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Tuesday, 27 December 2022

27-12-2022 (सिनेमा, मैं और मेरे दोस्त)

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सिनेमा, मैं और मेरे दोस्त

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दिनेश कुकरेती

गुजरा दौर भले ही लौटकर न आए, लेकिन उस दौर की स्मृतियां आज भी तन-मन को प्रफुल्लित कर देती हैं। तब सिनेमा व सर्कस ही मनोरंजन का प्रमुख साधन हुआ करते थे। टेलीविजन तक चंद लोगों की ही पहुंच थी। हां! यदा-कदा पैसे इकट्ठा कर वीसीआर या वीसीपी पर एक के बाद एक दो-तीन फिल्म जरूर देख ली जाती थी। लेकिन, सिनेमा हाल जैसा मजा वीसीआर-वीसीपी में कहां हो सकता था। सो, हमारी यथासंभव कोशिश सिनेमा हाल में ही फिल्म देखने की होती थी। मैंने तब 11वीं कक्षा में दाखिला लिया था। कालेज में हमारी एक अलग तरह की मित्रमंडली हुआ करती थी। उस मंडली में हम छह-सात दोस्त थे। सभी सामान्य परिवारों से। इसलिए जेब पर कड़की ही रहती थी। साग-सब्जी में से जो चवन्नी-अठन्नी बच जाती, वही हमारी पाकेट मनी हुआ करती थी। बहुत कम खर्चे पर परिवार चलता था, इसलिए घर से एक रुपया मांगने का भी साहस नहीं होता था। फिर भी हम खुश एवं प्रसन्नचित्त रहते थे।

फिल्में देखने का शौक हम सभी को था, लेकिन जेब खाली रहने के कारण यह शौक पूरा नहीं हो पाता था। हालांकि, सिनेमा का न्यूनतम टिकट तब पौने दो या दो रुपये का होता था। मध्यांतर में दो रुपये मूंगफली पर खर्च हो जाते। यानी चार रुपये में फिल्म का पूरा मजा मिल जाता था। लेकिन, बहुत कम मौकों पर ही हमारी जेब में यह रकम होती थी। ऐसे में संभव नहीं था का सब एक साथ सिनेमा देख सकें। सो, इसका हमने नायाब तोड़ निकाल लिया था। हमारा एक साथी फिल्मों का इनसाक्लोपीडिया हुआ करता था। जितनी भी फिल्में उसने देखी होंगी, सबकी स्टोरी उसे दृश्यवार याद थी। गानों से लेकर छोटे-छोटे दृश्य तक उसे डायलाग सहित याद रहते थे। इसलिए हमने तय किया कि सबके बदले उसी को क्यों न फिल्म देखने भेजा जाए। बस! शर्त यह थी कि अगले दिन वह हमें फिल्म की पूरी स्टोरी सुनाएगा। यदा-कदा पैसा होने पर दो साथी भी फिल्म देखने चले जाया करते थे।


हां! याद आया, हमारे उस दोस्त का नाम महावीर था। हम सभी दोस्त आपस में चार रुपये जुटाकर उसे देते और वह  चौथे पीरियड (कभी-कभी तीसरे) में सिनेमा हाल के लिए रवाना हो जाता। अमूमन वह दूसरा शो देखता था, क्योंकि टिकट के लिए खिड़की पर भी काफी संघर्ष करना पड़ता था। सिनेमा हाल में दर्शकों का रेला उमड़ता था, इसलिए खिड़की से सफलतापूर्वक टिकट खरीद लेना, ओलंपिक में पदक जीतने जैसा चुनौतीपूर्ण कार्य होता था। महावीर को इसमें महारथ हासिल थी। वह जैसे-तैसे टिकट का जुगाड़ कर ही लेता था, वह भी वास्तविक कीमत पर। उस दौर में में टिकटों की बडे़ पैमाने पर ब्लैकमेलिंग होती थी, इसलिए सीधे-सादे लोग तो फिल्म देखे बगैर ही वापस लौट आते थे।


नियमित दर्शक होने के कारण महावीर की सिनेमा हाल कर्मियों और टिकट दलालों से अच्छी पहचान हो गई थी। इसलिए उसे टिकट वास्तविक मूल्य पर ही मिल जाता था। महावीर अमूमन पहली या दूसरी पांत में बैठकर फिल्म देखता था। क्योंकि दो रुपये में आगे का टिकट ही मिलता था। हालांकि, छठे-चौमासे में उसे बालकनी के टिकट पर फिल्म देखने का सौभाग्य भी मिल जाता था। जब ऐसा मौका आता, उसका चेहरा खिल उठता था। हमें भी इससे बडी़ खुशी मिलती। खैर! महावीर के सिनेमा हाल पहुंचने के बाद हम बेसब्री से उसके लौटने का इंतजार करने लगते। अगर अगले दिन इतवार पड़ रहा होता तो यह इंतजार और बढ़ जाता। इतना ही नहीं, हम बारी-बारी से उस दिन का क्लासवर्क करने में भी महावीर की मदद करते, जिस दिन उसे फिल्म देखने के चलते गैरहाजिर रहना पड़ता।

अगले दिन जब महावीर कालेज आता तो हम खाली पीरियड और इंटरवल में उसे घेरकर बैठे जाते। बिल्कुल कथा सुनने वाले अंदाज में धीर-गंभीर होकर। जैसे ही महावीर स्टोरी सुनाना शुरू करता, हमारी धड़कनें तेज हो जाती। वह अपने हाव-भाव और सुनाने के अंदाज से ऐसे-ऐसे सीन क्रियेट करता कि हम भौचक रह जाते। ऐसा प्रतीत होता, जैसे सब-कुछ हमारे सामने ही घट रहा है। हर पात्र हमारी आंखों में तैरने लगता। गानों के दृश्य भी वह इस तरह साकार करता कि हम क्लास रूम की कुर्सियों पर बैठे-बैठे अंतर्मन से सिनेमा हाल में पहुंच जाते। जैसे-जैसे स्टोरी आगे बढ़ती, हमारा कौतुहल भी बढ़ता जाता। यह देख क्लाम रूम में बैठे अन्य साथी भी हमारे इर्द-गिर्द जमा हो जाते। सबकी निगाहें महावीर के चेहरे पर होती। समय की पाबंदी के चलते कभी-कभी उसे स्टोरी थोडा़ शार्ट भी करनी पड़ती। फिर भी अगले पीरियड की घंटी बजने के कारण अगर स्टोरी शेष रह जाती तो महावीर उसे छुट्टी होने पर कम्पलीट करता। इससे हमें घर लौटने में विलंब भी हो जाता, पर तब कौन इसकी परवाह करता था। हम घर पहुंचकर कोई न कोई बहाना बना लेते।



खैर! पूरे दो साल हमने महावीर से फिल्मों का लाइव प्रसारण सुना। 12वीं में आने के बाद तो एकाध बार मैं भी कालेज से बंक मारकर फिल्म देखने गया। लेकिन, मुझमें महावीर की तरह फिल्म का लाइव प्रसारण सुनाने की क्वालिटी कभी विकसित नहीं हो पाई। हां! लगातार फिल्म देखने का एक नुकसान जरूर हुआ कि महावीर पढा़ई के प्रति लापरवाह होता चला गया और 12वीं में फेल हो गया। इसका अफसोस मुझे आज भी है कि हमारा एक साथी अपनी व हमारी नादानियों के कारण पढा़ई में पीछे छूट गया। मुझे इतना याद है कि दोबारा इंटर में प्रवेश लेने के बाद महावीर मुझसे मिला था। उससे मुझसे मेरी एकाउंटेंसी की नोट बुक और टेक्स्ट बुक मांगी थी। ताकि पढा़ई में आसानी रहे। इसके बाद दोबार कभी उससे मेरी मुलाकात नहीं हुई। सोशल प्लेटफार्म पर भी नहीं।

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Movies me and my friends

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Dinesh Kukreti

The past era may not come back, but the memories of that era still make the body and mind happy.  Then cinema and circus used to be the main means of entertainment.  Only a few people had access to television.  Yes!  Sometimes two-three movies were watched one after the other on VCR or VCP after collecting money.  But, where could be the fun like cinema hall in VCR-VCP.  So, as far as possible we tried to watch the film in the cinema hall itself.  I had enrolled in 11th standard then.  We used to have a different kind of friendship circle in college.  We were six-seven friends in that circle.  All from normal families.  That's why the pocket remained tight.  Whatever was left out of the vegetables used to be our pocket money.  The family used to run on very little expenditure, so did not have the courage to ask even a single rupee from the house.  Still we were happy and cheerful.

We all were fond of watching movies, but due to empty pockets, this hobby could not be fulfilled.  However, the minimum ticket to the cinema was then two and a quarter to two rupees.  In the interval, two rupees would have been spent on peanuts.  That is, for four rupees one could get full enjoyment of the film.  But, on very rare occasions, we used to have this amount in our pocket.  In such a situation, it was not possible that everyone could watch the movie together.  So, we had pulled out the best of it.  One of our friends used to be an encyclopedia of films.  All the films he had seen, he remembered the story scene by scene.  From songs to small scenes, he used to remember them along with the dialogues.  So we decided that why not send him to watch the film instead of everyone else.  Bus!  The condition was that the next day he would tell us the full story of the film.  Sometimes, when there was money, two companions also used to go to watch movies.

Yes!  I remembered, the name of that friend of ours was Mahavir.  All of us friends would pool together four rupees and give it to him and he would leave for the cinema hall in the fourth period (sometimes third).  Usually he would watch the second show, as there was a lot of fighting at the window for tickets.  Cinema halls were packed with visitors, so successfully buying tickets from the window was a challenging task, like winning a medal in the Olympics.  Mahavir had mastered it.  He somehow managed to get tickets, that too at the actual price.  In those days blackmailing of tickets was rampant, so simple people used to return without watching the film.

Being a regular viewer, Mahavir had become well known to cinema hall workers and ticket brokers.  That's why he used to get the ticket at the actual price only.  Mahavir usually watched movies sitting in the first or second row.  Because only forward ticket was available for two rupees.  However, in the sixth-fourth he used to get the privilege of watching a movie on a balcony ticket.  When such an opportunity came, his face would light up.  We would also get a lot of happiness from this.  So!  After Mahavir reached the cinema hall, we eagerly waited for his return.  Had it been a Sunday the next day, the wait would have been longer.  Not only this, we would also take it in turns to help Mahaveer in doing his classwork on the day he would be absent due to watching the film.

