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Friday, 19 April 2024

19-04-2024 जीवन की राहें-2 ('सत्यपथ' से परिचय)

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जीवन की राहें-2

('सत्यपथ' से परिचय)
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दिनेश कुकरेती
मैंने लिखने की शुरुआत तो कर दी थी, लेकिन अभी लेखन में परिपक्वता आना शेष था। इसके लिए पढ़ाई जरूरी है, यह बात मेरी समझ में अच्छे से आ गई थी और इसके लिए मैंने पब्लिक लाइब्रेरी जाना भी शुरू कर दिया था। नगर पालिका की इस लाइब्रेरी में पढ़ने की दो तरह की व्यवस्था थी, पहली पूरी तरह निःशुल्क और दूसरी सालाना फीस वाली। पहली व्यवस्था के तहत लाइब्रेरी में बैठकर हिंदी-अंग्रेजी के सभी अखबार और तकरीबन सभी मासिक व पाक्षिक पत्रिकाएं पढ़ने की सुविधा थी। जबकि, दूसरी व्यवस्था के तहत आप अपनी मनपसंद पुस्तक तय अवधि के लिए घर ले जा सकते थे। अपने पास पैसे तो होते नहीं थे, इसलिए दूसरी व्यवस्था को चुनने का सवाल ही नहीं था। सो, अवकाश के दिन सुबह-शाम और शेष दिनों में शाम को लाइब्रेरी जाना मेरा रूटीन बन गया था।

नियमित अखबार पढ़ने से मेरी लिखने की उत्कंठा और बढ़ने लगी। हालांकि, लिखता मैं अभी भी आत्मसंतुष्टि के लिए ही था, लेकिन पढ़ने के ट्रेंड में मैंने अब थोड़ा बदलाव कर दिया। कॉमिक्स की जगह उपन्यासों ने ले ली। 12वीं के बाद तो यह शौक और बढ़ गया। संयोग से 12वीं के बाद मैंने कॉलेज में प्रवेश नहीं लिया, बल्कि बीकॉम प्रथम वर्ष की परीक्षा प्राइवेट दी। फिर भी इस वर्ष (1988-89) को मैं जीवन में बदलाव की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानता हूं, क्योंकि इसी वर्ष मैंने छात्र राजनीति में प्रवेश कर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। उस दौर में वामपंथी छात्र संगठन एसएफआई का बोलबाला हुआ करता था और कुछ साथियों के संपर्क में आने से मैं भी एसएफआई का सदस्य बन गया। इसी के साथ हुई छोटी-छोटी पुस्तकों से  प्रगतिशील साहित्य पढ़ने की शुरुआत। उस दौर में सव्यसाची (प्रो. एसएल वशिष्ठ) की आठ-दस पुस्तिकाओं का सेट दस-पंद्रह रुपये में मिल जाता था।

ये आज भी मेरे जीवन की सर्वश्रेष्ठ पुस्तिकाएं हैं। समाज को वैज्ञानिक ढंग से समझने के लिए आज भी मूलरूप से हिंदी में इनसे बेहतर पुस्तिकाएं शायद ही उपलब्ध होंगी। अब पढ़ने का दायरा बढ़ना स्वाभाविक था। संयोग से इसी अवधि में मुझे भारतीय ज्ञान-विज्ञान समिति से जुड़ने का भी अवसर मिला। पौड़ी जिले में समिति के संचालन का जिम्मा बड़े भाई कॉमरेड विपिन उनियाल के पास था। उनके नेतृत्व में हमारी टीम ने पौड़ी व टिहरी जिले के एक बड़े इलाके में गांव-गांव जाकर नुक्कड़ नाटक व जनगीतों के माध्यम से लोगों को पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित किया। पहाड़ में हम नाटक गढ़वाली में ही करते थे। यहां तक कि संवाद भी सिचुएशन के हिसाब से तय होते थे। 

इस दौरान जगह-जगह घूमने का एक फायदा यह हुआ कि मेरा मेल-जोल का दायरा बढ़ने लगा। अब मेरा उस दौर के प्रसिद्ध साप्ताहिक 'सत्यपथ' से भी परिचय हो चुका था। इस पत्र से तब कॉमरेड विपिन उनियाल, योगेंद्र उनियाल, अश्वनी कोटनाला जैसे साथी जुड़े थे और पत्र के संपादन का जिम्मा था शिक्षाविद पीतांबर दत्त डेवरानी के पास। उनके साथ काम करना अपने आप में एक गौरवपूर्ण अनुभूति है। डेवरानी जी  उच्चकोटि के विद्वान होने के साथ शिक्षक भी थे, इसलिए हम सभी उन्हें गुरुजी कहते थे। उनसे मैं जितना भी सीख पाया, वह मेरे लिए किसी जमा-पूंजी से कम नहीं है। 'सत्यपथ' में मैंने लिखने का जो सलीका सीखा था, वह आज भी मेरे काम आ रहा है। 

