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Thursday, 26 January 2023

26-01-2023 (जोशीमठ और उदास वसंत)















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जोशीमठ और उदास वसंत

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दिनेश कुकरेती
ज स्वप्न में अनायास वसंत से मुलाकात हो गई। मैंने  स्वभाव के अनुरूप उसका प्रफुल्लित भाव से स्वागत किया। ऋतुराज जो ठैरा। कौन होगा जो स्वयं को उसका स्वागत करने से रोक सके। वैसे भी वसंत मुझे अति प्रिय है, वो चाहे लता, गुल्म व शाखाओं में आए या बुरांश के सुर्ख फूलों में या फिर सरसों के पीले फूलों से लकदक हरे-भरे खेतों में। उसका थिरकना, कनखियों से झांकना, मंद-मंद मुस्कान बिखेरते हुए लजा जाना मुझे भाव-विभोर कर देता है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो बागों में बहती मंद-मंद सुगंधित बयार प्रकृति से आठखेलियां कर रही है। 


संत प्रकृति के हर रूप में समाया हुआ है। तभी तो 'ऋतुसंहार' में महाकवि कालीदास उसे 'सर्वप्रिये चारुतर वासंते' कहकर अलंकृत करते हैं। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण वसंत को अपना स्वरूप बताते हुए कहते हैं- 'ऋतूनां कुसुमाकर:' अर्थात् 'ऋतुओं में मैं वसंत हूं।' जबकि पौराणिक कथाएं वसंत को कामदेव के पुत्र की संज्ञा देकर प्रतिष्ठित करती हैं। कवि देव, वसंत ऋतु का कुछ इस तरह वर्णन करते हैं- 'रूप एवं सौंदर्य के देवता कामदेव के घर पुत्र के जन्म होने का समाचार सुनते ही प्रकृति झूम उठी है। पेड़ उसके लिए नव पल्लव का पालना डाल चुके हैं, फूल वस्त्र पहना रहे हैं, पवन उसे झुला रही है और कोयल उसे गीत सुनाकर बहलाने का जतन कर रही है।'















'कालिका पुराण' में वसंत का व्यक्तीकरण करते हुए उसे सुदर्शन, अति आकर्षक, संतुलित शरीर वाला, तीखे नयन-नक्श वाला, नाना प्रकार के फूलों से सजा, आम्र मंजरियों को हाथ में पकडे़ रहने वाला, मतवाले हाथी जैसी चाल वाला जैसे तमाम गुणों से भरपूर बताया गया है। वहीं प्रकृति के चितेरे कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल कहते हैं- 
'अब छाया में गुंजन होगा वन में फूल खिलेंगे,
दिशा-दिशा में अब सौरभ के धूमिल मेघ उठेंगे,
जीवित होंगे वन निद्रा से निद्रित शैल जगेंगे,
अब तरुओं में मधु से भीगे कोमल पंख उगेंगे।'
लेकिन, मेरे मुख से अपनी इतनी तारीफ सुनने के बाद भी वसंत के चेहरे पर उभरी विषाद की लकीरों ने मुझे संशय में डाल दिया। मेरी उत्कंठा मुझे उद्वेलित करने लगी। मैं सोचने लगा आखिर वह कौन-सी वजह है, जिसने जीवन में कभी निराश नहीं होना चाहिए और निराशा, नीरसता व निष्क्रियता को त्यागकर सदैव प्रसन्न रहना चाहिए का भाव जगाने वाने वाले वसंत के चेहरे पर भी निराशा के भाव ला दिए।


मैंने सकुचाते हुए वसंत से पूछा, 'हे! प्रिय, आखिर कौन-सा दुख तुम्हें साल रहा है। मुझसे तुम्हारी यह उदासी देखी नहीं जाती।' यह सुनकर वसंत के मुखमंडल पर उदासी  और गहरा गई। कुछ पल खामोशी से मेरे चेहरे को ताकने के बाद वह कातर स्वर में बोला, 'तु भी तो उदास हो मित्र, हंसते-खेलते जोशीमठ को उजड़ते देखकर।' मैंने कहा, 'हां! एक फूलती -फलती सभ्यता को उजड़ते देख भला कौन खुश होगा।' यह सुन वसंत बोला, 'फिर मैं तुमसे अलग कैसे हो सकता हूं भला। मैं भी तो तुम्हारे मन का ही भाव हूं।' मुझे मेरे सवाल का जवाब मिल चुका था, इसलिए मैंने भाव-विह्वल हो वसंत को कसकर सीने से लगा लिया। तभी वसंत मेरे कान में धीरे से बोला- 'क्या तुम व्यक्त कर पाओगे मेरे हृदय की पीडा़ को?' मैंने 'हां' में जवाब दिया तो वसंत आहिस्ता-आहिस्ता अपने मन के भाव व्यक्त करने लगा। ...और मैं उन्हें कविता की शक्ल में कागज पर उकेरता चला गया, कुछ इस तरह-

वसंत आया
चुपके-चुपके
और लौट गया
दुखी और- 
उदास मन से
उजड़ते-बिखरते
जोशीमठ को देख।
 
खंडहर होते घर
मिट्टी में मिलती 
उम्मीदें
चकनाचूर होते 
सपने
वसंत से 
देखे नहीं गए।

जानता था
कि दुख 
रोक देते हैं 
उल्लास की राह
मुरझा जाता है यौवन
फिर कौन करेगा
उसका स्वागत।

वसंत ने देखे हैं
इस शहर में 
उम्मीदों के अंकुर
फूटते हुए
खिलखिलाते हुए
सुर्ख बुरांश
उदासी से पहले।

फिर भी
वसंत की कामना है
लौट आएं 
वो सुनदरे दिन
और वह उन्मुक्त होकर
थिरक सके
हर घर-आंगन।

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Joshimath and the sad spring

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Dinesh Kukreti

Today, I met Vasant spontaneously in my dream.  I welcomed him cheerfully according to nature.  Rituraj who stayed.  Who would be able to stop himself from welcoming him.  Anyway, I love spring very much, whether it comes in the form of creepers, flowers and branches or in the red flowers of Buransh or in the green fields covered with yellow mustard flowers.  Her dancing, peeping through her eyes, being shy while spreading a slow smile makes me emotional.  It appears as if the scented breeze flowing slowly in the gardens is playing tricks with nature.

