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Thursday, 20 June 2024

20-06-2024 जीवन की राहें-5 (अतीत पर गर्व की अनुभूति)

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जीवन की राहें-5

अतीत पर गर्व की अनुभूति 

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दिनेश कुकरेती
भी-कभी खुद पर गर्व भी होता है कि मैंने पत्रकारिता की शुरुआत ऐसे रीढ़ वाले संपादकों के साथ की, जिनकी समाज में अपनी विशिष्ट छवि हुआ करती थी। उनकी विद्वता पर कोई अंगुली खड़ी नहीं कर सकता था। विभिन्न विषयों पर उनकी मजबूत पकड़ होती थी, फिर वह साहित्य हो, राजनीति शास्त्र हो, भूगोल हो, अर्थशास्त्र हो, मानविकी हो या कोई और। सभी विषयों पर वह प्रभावशाली ढंग से लिख भी सकते थे और धाराप्रवाह बोल भी सकते थे। उनसे मिलने के लिए, चाहे नेता हो या अफसर, सभी को अनुमति लेनी पड़ती थी। वह स्वछंद होकर काम करना पसंद करते थे। अखबार में क्या छपेगा, क्या नहीं, यह मैनेजमेंट नहीं, संपादक और संपादकीय विभाग तय करता था। इसलिए जब कोई हर तरफ़ से निराश हो जाता था, तो उसकी उम्मीद की आखिरी किरण अखबार ही होता था। ...और सच तो यह है कि अखबार में छपने के बाद उसकी सुनवाई भी होती थी।
मुझे एक वाकया याद आ रहा है। तब मैं पत्रकारिता में बिल्कुल नया (नौसिखिया) था। हालांकि, भाषा, शैली व व्याकरण पर मेरी पूरी पकड़ थी, लेकिन कुछ पत्रकारीय मानकों से अभी भी अनभिज्ञ था। मसलन, कुछ गलत हो रहा है और मुझे समाज के हित में गलत करने वाले को दंडित करवाना है, तो उसके विरुद्ध पुख्ता सुबूत मेरे पास होना जरूरी है, इसका इल्म मुझे नहीं था। मैं ठीक से नहीं समझ पाया था कि पत्रकार भावुक होकर कार्य नहीं कर सकता। उसका तटस्थ रहना नितांत जरूरी है। हां! तो, मामला यह है कि मुझे लंबे समय से अपने क्षेत्र के एक गेस्ट हाउस में ब्लू फिल्म बनाने की जानकारी मिल रही थी, सो एक दिन मैंने अपने सूत्रों से पूरी जानकारी जुटाकर प्रशासन और गेस्ट हाउस संचालक एजेंसी की लापरवाही पर सवाल खड़े करती खबर छाप दी। खबर ऐसी बनी थी कि किसी को भी मिर्ची लग जाती।
 
हालांकि, यह खबर मैंने साप्ताहिक में छापी थी, लेकिन असर फिर भी जबर्दस्त हुआ। जिले में पुलिस-प्रशासन के कान खड़े हो गए और एसपी के निर्देश पर कोटद्वार में क्राइम बैठक बुला ली गई। मुझे भी बैठक में शामिल होने के लिए बुलावा भेजा गया। एसपी चाहते थे कि सारी कहानी मैं उन्हें सुना दूं और पुलिस का काम हल्का हो जाए। लेकिन, मैं पुलिस की चाल को भली-भांति समझता था, इसलिए स्पष्ट कह दिया कि मेरा काम खबर के माध्यम से पुलिस-प्रशासन को सतर्क करना था, अब खोजबीन करना पुलिस का काम है। मुझे तो जो भी अपडेट मिलेगा आगे भी छापता रहूंगा। यह बात मैंने कह तो दी थी, लेकिन सच्चाई यही थी कि तब इस बात को प्रमाणित करने के लिए मेरे पास कोई दस्तावेज नहीं था और न मैंने गेस्ट हाउस का संचालन करने वाली एजेंसी से इस संबंध में उसका पक्ष ही लिया था। 
बाद में मेरी समझ में आया कि बिना पुख्ता प्रमाण के कोई भी खबर नहीं लिखी जानी चाहिए और यदि लिखना जरूरी हो तो किसी तीसरे पक्ष के हवाले से लिखी जाए। यह पक्ष पुलिस अथवा कोई जिम्मेदार व्यक्ति या संस्था हो सकती है, लेकिन पत्रकार को तटस्थ ही होना चाहिए। अन्यथा गलत होने की भी आशंका बनी रहती है और पत्रकार की निष्पक्षता पर सवाल खड़े होते हैं, सो अलग। हां! अपने लेख के माध्यम से वह जरूर किसी पक्ष में खड़ा हो सकता है। बावजूद इसके अपेक्षा यही की जाती है कि उसकी दृष्टि वैज्ञानिक और विचार समाज को आगे ले जाने वाले हों। जड़ विचार तर्क-वितर्क करने को शक्ति को कुंद कर देते हैं। खैर! कहने का तात्पर्य यही है कि उस दौर में मीडिया सचमुच लोकतंत्र का चौथा स्तंभ था। और भी ऐसे कई वाकया हैं, जिन्होंने मीडिया के प्रति मेरे भरोसे को लगातार मजबूत ही किया। 