इसी वर्ष मुझे पहली बार एक रैली का हिस्सा बनकर लखनऊ जाने का मौका मिला। चार-पांच दिन के इस प्रवास के दौरान बहुत कुछ सीखा। कुछ पुस्तकें भी खरीदीं और विद्वजनों के लेक्चर सुनकर राष्ट्रीय राजनीति पर नज़रिया भी स्पष्ट हुआ। तब इस तरह के अनुभव पत्रकारिता में बहुत काम आते थे और सच कहूं तो मेरे आज भी आ रहे हैं। खैर! इस तरह के घटनाक्रमों के बाद मुझे लगने लगा था कि थोड़ा मेहनत करूंगा तो भविष्य में एक अच्छा पत्रकार साबित हो सकता हूं।
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Life's paths
(Introduction to 'Satyapath')
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Dinesh Kukreti
I had started writing, but I was yet to mature in writing. I had understood well that studies are necessary for this and for this I had also started going to the public library. There were two types of reading arrangements in this Nagar Palika library, the first was completely free and the second was for annual fees. Under the first arrangement, there was a facility to sit in the library and read all the Hindi-English newspapers and almost all the monthly and fortnightly magazines. Whereas, under the second arrangement, you could take your favourite book home for a fixed period. I did not have money, so there was no question of choosing the second arrangement. So, going to the library in the morning and evening on holidays and in the evening on the remaining days had become my routine.

Reading the newspaper regularly increased my urge to write. Although, I still wrote for self-satisfaction, but now I changed the trend of reading a little. Novels replaced comics.  This hobby increased further after 12th. Incidentally, after 12th I did not take admission in college, but instead gave the B.Com first year exam privately. Still, I consider this year (1988-89) as important from the point of view of change in life, because in this year I started my political career by entering student politics. In those days, the leftist student organization SFI was dominant and on coming in contact with some friends, I also became a member of SFI. With this, I started reading progressive literature from small books. In those days, a set of eight-ten booklets of Savyasachi (Prof. SL Vashisht) was available for ten-fifteen rupees.

These are the best books of my life even today. To understand society in a scientific way, there are hardly any better books available in Hindi. Now it was natural to increase the scope of reading. Coincidentally, during this period I also got the opportunity to join the Bharatiya Gyan-Vigyan Samiti. The responsibility of running the committee in Pauri district was with my elder brother Comrade Vipin Uniyal. Under his leadership, our team went from village to village in a large area of ​​Pauri and Tehri district and inspired people to read and write through street plays and folk songs. In the hills, we used to do plays in Garhwali only. Even the dialogues were decided according to the situation. 

During this time, one advantage of traveling from place to place was that my circle of interactions started increasing. Now I had also become acquainted with the famous weekly of that time 'Satyapath'. Friends like Comrade Vipin Uniyal, Yogendra Uniyal, Ashwani Kotanala were associated with this paper and the responsibility of editing the paper was with educationist Pitambar Dutt Devrani.  Working with him is a proud feeling in itself. Devrani ji was a highly educated person and a teacher as well, so we all called him Guruji. Whatever I could learn from him is no less than a deposit for me. The writing style I learnt in 'Satyapath' is still useful to me.

This year I got the opportunity to go to Lucknow for the first time as a part of a rally. I learnt a lot during this four-five day stay. I also bought some books and my perspective on national politics also became clear by listening to the lectures of scholars. Such experiences were very useful in journalism then and to be honest, they are useful to me even today. Anyway! After such events, I started feeling that if I work a little hard, I can prove to be a good journalist in the future.

Monday, 15 April 2024

15-04-2024 जीवन की राहें-1 (किशोरवय के सपने)



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जीवन की राहें-1 (किशोरवय के सपने)

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दिनेश कुकरेती
मारे दौर में कोई यह बताने वाला नहीं था कि हमें भविष्य में क्या करना चाहिए। हाईस्कूल टापना (पास करना) मुश्किल होता था तो आस-पड़ोस से विचार-विमर्श के बाद मां-बाप फ़ौज की तैयारी करने की सलाह देते थे। संयोग से हाईस्कूल के बाद इंटर भी टाप लिया और फिर बीए करने लगे तो आगे बीटीसी या बीएड करने की सलाह दी जाती थी। खासकर बीटीसी पर ज्यादा जोर रहता था। नौकरी की जो गारंटी थी। तब आम परिवार के बच्चों के सपने भी बहुत बड़े नहीं होते थे। सो, मेरे भी नहीं थे। हां! इतना जरूर है कि किशोरावस्था के दौरान बस कंडक्टर बनने की मेरी बड़ी ख़्वाहिश रही। मैं अक्सर कल्पना किया करता था कि बड़ा होने पर मेरे पास कंडक्टरी का कमर्शियल लाइसेंस होगा और पैसा खर्च किए बिना मैं बसों में कहीं का भी मुफ्त सफर कर सकूंगा। 