Spring is contained in every form of nature.  That's why in 'Ritusanhar' Mahakavi Kalidas embellishes him by calling him 'Sarvpriya Charutar Vasante'.  In the Gita, Yogeshwar Shri Krishna describes Vasant as his form and says- 'Ritunaam Kusumakar:' which means 'I am the spring among the seasons'.  While the mythological stories give prestige to Vasant as the son of Cupid.  Poet Dev, describes the spring season in this way- 'The nature got excited on hearing the news of the birth of a son in the house of Kamadeva, the god of form and beauty.  The trees have put the cradle of Nav Pallava for him, flowers are dressing him, the wind is swinging him and the cuckoo is trying to amuse him by singing songs.'

While personifying Vasant in 'Kalika Purana', he is said to be beautiful, very attractive, having a balanced body, having sharp eyes, decorated with different types of flowers, holding mango manjaris in his hand, having a gait like a drunk elephant.  Said to be full of  On the other hand, poet Chandrakunwar Bartwal, the poet of nature, says-

Now there will be hum in the shade, flowers will bloom in the forest,

Saurabh's foggy clouds will now rise in every direction,

Forests will come alive, sleepy rocks will wake up,

Now soft wings soaked with honey will grow in the trees.

But, even after hearing so much praise from my mouth, the lines of sadness that emerged on Vasant's face put me in doubt.  My curiosity began to excite me.  I started thinking that what is the reason that one should never be disappointed in life and should always be happy by leaving pessimism, dullness and passivity, but the one who wakes up Vasant also brought expressions of despair on his face.

Hesitatingly I asked Vasant, 'Hey!  Dear, after all, what sorrow has been going on for you.  I cannot see your sadness.'  Hearing this, the sadness on Vasant's face deepened.  After staring at my face silently for a few moments, he said in a bitter voice, 'You are also sad, friend, seeing Joshimath being destroyed while playing.'  I said, 'Yes!  Who would be happy to see a flourishing civilization getting destroyed.'  Hearing this, Vasant said, 'Then how can I be separated from you?  I am also a feeling of your mind.'  I had got the answer to my question, so I hugged Vasanth tightly to my chest.  That's why Vasant spoke softly in my ear - 'Will you be able to express the pain of my heart?'  When I replied in 'yes', Vasant slowly started expressing his feelings.  ...and I went on scribbling them on paper in the form of poetry, something like this-

spring came
silently
and returned
sad and-
with a sad heart
falling apart
Look at Joshimath.

dilapidated house
mixed in the soil
expectations
Shattered
Dreams
since spring
Not seen

knew
that sadness
let's stop
road to glee
youth withers
then who will
Welcome him

spring has seen
in this city
seeds of hope
exploding
smilingly
surkh buransh
Before sadness

Even then
wish spring
come back
those beautiful days
and he is free
can get tired
Every house-courtyard.


Tuesday, 17 January 2023

17-01-2023 (मेरी यादों में बसा है जोशीमठ)


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मेरी यादों में बसा है जोशीमठ
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दिनेश कुकरेती
ज दोपहर खबर मिली कि जोशीमठ शहर के नीचे बसा चुनारगांव भी भूधंसाव की जद में है। गांव के नीचे पहाडी़ के अंदर भूगर्भीय हलचल हो रही है और कभी भी गांव जमींदोज हो सकता है। यह सुनकर मुझे जोशीमठ में गुजारे बचपन के वो सुनहरे दिन याद हो आए, जब मैं बदरीनाथ हाइवे (मारवाडी़-जोशीमठ) के ऊपर की पहाडी़ पर बसे इस गांव की चढा़ई-उतराई नापा करता था। यादें दृश्य बनकर आंखों में चलचित्र की तरह तैरनें लगीं और आंखों के पोर कब गीले हो गए पता ही नहीं चला। मेरे लिए चुनारगांव कोई सामान्य गांव नहीं है। यह मेरे अंतर्मन में बसा गांव है। इस गांव से मेरा ऐसा रिश्ता है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस गांव में दस परिवार रहते हैं। सभी के घरों पर लाल निशान लग चुके हैं और उन्हें खाली कराया जा रहा है। कुछ ही दिन में इन घरों को ढहा दिया जाएगा और फिर यह गांव इतिहास बन जाएगा।

मेरे बचपन के दो साल जोशीमठ शहर के नीचे बसे मारवाडी़ गांव में ही बीते। वर्ष 1978 में मैं दूसरी कक्षा पास कर भलगांव (पौडी़ जिले के द्वारीखाल ब्लाक की लंगूर पट्टी में स्थित मेरा मूल गांव) से जोशीमठ चला गया था। मेरे पिता तब ग्रेफ (जनरल रिजर्व इंजीनियर फोर्स)/बीआरओ के मारवाडी़ कैंप में तैनात थे। उस दौरान मेरी उम्र आठ साल रही होगी यानी सात साल पूरे करने के बाद आठवां साल चल रहा था। हम मारवाडी़ में बीआरओ के डीजल जैनरेटर हाउस के पास किराये के कमरे में रहते थे। बीस रुपये प्रतिमाह था किराया। ऊपरी मंजिल पर कुमौनी (कुमाऊंनी) परिवार रहता था। गोविंद और गंगा था इस दंपत्ती का नाम। कुछ समय बाद गोविंदजी का तबादला हो गया। वो भी ग्रेफ में ही थे। बहुत ही मिलनसार परिवार था यह, बिल्कुल अपना जैसे। उनके साथ रहते हुए मैं भी कुमाऊंनी बोलना सीख गया था। इसके बाद उस कमरे पर भगवती भाई का परिवार आया। उनकी नई-नई शादी हुई थी। ग्रेफ में कार्यरत भगवती भाई भी कुमाऊं से ही थे। वे लंबे-घुंघराले बाल रखते थे, बिल्कुल उस दौर के अभिनेताओं जैसे। पति-पत्नी दोनों ही गोविंदजी के परिवार जैसे ही आत्मीय थे। ऐसे प्रेमी पडो़सी सौभाग्य से ही मिलते हैं।

