वो भी क्या दिन थे, जब हम खुद के लिए नहीं, बल्कि समाज के लिए जीते थे। हालांकि, जज्बा तो आज भी वही है, लेकिन परिस्थितियां कदमों को थामे हुई हैं। लेकिन, तब ऐसा नहीं था। तब पढ़ाई के साथ संघर्ष जीवन का मुख्य ध्येय हुआ करता था। यह किस्सा वर्ष 1992 का है। मैं तब एमकॉम अंतिम वर्ष का छात्र था और छात्र राजनीति में मेरी सक्रिय भूमिका हुआ करती थी। स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन ऑफ इंडिया से जुड़े होने के कारण यह सक्रियता कुछ ज्यादा ही थी। ज्वलंत मुद्दों पर प्रतिक्रिया देने में मैं जरा भी नहीं चूकता था। संगठन की महाविद्यालय इकाई का अध्यक्ष होने के नाते यह मेरी जिम्मेदारी भी थी।
इसी वर्ष 22 जनवरी को गोंडा जिले के परसपुर कस्बे में एक वाक़या घटा। उस दिन स्थानीय कॉलेज के छात्रों को जब मालूम पड़ा कि रात में परसपुर की पुलिस ने उनके शिक्षक के साथ अभद्रता की और उन्हें अपमानित किया तो वह इसे बर्दास्त नहीं कर सके। गुस्साए छात्रों ने घटना के विरोध में पुलिस थाने की ओर कूच कर दिया। लेकिन, छात्रों के थाने पहुंचते ही पुलिस बर्बरता पर उतर आई और उसने गोलियां बरसाकर चार छात्रों को शहीद कर दिया। इनमें एक नवीं, एक ग्यारहवीं और दो बारहवीं के छात्र थे, जिनकी उम्र 14 से 17 वर्ष के बीच थी।
इस घटना के बाद प्रदेशभर में छात्र सड़कों पर उतर आए।खासकर वामपंथी संगठनों से जुड़े छात्र व युवाओं ने पूरे प्रदेश में धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिए। दोषी पुलिसकर्मियों की गिरफ्तारी और बर्खास्तगी की मांग को लेकर जुलूस निकाले जाने लगे। हमने भी इन विरोध-प्रदर्शनों में बढ़-चढ़कर भाग लिया। कुछ दिन बाद स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन ऑफ इंडिया और डेमोक्रेटिक यूथ फ़ेडरेशन ऑफ इंडिया के आह्वान पर लखनऊ कूच का कार्यक्रम तय हुआ और हम भी इसकी तैयारियों में जुट गए। कूच की तारीख और महीना तो याद नहीं, लेकिन तब तक ठंड की विदाई नहीं हुई थी। हालांकि, बहुत ज्यादा ठंड भी नहीं थी। एक रात कोटद्वार से हम 40-45 साथी हावड़ा एक्सप्रेस से लखनऊ के लिए कूच कर गए। नजीबाबाद से बिजनौर और देहरादून जिले के साथियों के साथ हमें आगे का सफर तय करना था।
उस दौर में आंदोलनकारी रेल यात्रा फ्री में किया करते थे यानी टिकट नहीं लेते थे। लेते भी कहां से, पैसे तो जेब में होते ही नहीं थे। जाहिर है इस बार भी किसी के पास टिकट नहीं था। हालांकि, रास्ते में बेटिकट पकड़े जाने का भी डर रहता था, लेकिन तब इसकी परवाह किसको थी। वैसे होता कुछ नहीं था, टीसी चेतावनी देकर छोड़ देता था। हां! इतना जरूर है कि कई बार उस ट्रेन को छोड़कर दूसरी में सफ़र करना पड़ता था। खैर! इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ और अगली सुबह हम बिना परेशानी के लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर थे।
उस दौर में जब भी हम लखनऊ जाते थे, दारुलशफ़ा हमारा ठौर हुआ करता था। वहां फर्स्ट फ्लोर पर एक हॉल में हमारा बिस्तर लगता था और भोजन के लिए कैंटीन थी, जहां पांच रुपये में भरपेट भोजन मिल जाता था। खैर! उस दिन हम चारबाग से जुलूस के साथ सीधे रैली स्थल के लिए रवाना हो गए। अन्य जिलों से भी साथी हजारों की तादाद में लखनऊ पहुंचे थे। जिधर देखो रैली स्थल की ओर छात्र-नौजवानों का सैलाब उमड़ रहा था। तब उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार थी, जो इस आंदोलन से काफी डरी हुई थी और उसने पूरे लखनऊ में पुलिस का पहरा बैठा दिया था। हम भी हर परिस्थिति के लिए तैयार थे। लेकिन, उस दिन सब ठीक-ठाक निबट गया।
अगले दिन फिर छात्र-नौजवान जुलूस के साथ गोमतीनगर थाने की और आगे बढ़े। गोमतीनगर में छात्र-युवा नेताओं ने रैली को संबोधित किया। हम चाहते थे कि पुलिस हमें गिरफ़्तार कर ले। सो, रैली के बाद हम वहीं नुक्कड़ नाटक करने लगे। साथी ढपली के साथ जनगीत भी गा रहे थे। मैंने भी एक जनगीत गया। बोल थे-
'हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे।'
साथी भी मेरे साथ सुर में सुर मिलाकर गा रहे थे। फिर एक अन्य साथी ने गाया-
नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम
बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इंक़लाब चाहिए
इंक़लाब ज़िंदाबाद
ज़िंदाबाद इंक़लाब
ज़िंदाबाद इंक़लाब।
और फिर 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' के उद्घोष से गोमतीनगर का पूरा इलाका गूंज उठा। इसी बीच दूर से घोड़े के टापों की आवाज सुनाई दी। उधर नजर दौड़ाई तो घुड़सवार पुलिस हमारी और बढ़ी चली आ रही थी, लेकिन हम अनदेखा कर अपने अभियान को जारी रखे रहे। अचानक पुलिस ने हमारी ओर घोड़े दौड़ा दिए। हम इधर-उधर भागने लगे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। पुलिस हमें चारों ओर से घेर चुकी थी। इसके बाद हम सभी को पकड़कर पुलिस ने बज्र वाहन में डाल दिया। हमने सोचा, शायद आगे जाकर छोड़ दिए जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कुछ देर में हम लखनऊ सेंट्रल जेल पहुंच चुके थे। पौड़ी गढ़वाल ज़िले से साथी चंद्रशेखर बेंजवाल, योगेंद्र उनियाल, अश्विनी कोटनाला, अवनीश नेगी, मैं (दिनेश कुकरेती) और कुछ अन्य साथी (जिनके नाम याद नहीं आ रहे) कैदियों की फ़ेहरिस्त में शामिल थे। बदकिस्मती से साथी योगेंद्र उनियाल और अश्विनी कोटनाला अब हमारे बीच नहीं हैं।
हम राजनीतिक कैदी थे, इसलिए हमें एक हॉल में रखा गया था। भोजन की भी हमारे लिए अच्छी व्यवस्था थी। पूरे सात दिन हम जेल में रहे। हम जिस हॉल में थे, वहां टीवी भी लगा था। हमें सुबह, दुपहर व शाम तीन वक़्त भोजन मिलता था। सुबह नाश्ते में भीगे चने, उबले चने, ब्रेड व मक्खन हमें दिया जाता था। नहाने के लिए गर्म पानी मिलता था और देश-दुनिया की खबरें जानने के लिए अखबार भी हमें मुहैया कराया जाता था। लेकिन, चिंता इस बात की थी कि घर में सब परेशान होंगे। मोबाइल तो तब होता नहीं था, जो सूचना भेज देते। अपने पास तो लैंडलाइन फोन भी नहीं था। लेकिन, किया भी क्या जा सकता था।
खैर! सात दिन बाद हमारे हाथ पर जेल की मुहर लगाकर हमें रिहा कर दिया गया। अब समस्या यह थी कि घर जाएंगे कैसे, जेब में तो फूटी कौड़ी नहीं थी। तब जेल के एक कर्मचारी ने बताया कि हाथ पर ये जो मुहर लगी है, यही हमारे रेल का टिकट है। उसने कहा कि टीसी के टिकट मांगने पर उसे ये मुहर दिखा देना। हमें और क्या चाहिए था, सबसे बड़ी समस्या जो हल हो गई थी। उस रात हम चारबाग स्टेशन से नजीबाबाद आने वाली ट्रेन में सवार हो गए। टीसी के टिकट मांगने पर हमने उसे अपना मुहर लगा हाथ दिखा दिया। अगली सुबह हम कोटद्वार स्टेशन पर थे। अब फिर एक नई लड़ाई की शुरुआत करनी थी। कुछ नई किताबें पढ़नी थी।
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My jail trip
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Dinesh Kukreti
What were those days when we lived not for ourselves but for the society. Although, the passion is the same even today, but the circumstances have held the steps. But, it was not so then. Then struggle with studies used to be the main goal of life. This story is from the year 1992. I was then an M.Com final year student and used to have an active role in student politics. Being associated with the Students' Federation of India, this activism was a bit excessive. I never missed an iota in reacting to burning issues. It was also my responsibility as the president of the college unit of the organization.