मेरी ऐसी धारणा मेरे मामा और कुछ अन्य करीबियों को देखकर बनी। मेरे मामा गढ़वाल मोटर आनर्स यूनियन लिमिटेड (जीएमओयू) की बस में कंडक्टर हुआ करते थे और जीएमओयू की किसी भी बस में कहीं भी यात्रा कर लेते थे। यही देखकर मैं भी मुझे कंडक्टर के रूप देखने को लालायित रहता था। मेरे विचारों में बदलाव तब आया, जब मैंने नियमित रूप से रेडियो सुनना शुरू किया। यह रेडियो हमारे मकान मालिक का हुआ करता था, जिसे वह शाम पांच बजे ऑन करते थे। बड़ा रेडियो था, लकड़ी के फ्रेम वाला तीन बैंड का। बजता था तो ऐसे लगता था, मानो डीजे बज रहा हो। शाम साढ़े पांच बजे आकाशवाणी नजीबाबाद से ग्राम जगत कार्यक्रम आता था, जिसमें हर दिन किसी न किसी प्रतिभा को अपनी कविता, कहानी, वार्ता, नाटक, नृत्य नाटिका आदि प्रस्तुत करने का मौका मिलता था। मेरे मामा अध्यापक ब्रजमोहन कवटियाल भी अक्सर ग्रामजगत में अपनी गढ़वाली कविताएं प्रस्तुत करते थे। भ्‍यूंळै डाळी (भीमल के पेड़) पर लिखी उनकी एक गढ़वाली कविता, 'जुगराज रै मेरी भ्‍यूंळै की डाळी' और रामचरितमानस के किष्किंधा कांड पर लिखी गढ़वाली गीत नाटिका के कुछ अंश तो मुझे आज भी याद हैं। 
मामाजी को सुनकर मन करता कि काश! मुझे भी लोग आकाशवाणी से इसी तरह सुनते। इसके अलावा कभी-कभी मैं कॉलेज से घर लौटते हुए क्षेत्रीय अखबार की प्रति भी साथ ले आता। अखबार में छपे उत्तराखंड से संबंधित लेख मुझे भी कुछ लिखने के लिए प्रेरित करते। अब मैं ग्यारहवीं कक्षा में आ चुका था। मेरे हिंदी गद्य के पाठ्यक्रम में भारतेंदु हरिश्चंद्र का निबंध 'भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है' भी था। यह निबंध मुझे तब ही नहीं, आज भी बेहद प्रिय है। खासकर निबंध का यह पैरा- 'यह समय ऐसा है कि आदि तुरकी ताजी सब सरपट्ट दौड़े जाते हैं। सबके जी में यही है कि पाला हमीं पहले छू लें। उस समय हिंदू काठियावाड़ी खाली खड़े-खड़े टाप से मिट्टी खोदते हैं। इनको औरों को जाने दीजिए, जापानी टट्टुओं को हांफते हुए दौड़ते देखकर के भी लाज नहीं आती। यह समय ऐसा है कि जो पीछे राह जाएगा, फिर कोटि उपाय किए भी आगे न बढ़ सकेगा', मन को छू जाता है।
इस निबंध को बीसियों बार पढ़ा होगा मैंने और इसी से प्रेरित होकर लिखने का अभ्यास भी शुरू किया। कुछ वर्ष मैं स्वान्तःसुखाय ही लिखता रहा, लेकिन अंतर्मुखी स्वभाव के कारण इस लिखे हुए के बारे में किसी से चर्चा तक नहीं कर पाता था। हां! खुद कई बार पढ़ लेता था और किसी तरह की त्रुटि मिलने पर उसमें सुधार भी कर देता। कविता और गीत लिखने की शुरुआत भी मैंने इसी अवधि में की। यह जीवन में बदलाव का अहम दौर था, लेकिन दिशा दिखाने वाला तब भी कोई नहीं था। न जाने किधर का रुख करने वाली थी जीवन की पतवार। मेरे हाथ में तो बस! इतना ही था कि मन लगाकर पढ़ता रहूं।
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Life's paths (Teenagers' dreams)
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Dinesh Kukreti
In our time, there was no one to tell us what we should do in the future. It was difficult to pass high school, so after discussing with the neighbors, parents would advise us to prepare for the army. Incidentally, after high school, I topped intermediate as well and then started doing BA, so I was advised to do BTC or B.Ed. Especially, there was more emphasis on BTC. There was a guarantee of a job. At that time, even the children of ordinary families did not have big dreams. So, I did not have any. Yes! It is certain that during my teenage years, I had a great desire to become a bus conductor. I often used to imagine that when I grow up, I will have a commercial license for conducting and I will be able to travel anywhere in buses for free without spending money.