जिस मकान में हम रहते थे, वह मिट्टी-पत्थर का बना हुआ था और किसी जोगी का था। बचपन में ही वो वृंदावन से जोशीमठ आ गए थे। जोगीजी कहने को तो गृहस्थ नहीं थे, लेकिन उनका चेले-चेलियों का भरा-पूरा परिवार था, जो जोशीमठ जाने वाले पैदल मार्ग पर सिंहधार से नीचे (जगह का नाम याद नहीं आ रहा) रहता था। वहां जोगीजी का सुविधा-संपन्न घर था। मवेशी थे। खेतीबाड़ी थी। सेवा करने के लिए माई थी। उनके चेले का नाम लोण महाराज था। उसके पास एक बिल्ली भी थी। उस दौर में मारवाडी़ में बिजली नहीं थी हमारे घर के पास ही एक गदेरा बहता था, जिसका पानी हम पीने के उपयोग में लाते थे। इस गदेरे में पानी हमारे घर के ऊपर जंगल के मध्य स्थित प्राकृतिक स्रोत से आता था। बरसात के दौरान यह पानी काफी बढ़ जाता था। हमारे घर के ठीक नीचे बदरीनाथ हाईवे था और उसके नीचे एक मंदिर। बगल में स्थित बीआरओ के जैनरेटर हाउस में सुबह-सुबह हनुमान चालीसा का टेप बजा करता था। रोजाना सुन-सुनकर मुझे हनुमान चालीसा कंठस्थ हो गई थी।
खैर! जोशीमठ पहुंचने के हफ्तेभर बाद मैं स्कूल भी जाने लगा। मेरा दाखिला चुनारगांव स्थित प्राइमरी स्कूल में तीसरी कक्षा में करा दिया गया। यह स्कूल मेरे घर से शायद दो किमी दूर रहा होगा। अब ठीक से याद नहीं रहा कि स्कूल में कितने कमरे थे, लेकिन इतना जरूर ध्यान आ रहा है कि स्कूल के नीचे गोशाला थी। जिस पैदल रास्ते में बायीं ओर यह स्कूल पड़ता था, वह आगे जाकर जोशीमठ में नृसिंह मंदिर से पहले जूनियर हाईस्कूल के पास मिलता था। स्कूल में शायद दो शिक्षक थे। प्रधानाध्यापक का नाम तो मुझे आज भी याद है। लीला रावत था उनका नाम। स्कूल में कितने छात्र-छात्राएं रहे होंगे, यह अब ठीक से याद नहीं रहा। 60-70 के आसपास तो रहे ही होंगे।
मेरे सहपाठियों में से भी अब कुछेक के नाम ही मुझे याद हैं। उनमें आनंद कप्रवाण, दिनेश भट्ट, दिनेश, अशोक वर्मा व छुमा प्रमुख हैं। आनंद का बडा़ भाई विनोद भी इसी स्कूल में पढ़ता था। शायद पांचवीं में। इसके अलावा पांचवीं में ही एक लड़की ज्योति हुआ करती थी। बेहद झगडा़लू, किसी से भी लड़ पड़ती थी। उसका गांव मेरे घर से ठीक ऊपर सिंहधार के नीचे की पहाडी़ पर था। मेरी कक्षा में एकमात्र लड़की छुमा ही थी। चुनारगांव में छह-सात महीने तक यह स्कूल रहा। इसके बाद स्कूल का नया भवन बन गया, जो बदरीनाथ हाइवे के निचले छोर पर विष्णु प्रयाग की ओर जाने वाले पैदल रास्ते से लगा हुआ था। इस भवन में बडे़-बडे़ कक्षा-कक्ष थे। इसकी छत टिन की चद्दर की थी। यहां हमारी एक नई शिक्षक भी आई थी, जिनका नाम सरोज शाह था। शायद वह उनकी पहली नियुक्ति थी।
