The next day when Mahavir came to college, we used to sit around him during the free period and interval.  Being patient and serious, in the style of listening to the story.  As soon as Mahavir started narrating the story, our heart beat faster.  He used to create such scenes with his gestures and style of narrating that we used to be stunned.  It appears as if everything is happening right in front of us.  Every character floats in our eyes.  He would make the scenes of the songs come true in such a way that we would have reached the cinema hall sitting on the chairs of the class room.  As the story progressed, our curiosity also increased.  Seeing this, other fellows sitting in the clam room would also gather around us.  Everyone's eyes would have been on Mahavir's face.  Sometimes he had to shorten the story a bit due to time constraints.  Even then, if the story was left due to the ringing of the next period bell, Mahavir would have completed it when he was discharged.  It would have also delayed our return home, but who cared then.  We would have made some excuse after reaching home.

So!  For two whole years we heard live telecast of films from Mahavir.  After coming in 12th, even once I bunked from college and went to watch films.  But, I could never develop the quality of narrating live telecast of the film like Mahavir.  Yes!  There was definitely a disadvantage of watching films continuously that Mahavir became careless towards studies and failed in 12th.  I regret it even today that one of our friends was left behind in studies because of his own and our ignorance.  I remember this much that Mahavir met me after taking admission in Inter again.  He asked me for my accountancy note book and text book.  So that it is easy to study.  After that I never met him again.  Not even on social platforms.



Wednesday, 7 December 2022

07-12-2022 (सपने जो बिखर गए)

फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।




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जब कभी भी मैं उत्तराखंड के हालात पर नजर डालता हूं तो निराशा और हताशा के सिवा मुझे कुछ और नजर नहीं आता। मैं स्वयं शुरू से आखिर तक उत्तराखंड आंदोलन का हिस्सा रहा हूं। तब मेरी आंखों में भी अनगिनत सपने थे। सोचता था कि अपना राज होगा तो इन सपनों को भी पंख लगेंगे। लेकिन, ऐसा कुछ हुआ नहीं। बीते बाईस सालों में उत्तराखंड उस पायदान से भी नीचे चला गया, जिससे ऊपर उठने के लिए हमने तब अपना सब-कुछ दांव पर लगा दिया था। दिन का चैन और रातों की नींद तक भी। आज जब मैं संघर्ष के उस दौर को सिलसिलेवार शब्दों में पिरोने की कोशिश कर रहा हूं तो मुझे यह कहने में भी कोई गुरेज नहीं कि जीवन की यह सबसे बडी़ भूल थी। मुझे लगता है कि उत्तराखंड को लेकर यहां की अधिसंख्य आबादी भी ऐसा ही सोचती होगी। जब कभी मैं अकेला होता हूं तो रह-रहकर मेरे मनो-मस्तिष्क में अब्दुल हमीद अदम का यह शे'र 'सिर्फ़ इक क़दम उठा था गलत राह-ए-शौक़ में, मंजि़ल तमाम उम्र मुझे ढूंढती रही' कौंधते लगता है। सच कहूं तो हालात बिल्कुल ऐसे ही हैं। हम 22 साल बाद भी खुद को तलाश रहे हैं और दिनोंदिन जिस दिशा में उत्तराखंड बढ़ रहा है, उससे स्पष्ट दिखाई देने लगा है कि आगे सिवाय अंधे कुएं के, और कुछ नहीं है। बावजूद इसके अतीत को बदला तो नहीं जा सकता। हां! सामूहिक रूप से ईमानदार प्रयास हों तो वर्तमान की बदरंग तस्वीर के बदलने की उम्मीद जरूर की जा सकती है। काश! ऐसा हो पाता!
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सपने जो बिखर गए
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दिनेश कुकरेती
सात अगस्त 1990 को संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ सिंह के संसद ऐलान के साथ मंडल कमीशन का पिटारा खुल चुका था और इसी के साथ भड़क उठी आरक्षण के विरोध में आंदोलन की आग। लेकिन, मंडल कमीशन लागू करने से पहले ही सात नवंबर 1990 को वीपी सिंह कि सरकार गिर गई। वर्ष 1991 में कांग्रेस की सरकार बनी तो उसे मंडल कमीशन की सिफारिशों के आधार पर आरक्षण लागू करना पडा़। इस बीच मंडल कमीशन लागू करने के विरोध में अखिल भारतीय आरक्षण विरोधी मोर्चे के अध्यक्ष उज्जवल सिंह सुप्रीम कोर्ट चले गए। जहां इस पर नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनवाई की। आखिरकार 16 नवंबर 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने मंडल आयोग की सिफारिश को जायज ठहराते हुए इस पर अपनी सहमति की मुहर लगा थी। लेकिन, आरक्षण के विरोध में भड़की आग भला कहां ठंडी पड़ने वाली थी। सो, वह धीरे-धीरे हिमालय की वादियों में उत्तराखंड भी पहुंच गई।
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।

जून 1994 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने भी प्रदेश के शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण लागू करने की घोषणा कर दी। इसने आग में घी का काम किया। आरक्षण विरोधी आग में उत्तराखंड भी सुलगने लगा और छात्र सड़कों पर उतर आए। मेरा कालेज वर्ष 1993 में पूरा हो चुका था, लेकिन छात्र आंदोलनों में सक्रियता इसके बाद भी बराबर बनी रही। हालांकि, तब मेरी पत्रकार के रूप में भी ठीक-ठाक पहचान बन चुकी थी। उस दौर में मैं तब के प्रतिष्ठित साप्ताहिक 'सत्यपथ' और साप्ताहिक 'ठहरो' से जुडा़ हुआ था। साथ ही 'अमर उजाला', 'दैनिक जागरण', 'पंजाब केसरी', 'दैनिक हिंदुस्तान' व 'राष्ट्रीय सहारा' समेत विभिन्न पत्रिकाओं में भी नियमित रूप से स्वतंत्र लेखन कर रहा था। आंदोलन के दौर में तो अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं के लिए अमूमन दो से तीन लेख रोजाना लिखना मेरे लिए सामान्य बात हुआ करता था। इसके लिए कभी-कभी तो पूरी रात जागते हुए कट जाती थी। इसी पढ़ने-लिखने की आदत के चलते मंडल कमीशन की रिपोर्ट का भी मैंने अध्ययन कर लिया था। इसी के बाद मेरी समझ विकसित हुई कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट किसी भी दृष्टि से गलत नहीं है। लेकिन, यह भी सच है कि भी भीड़ न तो किसी तर्क-वितर्क को समझती है और न किसी भी घटनाक्रम के पीछे के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को।

बहरहाल! 13 जुलाई 1994 को कोटद्वार में छात्र नेताओं ने 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण के विरोध में आवाज बुलंद कर दी। इस बैठक में मैं भी शामिल हुआ। फिर 31 जुलाई 1994 को नगर पालिका सभागार में आंदोलन को लेकर आम लोगों की बैठक हुई। इसमें नागरिक मंच के गठन का निर्णय हुआ। तय किया गया कि आरक्षण के विरोध की लडा़ई नागरिक मंच के बैनर तले ही लडी़ जाएगी। इसी क्रम में एक अगस्त से कोटद्वार तहसील में क्रमिक आनशन शुरू कर दिया गया। उधर, आरक्षण के विरोध से शुरू हुई यह लडा़ई संगठित रूप से उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन में तब्दील होने लगी थी। इसी कडी़ में 10 अगस्त 1994 को श्रीनगर में उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति का गठन हुआ, जिसका ध्येय इस लडा़ई को और मजबूती देना था। इसकी परिणति यह हुई कि उत्तराखंड के लोग आरक्षण के विरोध को लगभग भूल गए और पृथक उत्तराखंड राज्य की स्थापना सबका एकमात्र ध्येय बन गया था। शहर से लेकर कस्बों और गांव-घरों तक एक ही स्वर गूंजने लगा, 'आज दो अभी दो, उत्तराखंड राज दो'। धीरे-धीरे शिक्षक व कर्मचारी भी स्कूल व दफ्तरों पर ताला डालकर सड़कों पर उतर आए।
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।

मातृशक्ति भी भला कहां खामोश रहने वाली थी। घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी से विराम लेकर आखिरकार उसने भी झंडा बुलंद कर दिया। यहीं से एक ऐतिहासिक नारे का जन्म हुआ, 'कोदा-झांगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे', जो धीरे-धीरे आंदोलन की आवाज बन गया। यह परवाह किए बिना कि दुधमुंहे बच्चों का क्या होगा, मवेशियों के लिए चारा कहां से आएगा, नारी शक्ति हाथ में दरांती लिए आंदोलन की मुख्य धुरी बन गई। जाहिर है ऐसी स्थिति में कौन भला घरों में कैद रह सकता था। सो, मैं भी सुबह नाश्ता करने के बाद सीधे तहसील परिसर पहुंच जाता। दिन के भोजन का तो पता ही नहीं होता था। मिल गया तो ठीक और नहीं भी मिला तो परवाह नहीं। रोज नागरिक मंच के बैनर तले गगनभेदी नारों के साथ हम जुलूस निकालते और फिर तहसील परिसर में भाषण वा जनगीतों का दौर शुरू हो जाता।
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।