Tuesday, 18 June 2024

18-06-2024 जीवन की राहें-4 (कार्य अनेक, ध्येय एक)


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जीवन की राहें-4
कार्य अनेक, ध्येय एक
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दिनेश कुकरेती
निरंतर अभ्यास से लिखने में काफी हद तक हाथ सध चुका था। भाषा की समझ भी धीरे-धीरे विकसित होने लगी थी। तब लैपटॉप, मोबाइल जैसे साधन नही थे। मेरी पहुंच तो डेस्कटॉप और लैंडलाइन फोन तक भी नहीं थी। इसलिए कोरे कागज पर हाथ से ही लिखना पड़ता था। मेरे साथ प्लस पॉइंट यह था कि एक तो राइटिंग बहुत अच्छी थी और दूसरा मैं बिना लाइन के पेपर में कोई गलती किए बिना बिल्कुल सीधे लिखता था। इसलिए अखबारों के दफ़्तर में मेरी लिखी विज्ञप्ति को खासा पसंद किया जाता था। साथ ही मैं वॉल राइटिंग भी बहुत अच्छी करता था। सो, किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधि होने पर साथी लोग वॉल राइटिंग का जिम्मा मुझे ही सौंपते थे। इससे मेरी राइटिंग कलात्मक भी हो गई थी। मुझे याद है, एक बार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान मैंने जिला बिजनौर में नजीबाबाद से कोतवाली तक वॉल राइटिंग की है।
उस दौर में अखबारों के डाक संस्करणों में दोपहर दो बजे के बाद के समाचार नहीं छप पाते थे। कारण, तब समाचार डाक से जाते थे यांनी प्रेस से जो गाड़ी सुबह अखबार लेकर आती थी, वो दोपहर दो बजे बाद अखबार के दफ्तर से समाचार, विज्ञापन आदि लेकर यूनिट मुख्यालय (जहां अखबार छपता था) के लिए रवाना हो जाती थी। तब क्षेत्रीय अखबार (अमर उजाला व दैनिक जागरण) मेरठ से छपा करते थे। अमर उजाला के दफ्तर मेरा लगातार जाना होता था, इसलिए वहां सभी से घनिष्ठता हो गई थी। सभी लोग समान विचारों वाले थे, इसलिए बीच-बीच में मैं यूं ही बैठने वहां चला जाया करता था। अमर उजाला के प्रभारी तब मिश्र जी (अनूप मिश्र) हुआ करते थे। मेरी राइटिंग अच्छी होने के कारण वो अक्सर खबर लिखने के लिए भी कह देते थे यानी मेरी राइटिंग में ही खबर मेरठ जाती थी।
इससे जल्द ही खबरों पर मेरी अच्छी-खासी पकड़ हो गई। आज मैं मीडिया में आए नए लड़कों (कुछ अपवाद को छोड़कर) को देखता हूं तो उन पर अफसोस होता है। उन्हें न तो खबर की समझ होती है, न व्याकरण की ही। शब्दों के मामले में भी वे बेहद गरीब होते हैं। लेकिन, इस मामले में मैं बिल्कुल अलग था। आलेख, व्यंग्य आदि लिखना तो मैं पहले ही सीख चुका था, उस पर मिश्र जी की संगत ने खबरें लिखनी भी सिखा दीं। कई बार मैं एक खबर लिखने को कई-कई कागज खराब कर देता था, लेकिन त्रुटियुक्त खबरें मुझे कतई पसंद नहीं थीं। इसके साथ ही मैं जहां मौका मिला, लिखने लगा। जहां से पैसे मिलते थे और जहां फ्री सेवा होती थी, वहां भी। दरअसल, मेरे पास तब खोने के लिए कुछ भी नहीं था। मुझे तो जो भी करना था, अर्जित ही करना था। 
वैसे प्राथमिकता में अमर उजाला में लिखने को ही देता था, क्योंकि वहां से पैसे मिल जाते थे और वो भी समय पर। तब इस अखबार की एक खूबी ये भी थी कि यह प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करता था। मेरे लेख तो इस पत्र ने उस दौर में संपादकीय पृष्ठ पर तक छापे हैं। इसके साथ ही मैं यह भी जोड़ूंगा कि वह लेख स्तरीय होते थे। फिर भी शुरुआती दौर में ही इस तरह प्रोत्साहन मिलना उपलब्धि तो मानी ही जाएगी। इसके अलावा नैनीताल समाचार, बिजनौर टाइम्स, चिंगारी, सीमांचल टाइम्स, दैनिक जागरण, दैनिक हिंदुस्तान, पंजाब केसरी, उत्तर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, प्रतियोगिता दर्पण, प्रतियोगिता विकास, योजना (जम्मू-कश्मीर), सरिता, मुक्ता, कादंबिनी, मनोरमा आदि तमाम पत्र-पत्रिकाओं में मैं नियमित रूप से लेख भेजने लगा। संभवतः लेखन परिपक्व ही रहा होगा, जो भेजी गई सामग्री सभी में छप भी जाती थी। इनमें से सरिता, मुक्ता, कादंबिनी और मनोरमा साहित्यिक पत्रिकाएं थी, इसलिए इनमें मैं कविता और कहानी ही भेजता था। कहने का मतलब तब मैं ठीक-ठीक कविता-कहानी भी लिखने लगा था।
समाचार पत्रों में दैनिक जागरण और पंजाब केसरी के अलावा बाकी सभी बड़े अखबार पारिश्रमिक दिया करते थे। पत्रिकाएं तो सभी पारिश्रमिक देने वाली ही थी। इस लेखन की बदौलत ही मुझे पहली बार बैंक में खाता खोलने का सौभाग्य मिला। पहली बार मैंने आकाशवाणी से मिला चेक बैंक में जमा किया था। अच्छा लगता था, जब बैंक में दो-चार सौ रुपये जमा हो जाते थे। खैर! अब मैं अपनी तरफ से तो परफैक्ट पत्रकार बन चुका था, लेकिन था एक फ्रीलांस पत्रकार ही। हालांकि, जिस तरह अमर उजाला की और मेरा झुकाव बढ़ता जा रहा था, उससे लगभग तय लग रहा था कि आने वाले समय में इसी पत्र से जुड़ना है और संयोग से यही बात सच भी साबित हुई। लेकिन, फिलहाल तो स्वतंत्र लेखन में ही मजा आ रहा था। 
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Life's paths