वह नाक में लौंग के बजाय रिंग पहनती थीं, इसलिए उनका चेहरा मुझे आज भी याद है। हमारी क्लास टीचर भी वही थीं। मैं बचपन से ही संकोची स्वभाव का रहा हूं, फिर भी अशोक वर्मा, दिनेश भट्ट व छुमा से मेरी खूब छनती थी। दिनेश भट्ट के पिता की मेरे घर से लगभग डेढ़ किमी नीचे मारवाडी़ में ही सब्जी की दुकान थी। हां! एक नाम और याद आया। स्कूल के नए भवन में शिफ्ट होने के बाद तीन भाई-बहन ने भी वहां प्रवेश लिया था। इनमें गजेंद्र राणा सबसे बडा़ था। उसका छोटा भाई मेरी कक्षा में था और बहन शायद दूसरी कक्षा में। उनका गांव विष्णु प्रयाग के ठीक ऊपर पहाडी़ पर था। गांंव का नाम चाई था या थाई, ठीक से याद नहीं। स्कूल से तीन-साढे़ किमी दूर तो रहा ही होगा यह गांव। तीनों भाई-बहन अकेले ही वहां से आते थे। वहां से आने-जाने के लिए विष्णु प्रयाग में धौली़ गंगा पर बने झूला पुल को पार करना पड़ता था। उस उम्र में तीनों भाई-बहन का यह सफर साहसिक ट्रैकिंग का प्रमाण है।
उस दौर में यदा-कदा ही जोशीमठ बाजार जाना होता था। मुझे ऐसे चार-छह मौके याद हैं। दो बार मैं परिवार के साथ सिनेमा देखने गया था। एक बार गांधी मैदान के पास गांधी आश्रम और दो-तीन बार भोटिया बंधु की दुकान में सामान खरीदने। उसी दौर में एक बार बदरीनाथ के कपाट खुलने से पूर्व नृसिंह मंदिर में आयोजित होने वाले प्रसिद्ध वीर तिमुंड्या (तिमुंडिया) मेले में जाने का भी अवसर मिला। यह मेला बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने के ठीक एक या दो हफ्ते पूर्व पड़ने वाले शनिवार या मंगलवार को होता है। जिस व्यक्ति पर तिमुंड्या वीर अवतरित होता है, वह रौद्र रूप धारण कर एक बकरा, 40 किलो के आसपास कच्चा चावल व दस किलो गुड़ खाने के साथ ही दो घड़े पानी पी जाता है। 

















परिवार से अलग स्कूल के बच्चों के साथ एक ही बार मुझे जोशीमठ जाने का मौका मिला। शायद स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस या गांधी जयंती के मौके पर। तब सिंहधार स्थित जूनियर हाईस्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित हुए थे। इसी कालखंड में मेरा दो बार बदरीनाथ धाम जाना भी हुआ। इसमें से एक दफा मैं माणा गांव भी गया। ऐसी तमाम सुनहरी यादें हैं जोशीमठ की, भला इन्हें बिसराया जा सकता है? आज जब प्रकृति के कोप से मेरा यह यादों में बसा शहर उजड़ रहा है तो रह-रहकर मन बेचैन हो उठता है। इतनी पीडा़ मुझे हो रही है तो उन्हें कितनी पीडा़ हो रही होगी, जिन्होंने जोशीमठ को सजाने-संवारने में अपना जीवन खफा दिया और अब रहने को ठौर तक नहीं बचा है।
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Joshimath resides in my memories

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Dinesh Kukreti

This afternoon news was received that Chunargaon, situated below Joshimath town, is also under the threat of landslide.  Geological movements are taking place inside the hill below the village and the village can be razed to the ground anytime.  Hearing this, I remembered those golden days of my childhood spent in Joshimath, when I used to measure the rise and fall of this village situated on the hill above the Badrinath Highway (Marwari-Joshimath).  Memories started floating like a movie in the eyes after becoming visible and I did not know when the knuckles of the eyes became wet.  Chunargaon is not an ordinary village for me.  This is my inner village.  I have such a relation with this village, which can never be forgotten.  Ten families live in this village.  Everyone's houses have been red marked and they are being evacuated.  These houses will be demolished in a few days and then this village will become history.









Two years of my childhood were spent in Marwadi village situated below Joshimath city.  In the year 1978, after passing second class, I moved from Bhalgaon (my native village in Langur Patti of Dwarikhal block of Pauri district) to Joshimath.  My father was then posted in the Marwari camp of GRAF (General Reserve Engineer Force)/BRO.  During that time my age must have been eight years i.e. after completing seven years, the eighth year was going on.  We lived in a rented room near BRO's diesel generator house in Marwari.  The rent was twenty rupees per month.  The Kumaoni (Kumaoni) family lived on the upper floor.  The name of this couple was Govind and Ganga.  After some time Govindji was transferred.  He was also in the graph.  It was a very friendly family, just like our own.  While living with him, I also learned to speak Kumaoni.  After this Bhagwati Bhai's family came to that room.  He had a new marriage.  Bhagwati Bhai working in Graf was also from Kumaon.  He had long, curly hair, just like the actors of that era.  Both husband and wife were as intimate as Govindji's family.  Such loving neighbors are found only by good fortune.



The house in which we lived was made of mud and stone and belonged to a Jogi.  In his childhood, he had come to Joshimath from Vrindavan.  Jogiji was not a householder to be called, but he had a whole family of disciples, who lived below Singhdhar (can't remember the name of the place) on the footpath leading to Joshimath.  Jogiji had a comfortable house there.  There were cattle.  There was agriculture.  Mother was there to serve.  His disciple's name was Lon Maharaj.  He also had a cat.  At that time, there was no electricity in Marwadi. There used to be a stream flowing near our house, whose water we used to drink.  The water in this trough used to come from a natural spring located in the middle of the forest above our house.  This water used to increase a lot during the rainy season.  There was Badrinath Highway just below our house and below that a temple.  Hanuman used to play the tape of Chalisa early in the morning in the generator house of BRO located next to it.  I had memorized the Hanuman Chalisa by listening to it every day.

So!  A week after reaching Joshimath, I started going to school.  I was enrolled in the third grade in the primary school in Chunargaon.  This school might have been two km away from my house.  Now I can't remember exactly how many rooms were there in the school, but I can definitely remember that there was a cowshed below the school.  The pedestrian path on the left side of which this school used to go, goes ahead and meets near the Junior High School before the Narasimha Temple in Joshimath.  There were probably two teachers in the school.  I still remember the name of the headmaster.  His name was Leela Rawat.  How many students must have been in the school, it is not remembered properly now.  Must have been around 60-70.