उस दौर में 'लड़ना है भाई ये तो लंबी लडा़ई है, जीतने के वास्ते मशाल तो जलाई है' (निरंजन सुयाल), 'लड़ के लेंगे भिड़ के लेंगे, छीन के लेंगे उत्तराखंड', 'पर्वतों के गांव से आवाज उठ रही संभल', औरतों की मुट्ठियां मशाल बन गईं संभल और 'अब तो सड़कों पर आओ, औ शब्दों के सौदागर, अब तो होश में आ जाओ औ शब्दों के बाजीगर' (डा.अतुल शर्मा), 'ले मशालें चल पडे़ हैं, लोग मेरे गांव के, अब अंधेरा जीत लेंगे, लोग मेरे गांव के' (बल्ली सिंह चीमा), 'ततुक नी लगा उदेख, घुनन मुनई नि टेक, जैंता एक दिन त आलो, ऊ दिन यो दुनी में' और 'आज हिमाल तुमन के धत्यूं छौ, जागो-जागो हो म्यरा लाल' (गिरीश तिवारी गिर्दा), 'भैजी कख जाणा तुम लोग, उत्तराखंड आंदोलन मा' और 'उठा जागा हे उत्तराखंडियों, सौं उठाणो बगत ऐगे, उत्तराखंड को मान-सम्मान बचाणो बगत ऐगे' (नरेंद्र सिंह नेगी), 'ये सन्नाटा तोड़ के आ, सारे बंधन छोड़ के आ, सारी दुनिया तेरी है, तू तेरा-मेरा छोड़ के आ' (जहूर आलम) जैसे जनगीत तो हर आंदोलनकारी को कंठस्थ रहते थे। संकोची स्वभाव के बावजूद स्वयं मैंने न जाने कितनी नुक्कड़ सभाओं व नुक्कड़ नाटकों ये जनगीत गाए होंगे, आज मुझे ठीक से याद भी नहीं।
...और, हां! साहित्यकार एवं कवि मित्र कुटज भारती के जागरों ने तो आंदोलन की धारा ही मोड़ डाली थी। तहसील परिसर में हुड़के की थाप पर जब वो जागर गायन शुरू करते थे तो तन में करंट-सा दौड़ने लगता था। ऐसा लगने लगता था, जैसे वीर भडो़ं की आत्मा हमारे शरीर में प्रविष्ट हो गई है और ललकार रही है कि 'अभी नहीं तो कभी नहीं'। इसी बीच एक सितंबर 1994 को खटीमा में तहसील की ओर बढ़ रहे शांतिपूर्ण जुलूस पर पुलिस ने बिना चेतावनी के अचानक फायरिंग शुरू कर दी। इसमें सात आंदोलनकारी शहीद हुए और कई बुरी तर ज़ख्मी। इस दौरान पुलिस कर्मियों ने तहसील में वकीलों के टेबल फूंकने के साथ जमकर तोड़-फोड़ भी की और इस सबका इल्जा़म आंदोलनकारियों पर धर दिया। इस घटना से पूरे उत्तराखंड में आक्रोश की ज्वाला भड़क उठी। इधर, गढ़वाल कमिश्नरी पौडी़ में दो सितंबर को विशाल रैली प्रस्तावित थी। हम भी जोर-शोर से इसकी तैयारियों में जुटे थे। जिधर नजर दौडा़ओ सिवाय आंदोलनकरियों के हुजूम के सिवा कुछ और नजर नहीं आ रहा था। खाने-सोने की परवाह किए बिना आंदोलनकारी मध्य रात्रि के बाद से ही बस व ट्रैकरों में पौडी़ का रुख कर चुके थे।
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।

दो सितंबर की सुबह नौ बजे तक पौडी़ में पैर रखने को भी जगह नहीं बची थी। बावजूद इसके आंदोलनकारियों का लश्कर छोटे-बडे़ वाहनों में चला ही आ रहा था। इसके अलावा आसपास के गांवों से लोग जुलूस की शक्ल में पैदल ही पौडी़ पंहुच रहे थे। इसी बीच सूचना मिली कि मसूरी में भी पीएसी व पुलिस की गोलियों से छह आंदोलनकारी शहीद हो गए। जबकि, सौ से अधिक बुरी तरह ज़ख्मी हुए हैं। इससे पूरे पौडी़ शहर में तनाव व्याप्त हो गया। आंदोलनकारी इस कदर गुस्से में थे कि कभी भी कोई अनहोनी घट सकती थी। मुझे डर तो लग रहा था, लेकिन फिर सोचा कि जब कदम आगे बढ़ चुके हैं तो फिर डरने का कोई लाभ नहीं। अब जो भी होगा, देखा जाएगा। खटीमा व मसूरी की घटनाओं से पूरे उत्तराखंड में विद्रोह की ज्वाला धधक उठी थी। उधर, पुलिस की ओर से आंदोलन को तोड़ने के लिए तरह-तरह की साजिशें रची जा रही थीं। पीएसी-पुलिस वाले मौके की ताक में रहते थे कि कब कोई आंदोलनकारी जरा-सी चूक करे और उन्हें उसके हाथ-पैर तोड़ने का मौका मिले। इधर, हम भी पुलिस वालों से भिड़ने का कोई मौका नहीं चूकते थे।

दिन में आंदोलन की रिपोर्टिंग और जुलूस-प्रर्दशन में भागीदारी और रात को पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेख लिखना मेरी जीवनचर्या का हिस्सा बन चुका था। तब अखबारों में आज जैसी बंदिश नहीं हुआ करती थी और संयोग से सभी प्रमुख अखबार आंदोलन का समर्थन कर रहे थे। मुझे याद है, तब 'दैनिक जागरण' में मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसकी थीम थी, 'हम जमीं पर आशियाना तो बनाएंगे जरूर, आसमां बिजली गिराएगा तो देखा जाएगा'। गुरुजी पीतांबर दत्त डेवरानी, बडे़ भाई कमल जोशी आदि ने इस लेख के लिए मेरी पीठ थपथपाई थी। जैसे-जैसे दिन आगे खिसक रहे थे, आंदोलन भी मजबूती पकड़ता जा रहा था। अब यह स्वतःस्फूर्त आंदोलन हो चुका था। किसी को जुलूस-प्रदर्शन, धरना व अनशन के लिए बुलाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। वहीं, पुलिस की बर्बरता बढ़ती ही जा रही थी।
शहीद आंदोलनकारियों को श्रद्धांजलि देने के लिए मसूरी पहुंची हजारों की भीड़ पर रैपिड एक्शन फोर्स ने 15 सितंबर 1994 को भी जमकर लाठियां बरसाईं। इसमें कई लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। इस घटना के अगले ही दिन 16 सितंबर को कोटद्वार में फिर एक वृहद बैठक हुई, जिसमें आंदोलन की आगे की रूपरेखा तय करने के साथ ही संकल्प लिया गया कि जब तक उत्तराखंड अलग राज्य घोषित नहीं हो जाता, जनता चैन की सांस नहीं लेने वाली। फिर इसके लिए किसी भी हद तक क्यों न गुजरना पडे़। इसके बाद विशाल रैली निकाली गई। अब तो यहां तक चर्चाएं होने लगीं कि पूर्व सैनिक कहीं हथियार उठाने को मजबूर न हो जाएं। असल में सरकारी मशीनरी ने हालात ही ऐसे पैदा कर दिए थे कि हर उत्तराखंडी का धैर्य टूटने लगा था। अब तो वर्दी में नजर आने वाला हर व्यक्ति उत्तराखंड का दुश्मन प्रतीत होता था। मुझे तो रात को ठीक से नींद तक नहीं आती थी। वहीं, पुलिस की गिद्ध दृष्टि से खुद को बचाकर रखना भी बडी़ चुनौती था। आए दिन पुलिस के साथ आंखमिचौली हमारे लिए सामान्य बात हो गई थी। इस आंखमिचौली के चलते कई बार मैंने पुलिस लाठियां भी खाईं, पर ध्येय से डिगने का तो अब सवाल ही नहीं उठता था।
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।

इन तमाम दमनकारी घटनाओं के बाद संयुक्त मोर्चा के आह्वान पर पूरे उत्तराखंड से आंदोलनकारी दिल्ली कूच की तैयारियों में जुट गए। दिल्ली के लाल किले में दो अक्टूबर को गांधी जयंती पर विशाल रैली प्रस्तावित थी। इसके लिए एक अक्टूबर की शाम ही गढ़वाल-कुमाऊं से दो सौ से अधिक वाहनों में आंदोलनकारी 'अब न रुकेंगे अब न सहेंगे, उत्तराखंड ले के रहेंगे', 'कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे' की गगनभेदी गूंज के साथ एक अक्टूबर की शाम ही दिल्ली के रवाना हो गए। लेकिन, उत्तर प्रदेश की आततायी पुलिस-पीएसी व आरएएफ ने उन्हें रुड़की के नारसन बार्डर पर रोक दिया। हालांकि, यहां से जत्था जैसे-तैसे आगे बढ़ गया, जिसे मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर रोकने की तैयारी पहले ही कर ली गई थी। इसके लिए उतने पुलिस-पीएसी वाले वर्दी में मौजूद नहीं थे, जितने की सादी वर्दी में। इसका नतीजा यह हुआ कि आगे बढ़ने को लेकर आंदोलनकारियों व पुलिस के बीच कहासुनी होने लगी। इसी बीच अचानक नारेबाजी व पथराव शुरू हो गया। इस पथराव में तत्कालीन डीएम अनंत कुमार सिंह घायल हो गए। फिर क्या था, पुलिस बिना चेतावनी के ही आंदोलनकारियों पर टूट पडी़। जमकर लाठियां बरसाने के साथ आंदोलनकारियों को बंदूक की बट से बेरहमीपूर्वक पीटा गया। इंतेहा तो तब हो गई, जब पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। इस गोलीबारी में सात आंदोलनकारी शहीद हुए, जबकि बीसियों बुरी तरह जख्मी। क्या बच्चे, क्या जवान, क्या बुजुर्ग और क्या महिलाएं, आततायियों ने किसी को नहीं बख्शा। महिलाओं के साथ तो जो अभद्रता की गई, उसे याद कर ही रूह कांप जाती है। यह ऐसा मंजर था, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।