This notion of mine was formed by seeing my maternal uncle and some other close friends.  My maternal uncle used to be a conductor in the bus of Garhwal Motor Owners Union Limited (GMOU) and used to travel anywhere in any bus of GMOU. Seeing this, I too used to yearn to be seen as a conductor. My thoughts changed when I started listening to the radio regularly. This radio used to belong to our landlord, which he used to switch on at five in the evening. It was a big radio, with a wooden frame and three bands. When it used to play, it used to sound as if a DJ was playing. At five-thirty in the evening, Gram Jagat program used to come from Akashvani Najibabad, in which every day some talent got a chance to present his poem, story, talk, play, dance drama, etc. My maternal uncle, teacher Brajmohan Kavatiyal also often used to present his Garhwali poems in Gram Jagat.  I still remember one of his Garhwali poems written on Bhyunlai Dali (Bhimal tree), 'Jugaraj Rai Meri Bhyunlai Ki Dali' and some excerpts from the Garhwali song-drama written on Kishkindha Kand of Ramcharitmanas.

Listening to Mamaji, I felt like wishing that people would listen to me on Akashvani in the same way. Apart from this, sometimes while returning home from college, I would also bring a copy of the regional newspaper. The articles related to Uttarakhand printed in the newspaper would inspire me to write something. Now I had reached the eleventh class. Bharatendu Harishchandra's essay 'Bharatvarsh ki unnati kaise ho sakti hai' was also there in my Hindi prose syllabus. I like this essay very much not only then but even today. Especially this paragraph of the essay- 'This is such a time that the old, the old, the new and the new are all running around. Everyone wants to touch the ground first. At that time, the Hindu Kathiawadi stands idle and digs the soil with his hoof. Let them go, even after seeing the Japanese ponies running panting, they do not feel ashamed. This is such a time that whoever is left behind, will not be able to move forward even after trying a million ways', touches the heart.

I must have read this essay dozens of times and inspired by this, I also started the practice of writing.  For some years I kept writing for my own pleasure, but due to my introvert nature I was not able to discuss my writings with anyone. Yes! I used to read it myself many times and if I found any kind of mistake, I used to correct it. I also started writing poetry and songs during this period. This was an important phase of change in life, but even then there was no one to show me the direction. I didn't know in which direction the rudder of life was going to take me. All I had to do was to keep reading with full concentration.




Wednesday, 10 April 2024

10-04-2024 जीवन की राहें (भूमिका)


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जीवन की राहें (भूमिका)

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दिनेश कुकरेती
ब कभी मैं स्वयं का मूल्यांकन करने बैठता हूं, मशहूर शायर अब्दुल हमीद अदम का यह शे'र याद हो आता है। वह कहते हैं- 'सिर्फ़ इक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में, मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूंढती रही।' हालांकि, अतीत को कभी कोसा नहीं जाता, बल्कि उससे सबक लिया जाता है, फिर भी यह शे'र मुझे न जाने क्यों अपना-सा लगता है। मानो अदम ने मेरे लिए ही इसे कहा हो। सच कहूं तो मैं आज जहां भी हूं, इस शौक के कारण ही हूं। कभी-कभी तो लगता है कि अगर उस दौर में सिर पर पत्रकार बनने का जुनून सवार न हुआ तो आज यह दिन भी न देखने पड़ते। लेकिन, यह भी सच है कि फिर जीवन में अनुभव का इतना बड़ा खजाना भी तो नहीं होता अपने पास। ...और सबसे बड़ा सवाल, जो मैं अक्सर खुद से ही पूछा करता हूं, कि क्या फिर मैं इस तरह औरों से हटकर हो पाता। निर्भीकता के साथ सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस जुटा पाता। चीजों का इस तरह वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण कर पाता। इसका बेलाग-लपेट जवाब है, नहीं...कतई नहीं।