Even among my classmates, I remember only a few names.  Anand Kaprwan, Dinesh Bhatt, Dinesh, Ashok Verma and Chuma are prominent among them.  Anand's elder brother Vinod also studied in this school.  Maybe in the fifth.  Apart from this, there used to be a girl Jyoti in the fifth.  Very quarrelsome, used to fight with anyone.  His village was just above my house on the hill below Singhdhar.  Chuma was the only girl in my class.  This school remained in Chunargaon for six-seven months.  After this, the new building of the school was built, which was adjacent to the footpath leading to Vishnu Prayag at the lower end of the Badrinath Highway.  There were big class rooms in this building.  Its roof was of tin sheet.  We also had a new teacher here, whose name was Saroj Shah.  Perhaps it was his first appointment.

She used to wear a ring instead of a clove in her nose, so I still remember her face.  Our class teacher was also the same.  I have been of shy nature since childhood, yet I used to be very attracted to Ashok Verma, Dinesh Bhatt and Chuma.  Dinesh Bhatt's father had a vegetable shop in Marwadi, about one and a half km below my house.  Yes!  I remembered one more name.  After the school shifted to the new building, three siblings also took admission there.  Gajendra rana was the eldest among them.  His younger brother was in my class and sister probably in another class.  His village was on the hill just above Vishnu Prayag.  The name of the village was Chai or Thai, don't remember exactly.  This village must have been three-and-a-half km away from the school.  All three siblings used to come from there alone.  To come and go from there, one had to cross the suspension bridge built on the Dhauli Ganga in Vishnu Prayag.  This journey of all three siblings at that age is proof of adventure trekking.

In those days, I had to go to Joshimath market every now and then.  I remember four-six such occasions.  Twice I went to the cinema with the family.  Once at Gandhi Ashram near Gandhi Maidan and two-three times at Bhotia Bandhu's shop to buy goods.  In the same period, once before the opening of the doors of Badrinath, there was also an opportunity to go to the famous Veer Timundya (Timundiya) fair held in the Narasimha temple.  This fair takes place on a Saturday or Tuesday that falls just a week or two before the opening of the doors of Badrinath Dham.  The person on whom Timundya Veer incarnates, assumes a fierce form and eats a goat, around 40 kg of raw rice and ten kg of jaggery and drinks two pitchers of water.

Apart from the family, I got a chance to visit Joshimath only once with the school children.  Maybe on the occasion of Independence Day or Republic Day or Gandhi Jayanti.  Then cultural programs were organized at the Junior High School in Sinhadhar.  During this period, I happened to visit Badrinath Dham twice.  One of these times I also went to Mana village.  There are many such golden memories of Joshimath, they can be forgotten? Today, when this city of my memories is getting ruined due to nature's anger, my mind gets restless by living here and there.  If I am suffering so much, then how much pain they must be feeling, who have wasted their lives in decorating Joshimath and now have no place to live.

Monday, 2 January 2023

02-01-2023 (उत्तराखंड आंदोलन के संस्मरणों का दस्तावेज)


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उत्तराखंड आंदोलन के संस्मरणों का दस्तावेज