In the same year, on January 22, an incident took place in Paraspur town of Gonda district. That day, when the students of the local college came to know that the Paraspur police had misbehaved with their teacher and humiliated them during the night, they could not tolerate it. Angry students marched towards the police station to protest against the incident. But, as soon as the students reached the police station, the police resorted to vandalism and opened fire killing four students. Among them, one was ninth, one eleventh and two were students of twelfth, whose age was between 14 and 17 years.
After this incident, students came out on the streets across the state. Especially the students and youths associated with leftist organizations started protest demonstrations in the entire state. Processions were taken out demanding the arrest and dismissal of the guilty policemen. We also actively participated in these protests. A few days later, on the call of the Students Federation of India and the Democratic Youth Federation of India, the program for the march to Lucknow was fixed and we also started preparing for it. I do not remember the date and month of my journey, but till then the winter had not bid farewell. However, it was not very cold either. One night from Kotdwar we 40-45 companions traveled to Lucknow by Howrah Express. We had to travel further from Najibabad with our colleagues from Bijnor and Dehradun districts.
In those days, the agitators used to travel by rail for free, that is, they did not take tickets. From where to take it, the money was not in the pocket at all. Apparently no one had a ticket this time too. However, there was also the fear of being caught without a ticket on the way, but who cared then. Nothing used to happen otherwise, TC used to leave after giving a warning. Yes! It is so necessary that many times had to leave that train and travel in another. So! This time nothing like that happened and the next morning we were at Charbagh railway station in Lucknow without any hassle.
In those days whenever we used to go to Lucknow, Darul Shafa used to be our stay. There on the first floor we had our bed in a hall and there was a canteen for food, where full meal was available for five rupees. So! That day we left for the rally venue directly with the procession from Charbagh. Thousands of companions from other districts had also reached Lucknow. Wherever you look, there was a flood of students and youth towards the rally venue. At that time there was Kalyan Singh's government in Uttar Pradesh, which was quite scared of this movement and had put a police guard all over Lucknow. We were also prepared for any situation. But everything went well that day.
The next day, again the students and youth went ahead with the procession towards Gomtinagar police station. Student-youth leaders addressed the rally in Gomtinagar. We wanted the police to arrest us. So, after the rally, we started doing street plays there. The companions were also singing folk songs along with Dhapli. I also went to a folk song. The words were-
'ham mehanatakash jag vaalon se jab apana hissa maangenge,
ik khet nahin, ik desh nahin ham saaree duniya maangenge.'
The companions were also singing along with me. Then another fellow sang-
nafas-nafas qadam-qadam
bas ek fikr dam-ba-dam
ghire hain ham savaal se hamen javaab chaahie
javaab-dar-savaal hai ke inqalaab chaahie
inqalaab zindaabaad
zindaabaad inqalaab
zindaabaad inqalaab
And then the whole area of Gomtinagar echoed with the announcement of 'Inquilab Zindabad'. Meanwhile, the sound of horse hooves was heard in the distance. When I looked there, the mounted police were coming towards us, but we ignored them and continued our campaign. Suddenly the police galloped towards us. We started running here and there, but to no avail. The police had surrounded us from all sides. After this, the police caught all of us and put us in the Bajr vehicle. We thought, maybe they will be released going ahead, but it did not happen. In some time we had reached Lucknow Central Jail. Comrades Chandrashekhar Benjwal, Yogendra Uniyal, Ashwini Kotnala, Avneesh Negi, myself (Dinesh Kukreti) and some other comrades (whose names are not remembered) from Pauri Garhwal district were included in the list of prisoners. Unfortunately fellow Yogendra Uniyal and Ashwini Kotnala are no more with us.
We were political prisoners, so we were kept in a hall. Food was also arranged well for us. We were in jail for the whole seven days. The hall where we were there had a TV too. We used to get food three times in the morning, afternoon and evening. Soaked gram, boiled gram, bread and butter were given to us for breakfast. Hot water was available for bathing and newspapers were also provided to us to know the news of the country and the world. But, the worry was that everyone in the house would be upset. Mobiles were not there then, they would have sent information. He didn't even have a landline phone. But, what could be done.
So! Seven days later we were released with a prison seal on our hands. Now the problem was how to go home, there was no penny in the pocket. Then a jail employee told that the stamp on the hand is our train ticket. He told him to show this stamp when he asked for TC ticket. What more did we need, the biggest problem that was solved. That night we boarded a train from Charbagh station to Najibabad. On asking for TC ticket, we showed him our stamped hand. Next morning we were at Kotdwar station. Now again a new battle had to be started. Had to read some new books.