वैसे इस सब के पीछे बड़ा योगदान उन पुस्तकों का भी है, जिन्होंने मुझे जीवन की राहों पर चलना सिखाया, जिन्होंने मुझे जड़ताओं के खिलाफ खड़े होने की ताकत दी और जिन्होंने मुझे खुला आसमान दिया। लेकिन, इस सच को भी तो नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि अच्छी पुस्तकें पढ़ने के शौक को भूख में बदलने वाली वह पत्रकार बनने की जिद ही थी। इस जिद ने ही मुझे वह दृष्टि प्रदान की, जिसकी वर्तमान में समाज एवं राष्ट्र को सबसे ज्यादा जरूरत है। इसी दृष्टि ने मुझे शिक्षा के वास्तविक महत्व से परिचित कराया और समझाया कि शिक्षा इंसान के मनो-मस्तिष्क को हमेशा तरो-ताजा बनाए रखती है। हां! यह जरूर है कि शिक्षा का दृष्टिकोण वैज्ञानिक होना चाहिए। इसी दृष्टि ने मुझे संवेदनशील इंसान बनाया। साथ ही इतनी हिम्मत भी दी कि मैं जीवन की हर परिस्थिति का डटकर मुकाबला कर सकूं। हालांकि, आज के दौर में इस राह पर चलना आसान नहीं रहा, लेकिन सम्मान से जीने की इससे बेहतर कोई अन्य राह भी तो नहीं है।
और शायद यही वजह है कि मुझे कभी अपने हालात पर अफसोस नहीं हुआ और पूरी उम्मीद है कि आगे भी नहीं होगा। यह राह मैंने स्वयं चुनी है और उस दौर में यह कोई गलत निर्णय भी नहीं था। लोग तब पत्रकारों को शिक्षाविद सरीखा सम्मान देते थे। माना जाता था कि पत्रकार जितना ज्ञान किसी अन्य को नहीं हो सकता। कारण तब पढ़ने-लिखने वाला ही पत्रकार बनने का साहस करता था और जो अपेक्षाकृत पढ़ा-लिखा नहीं होता था, उसे भी पढ़ने-लिखने वालों की संगत में रहना ही सुहाता था। फिर पत्रकार भी तो गिनती के ही होते थे। जो बड़े मीडिया हाउस से जुड़ जाता था, उसे वेतन भी अच्छा-खासा मिलता था। क्लास-टू राजपत्रित अधिकारी से भी अधिक। ऐसे में कौन जानता था कि आगे यह राह अंधेरे कुएं की ओर बढ़ रही है, जिस पर खुद को बचाते हुए आगे बढ़ पाना हर किसी के लिए संभव नहीं हो पाएगा। ...और जैसे-तैसे सुरक्षित निकल भी गए तो आपके हाथ बांध दिए जाएंगे। सच बोलने की हिमाक़त करोगे तो देशद्रोही ठहरा दिए जाओगे। आपको वही लिखना और बोलना होगा, जो लिखवाया और बुलवाया जाएगा। 
खैर! परिस्थितियों ने मुझे लड़ना सिखाया है, खुद से भी और हालात से भी। इसलिए मैं कभी कमजोर नहीं पड़ा। हां! कुछ समय के लिए रास्ता अवश्य बदल दिया है। बस! इंतजार है सही वक्त का और मुझे यकीन है कि वह वक़्त जरूर आएगा, क्योंकि रात कितनी भी घनी क्यों न हो, उसकी सुबह तो तय है। इसलिए जब-जब भी मैं स्वयं को कमजोर पाता हूं, साथी दुष्यंत कुमार का यह शे'र याद हो आता कि 'वक़्त की रेत मुझे एड़ियां रगड़ने दे, मुझे यकीन है पानी यहीं से निकलेगा।' मितरों! जीवन की राह से गुजरते हुए बीते कालखंड में जो तमाम खट्टी-मीठी और कड़वी अनुभूतियां मुझे हुई हैं और जो आने वाले वक्त में होंगी, उन्हें आपकी नज़र करना मैं अपना फर्ज़ समझता हूं। मुझे लगता है कि इससे आपको मीडिया के असल चरित्र को समझने में जरूर मदद मिलेगी। अनुभूतियों के इस दस्तावेज को लिखने के पीछे मेरी सोच भी यही है। ... और हां! निकट भविष्य में मैं इस दस्तावेज को पुस्तक के रूप में लाने का भी प्रयास करूंगा। ...तो इंतजार कीजिए-
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Life's paths
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Dinesh Kukreti
Whenever I sit to evaluate myself, I remember this verse of the famous poet Abdul Hameed Adam. He says- 'I had taken just one step on the wrong path of passion, the destination kept searching for me throughout my life.' Although, the past is never cursed, rather a lesson is learnt from it, yet I don't know why this verse feels like my own. As if Adam has said it for me. To tell the truth, wherever I am today, it is because of this passion. Sometimes I feel that if I had not been obsessed with becoming a journalist at that time, I would not have had to see this day. But, it is also true that then I would not have had such a huge treasure of experience in life. ...And the biggest question, which I often ask myself, is that would I have been able to be different from others in this way. Would I have been able to gather the courage to fearlessly call truth as truth and lie as lie.  Would I be able to analyse things in such a scientific way? The straight answer to this is, no...absolutely not.