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दिनेश कुकरेती
मेरे लिए आज बेहद खुशी का दिन है। तीन महीने के अथक परिश्रम के बाद 'गुलदस्ता' जो महक उठा है। ऐसे में खुश होना तो बनता है। 'गुलदस्ता' का प्रकाशन उत्तरांचल प्रेस क्लब ने वर्ष 2020 में त्रैमासिक पत्रिका के रूप में शुरू किया था। संयोग से पत्रिका के संपादन का सौभाग्य मुझे मिला और कोरोना की विभीषिका के बावजूद तीन संग्रहणीय अंक प्रकाशित भी हुए। कोरोना विशेषांक को तो सर्वत्र सराहना मिली। लेकिन, वर्ष 2021 में न जाने किन कारणों से यह सिलसिला जारी नहीं रह पाया। वर्ष 2022 में मुझे भी बतौर संयुक्त मंत्री प्रेस क्लब की कार्यकारिणी का हिस्सा बनने का मौका मिला। हालांकि, इस बार भी पत्रिका का त्रैमासिक प्रकाशन नहीं हो पाया। इसका मलाल मुझे वर्षभर रहा। 
खैर! इसकी भरपाई के लिए हमने क्लब की डायरी/डायरेक्टरी का प्रकाशन किया, जिसे हर किसी ने सराहा। सच कहूं तो यह डायरी इतनी खूबसूरत बन गई थी कि जिसके हाथ में गई, उसी ने प्रशंसा की। लेकिन, असल चुनौती 'गुलदस्ता' के वार्षिकांक के प्रकाशन की थी। फिर हम पत्रिका को रस्मअदायगी के तौर पर भी नहीं निकालना चाहते थे। इस संबंध में क्लब अध्यक्ष जितेंद्र अंथवाल के साथ लगातार चर्चा होती रही। आखिर में तय हुआ कि इस बार के 'गुलदस्ता' को उत्तराखंड राज्य आंदोलन पर केंद्रित किया जाएगा, जो कि आंदोलन को लेकर पूर्व में प्रकाशित हो चुके दस्तावेजों से हटकर होगा। इसलिए राय बनी कि प्रदेशभर से उन चुनिंदा पत्रकारों के संस्मरण मंगाए जाएं, जिनकी आंदोलन में सक्रिय भागीदारी रही है और उन्होंने गंभीरतापूर्वक आंदोलन को कवर भी किया है। इसके अलावा 'गुलदस्ता' में आंदोलन के इतिहास और उस दौर गाए गए जनगीतों को समेटने का भी निर्णय लिया गया। इसके बाद मैंने पत्रिका पर काम करना शुरू कर दिया।
मैंने और अंथवालजी ने आंदोलन के दौर के कई पत्रकारों से अपने संस्मरण लिखने का आग्रह किया। साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, उस दौर में केंद्रीय तथ्यान्वेषक समिति के संयोजक रहे सुरेंद्र कुमार, डा. देवेंद्र भसीन, कामरेड अनंत आकाश, जगमोहन सिंह नेगी, डा.अतुल सती, साहित्यकार हेमचंद्र सकलानी, डा.सुभाष गुप्ता, प्रसिद्ध जनकवि डा. अतुल शर्मा आदि ने भी अपने संस्मरण उपलब्ध कराकर हमें अनुग्रहीत किया। धीरे-धीरे 'गुलदस्ता' आकार लेने लगा। हालांकि, इस दौरान हमें तमाम चुनौतियों का सामना भी करना पडा़। सबसे बडी़ चुनौती तो उस दौर के फोटोग्राफ जुटाने की थी। वह तो संयोग से अंथवालजी के पास उस दौर के अखबार मौजूद थे, उन्हीं से फोटो स्कैन कर जैसे-तैसे उन्हें उपयोग लायक बनाया गया। कुछ फोटो उस दौर के छायाकार साथियों ने भी उपलब्ध करवाए।
तथ्यों एवं तिथियों में गलती न जाए, इसके लिए भी काफी मेहनत करनी पडी़। अधिकांश सामग्री को रिराइट करना पडा़। ऐसे में 'गुलदस्ता' को संवरने में लगभग तीन माह का समय लग गया। इस तरह तैयार हुआ 'गुलदस्ता' के रूप में उत्तराखंड राज्य आंदोलन के संस्मरणों का दस्तावेज। प्रेस क्लब के चुनाव का कार्यक्रम जारी हो चुका था, लेकिन हम चाहते थे कि इसका मुख्यमंत्री के हाथों विधिवत विमोचन कराया जाए। पहले हमने सोचा था का क्लब में ही मुख्यमंत्री को आमंत्रित कर भव्य समारोह में 'गुलदस्ता' का विमोचन कराएंगे, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाया। जो-कुछ करना था, मुझे और अंथवालजी को ही करना था। इसलिए हमने मुख्यमंत्री आवास पर ही विमोचन कराने का निर्णय लिया। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इसके लिए 27 दिसंबर सुबह 9:30 बजे का समय दिया। सो, हम चुनिंदा छह लोग तय समय पर मुख्यमंत्री आवास पहुंच गए। संयोग से इस मौके पर कृषि मंत्री सुबोध उनियाल व मेयर सुनील उनियाल गामा भी वहां मौजूद थे और वह भी विमोचन कार्यक्रम का हिस्सा बने।
खैर! विमोचन के बाद तय हुआ कि 29 दिसंबर को मतदान वाले दिन सदस्यों का 'गुलदस्ता का वितरण किया जाएगा। मतदान के बहाने उस दिन क्लब में लगभग सभी सदस्यों की मौजूदगी रहती है। सच कहूं तो पढ़ने-लिखने वाले सभी सदस्यों ने हमारे इस प्रयास की सराहना भी की। लगभग सभी का यही कहना था कि इस बार का 'गुलदस्ता' ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुका है। उत्तराखंड आंदोलन के बाद ऐसा दस्तावेज पहली बार प्रकाशित हुआ है। कई जगह से इस दस्तावेज की मांग आ रही है। बठिंडा (पंजाब) से भी बिजेंद्र सिंह रावत जी का फोन आया है कि 'गुलदस्ता' की प्रति उन्हें भी उपलब्ध करा दूं। 
पहली जनवरी को जब वर्ष 2023 के लिए क्लब की नई कार्यकारिणी कार्यभार संभाल चुकी है और हम इस जिम्मेदारी से मुक्त हो चुके हैं, तो सोच रहा हूं आगे उत्तराखंड आंदोलन पर और बेहतर ढंग से काम किया जाए। ऐसा किया जाना जरूरी भी है, क्योंकि नौ नवंबर 2000 के बाद और उससे एक-दो बरस पहले जन्मी पीढी़ को तो मालूम ही नहीं है कि उत्तराखंड बनाने के लिए हमें कैसी-कैसी चुनौतियों का सामना करना पडा़। मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि उत्तराखंड आंदोलन के संस्मरणों का यह दस्तावेज नई पीढी़ का थोडा़-बहुत ही सही, लेकिन मार्गदर्शन अवश्य करेगा।
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Document of memoirs of 
Uttarakhand movement

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Dinesh Kukreti

Today is a very happy day for me.  The 'bouquet' that has blossomed after three months of tireless hard work.  In such a situation, it is necessary to be happy.  The publication of 'Guldasta' was started by Uttaranchal Press Club in the year 2020 as a quarterly magazine.  Coincidentally, I got the good fortune of editing the magazine and despite the havoc of Corona, three collectible issues were also published.  The Corona special issue was appreciated everywhere.  But, in the year 2021, for some unknown reason, this process could not continue.  In the year 2022, I also got a chance to be a part of the Executive Committee of the Press Club as a Joint Minister.  However, this time also the quarterly publication of the magazine could not be done.  I regretted it for a whole year.

So!  To compensate for this, we published a club diary/directory, which was appreciated by everyone.  To be honest, this diary had become so beautiful that it was praised by the one in whose hands it went.  But, the real challenge was the publication of the annual issue of 'Guldasta'.  Then we did not want to bring out the magazine even as a ritual.  In this regard there was constant discussion with club president Jitendra Anthwal.  Finally it was decided that this time 'Guldasta' would be focused on the Uttarakhand state movement, which would be different from the documents published earlier regarding the movement.  That's why it was decided that the memoirs of those selected journalists should be called from all over the state, who have been actively involved in the movement and have also covered the movement seriously.  Apart from this, it was also decided to include the history of the movement and the folk songs sung during that period in 'Guldasta'.  After that I started working on the magazine.