Many tasks, one aim
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Dinesh Kukreti
With constant practice, I had become quite adept at writing. My understanding of language was also gradually developing. At that time, there were no means like laptops and mobiles. I did not even have access to desktops and landline phones. Therefore, I had to write by hand on blank paper. My plus point was that firstly, my writing was very good and secondly, I used to write straight without making any mistakes on the paper without any lines. Therefore, my press releases were liked a lot in the newspaper offices. Along with this, I was also very good at wall writing. So, whenever there was any kind of political activity, my colleagues would assign me the responsibility of wall writing. This also made my writing artistic. I remember, once during the Uttar Pradesh assembly elections, I did wall writing from Najibabad to Kotwali in district Bijnor.

In those days, the postal editions of newspapers could not print news after 2 pm.  The reason was that the news was sent by post, that is, the vehicle which brought the newspaper from the press in the morning, used to leave for the unit headquarters (where the newspaper was printed) after 2 pm with news, advertisements etc. from the newspaper office. At that time, regional newspapers (Amar Ujala and Dainik Jagran) used to be printed from Meerut. I used to visit Amar Ujala's office regularly, so I became close to everyone there. Everyone had similar views, so I used to go there to sit occasionally. Mishra ji (Anoop Mishra) used to be the in-charge of Amar Ujala then. Since my writing was good, he would often ask me to write the news, that is, the news used to go to Meerut in my writing only.

Due to this, I soon got a good grip on news. Today, when I see the new boys in the media (barring a few exceptions), I feel sorry for them. They neither understand news nor grammar. They are also very poor in terms of words. But, I was completely different in this matter. I had already learnt to write articles, satires etc., and on top of that, Mishra ji's company taught me to write news as well. Many times, I would spoil many papers to write a news, but I did not like news with errors at all. Along with this, I started writing wherever I got a chance. Wherever I got money and wherever there was free service. Actually, I had nothing to lose then. Whatever I had to do, I had to earn it. 