Well, the books that taught me how to walk on the path of life, that gave me the strength to stand up against rigidities and that gave me the open sky have also contributed a lot to all this. But, this truth cannot be ignored that it was the stubbornness to become a journalist that turned the hobby of reading good books into a hunger. This stubbornness gave me the vision that is most needed by the society and the nation at present. This vision introduced me to the real importance of education and explained that education always keeps the mind and brain of a person fresh. Yes! It is definitely true that the approach of education should be scientific. This vision made me a sensitive person. Along with this, it also gave me so much courage that I could face every situation of life firmly. Although, walking on this path has not been easy in today's era, but there is no better way than this to live with respect.

And perhaps this is the reason why I have never regretted my circumstances and I am sure I will not regret it in the future. I have chosen this path myself and it was not a wrong decision in those times. People then respected journalists like an academician. It was believed that no one else could have as much knowledge as a journalist. The reason was that only those who were educated dared to become journalists and those who were not as educated liked to stay in the company of educated people. Then journalists were also very few in number. Those who joined a big media house got a good salary. Even more than a class-two gazetted officer. In such a situation, who knew that this path ahead was leading towards a dark well, on which it would not be possible for everyone to move forward while protecting themselves. ...And even if you somehow get out safely, your hands will be tied. If you dare to speak the truth, you will be declared a traitor. You will have to write and speak only what you are asked to write and say.

Well! Circumstances have taught me to fight, with myself as well as with the circumstances. That is why I have never become weak. Yes! The path has definitely changed for some time. That is all! I am waiting for the right time and I am sure that that time will definitely come, because no matter how dark the night is, its morning is certain. That is why whenever I find myself weak, I remember this verse of my friend Dushyant Kumar that 'Let the sand of time rub my heels, I am sure that water will come out from here.' Friends! I consider it my duty to share with you all the sour, sweet and bitter experiences that I have had in the past while passing through the path of life and those that I will have in the future. I think that this will definitely help you in understanding the real character of the media. This is also my thinking behind writing this document of experiences. ... And yes! In the near future, I will also try to bring this document in the form of a book. ... So wait-




 

Thursday, 4 April 2024

04-04-2024 (कण्वाश्रम को नहीं मिल पाई आज तक उसकी पहचान)

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कण्वाश्रम को नहीं मिल पाई आज तक उसकी पहचान
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दिनेश कुकरेती
त्तराखंड के पौराणिक महत्व के स्थलों में महर्षि कण्व की तपोस्थली, शकुंतला-दुष्यंत की प्रणय स्थली एवं चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली कण्वाश्रम का विशिष्ट स्थान है। 17 नवंबर 1955 को जब अभिभाजित उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद कोटद्वार आए थे, तब उन्होंने कहा था, 'मुझे आश्चर्य हुआ यह जानकर कि जिस स्थान में उस बालक ने जन्म लिया, जिसके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा, उसे कोई नहीं जानता। दूसरे देशों में तो न जाने वहां क्या बन गया होता।' दुर्भाग्य देखिए कि सरकारों ने इसके बाद भी कभी कण्वाश्रम की अहमियत नहीं समझी। उत्तराखंड के उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद भी। इसी उपेक्षा का नतीजा है कि कण्वाश्रम देश तो छोड़िए, उत्तराखंड के प्रमुख पर्यटन स्थलों में भी स्थान नहीं बना पाया, जबकि देखा जाए तो कण्वाश्रम देश की एक महत्वपूर्ण धरोहर है।

गढ़वाल का प्रवेश द्वार कोटद्वार पौड़ी गढ़वाल जिले का सबसे बड़ा ही नहीं, हर दृष्टि से महत्वपूर्ण शहर है। शिवालिक पर्वतमाला की गोद मे बसा यह शहर एक दौर में बदरी-केदार का प्रवेश द्वार भी रहा है। यहां से महज दस किमी दूर चारों ओर वनों से आच्छादित वह ऐतिहासिक खूबसूरत घाटी है, जिसे कण्वघाटी नाम से पुकारा जाता है। तमाम खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि प्राचीन कण्वाश्रम का अस्तित्व भी इसी घाटी में रहा है। इसलिए यहीं वर्तमान कण्वाश्रम की आधारशिला रखी गई। कण्वघाटी से होकर ही मालन (मालिनी) नदी मैदान में प्रवेश करती है, इसलिए इसे मालन घाटी भी कहते हैं। मालन नदी गढ़वाल के चंडाखाळ डांडा से निकलती है और हिमालय की शिवालिक पर्वतमाला को पार कर उत्तर से दक्षिण की ओर सर्पिणी की भांति तीव्र वेग से आगे बढ़ती है। कण्वाश्रम पहुंचने के बाद मालन गढ़वाल भाबर के ऊबड़-खाबड़ मैदान से होकर उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले की समतल भूमि वाले एक बड़े नगर नजीबाबाद से कुछ दूर रावलीघाट नामक स्थान पर गंगा में विलय हो जाती है। गह स्थान बिजनौर शहर से छह मील उत्तर की ओर पड़ता है।