पुलिस का यह तांडव दो अक्टूबर की सुबह तक चलता रहा। पीछे से वाहनों का जो लश्कर चला आ रहा था, उसे पुलिस ने जगह-जगह रोक दिया था। उधर, हजारों आंदोलनकारी अन्य रास्तों से दिल्ली पहुंच चुके थे। जिस वाहन में मैं सवार था, उसे बिजनौर से ही वापस लौटा दिया गया। हमें यह तो इल्म था कि आगे कुछ अनहोनी घट गई है, लेकिन क्या घटी, इस बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं मिल पा रही थी। जैसे ही हम कोटद्वार पहुंचे, नजारा पूरी तरह बदला हुआ था। हर जगह मातम-सा पसरा नजर आ रहा था, तब जाकर रामपुर तिराहा की असल तस्वीर हमारे सामने आई। मैं बस से उतरकर सीधे घर की ओर चल पड़ा , क्योंकि घर वाले मेरी कुशलता को लेकर चिंतित थे। ऐसे हालात में उनका चिंता करना स्वाभाविक भी था। नाश्ता करने के बाद मैं फिर रिपोर्टिंग के लिए बाजार की ओर निकल पडा़। बाजार में स्थिति बेहद तनावपूर्ण थी। हर गली-नुक्कड़ पर रामपुर तिराहा गोलीकांड की ही चर्चा हो रही थी। पंचायती धर्मशाला में आंदोलनकारियों का हुजूम उमडा़ हुआ था और जुलूस निकालने की तैयारी चल रही थी। यह जुलूस पूर्व में निकाले गए जुलूसों से भिन्न था। हर ओर संगीनें तनी थीं और पुलिस वाले मौके के इंतजार में थे कि कब हमारी ओर से चूक हो और उन्हें लाठियां भांजने का मौका मिले।
खैर! हमारे धैर्य के चलते उस दिन पुलिस की मंशा फलीभूत नहीं हो पाई। तीन अक्टूबर को मैं सुबह नौ बजे ही बाजार पहुंच गया था। दस बजे के आसपास दिल्ली रैली में गए आंदोलनकारियों की एक बस कोटद्वार पहुंची, जिसे रामपुर तिराहा से पहले पुलिस ने रोक दिया था। बस पहाड़ की ओर जा रही थी और मुझे दुगड्डा तक जाना था। सो, मैं भी इस बस में सवार हो गया। बस में सवार आंदोलनकारी आक्रोश से भरे हुए थे। उनके हावभाव देख साफ प्रतीत हो रहा था आगे कुछ घटने वाला है। ऐसा ही हुआ ही। दुगड्डा में पुल करते ही आंदोलनकारियों ने बस का रुख पुलिस चौकी की ओर कर दिया और वहां पहुंचते ही तोड़फोड़ और आगजनी कर दी। संयोग से मैं बाजार में ही बस से उतर चुका था। इस घटना से दुगड्डा में तनाव व्याप्त हो गया, लेकिन पर्याप्त फोर्स न होने के कारण आंदोलनकारियों के विरुद्ध कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई। मैं लगभग एक घंटा दुगड्डा में रहा और फिर वापसी के लिए ट्रैकर में बैठ गया।


नदी के किनारे-किनारे पांच किमी चलकर पहुंचा घर
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जैसे ही ट्रैकर कोटद्वार पांच मील पहले पानी कि टंकी के पास पहुंचा, कोटद्वार से दुगड्डा की ओर जा रहे एक ट्रैकर चालक ने सूचना दी कि कोटद्वार में कर्फ्यू लग गया है। आप लोग शहर में मत जाना। मैंने इससे पहले कर्फ्यू के बारे में पढा़ और सुना तो बहुत था, लेकिन कभी देखा नहीं कि कर्फ्यू के बाद किसी शहर की तस्वीर कैसी होती है। हालांकि, मेरे मनो-मस्तिष्क में खाका खिंच चुका था कि यह तस्वीर विभूति नारायण राय के मशहूर उपन्यास 'शहर में कर्फ्यू' में वर्णित तस्वीर जैसी ही होगी। विभूति नारायण राय ने इस उपन्यास में वर्ष 1984 में मेरठ के कर्फ्यू का आंखों देखा हाल बयां किया है। तब वे स्वयं मेरठ में एसएसपी थे। कर्फ्यू लगने की बात सुन ट्रैकर चालक के माथे पर भी चिंता की लकीरें उभर आई थीं। सो, उसने सिद्धबली मंदिर से पहले लालपुल के पास सभी सवारियों को उतार दिया। अब मेरे पास एक ही सुरक्षित विकल्प था कि नीचे खोह नदी में उतरकर वहां से पैदल ही नदी के किनारे-किनारे घर पहुंचा जाए। उसके बाद बच-बचाकर शहर में पहुंचना था, क्योंकि जिम्मेदारी खबर लिखने की भी थी। मैंने ऐसे ही किया भी।
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।


आफिस में खिचड़ी खाकर गुजारी कर्फ्यू की अवधि
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जब मैं घर पहुंचा तो परिवार वाले मेरी ही राह देख रहे थे। सड़क में पुलिस की गाडी़ से मुनादी हो रही थी कि कोई भी घरों से बाहर न निकले। सिर्फ कर्फ्यू पास वालों को ही शहर में आवाजाही की अनुमति दी जाएगी। खैर! मैं जैसे-तैसे गलियों के रास्ते आफिस पहुंच गया। उन्हीं दिनों मैंने अमर उजाला के लिए लिखना भी शुरू कर दिया था। बाजार का जो मंजर था, उसे व्यक्त करने के लिए शब्द कम पड़ रहे हैं आफिस पहुंचते ही पता चला कि दो आंदोलनकारियों को पुलिस ने राइफल के बट व डंडों से पीट-पीटकर मार डाला है। कई लोग घायल भी हुए हैं। इसके अलावा कई पत्रकारों को भी पुलिस ने बुरी तरह पीटा है। तब वरिष्ठ पत्रकार अनूप मिश्र कोटद्वार में अमर उजाला के प्रभारी हुआ करते थे। उन्हें मालूम था कि अब घर लौटना संभव नहीं है। इसलिए मकान मालिक से अनुरोध कर उन्होंने आफिस के ऊपर दूसरी मंजिल में खाली पडे़ दो कमरों में हमारे रहने की व्यवस्था कर दी। जोड़-जुगाड़ से राशन, जरूरत के बर्तन, स्टोव आदि भी जुटा लिए गए। इसके बाद कर्फ्यू कि अवधि हम चार-पांच साथियों ने आफिस की दूसरी मंजिल पर खिचड़ी खाकर ही गुजारी।
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।


पुलिस को चकमा देने के लिए दोस्तों के घर गुजरती थी रातें
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हालांकि, रात को मैं पुलिस वालों की आंखों में धूल झोंककर गलियों से होता हुआ घर पहुंच जाया करता था। ऐसे हालात में घर वालों का चिंतित होना लाजिम था। चिंतित होने का सबसे बडा़ कारण तो यह था कि तब मैं पुलिस की नजरों में चढ़ चुका था। रात के वक्त पुलिस वाले ताक में रहते थे कि मैं कब उनके हत्थे चढूं। बस! उन्हें भ्रम यह था कि रात में घर पर नहीं, बल्कि आफिस में ही रहता हूं और तमाम बाध्यताओं के चलते वो मुझ पर हाथ नहीं डाल पा रहे थे। इधर, मैं रात को भोजन कर चुपचाप किसी दोस्त के घर निकल जाया करता था। लगभग एक महीने यही सिलसिला चलता रहा। प्रशासन की ओर से हमें जो कर्फ्यू पास मुहैया कराए गए थे, उनके भी पीएसी व आरएएफ वालों के लिए इसके कोई मायने नहीं थे। मौक देखते ही वे हम पर हाथ साफ करने में जरा भी देर नहीं लगाते थे। हां! कर्फ्यू पास का एक फायदा जरूर हुआ कि प्रशासन की गाडी़ में यदा-कदा दिन के वक्त भी घर जाने का मौका मिल जाता था।
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।

उधर, तीन अक्टूबर को ही पुलिस ने नैनीताल में भी एक आंदोलनकरी की गर्दन में गोली मारकार हत्या कर दी। इससे आंदोलनकारियों के सीने में शोले भड़क उठे, लेकिन लगभग सभी प्रमुख शहरों में कर्फ्यू लगे होने के कारण वे विवश थे। ऐसी दुरूह परिस्थितियों में आंदोलन की बागडोर संभाली अखबारों ने और इसकी वजह बना तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का अखबारों के खिलाफ हल्ला बोल अभियान। लेकिन, इससे उत्तराखंड आंदोलन को बडा़ संबल मिला। तब शुरू से लेकर अखबार के आखिरी पन्ने तक सिर्फ आंदोलन की ही खबरें हुआ करती थी। पुलिस-पीएसी व आरएएफ की हैवानियत को जिस जिम्मेदारी के साथ अखबारों ने बेनकाब किया, वह अपने-आप में बडा़ चुनौतीभरा कार्य था। अब हम इस सन्नाटे को तोड़ने के लिए कर्फ्यू हटने का इंतजार कर रहे थे।


मौन जुलूस ने दिया मुखर होने का हौसला
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सन्नाटे की यह स्थिति बेहद खतरनाक थी, जिससे लोगों को बाहर निकाला जाना बेहद जरूरी था। लेकिन, सवाल वहीं का वहीं था कि इसके लिए पहल कौन करे। आखिरकार हम पत्रकारों को ही इसके लिए आगे आना पडा़। तय हुआ कि आगे की रणनीति तय करने के लिए गोखले मार्ग पर बडे़ भाई कमल जोशी के निवास पर बैठा जाए। लेकिन हमारी गतिविधियां पुलिस की नजर में नहीं आनी चाहिए। दरअसल, कर्फ्यू उठने के बाद भी किसी को धरना-प्रदर्शन करने या जुलूस निकालने की अनुमति नहीं थी। फिर भी अगर जरूरी हो तो इसके लिए प्रशासन की अनुमति अनिवार्य कर दी गई थी। साथ ही प्रशासन को संतुष्ट करना जरूरी था कि जुलूस पूरी तरह मौन और शांतिपूर्ण रहेगा। यह प्रक्रिया पूर्ण करने पर ही हमें दोपहर में पंचायती धर्मशाला से तहसील परिसर तक मौन जुलूस निकालने की अनुमति मिली। अब हम जुलूस की तैयारी में जुट गए। इसके लिए बैनर और नारे लिखी तख्तियां तैयार की गईं। कोशिश यही थी कि हमारा यह मौन भी मुखर साबित हो और लोग भय के आवरण को त्यागकर एक बार फिर सड़कों पर उतरने का साहस जुटा सकें। हम सरकार एवं शासन-प्रशासन को भी कडा़ संदेश देना चाहते थे कि उत्तराखंडी टूटे और बिखरे नहीं हैं। आखिर वह दिन भी आ गया, जब लंबे अंतराल से पसरे सन्नाटे को तोड़ने के लिए हम सड़क पर उतरे। तकरीबन 45-50 लोग तो हम रहे ही होंगे। इनमें नागरिक मंच से जुडे़ भी शामिल थे। हालांकि, चार-छह पत्रकारों ने जुलूस में भागीदारी नहीं की। दो अखबारों ने तो खबर भी हतोत्साहित करने वाली छापी। जुलूस मौन था, लेकिन हताश हो चुके शहरवासियों को फिर मुखर होने के लिए प्रेरित कर गया।
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।