By the way, I used to give priority to writing in Amar Ujala, because I got money from there and that too on time. Then one of the specialties of this newspaper was that it encouraged talents. This newspaper even published my articles on the editorial page in that period.  Along with this, I will also add that those articles were of high standard. Still, getting such encouragement in the initial stage will be considered an achievement. Apart from this, I started sending articles regularly to various magazines like Nainital Samachar, Bijnor Times, Chingari, Seemanchal Times, Dainik Jagran, Dainik Hindustan, Punjab Kesari, Uttar Ujala, Rashtriya Sahara, Competition Darpan, Competition Vikas, Yojana (Jammu-Kashmir), Sarita, Mukta, Kadambini, Manorama etc. Probably my writing was mature, that the material sent was published in all of them. Out of these, Sarita, Mukta, Kadambini and Manorama were literary magazines, so I used to send only poems and stories in them. I mean to say that I had started writing poems and stories properly then.

Apart from Dainik Jagran and Punjab Kesari, all other major newspapers used to pay remuneration. All the magazines also paid remuneration. It was because of this writing that I got the opportunity to open a bank account for the first time. For the first time, I deposited the cheque received from Akashvani in the bank. It felt good when two to four hundred rupees would be deposited in the bank. Anyway! Now, I had become a perfect journalist from my point of view, but I was still a freelance journalist. However, the way my inclination towards Amar Ujala was increasing, it seemed almost certain that I would be associated with this paper in the future and coincidentally this proved to be true. But, for the time being, I was enjoying freelance writing.






Saturday, 15 June 2024

15-06-2024 जीवन की राहें-3 (बढ़ने लगा अखबारों के प्रति आकर्षण)





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जीवन की राहें-3

(बढ़ने लगा अखबारों के प्रति आकर्षण)
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दिनेश कुकरेती
साप्ताहिक 'सत्यपथ' से जुड़ने के बाद अखबारों से मेरी निजता बढ़ने लगी। इधर, अमर उजाला में मेरी चिट्ठियां छपने लगी थीं। एसएफआई में सक्रिय होने के कारण अखबारों के दफ्तर में जाना लगातार होता रहता था। इससे अखबारों के प्रति आकर्षण भी बढ़ रहा था। साथ ही बढ़ती जा रही थी अच्छा साहित्य पढ़ने की लालसा। यह अंतर्द्वंद्व का ऐसा दौर था, जब जीवन को किसी भी सांचे में ढाला जा सकता था। लेकिन, मैं लगभग तय कर चुका था कि पत्रकार ही बनना है। हालांकि, बीच-बीच में बाहर जाकर पढ़ने की इच्छा भी प्रबल होती रहती थी। खासकर एमबीए करने की। इसके लिए मैं प्रवेश परीक्षा की तैयारी भी कर रहा था। वहीं, राजनीतिक सक्रियता छात्रसंघ चुनाव में हिस्सेदारी करने को भी उकसा रही थी।



इसी बीच मेरी एमबीए प्रवेश परीक्षा की तिथि भी आ गई। बरेली में सेंटर पड़ा था। यह 1991-92 की बात है। तब मैं एमकॉम कर रहा था। संयोग से मेरा सलेक्शन भी हो गया और पैसे का जोड़-जुगाड़ कर मैंने लखनऊ स्थित मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट में प्रवेश भी ले लिया। लेकिन, नियति को शायद यह मंजूर नहीं था और अनवरत आर्थिक तंगी के कारण मुझे छह महीने बाद ही वापस लौटना पड़ा। तब इतने पैसे होते भी कहां थे। अगर मैं लौटता नहीं तो घर का खर्च चलाना मुश्किल हो जाता। फिर कर्ज भी तो मजबूत आर्थिक स्थिति वाले को ही मिलता है। खैर! जो अपने हाथ में न हो, उसका अफसोस करने का भी कोई लाभ नहीं। अब मुझे एमकॉम की पढ़ाई पूरी करनी थी और पत्रकार बनने का जुनून तो था ही। इसके लिए रास्ते भी बनते जा रहे थे। एक मित्र के साथ एक दिन मुझे साप्ताहिक 'ठहरो' के दफ्तर में जाने का मौका मिला।