Anthwalji and I urged several journalists from the movement to write their memoirs.  Along with former Chief Minister Harish Rawat, Surendra Kumar, Dr. Devendra Bhasin, Com.  Atul Sharma etc. also blessed us by making available their memoirs.  Slowly the 'bouquet' started taking shape.  However, during this we also had to face many challenges.  The biggest challenge was to collect photographs of that period.  Coincidentally, Anthwalji had the newspapers of that era, by scanning photos from them, they were somehow made usable.  Some photos were also made available by the cinematographers of that era.

A lot of hard work had to be done to ensure that there is no mistake in facts and dates.  Most of the material had to be rewritten.  In such a situation, it took about three months to decorate the 'Guldasta'.  This is how the document of memoirs of the Uttarakhand statehood movement was prepared in the form of 'Guldasta'.  The program for the election of the Press Club had been released, but we wanted it to be formally released by the Chief Minister.  Earlier we had thought that the 'Guldasta' would be released in a grand ceremony by inviting the Chief Minister in the club itself, but this was not possible.  Whatever had to be done, I and Anthwalji had to do it.  That's why we decided to get the release done at the Chief Minister's residence itself.  Chief Minister Pushkar Singh Dhami gave time for this at 9:30 am on December 27.  So, we selected six people reached the Chief Minister's residence on time.  Incidentally, Agriculture Minister Subodh Uniyal and Mayor Sunil Uniyal Gama were also present there on this occasion and they also became a part of the release programme.

So!  After the release, it was decided that on the day of voting on December 29, the 'bouquet' would be distributed to the members.  Almost all the members of the club are present on that day on the pretext of voting.  To be honest, all the reading and writing members also appreciated our effort.  Almost everyone said that this time's 'bouquet' has become a historical document.  Such a document has been published for the first time after the Uttarakhand movement.  The demand for this document is coming from many places.  I have also received a call from Bathinda (Punjab) from Bijendra Singh Rawat ji that I should make the copy of 'Guldasta' available to him as well.

On January 1, when the new executive of the club has taken charge for the year 2023 and we have been relieved of this responsibility, I am thinking of working better on the Uttarakhand movement.  It is also necessary to do this, because the generation born after November 9, 2000 and one or two years before that, does not even know that what kind of challenges we had to face to make Uttarakhand.  I can say with confidence that this document of the memoirs of the Uttarakhand movement will definitely guide the new generation, albeit a little bit.








Sunday, 1 January 2023

01-01-2023 (हम कहां जा रहे हैं)

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हम कहां जा रहे हैं

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दिनेश कुकरेती

जीब तरह का उन्माद है। हम आंग्ल नववर्ष नहीं मनाते, यह गुलामी का प्रतीक है, हमारा नववर्ष तो अप्रैल में आता है, फिर भी सब बोल रहे हैं तो आपको 'आंग्ल वर्ष की शुभकामनाएं'। कुछ तो इसे ईसाई वर्ष ठहरा रहे थे। यह सब आज सुबह मुझे उन पत्रकार मित्रों से सुनने को मिला, जो स्वयं को धुरंधर, हर विषय का ज्ञाता और हिंदू धर्म का रक्षक समझते हैं। साथ ही स्वयं को इस तरह प्रदर्शित करने का स्वांग भी भरते हैं। हमारा नववर्ष कौन-सा है, विक्रम संवत है या शक संवत, वह किस हिंदी महीने में किस तिथि से शुरू होता है, हिंदी महीनों के नाम, उनका राशियों से संबंध, यह नववर्ष संक्रांति से शुरू होता है या पूर्णिमा से, हम सौर मास को मानते हैं या चंद्रमास को, सौर मास और चंद्रमास में क्या अंतर है, ग्रेगोरी कैलेंडर और विक्रमी कैलेंडर के बीच कितने साल का अंतर है, जैसे सवालों का उनके पास कोई जवाब नहीं।

चर्चा के बीच ही एक पत्रकार मित्र अपनी टांग ऊंची करते हुए बोले, विक्रमी संवत और ईस्वी संवत के बीच 500 साल का अंतर है। दूसरे पत्रकार मित्र भी भला कहां चुप रहने वाले थे, सो बोले, हमारा नया साल शायद वसंत पंचमी से आता है। मुझे उनके इस ज्ञान पर आश्चर्य हो रहा था, इसलिए सोचा थोडा़ और कुरेदकर क्यों न अपने ज्ञान की अभिवृद्धि कर ली जाए। इस बात को ध्यान में रखकर मैंने विनम्रता से पूछा, ग्रेगोरी कैलेंडर में तो तिथि को तारीख बोलते हैं, विक्रमी कैलेंडर में क्या बोलते होंगे। इस सवाल से पत्रकार मित्र भड़क उठे और चर्चा को मुगलकाल की ओर मोड़ने का प्रयास करने लगे। इधर मैं ज्ञानपिपासु फिर पूछ बैठा, हमारा यह कौन-सा महीना चल रहा है और इसकी आज कौन-सी तिथि है। बस! फिर क्या था, भाई साहब 2014 से पहले की शिक्षा पद्धति को दोषी ठहराने लगे। कहने लगे, हमें किसी ने परंपराओं से परिचित कराया ही नहीं।

मैंने कहा, परंपराओं से परिचित तो मुझे भी किसी ने नहीं कराया, फिर भी मैं उनसे अनभिज्ञ नहीं हूं। मैं अगर लोक संस्कृति और परंपराओं से परिचित होना चाहता हूं तो मुझे किसने रोका है। लेकिन, इसके लिए जड़ताओं से बाहर निकलना होगा। अगर ऐसा नहीं कर सकते तो फिर क्या जरूरत है दिमाग पर बोझ रखकर 'आंग्ल नववर्ष मंगलमय हो' बोलने की। और...हां! पत्रकार को तो पढ़ने-लिखने वाला माना जाता है। उम्मीद की जाती है कि उसे जनसामान्य से अधिक ज्ञान होगा और वो जो भी कहेगा, उससे दूसरे का ज्ञानवर्द्धन ही होगा। वह भावनाओं के वशीभूत होकर नहीं, बल्कि तर्क और विज्ञान की कसौटी पर परखकर ही अपनी बात रखेगा। 