मालन घाटी में जंगली आम, पीपल, शीशम, हैड़, बहेड़ा, आंवला, साल, सागौन, खैर, कींकर, चमेली, अमलतास, सरीस, जंगली गुलाब, ढाक, कुश, अपराजिता, इंगुदी, वनज्योत्सना आदि वनस्पतियों की भरमार है। जगह-जगह नजर आने वाले केले के झुरमुट भी घाटी का आकर्षण बढ़ाते हैं। स्वच्छंद विचरण करते हिरण, सुअर, हाथी, गुलदार, जड़ाऊ, नीलगाय जैसे वन्य जीव और कोयल, चकोर, तीतर, मोर, जंगली मुर्गे, कबूतर इत्यादि पक्षियों का कलरव यहां मन को मोह लेता है। शृंगार रस में डूबी मालन आज भी उसी अल्हड़ता से अठखेलियां करती हुई बह रही है, उसके जिस अल्हड़पन का उल्लेख महाकवि कालिदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'अभिज्ञान शाकुंतल' में किया है। जैसे-जैसे हम घाटी में प्रवेश करते हैं, उसकी मोहकता बढ़ती चली जाती है। मृगों के झुंड अब भी चौकड़ी भरते हुए यत्र-तत्र दिखाई पड़ते हैं। कण्व स्मारक से उत्तर की ओर जाने पर पर्यटक मालन की रमणीक घाटी में प्रवेश करता है।
नदी के बांयी ओर जिला बोर्ड की पुरानी सड़क है, जिस पर कभी खच्चरों से सामान का ढुलान होता था। पहले यह प्रमुख सड़क हुआ करती थी, जो गंगा और नयार नदी के संगम स्थल व्यासघाट (व्यासचट्टी) को जोड़ती है। एक दौर में हरिद्वार से चौकीघाटा (कण्वाश्रम) होते हुए इसी रास्ते यात्री व्यासघाट होकर बदरी-केदार दर्शन को जाते थे। उस समय अकाल पड़ने पर यहां से 14 मील दूर नजीबाबाद मंडी से अनाज गढ़वाल पहुंचाया जाता था। चौकीघाटा पहले छोटी एवं भरपूर मंडी था, लेकिन वर्ष 1924 की बाढ़ ने इसे एक प्रकार से नष्ट कट दिया। चौकीघाटा के समीप सतीमठ और अन्य जीर्ण-शीर्ण प्राचीन खंडहर, जिनका ऐतिहासिक महत्व है, आज भी जंगल में लावारिस पड़े देखे जा सकते हैं। काश! इस अमूल्य धरोहर को सरकार सुरक्षित रखने का उपाय करती।

कण्वाश्रम से व्यासघाट मार्ग पर करीब डेढ़ किमी चलने के बाद एक पुराना पुल पड़ता है, जिसके बायें बाजू से उतरकर एक संकरी बटिया होते हुए सहस्रधारा के दीदार होते हैं। यहां करीब 200 फ़ीट की ऊंचाई से जब मोतियों जैसे श्वेत बिंदु तन का स्पर्श करते हैं तो मार्ग की थकान उड़नछू हो जाती है। झरने के समीप आम और केले के झुरमुट हैं। इतने खूबसूरत स्थल को कितने लोग जानते हैं, यह सवाल आज भी मुहं चिढ़ा रहा है। पर्यटन विभाग भी शायद ही इस बारे में जानकारी रखता हो। वैसे तो कण्वाश्रम के विकास को कई योजनाएं फाइलों में बनीं, लेकिन न कुछ बदलना था, न बदला ही। वर्ष 1955 में अविभाजित उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद ने गढ़वाल के जिलाधीश गौरीशंकर बागची को कण्वाश्रम का जीर्णोद्धार करने के लिए प्रेरित किया। परिणामस्वरूप एक समिति गठित हुई।