कोटद्वार रिफ्यूजी कॉलोनी में यह दफ्तर था। एक कमरे में बैठकी लगती थी और दूसरे में प्रेस थी। तब ज्यादातर छोटे अखबार ट्रेडल प्रेस पर ही छपते थे। अखबार के संपादक थे कॉमरेड भूपेंद्र सिंह नेगी। पहली मुलाकात के बात उनसे बेहद आत्मीय रिश्ता बन गया। अब यह दफ्तर मेरा दूसरा घर बन चुका था। कॉमरेड नेगी को हम ताऊजी कहते थे। मेरी पहली कविता 'मैं कविता लिखता हूं' ताऊजी ने ही छापी थी 'ठहरो' में। यह कविता उन्हें बेहद पसंद आई थी और उन्होंने मुझसे कहा था कि इसी तरह लिखते रहो। फिर तो कविता ही क्या, खबरें, खबरों का विश्लेषण, व्यंग्य व रिपोर्ट नियमित रूप से 'ठहरो' में छपने लगीं। इससे पहले साप्ताहिक 'सत्यपथ' में मेरा पहला लेख प्रकाशित हो चुका था। यह लेख मैंने अपने जीवन के सबसे बड़े प्रेरक शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह पर लिखा था। लेख का शीर्षक था, 'स्थितियां बदलनी होंगी'।

इसी कालखंड में मेरा रेडियो से भी जुड़ाव हुआ। हुआ यूं कि एक दिन मैंने गढ़वाली में लिखी कुछ कविताएं आकाशवाणी नजीबाबाद के ग्रामजगत अनुभाग को पोस्ट कर दीं। संयोग देखिए कि कुछ ही दिन बाद मुझे आकाशवाणी से रजिस्टर्ड डाक के जरिये एक पत्र (कॉन्टेक्ट लेटर) प्राप्त हुआ, जिसमें ग्रामजगत को भेजी गई कविताओं की रिकॉर्डिंग के लिए मुझे बुलाया गया था। इसकी एवज में मुझे संभवतः 764 रुपये का भुगतान भी मिलना था। इधर, अमर उजाला में भी डाक से मैंने एक लेख भेजा था, उसका भी प्रकाशन हो गया। लेख गढ़वाल की वीरांगना तीलू रौतेली पर केंद्रित था। शीर्षक था 'कत्यूरों के खून से खेली थी होली तीलू रौतेली ने'। इस लेख के लिए अमर उजाला ने मुझे संभवतः 350 रुपये का भुगतान किया था। लेख व कविताओं के एवज में मिलने वाले पारिश्रमिक एवं लोगों से मिली सराहना ने पत्रकारिता के ही क्षेत्र में जाने को लेकर मेरे इरादों को और मजबूती प्रदान की। 
जीवन का यह ऐसा दौर है, जब छात्र व जनांदोलनों में मैंने सबसे अधिक भागीदारी की। इसी अवधि में मैं स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन ऑफ इंडिया की कोटद्वार महाविद्यालय ईकाई का अध्यक्ष भी रहा। इस नाते भी अखबारों से मेरा वास्ता रहा। जुलूस, प्रदर्शन, धरना, रैली, बंद, गिरफ्तारी आदि में मुख्य भूमिका निभाने के साथ इसकी विज्ञप्ति तैयार करना और फिर उसे अखबार के दफ्तरों में पहुंचाना मेरी ही जिम्मेदारी हुआ करती थी। अमर उजाला में तो मैं खबर भी बना आता था। इसके अलावा एसएफआई की कॉल पर दिल्ली-लखनऊ रैलियों में भी अक्षर जाना होता था। वर्ष 1992 की एक लखनऊ रैली में तो ऐसा भी संयोग बना कि सात दिन वहां केंद्रीय कारागार में बिताने पड़े। दरअसल, परसपुर-गोंडा गोलीकांड के विरोध में गोमती पुल के पास प्रदर्शन और नुक्कड़ नाटक करते हुए पुलिस ने हमें गिरफ्तार कर लिया था। पौड़ी जिले से मुझ समेत सात साथी गिरफ्तार हुए थे। यह सभी अनुभव मेरी पत्रकारिता की बुनियाद को मजबूत कर रहे थे।
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Life's paths

(Attraction towards newspapers started increasing)
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Dinesh Kukreti
After joining the weekly 'Satyapath', my intimacy with newspapers started increasing. Meanwhile, my letters started getting published in Amar Ujala. Being active in SFI, I had to visit newspaper offices regularly. This was increasing my attraction towards newspapers. Along with this, my desire to read good literature was also increasing. This was a period of internal conflict, when life could be molded into any mold. But, I had almost decided that I have to become a journalist. However, in between, the desire to go out and study also kept getting stronger. Especially to do MBA. For this, I was also preparing for the entrance exam. At the same time, political activism was also tempting me to participate in the student union elections.