पुलिस ने फिर ढाया कहर
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पर्वतीय क्षेत्र में आंदोलन की आग अब भी पहले जैसी ही सुलग रही थी। सात नवंबर 1995 को श्रीनगर शहर से दो किमी दूर श्रीयंत्र टापू पर आंदोलनकारियों ने इन सभी दमनकारी घटनाओं के विरोध और राज्य आंदोलन के समर्थन में आमरण अनशन शुरू कर दिया। लेकिन, इसके ठीक चौथे दिन दस नवंबर को पुलिस ने श्रीयंत्र टापू पहुंचकर वहां कहर बरपाना शुरू कर दिया। इसमें कई आंदोलनकारियों को गंभीर चोटें आईं। दो आंदोलनकारियों राजेश रावत व यशोधरा बेंजवाल को तो पुलिस ने राइफल के बट और लाठी-डंडों से पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। इसके बाद उन्हें अलकनंदा नदी में फेंककर उनके ऊपर पत्थरों की बरसात कर दी गई। इससे दोनों की मृत्यु हो गई। 14 नवंबर 1995 को बागवान के पास दोनों के शव अलकनंदा में तैरते हुए पाए गए। इस घटना के बाद पूरे उत्तराखंड में व्यवस्था के खिलाफ नफरत गहराना स्वाभाविक था।

जनता याचक बनी, अयोग्य भाग्य विधाता
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इसके बाद तो छात्र-नौजवान, महिलाएं व नागरिक मंच समेत अन्य संगठन भी खुलकर सामने आने लगे। धरना, क्रमिक अनशन व बेमियादी अनशन शुरू हो गए। मैं स्वयं कई हफ्तों तक एसडीएम दफ्तर के आगे धरना व क्रमिक अनशन पर बैठा रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि सरकारी कार्य में बाधा डालने का मुकदमा भी झेलना पडा़। इसके बाद क्या हुआ, बताने की जरूरत नहीं है। अयोग्‍य भाग्यविधाता बने बैठे हैं और जनता याचक। जिनकी प्रधान का चुनाव लड़ने तक की हैसियत नहीं थी, वह विधानसभा व संसद पहुंचकर जनसेवा की जगह जनता की छाती पर मूंग दल रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजी-रोटी के सवाल दूर-दूर तक नहीं हैं। लेकिन, सत्ता सुख भोगने वाले बडी़-बडी़ जमीनों और अट्टालिकाओं के स्वामी बन बैठे हैं। जबकि, उत्तराखंड बनने से पहले इनके चेहरे से बेचारगी झलकती रहती थी।
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।

अब लगता है मैं गलत था
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अब जब कभी मैं अकेले में उस दौर का विश्लेषण करने बैठता हूं तो निराशा ही हाथ लगती है। जिन विसंगतियों के खिलाफ हम लडे़ थे, वही विसंगतियां आज संस्कार और संस्कृति का हिस्सा बन चुकी हैं। आज जिस तरह खुले हाथों संसाधनों और जनता के पैसे की लूट हो रही है, उससे भारी कोफ्त होती है। उस दौर में मैंने कभी नहीं चाहा कि मुझे आंदोलनकारी का तमगा मिले और सरकारें उपकृत करें, लेकिन आज लगता है कि मैं सरासर गलत था। मुझे भी फर्जी मेडिकल (फर्जी इसलिए, क्योंकि उस दौर में पुलिस के हाथों पिटने पर भी मैंने कभी मेडिकल नहीं करवाया) बनाकर और अखबारों की कटिंग लेकर डीएम-सीएम दफ़्तर के चक्कर काटने चाहिए थे। मैं ऐसे तमाम व्यक्तियों को जानता हूं, जिनका आंदोलन से कभी कोई सरोकार नहीं रहा, लेकिन इसी तरह के उपक्रम और परिक्रमा कर आंदोलनकारी घोषित हो गए। आज देखिए! कैसे मौज काट रहे हैं।
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Whenever I look at the situation in Uttarakhand, I see nothing but despair and hopelessness. I myself have been a part of the Uttarakhand movement from beginning to end. Then there were countless dreams in my eyes too. He used to think that if he had his own rule then these dreams would also get wings. But, nothing like this happened. In the last twenty-two years, Uttarakhand has gone below that level, to rise above which we had put everything at stake then. Day's peace and even nights' sleep. Today, when I am trying to put that period of struggle in sequential words, I have no hesitation in saying that this was the biggest mistake of my life. I think that the majority of the population here would also think the same about Uttarakhand. Whenever I am alone, this poem of Abdul Hameed Adam 'I had taken only one step in the wrong path of passion, I kept searching for my destination all my life' keeps flashing in my mind. To be honest, the situation is exactly like this. We are still searching for ourselves after 22 years and it is clearly visible from the direction in which Uttarakhand is moving day by day that there is nothing but a blind well ahead. Despite this the past cannot be changed. Yes! If there are collective honest efforts, then the present discolored picture can definitely be expected to change. If only! This could happen!

Dreams that were shattered
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Dinesh Kukreti
On August 7, 1990, with the announcement of the then Prime Minister Vishwanath Singh in the Parliament, the Mandal Commission's box was opened and with this, the fire of the movement against reservation erupted. But, on November 7, 1990, VP Singh's government fell even before the Mandal Commission was implemented. When the Congress government was formed in the year 1991, it had to implement reservation based on the recommendations of the Mandal Commission. Meanwhile, Ujjwal Singh, president of the All India Anti-Reservation Front, went to the Supreme Court to protest against the implementation of the Mandal Commission. Where a nine-member constitution bench heard it. Finally, on November 16, 1992, the Supreme Court upheld the recommendation of the Mandal Commission and stamped its approval on it. But, where was the fire that broke out against the reservation going to cool down. So, it gradually reached Uttarakhand in the valleys of the Himalayas.
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।


In June 1994, the then Chief Minister of Uttar Pradesh Mulayam Singh Yadav also announced the implementation of 27 percent OBC reservation in educational institutions of the state. This worked as fuel in the fire. Uttarakhand also started smoldering in anti-reservation fire and students took to the streets. My college was completed in the year 1993, but the activism in student movements remained the same even after that. However, by then I had a decent identity as a journalist as well. During that period I was associated with then prestigious weekly 'Satyapath' and weekly 'Theharo'. Along with this, he was doing freelance writing regularly in various magazines including 'Amar Ujala', 'Dainik Jagran', 'Punjab Kesari', 'Dainik Hindustan' and 'Rashtriya Sahara'. During the movement, it used to be normal for me to write two to three articles daily for different newspapers and magazines. Sometimes the whole night was spent awake for this. Due to this habit of reading and writing, I had also studied the report of the Mandal Commission. After this my understanding developed that the report of the Mandal Commission is not wrong in any way. But, it is also true that the crowd neither understands the logic nor the scientific approach behind any event.

However! On 13 July 1994, student leaders in Kotdwar raised their voice against the 27 percent OBC reservation. I also attended this meeting. Then on July 31, 1994, a public meeting was held in the Municipal Auditorium regarding the movement. In this, it was decided to form a civic forum. It was decided that the fight against reservation will be fought under the banner of Nagrik Manch only. In this sequence, a gradual fast was started in Kotdwar tehsil from August 1. On the other hand, this struggle, which started with the protest against reservation, started turning into the Uttarakhand state building movement in an organized manner. In this series, on August 10, 1994, the Uttarakhand Joint Sangharsh Samiti was formed in Srinagar, whose aim was to further strengthen this fight. The culmination of this was that the people of Uttarakhand almost forgot the opposition to reservation and the establishment of a separate Uttarakhand state became everyone's only goal. From the city to the towns and villages, the same voice started echoing, 'Aaj do abhi do, Uttarakhand Raj do'. Gradually, teachers and employees also came out on the streets after locking the schools and offices.

Where was the mother power also going to remain silent. After taking a break from the responsibility of household, at last he also raised the flag. It was from here that a historic slogan was born, 'Koda-Jhangora Khaayenge, Uttarakhand Banayenge', which gradually became the voice of the movement. Irrespective of what would happen to the children in milk, where would the fodder for the cattle come from, women power became the main axis of the movement with sickle in hand. Obviously in such a situation, who could have remained imprisoned in homes. So, I too would reach the Tehsil campus directly after having breakfast in the morning. The food of the day was not even known. If you get it, it's fine and if you don't get it, don't care. Everyday, under the banner of Nagrik Manch, we used to take out a procession with loud slogans and then a round of speeches and folk songs would start in the tehsil premises.
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।


In those times, 'I have to fight brother, this is a long battle, I have lit a torch to win' (Niranjan Suyal), 'I will fight, I will take away Uttarakhand', 'The voice is rising from the village of mountains' , women's fists have become torches, and 'Now come on the streets, you are merchants of words, now come to your senses and you are jugglers of words' (Dr.Atul Sharma), 'Take torches, people of my village' , Ab Andhera Jeet Lenge, Log Mere Gaon Ke' (Balli Singh Cheema), 'Tatuk Ni Laga Udekh, Ghunan Munai Ni Tek, Jainta Ek Din Ta Aalo, O Din Yo Duni Mein' and 'Aaj Himal Tuman Ke Dhatyun Chhau, Jaago Wake up Myra Lal' (Girish Tiwari Girda), 'Bhaiji kakh jana tum log, Uttarakhand movement ma' and 'Utha jaga he Uttarakhandiyo, saun uthaano bagat aige, Uttarakhand ko hon-samman bachano bagat aige' (Narendra Singh Negi), People's songs like 'Ye sannata break ke aa, saare bandhan ke aa, saari duniya teri hai, tu tera-mera chhod ke aa' (Zahoor Alam) were used to memorize every movement. Despite my shy nature, I myself must have sung these folk songs in many street meetings and street plays, today I do not even remember them properly.