वैसे भी हमारे देश में तो सभी परंपराओं व संस्कृतियों का सम्मान होता आया है। महोपनिषद के अध्याय-4, श्लोक 71 में कहा गया है कि- अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।। (यह अपना बंधु है और यह अपना बंधु नहीं है। इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो संपूर्ण धरती ही परिवार है।) हम पूरे विश्व को एक परिवार मानते हैं और हर संस्कृति एवं हर परंपरा का सम्मान करते हैं। स्वयं हमारे देश में ही अनगिनत संस्कृतियों का वास है। यहां हर संस्कृति की अपनी परंपराएं हैं, अपने रीति-रिवाज हैं और अपने-अपने नववर्ष हैं। अपने उत्तराखंड में ही हरिद्वार व ऊधमसिंहनगर के लोग चंद्रवर्ष को मानते हैं और शेष उत्तराखंड के लोग सौरवर्ष को। विक्रमी कैलेंडर भी भारत के कुछ ही हिस्से में ही प्रचलित है। बाकी बंगाल, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, असोम, गोवा, तमिलनाडु आदि प्रांत के लोग भी अपना-अपना नववर्ष मनाते हैं। 

सिर्फ ग्रेगोरी कैलेंडर ही एकमात्र ऐसा कैलेंडर है, जिसे सरल एवं सहज होने के कारण विश्व के सभी देश मान्यता देते हैं। देखा जाए ग्लोबल वर्ल्ड में इसे गलत भी नहीं माना जा सकता। पूरी दुनिया का बैंकिंग सिस्टम और शेयर बाजार ग्रेगोरी कैलेंडर से ही संचालित होता है। इस कैलेंडर में तिथि, महीना आदि जानने के लिए किसी पंचांग या पंडित की जरूरत भी नहीं पड़ती। फिर भला इस कैलेंडर के हिसाब से पहली जनवरी को नववर्ष मनाने में किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए। यह बात आज तक मेरी समझ में नहीं आई। आखिर ये जड़ताएं हमें कहां ले जाएंगी, यह सवाल हर किसी के लिए विचारणीय होना चाहिए।

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Where are we going

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Dinesh Kukreti

It's a weird frenzy.  We don't celebrate English New Year, it is a symbol of slavery, our New Year comes in April, yet everyone is saying 'Happy English Year' to you.  Some were calling it a Christian year.  I got to hear all this this morning from those journalist friends, who consider themselves to be well versed, knower of every subject and protector of Hinduism.  At the same time, they also pretend to display themselves in this way.  Which is our new year, is it Vikram Samvat or Shaka Samvat, in which Hindi month it starts from which date, names of Hindi months, their relation with zodiac signs, this new year starts from Sankranti or Purnima, we solar month  They have no answer to questions like what is the difference between a solar month and a lunar month, how many years is the difference between the Gregorian calendar and the Vikrami calendar.

In the midst of the discussion, a journalist friend raised his leg and said, there is a difference of 500 years between Vikrami Samvat and Esvi Samvat.  Other journalist friends were also going to remain silent, so they said, our new year probably comes from Vasant Panchami.  I was surprised at his knowledge, so I thought why not increase my knowledge by digging a little more.  Keeping this in mind, I humbly asked, in the Gregorian calendar, they say date to date, what would they say in Vikrami calendar.  Journalist friends were enraged by this question and started trying to divert the discussion towards the Mughal period.  Here I again asked, which month of ours is going on and what is its date today.  Just!  What was it then, brother started blaming the education system before 2014.  Started saying, no one introduced us to the traditions.













I said, no one made me familiar with the traditions, yet I am not ignorant of them.  If I want to get acquainted with the folk culture and traditions then who has stopped me.  But, for this one has to come out of inertia.  If you can't do this, then what is the need to keep a burden on your mind and say 'Happy English New Year'.  And yes!  Journalist is considered to be able to read and write.  It is expected that he will have more knowledge than the general public and whatever he says will only increase the knowledge of others.  He will keep his point not by being influenced by emotions, but by examining it on the basis of logic and science.

Anyway, in our country all traditions and cultures have been respected.  In Mahopanishad Adhyay-4, Shlok 71, it is said that- Ayam Nij: Paro Veti Ganana Laghuchetsam. Udaarcharitanan Tu Vasudhaiva Kutumbakam. (This is our brother and this is not our brother. Small minded people do this kind of calculation. The whole earth is a family for people with a generous heart.) We consider the whole world as one family and every culture and every tradition  Let's respect.  Innumerable cultures reside in our country itself.  Here every culture has its own traditions, its own customs and its own new year.  In Uttarakhand itself, the people of Haridwar and Udham Singh Nagar believe in the lunar year and the people of the rest of Uttarakhand believe in the solar year.  Vikrami calendar is also prevalent only in some parts of India.  People of other states like Bengal, Punjab, Maharashtra, Gujarat, Kerala, Assam, Goa, Tamil Nadu etc. also celebrate their own New Year.

Only Gregorian calendar is the only calendar, which is recognized by all the countries of the world due to its simple and easy nature.  If seen in the global world, it cannot even be considered wrong.  The banking system and stock market of the whole world operates from the Gregorian calendar only.  There is no need of any almanac or pundit to know the date, month etc. in this calendar.  Then why should anyone have any objection to celebrating the New Year on January 1st according to this calendar?  I have not understood this thing till date.  After all, where will these inertia take us, this question should be ponderable for everyone.