Meanwhile, the date of my MBA entrance exam also came. The centre was in Bareilly. This was in 1991-92. I was doing M.Com then. By chance, I got selected and after arranging money, I took admission in Lucknow-based Management Institute. But, perhaps destiny did not want this and due to continuous financial crisis, I had to return after six months. I did not have that much money then. If I had not returned, it would have been difficult to manage the household expenses. Also, loans are given only to those with strong financial status. Anyway! There is no use in regretting about what is not in your hands. Now I had to complete my M.Com and I had the passion to become a journalist. Ways were also being made for this. One day, I got a chance to go to the office of the weekly 'Thahro' with a friend.

This office was in Kotdwar Refugee Colony. There was a sitting room in one room and the press was in the other. At that time, most of the small newspapers were printed on trade press only. The editor of the newspaper was Comrade Bhupendra Singh Negi.  After the first meeting, I developed a very close relationship with him. Now this office had become my second home. We used to call Comrade Negi as Tauji. It was Tauji who published my first poem 'Main Kavita Likhta Hoon' in 'Thahro'. He liked this poem very much and he told me to keep writing like this. Then not only poems, but news, analysis of news, satire and reports started getting published regularly in 'Thahro'. Before this, my first article had been published in the weekly 'Satyapath'. I had written this article on the biggest motivator of my life, Shaheed-e-Azam Sardar Bhagat Singh. The title of the article was, 'Situations will change'.

During this period, I also got connected with radio. It so happened that one day I posted some poems written in Garhwali to Gramjagat section of Akashvani Najibabad. Coincidentally, a few days later I received a letter (contact letter) from Akashvani through registered post, in which I was invited for recording the poems sent to Gramjagat. In return for this, I was supposed to get a payment of Rs. 764. Meanwhile, I had also sent an article to Amar Ujala through post, which also got published. The article was focused on the brave woman of Garhwal, Teelu Rauteli. The title was 'Telu Rauteli played Holi with the blood of Katyurs'. Amar Ujala probably paid me Rs. 350 for this article. The remuneration received for articles and poems and the appreciation received from people further strengthened my resolve to go into the field of journalism. 

This is such a period of life, when I participated the most in student and people's movements.  During this period, I was also the president of the Kotdwar College unit of the Students' Federation of India. In this capacity, I was also associated with newspapers. Along with playing a key role in processions, demonstrations, protests, rallies, bandhs, arrests, etc., it was my responsibility to prepare the press releases and then deliver them to the newspaper offices. I used to write news in Amar Ujala. Apart from this, I also had to go to Delhi-Lucknow rallies on the call of SFI. In a Lucknow rally in 1992, it so happened that I had to spend seven days in the central jail there. Actually, the police arrested us while we were demonstrating and performing street plays near the Gomti bridge in protest against the Paraspur-Gonda firing incident. Seven colleagues including me were arrested from Pauri district. All these experiences were strengthening the foundation of my journalism.

Monday, 10 June 2024

09-06-2024 (उर्गम के वंशी नारायण)



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उर्गम के वंशी नारायण

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दिनेश कुकरेती

ठ-मंदिरों की भूमि उत्तराखंड में एक ऐसा प्राचीन मंदिर भी है, जिसके कपाट वर्ष 2019 तक सिर्फ एक दिन के लिए खोले जाते थे। यह मंदिर है चमोली जिले के जोशीमठ विकासखंड की उर्गम घाटी में स्थित वंशी नारायण मंदिर। पीढ़ियों से स्थापित परंपरा के अनुसार इस मंदिर के कपाट रक्षाबंधन पर्व पर खोले जाते रहे हैं और उसी दिन सूर्यास्त से पूर्व बंद भी कर दिए जाते थे। लेकिन, वर्ष 2020 में श्री वंशी नारायण मंदिर समिति ने नई परंपरा की शुरुआत करते हुए मंदिर के कपाट बदरीनाथ धाम के साथ खोलने और बंद करने का निर्णय लिया। तब से यही परंपरा स्थापित हो गई है। समुद्रतल से 13 हजार फीट की ऊंचाई पर कत्यूरी शैली में निर्मित इस मंदिर का निर्माण काल छठी से लेकर आठवीं सदी के बीच का माना जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण पांडवकाल में हुआ। 