...And yes! The awakening of litterateur and poet friend Kutaj Bharti had turned the course of the movement. When he used to start singing Jagar on the beat of Hudke in the tehsil premises, he used to run like a current in his body. It used to seem as if the spirit of the brave Bhado has entered our body and is shouting 'now or never'. Meanwhile, on September 1, 1994, the police suddenly started firing without warning on a peaceful procession moving towards the tehsil in Khatima. In this, seven agitators were martyred and many were badly injured. During this, the policemen burnt the tables of the lawyers in the tehsil and vandalized them fiercely and put the blame of all this on the agitators. Due to this incident, the flame of indignation flared up in the whole of Uttarakhand. Here, a huge rally was proposed in Garhwal Commissionerate Pauri on September 2. We were also busy preparing for it. Wherever you looked, except the crowd of agitators, nothing else was visible. Irrespective of food and sleep, the agitators had started for Pauri in buses and trackers since midnight.

There was no space left to set foot in Pauri till 9 o'clock in the morning of 2nd September. Despite this, the army of its agitators was moving in small and big vehicles. Apart from this, people from nearby villages were reaching Pauri on foot in the form of a procession. Meanwhile, information was received that in Mussoorie also six agitators were martyred by PAC and police bullets. Whereas, more than a hundred have been badly injured. This created tension in the entire Pauri town. The agitators were so angry that any untoward incident could happen at any time. I was feeling scared, but then thought that when the steps have been taken forward, then there is no use of fear. Whatever happens now, remains to be seen. Due to the incidents of Khatima and Mussoorie, the flame of rebellion was ignited in the whole of Uttarakhand. On the other hand, various conspiracies were being hatched by the police to break the movement. The PAC-police used to wait for the opportunity that when any agitator would make a slight mistake and they would get a chance to break his hands and legs. Here, we also did not miss any chance to confront the policemen.

Reporting of the movement during the day and participating in processions and demonstrations and writing articles for newspapers and magazines at night had become a part of my lifestyle. Then there was no restriction on newspapers like today and coincidentally all major newspapers were supporting the movement. I remember, then an article of mine was published in 'Dainik Jagran', the theme of which was, 'We will definitely make a house on the ground, it will be seen if electricity falls in the sky'. Guruji Pitambar Dutt Deorani, elder brother Kamal Joshi etc patted my back for this article. As the days were slipping ahead, the movement was also gaining strength. Now it was a spontaneous movement. There was no need to call anyone for procession-demonstration, dharna and fast. At the same time, the brutality of the police was increasing.

On September 15, 1994, the Rapid Action Force lathi-charged a crowd of thousands that reached Mussoorie to pay homage to the martyred agitators. Many people were seriously injured in this. The very next day of this incident, on September 16, a massive meeting was again held in Kotdwar, in which, along with deciding the further contours of the movement, it was resolved that until Uttarakhand is declared a separate state, the public will not breathe peacefully. Then why not have to go to any extent for this. After this a huge rally was taken out. Now even discussions have started that ex-servicemen should not be forced to take up arms. In fact, the government machinery had created such a situation that the patience of every Uttarakhandi started breaking. Now every person seen in uniform seemed to be the enemy of Uttarakhand. I could not even sleep properly at night. At the same time, keeping oneself safe from the vulture eyes of the police was also a big challenge. Day-to-day confrontation with the police had become normal for us. Because of this mischievousness, I even got lathi-charged by the police many times, but now there was no question of deviating from the goal.

After all these oppressive incidents, on the call of the United Front, agitators from all over Uttarakhand started preparing for the march to Delhi. A huge rally was proposed on October 2 at the Red Fort in Delhi on Gandhi Jayanti. For this, on the evening of October 1, agitators in more than two hundred vehicles from Garhwal-Kumaon, with deafening echoes of 'Ab na rukenge ab nahi sahenge, Uttarakhand le ke rahenge', 'Koda-Jhangora khaayenge, Uttarakhand banayenge'. Just left for Delhi. But, Uttar Pradesh's terrorist police-PAC and RAF stopped them at Roorkee's Narsan border. However, from here the group somehow moved forward, which had already been prepared to stop it at Rampur Tiraha in Muzaffarnagar. For this, as many police-PAC men were not present in uniform as compared to those in plain clothes. As a result, there was a tussle between the agitators and the police regarding the way forward. Meanwhile, sloganeering and stone pelting started suddenly. The then DM Anant Kumar Singh was injured in this stone pelting. What was it then, the police attacked the agitators without any warning. The agitators were mercilessly beaten with the butt of the gun along with lathis. It came to an end when the police started firing. Seven agitators were martyred in this firing, while twenty were badly injured. Whether children, youth, elders and women, the terrorists did not spare anyone. The soul trembles just remembering the indecency that was done to women. It was such a scene, which can never be forgotten.
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।


This orgy of the police continued till the morning of October 2. The army of vehicles that was coming from behind was stopped by the police at various places. On the other hand, thousands of agitators had reached Delhi through other routes. The vehicle in which I was traveling was turned back from Bijnor itself. We knew that something untoward had happened in the future, but we could not get the exact information about what happened. As soon as we reached Kotdwar, the scene had completely changed. There was mourning everywhere, only then the real picture of Rampur Tiraha came in front of us. I got off the bus and walked straight towards home, as the family members were worried about my well-being. It was natural for him to worry in such a situation. After having breakfast, I again left for the market for reporting. The situation in the market was extremely tense. Rampur Tiraha shootout was being discussed in every nook and corner. Agitators had gathered in Panchayati Dharamshala and preparations were on to take out a procession. This procession was different from the processions taken out in the past. Bayonets were drawn everywhere and the policemen were waiting for the opportunity when there would be a mistake from our side and they would get a chance to use sticks.

So! Due to our patience, the intention of the police could not materialize that day. On October 3, I reached the market at nine in the morning. Around ten o'clock, a bus of the agitators who had gone to the Delhi rally reached Kotdwar, which was stopped by the police before Rampur Tiraha. The bus was going towards the mountain and I had to reach Dugadda. So, I also boarded this bus. The agitators in the bus were full of anger. Seeing his gesture, it was clear that something is going to happen next. That's what happened. As soon as the bridge was built in Dugadda, the agitators turned the bus towards the police post and as soon as they reached there, vandalized and set fire to it. Coincidentally, I had got off the bus in the market itself. Due to this incident, tension spread in Dugadda, but due to lack of sufficient force, there was no reaction against the agitators. I stayed at Dugadda for about an hour and then got into the trekker to return.

Reached home after walking five kilometers along the river
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As the tracker reached near the water tank five miles before Kotdwar, a tracker driver going from Kotdwar towards Dugadda informed that curfew has been imposed in Kotdwar. You guys don't go to the city. Before this I had read and heard a lot about curfew, but never seen how the picture of a city is after curfew. However, I had drawn a blueprint in my mind that this picture would be similar to the picture described in Vibhuti Narayan Rai's famous novel 'Curfew in the city'. Vibhuti Narayan Rai has given an eye-witness account of Meerut curfew in the year 1984 in this novel. Then he himself was SSP in Meerut. The lines of worry had also emerged on the forehead of the tracker driver after hearing about the imposition of curfew. So, he dropped all the passengers near Lalpul before Siddhabali temple. Now I had only one safe option, that by going down to the river Khoh, from there on foot, reach home on the banks of the river. After that he had to reach the city safely, because he was also responsible for writing the news. I did the same.

Spent curfew period by eating khichdi in office
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When I reached home, the family members were waiting for me. In the road, the police car was shouting that no one should come out of the houses. Only those with curfew passes will be allowed to move in the city. So! Somehow I reached the office through the streets. In those days I also started writing for Amar Ujala. Words are falling short to express the scene of the market. As soon as we reached the office, we came to know that the police had beaten them to death with rifle butts and batons. Many people have also been injured. Apart from this, many journalists have also been badly beaten by the police. Then senior journalist Anoop Mishra used to be in charge of Amar Ujala in Kotdwar. He knew that it was not possible to return home now. So, after requesting the landlord, he arranged for us to stay in two vacant rooms on the second floor above the office. Ration, necessary utensils, stoves etc. were also collected by manipulation. After this, four-five of us colleagues spent the curfew period eating khichdi on the second floor of the office.

Nights were spent at friends house to dodge the police
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However, at night I used to walk through the bylanes to reach home by throwing dust in the eyes of the policemen. In such a situation, it was necessary for the family members to be worried. The biggest reason for being worried was that I was in the eyes of the police then. During the night, the police used to keep watch as to when I would get caught by them. bus! He had the illusion that I am not at home at night, but in office and due to all the compulsions, he was not able to lay hands on me. Here, I used to quietly leave for a friend's house after dinner. This went on for almost a month. The curfew passes provided to us by the administration were of no use to the PAC and RAF personnel. Seeing the opportunity, he did not take any time to wash his hands on us. Yes! One advantage of the curfew pass was definitely that sometimes in the day time in the vehicle of the administration, there was a chance to go home.

On the other hand, on October 3, the police shot dead an agitator in the neck in Nainital as well. Due to this Sholay erupted in the chest of the agitators, but they were constrained due to curfew in almost all the major cities. In such difficult circumstances, the newspapers took over the reins of the movement and the reason for this was the Halla Bol campaign against the newspapers by the then Chief Minister Mulayam Singh Yadav. But, this gave a lot of strength to the Uttarakhand movement. Then, from the beginning till the last page of the newspaper, there used to be only news of the movement. The responsibility with which newspapers exposed the brutality of Police-PAC and RAF was a very challenging task in itself. Now we were waiting for the curfew to be lifted to break the silence.
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।


Silent procession gave courage to be vocal
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This situation of silence was very dangerous, due to which it was very important to get people out. But, the question was the same as who should take the initiative for this. Ultimately, we journalists had to come forward for this. It was decided to sit at elder brother Kamal Joshi's residence on Gokhale Marg to decide the future course of action. But our activities should not come in the eyes of the police. In fact, even after the curfew was lifted, no one was allowed to protest or take out processions. Even then, if necessary, the permission of the administration was made mandatory for this. Also, it was necessary to satisfy the administration that the procession would be completely silent and peaceful. Only after completing this process, we were allowed to take out a silent procession from Panchayati Dharamshala to Tehsil premises in the afternoon. Now we started preparing for the procession. For this, banners and placards with slogans were prepared. The effort was that this silence of ours should also prove to be vocal and people could muster the courage to leave the cover of fear and come on the streets once again. We also wanted to give a strong message to the government and administration that Uttarakhandis are not broken and scattered. Finally the day has come when we hit the road to break the long silence. We must have been around 45-50 people. Those associated with the civil forum were also included in these. However, four-six journalists did not participate in the procession. Two newspapers even published discouraging news. The march was silent, but inspired the despondent townspeople to become vocal again.

