालांकि, "गुलदस्ता" के इस अंक को तैयार करने में मुझे जमकर पसीना बहाना पडा़। कई दिन तो ऐसे भी गुजरे, जब सुबह दस बजे रूम से निकल पड़ता था और रात बारह बजे के आसपास ही लौटना होता था। पर, संतुष्टि इस बात की है कि पत्रिका संग्रहणीय बन पडी़ है। इसमें छपी सामाग्री निश्चत रूप से भविष्य की पीढी़ का मार्गदर्शन करेगी।

बहरहाल! विमोचन के बाद हम प्रेस क्लब लौट आए। दोपहर के एक बज चुके थे। क्लब की कैंटीन में दोपहर का भोजन भी तैयार हो चुका था। सो, भलाई इसी में थी कि मैं भोजन करके ही आफिस का रुख करूं। अन्यथा आठ-दस घंटे भूखे ही गुजारने पड़ते। कारण, नौकरी से तो कोई समझौता किया नहीं जा सकता और रूम में जाकर खाना बनाने का अब वक्त नहीं है। वैसे, अब मैं ऐसी परिस्थितियों से विचलित नहीं होता, बल्कि इनका भरपूर आनंद लेता हूं। इनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलता है।

07-10-2020

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"Guldasta" in your hand

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Dinesh Kukreti

Today is Thursday.  A Day of Excitement.  The press club's quarterly magazine "Guldasta", centered on Kovid-19, is to be released at the Chief Minister's residence.  The time is fixed at half past eleven.  I want to reach the press club first.  There is a program to go to CM residence with other colleagues from there.  However, it was said that the program of release from CM house was scheduled to be held at 10 am on Wednesday evening, but later it was reported that the program would be one hour later.  I also wanted the same.  Well!  I reached the Press Club at exactly ten o'clock and around eleven o'clock we all stood outside the CM residence.

Some formalities had to be completed to check in, etc., so it took 15-20 minutes.  It was getting cold in my mind, but there was nothing in my hand, so it was better to keep quiet.  However, the truth is that all this appearance was not necessary, because most of the personnel present in CM house are well aware of all ten of us.  Often they also meet each other.  But ... what could be done.  Meanwhile, we came from inside to say that all of us should reach the auditorium.  Five-ten minutes later Chief Minister Trivendra Singh Rawat was also among us.  There was some formal talk about the magazine and the contents in it and then released.

The Chief Minister appeared impressed with the content of the magazine and assured that even if we make such a serious and meaningful effort, full cooperation will be done on his behalf.  It was definitely an encouraging thing for us.  However, in preparing this issue of "Guldasta", I had to sweat a lot.  Many days passed like this, when one had to leave the room at ten o'clock in the morning and had to return only around twelve o'clock at night.  But the satisfaction is that the magazine has become a collectible.  The material printed in it will definitely guide the future generations.

However!  After the release we returned to the Press Club.  It was one o'clock in the afternoon.  Lunch in the canteen of the club was also ready.  So, it was good that I should go to the office after having food.  Otherwise eight - ten hours would have to be spent hungry.  Because, no compromise can be made with the job and now is not the time to go and cook in the room.  By the way, now I do not get distracted by such situations, but rather enjoy them to the fullest.  I get to learn a lot from them.

07-10-2020