नारायण व शिव, दोनों के दर्शन

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वंशी नारायण मंदिर तक पहुंचना कोई हंसी-खेल नहीं है। यहां जाने के लिए बदरीनाथ हाईवे पर हेलंग से उर्गम घाटी के देवग्राम गांव तक आठ किमी की दूरी वाहन से तय करने के बाद आगे 12 किमी का रास्ता पैदल नापना पड़ता है। पांच किमी दूर तक फैले मखमली घास के मैदानों को पार कर सामने नजर आता है दस फ़ीट ऊंचा प्राचीन वंशी नारायण मंदिर। भगवान नारायण को समर्पित एकल संरचना वाला यह मंदिर उर्गम गांव के आखिरी गांव बांसा से 10 किमी आगे है। इसलिए, मंदिर के आसपास कोई मानव बस्ती नहीं  हैं। मंदिर रोडोडेंड्रोन के जंगल और अल्पाइन घास के मैदानों से घिरा हुआ है। वंशीनारायण मंदिर में भगवान विष्णु की चतुर्भुज पाषाण मूर्ति विराजमान है। विशेष यह कि इस मूर्ति में भगवान नारायण व भगवान शिव, दोनों के ही दर्शन होते हैं। मंदिर में भगवान गणेश और वन देवियों की मूर्तियां भी मौजूद हैं। परंपरा के अनुसार कलगोठ गांव के जाख देवता के पुजारी ही वंशी नारायण मंदिर के पुजारी भी होते हैं। ये पुजारी ठाकुर जाति के होते हैं। 

पहले श्रावण पूर्णिमा पर था पूजा का विधान

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वंशी नारायण मंदिर में पहले साल में सिर्फ रक्षाबंधन के दिन ही पूजा का विधान था। इसी दिन श्रद्धालु यहां दर्शन और पूजा-अर्चना कर सकते थे। बाकी पूरे वर्ष मंदिर के कपाट बंद रहते थे। अब भी रक्षाबंधन के दिन कुंआरी कन्या व विवाहिताएं भगवान वंशी नारायण की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधने के बाद ही अपने भाइयों की कलाई पर स्नेह की डोर बांधती हैं। मंदिर के पास ही एक फुलवारी भी है, जिसे भगवान वंशी नारायण की फुलवारी कहते हैं। यहां कई दुर्लभ प्रजाति के फूल खिलते हैं, जिन्हें सिर्फ श्रावण पूर्णिमा यानी रक्षाबंधन पर्व पर तोड़ा जाता है। परंपरा के अनुसार इन्हीं फूलों से भगवान नारायण का विशेष शृंगार किया जाता है।

हर घर से आता है मक्खन

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कपाट खुलने वाले दिन कलगोठ गांव का हर परिवार भगवान वंशी नारायण को भोग लगाने के लिए स्वयं का तैयार किया हुआ मक्खन लेकर मंदिर में पहुंचता है। इसी मक्खन से वहां पर प्रसाद तैयार होता है। इससे पहले मंदिर के पास मौजूद फुलवारी में खिले दुर्लभ प्रजाति के फूलों से भगवान नारायण का शृंगार होता है। साथ ही भगवान को सत्तू बाड़ी का भोग लगाया जाता है।

इसलिए था मनुष्य को सिर्फ एक दिन पूजा का अधिकार

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वंशी नारायण मंदिर में मनुष्य को सिर्फ एक दिन पूजा का अधिकार दिए जाने की भी रोचक कहानी है। कहते हैं कि एक बार राजा बलि ने भगवान विष्णु से आग्रह किया कि वह उनके द्वारपाल बनें। भगवान विष्णु ने राजा बलि के इस आग्रह को स्वीकार कर लिया और राजा बलि के साथ पाताल लोक चले गए। भगवान विष्णु के कई दिनों तक दर्शन न होने कारण माता लक्ष्मी परेशान हो गईं और उन्हें ढूंढते हुए देवर्षि नारद के पास वंशी नारायण मंदिर पहुंचीं। माता ने उनसे भगवान नारायण का पता पूछा। तब नारद ने माता  को भगवान के पाताल लोक में द्वारपाल बनने का पूरा वृतांत सुनाया और उन्हें मुक्त कराने की युक्ति भी बताई। देवर्षि ने कहा कि  आप श्रावण मास की पूर्णिमा को पाताल लोक में जाएं और राजा बलि की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधकर उनसे भगवान को मांग लें। लेकिन, पाताल लोक का मार्ग ज्ञात न होने पर माता लक्ष्मी ने नारद से भी साथ चलने को कहा। तब नारद श्रावण पूर्णिमा के दिन माता लक्ष्मी के साथ पाताल लोक गए और भगवान को मुक्त कराकर ले आए। मान्यता है कि सिर्फ यही दिन था, जब देवर्षि वंशीनारायण मंदिर में पूजा नहीं कर पाए। इस दिन उर्गम घाटी के कलकोठ गांव के जाख पुजारी ने भगवान वंशी नारायण की पूजा की। तब से यह परंपरा अनवरत चली आ रही है।