Police again wreaked havoc
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The fire of the movement in the mountainous region was still burning as before. On November 7, 1995, the agitators started a fast unto death in protest against all these oppressive incidents and in support of the statehood movement at Sriyantra island, two km from Srinagar city. But, exactly on the fourth day, on November 10, the police reached Sriyantra island and started wreaking havoc there. Many agitators suffered serious injuries in this. Two agitators, Rajesh Rawat and Yashodhara Benjwal, were beaten to death by the police with rifle butts and sticks. After this, they were thrown into the Alaknanda river and stones were pelted on them. Due to this both of them died. On 14 November 1995, their bodies were found floating in the Alaknanda near Bagwan. After this incident, it was natural for hatred against the system to deepen in the whole of Uttarakhand.

The public is disappointed, the ineligible are having fun
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After this, other organizations including student-youth, women and civic forums also started coming forward openly. Dharna, successive fasts and indefinite fasts started. I myself sat in front of the SDM office on a dharna and a gradual fast for several weeks. As a result of this, he had to face the case of obstructing the government work. What happened after that, needless to say. Snatchers have become fortune-tellers and the public beggars. Those whose head did not even have the capacity to contest the elections, instead of serving the public, reaching the assembly and the parliament, they are pouring moong on the public's chest. The questions of education, health and livelihood are not far away. But, those who enjoy power have become the owners of huge lands and attics. Whereas, before the formation of Uttarakhand, poverty used to be visible on their faces.
फोटो - आंदोलनकारी साथियों से साभार।


now i guess i was wrong
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Now whenever I sit alone to analyze that period, I feel disappointed. The anomalies against which we fought, the same anomalies have become a part of culture and culture today. Today, the way resources and public money are being looted with open hands, it causes a lot of trouble. At that time, I never wished that I should get the tag of agitator and the governments should oblige, but today it seems that I was completely wrong. I too should have gone around the DM-CM office by preparing fake medical (fake because I never got medical done even after being beaten by the police at that time) and taking newspaper cuttings. I know many such people, who never had anything to do with the movement, but after undertaking similar initiatives and parikramas, were declared agitators. Check it out today! How are you having fun.


Thursday, 24 November 2022

24-11-2022 (गढ़वाल पर प्रथम गोरखा आक्रमण का गवाह लंगूरगढ़)


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लंगूरगढ़ : गढ़वाल पर प्रथम गोरखा आक्रमण का गवाह 
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दिनेश कुकरेती
तिहास न केवल अतीत से परिचित कराता है, बल्कि आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देता है। एक तरह से यह अतीत और वर्तमान के बीच का सेतु है। इतिहास विज्ञान का भी मार्गदर्शक है, इसलिए उसे भविष्य का आईना कहा गया है। इसीलिए राजनीति, दर्शन शास्त्र, अर्थशास्त्र व विज्ञान के साथ इतिहास भी मेरा प्रिय विषय रहा है। इतिहास ने ही समाज के प्रति मेरी क्या जिम्मेदारियां हैं, इसका अहसास कराया। खुद को तलाशने और अपने परिवेश को जानने में मेरी मदद की। मुझे लगता है कि मनुष्य होने के नाते हमें अपने इतिहास से अवश्य परिचित होना चाहिए। इसीलिए हमेशा मेरी कोशिश पहाड़ को अधिक से अधिक जानने की रही है। चलिए! इसी कडी़ में आपको लंगूरगढ़ (भैरवगढ़) के अतीत और वर्तमान से परिचित कराता हूं।
गढ़वाल को 52 गढो़ं का देश कहा गया है। कहते हैं कि कत्यूरी शासन की समाप्ति के पश्चात गढ़वाल में बहुराजकता का काल आरंभ हुआ तो गढ़वाल क्षेत्र छोटी-छोटी इकाइयों में विभाजित हो गया। ऐसा माना जाता है कि तब गढ़वाल में 52 गढ़ (किले) स्थापित थे, जिनका संचालन छोटे-छोटे राजा करते थे। इन्हें गढ़पति कहा जाता था। लेकिन, धीरे-धीरे ये गढ़ गढ़वाल राज्य के अधीन होते चले गए। प्रसिद्ध इतिहासकार डा. शिवप्रसाद डबराल 'चारण' लिखते हैं कि वर्ष 1790 में गोरखा फौज द्वारा कुमाऊं पर अधिकार कर लिए जाने के बाद गोरखा सैनिकों का ध्यान गढ़वाल की ओर गया। तब गढ़वाल में परमार वंश का शासन था और राजा प्रद्युम्न शाह गद्दीनशीन थे। वर्ष 1791 में हर्ष देव जोशी (हरक देव) की सहायता से गोरखों ने गढ़वाल पर हमला बोल दिया। लंगूरगढ़ में दोनों सेनाओं का आमना-सामना हुआ। (लंगूरगढ़ तत्कालीन गढ़वाल राज्य की दक्षिणी सीमा पर स्थित परगना गंगा सलाण का सामरिक रूप से संवेदनशील एवं प्रमुख गढ़ हुआ करता था।) तब गोरखा सेना का नेतृत्व चंद्रवीर और भक्ति थापा कर रहे थे। यह युद्ध 28 दिन चला, लेकिन अंततः प्रद्युम्न शाह की सेना ने गोरखाओं को नाकों चने चबाने के लिए मजबूर कर दिया। गोरखा सेना की हार हुई और उसे संधि के लिए विवश होना पडा़।
वर्ष 1792 में लंगूरगढ़ की संधि हुई, जिसके तहत गोरखाओं ने गढ़वाल पर कभी आक्रमण न करने का वचन दिया। साथ ही गोरखाओं पर 25 हजार रुपये वार्षिक कर भी आयद किया गया। कहते हैं कि गोरखाओं को पराजित करने वाले सेनापति रामा खंडूडी़ ने यहां चोटी पर भैरवनाथ का पूजन किया और अनुष्ठान के बाद सेना सहित वापस श्रीनगर (गढ़वाल) लौट गए। इसके बाद गढ़वाल नरेश ने इस क्षेत्र से एकत्र होने वाले भू-राजस्व को भैरवगढी़ मंदिर में पूजा-अर्चना पर खर्च करने के निर्देश दिए। हालांकि, वर्ष 1804 के दूसरे हमले में लंगूरगढ़ गोरखाओं के कब्जे में चला गया। तब उनके द्वारा यहां मंदिर की स्थापना की गई।
क्षेत्रीय पुरातत्व इकाई पौडी़ की रिपोर्ट के अनुसार यहां भैरव मंदिर में स्थापित शिवलिंग पर एक मन (40 सेर या किलो) वजनी ताम्रपत्र चढा़ है। इस पर फाल्गुन संवत 1884 और देवनागरी लिपि में भक्ति थापा के नाम का उल्लेख है। कहते हैं कि गोरखाओं ने इसे अपना वर्चस्व साबित करने के लिए मंदिर में चढा़या था। मंदिर में 30 गुणा 15 सेमी माप की पंचाग्नितप हरे रंग की देवी पार्वती की पाषाण प्रतिमा भी दर्शनीय है। शैलीगत आधार पर यह प्रतिमा दसवीं व 11वीं शताब्दी के बीच की बताई जाती है।

लंगूरगढ़ का परिचय
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समुद्रतल से 2750 मीटर की ऊंचाई पर पौडी़ गढ़वाल जिले के द्वारीखाल विकासखंड में स्थित भैरवगढ़ गढ़वाल के 52 गढो़ं में से एक है। इसका वास्तविक नाम लंगूरगढ़ है। संभवत: लांगूल पर्वत पर स्थित होने के कारण इसे लंगूरगढ़ कहा गया। लांगूल पर्वत की आमने-सामने स्थित चोटियों पर दो किले (गढ़) हैं, जिनमें एक का नाम लंगूरगढ़ और दूसरे का भैरवगढ़ है। लंगूरगढ़ को हनुमानगढ़ और भैरवगढ़ को भैरवगढी़ भी कहा जाता है। इन चोटियों तक पहुंचने के रास्ते भी अलग-अलग हैं, बावजूद इसके दोनों गढ़ को एक ही माना गया है।

ऐसे पहुंचते हैं लंगूरगढ़
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भैरवगढ़ जाने के लिए पहले गढ़वाल के प्रवेशद्वार कोटद्वार पहुंचना पड़ता है। कोटद्वार से 36 किमी की दूरी पर गुमखाल और यहां से ऋषिकेश रोड पर चार किमी आगे कीर्तिखाल़ (केतुखाल़) पड़ता है। यहां से लंगूरगढ़ पहुंचने के लिए ढाई की खडी़ चढा़ई पैदल तय करनी पड़ती है। कीर्तिखाल ऋषिकेश और कोटद्वार से सीधे पहुंचा जा सकता है। जबकि, गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंटल सेंटर एवं छावनी शहर लैंसडौन से भैरवगढ़ की दूरी राजखिल गांव होते हुए लगभग 17 किमी है।आपको अगर भैरवगढ़ से लंगूरगढ़ पहुंचना है तो इस चोटी से आधा किमी नीचे उतरना पडे़गा। यहां घास के एक छोटे से मैदान (बुग्याल) से कच्चा रास्ता दाहिनी ओर जाता है। इस पर कुछ दूर तक उतराई के बाद फिर चढा़ई शुरू हो जाती है। यह चढा़ई आपको सीधे इसी पर्वत की दूसरी चोटी यानी लंगूरगढ़ पहुंचा देगी। यहां से नीचे उतरने के भी दो रास्ते हैं। पहला वापस घास के मैदान से होते हुए सीधे कीर्तिखाल पहुंचाता है। जबकि, दूसरा रास्ता भैरवगढी़ से थोडा़ नीचे आने के बाद दाहिनी ओर पगडंडी के रूप में है। बाहर से आने वाले लोग इस टेढे़-मेढे़ रास्ते का कम ही उपयोग करते हैं।