इस समिति ने वर्ष 1956 में अभिभाजित उत्तर प्रदेश के तत्कालीन वनमंत्री जगमोहन सिंह नेगी के हाथों कण्व स्मारक की शिला रखवाई और निश्चय किया कि प्रतिवर्ष वसंत पंचमी को यहां भव्य मेला आयोजित किया जाएगा। तब से मेला तो यहां वर्ष-दर-वर्ष आयोजित हो रहा है, लेकिन यह मेला भी अपनी छवि अन्य मेलों से हटकर नहीं बना पाया। यहां तक कि इसके बारे में जानकारी भी अभी बेहद सीमित है। शायद ही कोटद्वार से बाहर के लोग इस बारे में कुछ जानते होंगे। पर्यटन विभाग ने यहां जो खूबसूरत टूरिस्ट बंगला बनवाया हुआ है, उसमें ठहरना भी कोई पसंद नहीं करता। माहौल ही ऐसा है।
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Kanvashram could not get its identity till date
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Dinesh Kukreti
Among the places of mythological importance in Uttarakhand, Kanvashram, the place of penance of Maharishi Kanva, the place of love of Shakuntala-Dushyant and the birthplace of Emperor Bharat, has a special place. On 17 November 1955, when the then Chief Minister of divided Uttar Pradesh, Dr. Sampurnanand came to Kotdwar, he said, 'I was surprised to know that no one knows the place where the boy was born, after whom this country was named Bharat. Who knows what would have happened in other countries.' It is unfortunate that even after this, the governments never understood the importance of Kanvashram. Even after Uttarakhand was separated from Uttar Pradesh. The result of this neglect is that Kanvashram could not make a place in the major tourist places of Uttarakhand, leave alone the country, whereas if seen, Kanvashram is an important heritage of the country.

Kotdwar, the gateway of Garhwal, is not only the biggest city of Pauri Garhwal district, but is also important in every respect. Situated in the lap of Shivalik mountain range, this city was once the gateway to Badri-Kedar. Just ten km from here is that historic beautiful valley covered with forests on all sides, which is called Kanvaghati. It has been proved from various discoveries that the ancient Kanvashram also existed in this valley. Therefore, the foundation stone of the present Kanvashram was laid here. The Malan (Malini) river enters the plains through Kanvaghati, hence it is also called Malan Valley. The Malan river originates from Chandakhal Danda of Garhwal and after crossing the Shivalik mountain range of the Himalayas, moves forward at a rapid speed like a serpent from north to south.  After reaching Kanvashram, Malan passes through the rugged plains of Garhwal Bhabar and merges with Ganga at a place called Ravalighat, some distance away from Najibabad, a big town in the plains of Bijnor district of Uttar Pradesh. This place is six miles north of Bijnor city.

Malan valley is full of plants like wild mango, peepal, sheesham, had, baheda, amla, sal, teak, khair, kinkar, jasmine, golden shower, sarisa, wild rose, dhak, kush, aparajita, ingudi, vanjyotsna etc. Banana thickets seen at various places also add to the attraction of the valley. The freely roaming wild animals like deer, pig, elephant, leopard, jadau, nilgai and the chirping of birds like cuckoo, chakor, partridge, peacock, wild hen, pigeon etc. captivate the mind here. Immersed in the love of love, Malan is still flowing with the same carefreeness, the carefreeness of which has been mentioned by the great poet Kalidas in his famous book 'Abhigyan Shakuntalam'. As we enter the valley, its charm keeps increasing. Herds of deer are still seen galloping here and there.  Going northwards from the Kanva Smarak, the tourist enters the picturesque valley of Malan.


On the left side of the river is the old road of the District Board, on which goods were once transported by mules. Earlier, this used to be the main road, which connects Vyasghat (Vyas Chatti), the confluence of the Ganga and the Nayar rivers. At one time, pilgrims used to go to Badri-Kedar Darshan via Vyasghat from Haridwar via Chaukighata (Kanvashram). In those days, in case of famine, grains were transported to Garhwal from the Najibabad Mandi, 14 miles away from here. Chaukighata was earlier a small and full-fledged market, but the flood of 1924 destroyed it in a way. Near Chaukighata, Satimath and other dilapidated ancient ruins, which have historical importance, can still be seen lying unclaimed in the forest. If only the government would take measures to protect this invaluable heritage.

After walking about 1.5 km from Kanvashram on Vyasghat road, there is an old bridge, from the left side of which one can get a view of Sahasradhara through a narrow butiya. Here, when the pearl-like white drops touch the body from a height of about 200 feet, the fatigue of the journey vanishes. There are mango and banana groves near the waterfall. How many people know about such a beautiful place, this question still eludes us. The tourism department also hardly knows about this. Although many plans were made in files for the development of Kanvashram, but nothing was to be changed, nor did it change. In the year 1955, the then Chief Minister of undivided Uttar Pradesh, Dr. Sampurnanand, inspired the District Magistrate of Garhwal, Gaurishankar Bagchi, to renovate Kanvashram. As a result, a committee was formed.  

In 1956, this committee laid the foundation stone of the Kanva Smarak by the then Forest Minister of the divided Uttar Pradesh, Jagmohan Singh Negi, and decided that a grand fair would be organized here every year on Vasant Panchami. Since then, the fair has been organized here year after year, but this fair has also not been able to create an image different from other fairs. Even the information about it is very limited. Hardly people outside Kotdwar would know anything about it. No one likes to stay in the beautiful tourist bungalow built by the Tourism Department here. The atmosphere is such.