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Vanshi Narayan of Urgam

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Dinesh Kukreti

There is an ancient temple in Uttarakhand, the land of monasteries and temples, whose doors were opened for just one day till the year 2019. This temple is the Vanshi Narayan temple located in the Urgam valley of Joshimath block of Chamoli district. According to the tradition established for generations, the doors of this temple have been opened on the festival of Rakshabandhan and were also closed before sunset on the same day. But, in the year 2020, Shri Vanshi Narayan Temple Committee started a new tradition and decided to open and close the doors of the temple along with Badrinath Dham. Since then this tradition has been established. Built in the Katyuri style at an altitude of 13 thousand feet above sea level, this temple is believed to be built between the sixth and eighth centuries. It is also said that this temple was built during the Pandava period.

Darshan of both Narayan and Shiva

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Reaching the Vanshi Narayan temple is no joke. To reach here, one has to cover a distance of 8 km by vehicle from Helang to Devgram village of Urgam valley on the Badrinath highway and then walk for 12 km. After crossing the velvety grasslands spread over 5 km, the 10 feet high ancient Vanshi Narayan temple appears in front. This single structure temple dedicated to Lord Narayan is 10 km ahead of Bansa, the last village of Urgam village. Therefore, there is no human settlement around the temple. The temple is surrounded by rhododendron forest and alpine grasslands. The four-armed stone idol of Lord Vishnu is enshrined in the Vanshi Narayan temple. The special thing is that both Lord Narayan and Lord Shiva are visible in this idol. Idols of Lord Ganesha and forest goddesses are also present in the temple. According to tradition, the priest of Jakh Devta of Kalgoth village is also the priest of Vanshi Narayan temple. These priests belong to Thakur caste.

Earlier, worship was prescribed on Shravan Purnima

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In the first year, worship was prescribed only on Rakshabandhan in the Vanshi Narayan temple. On this day, devotees could have darshan and worship here. The doors of the temple remained closed for the rest of the year. Even now, on the day of Rakshabandhan, unmarried girls and married women tie a thread of affection on the wrists of their brothers only after tying a Raksha Sutra on the wrist of Lord Vanshi Narayan. There is also a flower garden near the temple, which is called the flower garden of Lord Vanshi Narayan. Many rare species of flowers bloom here, which are plucked only on Shravan Purnima i.e. Rakshabandhan festival. According to tradition, Lord Narayan is specially decorated with these flowers.

Butter comes from every house

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On the day the doors open, every family of Kalgoth village reaches the temple with butter prepared by themselves to offer to Lord Vanshi Narayan. Prasad is prepared there from this butter. Before this, Lord Narayan is decorated with rare species of flowers blooming in the flower garden near the temple.  Along with this, Sattu Bari is offered to God.

That is why man had the right to worship for only one day

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There is an interesting story behind giving the right to worship for only one day in Vanshi Narayan temple. It is said that once King Bali requested Lord Vishnu to become his gatekeeper. Lord Vishnu accepted this request of King Bali and went to Patal Lok with King Bali. Mother Lakshmi got worried due to not getting darshan of Lord Vishnu for many days and while searching for him, she reached Vanshi Narayan temple to Devrishi Narad. Mother asked him the address of Lord Narayan. Then Narad told the mother the whole story of God becoming the gatekeeper in Patal Lok and also told the trick to free him. Devrishi said that you should go to Patal Lok on the full moon day of Shravan month and tie Raksha Sutra on the wrist of King Bali and ask for God from him. But, as the way to Patal Lok was not known, Mother Lakshmi also asked Narad to accompany her. Then Narad went to Patal Lok with Mother Lakshmi on the day of Shravan Purnima and freed God and brought him back.  It is believed that this was the only day when Devarshi Vanshinarayan could not worship in the temple. On this day, Jakh Pujari of Kalkoth village of Urgam Valley worshipped Lord Vanshinarayan. Since then, this tradition has been continuing uninterrupted.