लंगूरगढ़ के भैरव
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भगवान शिव के 15 अवतारों में से एक नाम भैरव का आता है, उसी भैरव रूप को समर्पित है, भैरवगढ़ की चोटी पर स्थित बाबा कालनाथ भैरव (भैरोंनाथ) का प्रसिद्ध मंदिर। यह मंदिर भैरव की गुमटी पर बना हुआ है और इसके बायें हिस्से में शक्तिकुंड स्थित है। भैरोंनाथ को गढ़वाल का रक्षक (द्वारपाल) माना गया है। मनोकामना पूर्ति पर भक्त यहां चांदी के छत्र चढा़ते हैं। क्षेत्र के नवविवाहित जोडे़ तो भैरोंनाथ के दर्शनों के बाद ही अपने दाम्पत्य जीवन की शुरूआत करते हैं। धाम का प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटकों को भी अपनी ओर खींचता है। शीतकाल के दौरान यहां बर्फबारी का आनंद भी लिया जा सकता है। चोटी पर होने के कारण यहां से हिमालय का विहंगम नजारा देखते ही बनता है। साथ ही आसपास बिखरी हरियाली भी पर्यटकों असीम शांति की अनुभूति कराती है।

भैरोंनाथ को लगता है मंडुवे के आटे से बने रोट का भोग
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लोक मान्यता है कि कालनाथ भैरों को काली वस्तुएं सर्वाधिक पसंद हैं। इसलिए यहां मंडुवे के आटे का रोट के रूप में प्रसाद तैयार किया जाता है। हर साल जेठ (ज्येष्ठ) के महीने यहां जात (जात्रा या यात्रा) के साथ दो-दिवसीय मेले का आयोजन होता है। मेले के प्रथम दिन राजखिल गांव से भैरवगढ़ तक जात निकाली जाती है। इस वार्षिक अनुष्ठान में हजारों की संख्या में श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं। एक दौर में भले ही यहां पशुबलि की प्रथा रही हो, लेकिन अब यह प्रथा पूरी तरह बंद हो चुकी है।


लंगूरगढ़ का एक नाम अजेयगढ़ भी
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गढ़वाल पर गोरखाओं का प्रथम आक्रमण लंगूरगढ़ में ही हुआ था। इस युद्ध को लंगूरगढ़ युद्ध के नाम से जाना जाता है। तब लंगूरगढ़ पर असवाल ठाकुरों का राज हुआ करता था, जिन्होंने गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह की सेना की मदद से गोरखा सैनिकों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। तब इस किले को अजेय मानते हुए अजेयगढ़ (अजयगढ़) नाम से भी जाना जाने लगा।

हमारे ईष्ट भी हैं लंगूरगढ़ के भैरव
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संयोग से मेरा गांव भलगांव भी भैरवगढ़ की परिधि में आता है और भैरोंनाथ हमारे परिवार के भी ईष्ट देव हैं। वैसे मेरा मूल गांव बरसूडी़ है, लेकिन बाद में मेरे परदादा या उनसे पहले की पीढी़ दो मील नीचे भलगांव आ गई। मुझे ठीक से तो याद नहीं है, लेकिन 22-23 साल पहले जब मैं देवपूजा में शामिल होने के लिए गांव गया था तो इस दौरान मुझे राजखिल जाने का भी मौका मिला। राजखिल जाने और वहां से भलगांव वापस लौटने में मुझे लगभग पांच घंटे का समय लगा था। राजखिल से लंगूरगढ़ की चोटी दो किमी के फासले पर है। वहां भैरों मंदिर के पुजारी राजखिल के डोबरियाल जाति के लोग ही होते हैं।

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The first Gorkha attack on Garhwal took place in Langurgarh
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Dinesh Kukreti
History not only introduces us to the past, but also inspires us to move forward. In a way, it is a bridge between the past and the present. History is also the guide of science, hence it has been called the mirror of the future. That's why along with politics, philosophy, economics and science, history has also been my favorite subject. History itself made me realize what are my responsibilities towards the society. Helped me discover myself and know my surroundings. I think that as human beings we must be familiar with our history. That is why it has always been my endeavor to know the mountain as much as possible. Let go! In this episode, let me introduce you to the past and present of Langurgarh (Bhairavgarh).

Garhwal has been called the country of 52 citadels. It is said that after the end of the Katyuri rule, the period of polyarchy started in Garhwal, then the Garhwal region was divided into small units. It is believed that then there were 52 garhs (forts) established in Garhwal, which were operated by small kings. He was called Gadhapati. But, gradually these forts came under the rule of Garhwal state. Famous historian Dr. Shivprasad Dabral 'Charan' writes that in the year 1790, after the Gorkha army took over Kumaon, the attention of Gorkha soldiers turned towards Garhwal. Then Garhwal was ruled by the Parmar dynasty and King Pradyuman Shah was the ruler. In the year 1791, with the help of Harsh Dev Joshi (Harak Dev), the Gurkhas attacked Garhwal. Both the armies came face to face in Langurgarh. (Langurgarh used to be a strategically sensitive and major stronghold of Pargana Ganga Salan, located on the southern border of the then Garhwal state.) Then the Gorkha army was led by Chandraveer and Bhakti Thapa. This war lasted for 28 days, but finally Pradyuman Shah's army forced the Gorkhas to chew gram. The Gorkha army was defeated and had to be forced to negotiate.

In the year 1792, the Treaty of Langurgarh took place, under which the Gurkhas pledged never to attack Garhwal. Along with this, an annual tax of 25 thousand rupees was also imposed on Gorkhas. It is said that Rama Khanduri, the commander who defeated the Gurkhas, worshiped Bhairavnath on the top here and returned to Srinagar (Garhwal) along with the army after the rituals. After this, the Garhwal King gave instructions to spend the land revenue collected from this area on worship in the Bhairavgarhi temple. However, in the second attack of 1804, Langurgarh was captured by the Gorkhas. Then the temple was established here by him.

According to the report of Regional Archaeological Unit Pauri, a copper plate weighing one mind (40 ser or kg) is mounted on the Shivling installed in the Bhairav ​​temple here. It is dated Falgun Samvat 1884 and mentions the name of Bhakti Thapa in Devanagari script. It is said that the Gurkhas had offered it in the temple to prove their supremacy. The stone idol of Panchagnitap green colored Goddess Parvati measuring 30 x 15 cm is also visible in the temple. On stylistic grounds, this statue is said to be between 10th and 11th century.


Introduction to Langurgarh
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Bhairavgarh, located in the Dwarikhal development block of Pauri Garhwal district, at an altitude of 2750 meters above sea level, is one of the 52 Garhwal caves. Its real name is Langurgarh. Probably because of its location on the Langul mountain, it was called Langurgarh. There are two forts (citadels) on opposite peaks of Langul mountain, one is named Langurgarh and the other is Bhairavgarh. Langurgarh is also known as Hanumangarh and Bhairavgarh as Bhairavgarhi. The ways to reach these peaks are also different, yet both the citadels have been considered the same.

This is how to reach Langurgarh
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To go to Bhairavgarh, first one has to reach Kotdwar, the gateway of Garhwal. Gumkhal is situated at a distance of 36 km from Kotdwar and Kirtikhal (Ketukhal) lies four km ahead on the Rishikesh road. To reach Langurgarh from here one has to walk a steep climb of two and a half feet. Kirtikhal is directly accessible from Rishikesh and Kotdwara. Whereas, the distance from Garhwal Rifles Regimental Center and Cantonment town Lansdowne to Bhairavgarh via Rajkhil village is about 17 km. If you want to reach Langurgarh from Bhairavgarh, you will have to descend half a km from this peak. Here a dirt road leads to the right through a small grassy field (bugyal). After descending for some distance, the ascent starts again. This climb will directly take you to the second peak of this mountain i.e. Langurgarh. There are two ways to get down from here. The first leads directly back to Kirtikhal through the meadows. Whereas, the second way is in the form of a footpath on the right side after coming down a little from Bhairavgarhi. People coming from outside rarely use this zigzag path.

Bhairav ​​of Langurgarh
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The name Bhairav ​​comes from one of the 15 incarnations of Lord Shiva, dedicated to the same Bhairav ​​form, the famous temple of Baba Kalnath Bhairav ​​(Bhaironnath) situated on the top of Bhairavgarh. This temple is built on the dome of Bhairav ​​and Shaktikund is situated on its left side. Bhairon Nath has been considered as the protector (gatekeeper) of Garhwal. Devotees offer silver umbrellas here to fulfill their wishes. The newly married couples of the region start their married life only after visiting Bhairon Nath. The natural beauty of Dham also attracts tourists. One can also enjoy snowfall here during winters. Being on the top, one can get a panoramic view of the Himalayas from here. Along with this, the greenery scattered around also gives the tourists a feeling of infinite peace.

Bhairavnath enjoys bread made from Manduve flour

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It is a popular belief that Kalnath Bhairon likes black things the most. That's why Prasad is prepared here in the form of bread made of Manduve flour. Every year in the month of Jeth (eldest) a two-day fair is held here along with Jat (Jatra or Yatra). On the first day of the fair, a procession is taken out from Rajkhil village to Bhairavgarh. Thousands of devotees take part in this annual ritual. Even though there was a practice of animal sacrifice here at one time, but now this practice has completely stopped.

Ajeygarh is also a name of Langurgarh
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The first attack of Gurkhas on Garhwal took place in Langurgarh itself. This war is known as Langurgarh war. Langurgarh was then ruled by the Aswal Thakurs, who with the help of Garhwal King Pradyuman Shah's army forced the Gorkha soldiers to surrender. Then considering this fort as invincible, it also came to be known as Ajeygarh (अजयगढ़).

Bhairav ​​of our presiding deity Langur Garh
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Incidentally, my village Bhalgaon also comes under the purview of Bhairavgarh and Bhairon Nath is also the presiding deity of our family. Although my native village is Barsudi, but later my great grandfather or the generation before him came to Bhalgaon two miles down. I do not remember exactly, but 22-23 years ago when I had gone to the village to participate in Devpuja, during this time I also got a chance to visit Rajkhil. It took me about five hours to go to Rajkhil and back to Bhalgaon. The peak of Langurgarh is at a distance of two km from Rajkhil. There the priests of Bhairon temple are the people of Dobriyal caste of Rajkhil.