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Monday, 22 January 2024

22-01-2024 (हिमालय में बाबा केदार के चौदह स्‍वरूप)



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हिमालय में बाबा केदार के चौदह स्‍वरूप
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दिनेश कुकरेती
त्तराखंड हिमालय में स्थित शैव संप्रदाय के शिव को समर्पित पांच मंदिरों के समूह को पंच केदार कहा गया है। हालांकि, यहां बाबा केदार के पांच नहीं, चौदह मंदिर हैं। इसके अलावा नेपाल में स्थित पशुपतिनाथ मंदिर को भी बाबा केदार के ही मंदिर की मान्यता है। पंच केदार के बारे में कहा जाता है कि इन सभी मंदिरों को पांडवों के वंशजों ने बनवाया था, जो गढ़वाल में काफी ऊंचाई पर स्थित हैं। इनमें से चार तीर्थ केदारनाथ, द्वितीय केदार मध्यमेश्वर, तृतीय केदार तुंगनाथ व चतुर्थ केदार रुद्रनाथ तो सिर्फ ग्रीष्मकाल में ही दर्शन के लिए खुलते है। शीतकाल में केदारनाथ व मध्यमेश्वर की पूजा ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ, तुंगनाथ की पूजा मार्कंडेय मंदिर मक्कूमठ और रुद्रनाथ की पूजा गोपीनाथ मंदिर गोपेश्वर में होती है। पंचम केदार कल्पेश्वर ही एकमात्र धाम है, जो बारहों महीने श्रद्धालुओं के लिए खुला रहता है। इन पांचों धाम में केदारनाथ मुख्य मंदिर है, जो हिमालय के प्रसिद्ध छोटे चार धामों बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री में से एक है। केदारनाथ, द्वितीय केदार मध्यमेश्वर व तृतीय केदार तुंगनाथ रुद्रप्रयाग जिले और चतुर्थ केदार रुद्रनाथ व पंचम केदार कल्पेश्वर चमोली जिले में हैं। केदारनाथ देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में भी शामिल है। कथा आती है कि महाभारत युद्ध के बाद पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। सो, भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें भगवान शिव का आशीर्वाद लेने की सलाह दी। इसके लिए पांडव भगवान शिव की नगरी काशी पहुंचे। लेकिन, भगवान पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए हिमालय में गुप्तकाशी आकर छिप गए। पांडव यह जान चुके थे, इसलिए भगवान उनके गुप्तकाशी पहुंचने से पहले ही केदारनाथ पहुंच गए और बृषभ (बैल) का रूप धारण कर अन्य पशुओं के बीच चले गए। पांडवों को संदेह हुआ तो भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाड़ियों पर पैर फैला दिए। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, लेकिन बैल रूपी शिव पैरों के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बैल पर झपटे तो बैल भूमि में अंतर्ध्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। शिव पांडवों की भक्ति और दृढ़ संकल्प से प्रसन्न हुए और दर्शन देकर उन्हें पाप मुक्त कर दिया। तभी से भगवान बैल की पीठ की आकृति यानी पिंड के रूप में केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि अंतर्ध्‍यान होते समय भगवान के धड़ से ऊपर का हिस्सा काठमांडू (नेपाल) में प्रकट हुआ और वह पशुपतिनाथ कहलाए। शिव की भुजाएं तृतीय केदार तुंगनाथ, मुख चतुर्थ केदार रुद्रनाथ, नाभि द्वितीय केदार मध्यमेश्वर, पृष्ठ भाग यानी पीठ प्रथम केदार केदारनाथ और जटा पंचम केदार कल्पेश्वर में प्रकट हुई। ...तो आइए! आपको पंच केदार के साथ पशुपतिनाथ और अन्य आठ केदार के भी दर्शन कराएं। इन आठ में से एकाध को छोड़कर बाकी के बारे में आपको जानकारी तक नहीं होगी।
केदारनाथ धाम


केदारनाथ धाम
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समुद्रतल से 11657 फीट की ऊंचाई पर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित केदारनाथ धाम देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में भी स्थान रखता है। केदारनाथ धाम में भगवान शिव के बैल रूप में पृष्ठ भाग के दर्शन होते हैं। यहां गर्भगृह में भगवान का विग्रह त्रिकोणात्मक स्वरूप में विराजमान है। पत्थरों से बने कत्यूरी शैली के केदारनाथ मंदिर के बारे में मान्यता है कि इसका निर्माण पांडवों के वंशज जन्मेजय ने करवाया था, जबकि आदि शंकराचार्य ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। मंदिर की विशेषता यह है कि वर्ष 2013 की भीषण आपदा में भी उसे आंच तक नहीं पहुंची।
मध्यमेश्वर धाम


मध्यमेश्वर धाम
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द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर का धाम रुद्रप्रयाग जिले में समुद्रतल से 11470 फीट की ऊंचाई पर चौखंभा शिखर की तलहटी में स्थित है। यहां बैल रूप में भगवान शिव के मध्य भाग के दर्शन होते हैं। दक्षिण भारत के शैव (लिंगायत) पुजारी केदारनाथ की तरह यहां भी पूजा करते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार नैसर्गिक सुंदरता के कारण ही शिव-पार्वती ने मधुचंद्र रात्रि यहीं मनाई थी। मान्यता है कि यहां के जल की कुछ बूंदें ही मोक्ष के लिए पर्याप्त हैं। शीतकाल में छह माह यहां भी कपाट बंद रहते हैं।
तुंगनाथ धाम
तुंगनाथ धाम
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तृतीय केदार भगवान तुंगनाथ का धाम भारत का सबसे ऊंचाई पर स्थित शिव मंदिर है। समुद्रतल से 12073 फीट की ऊंचाई पर रुद्रप्रयाग जिले में स्थित इस धाम में बैल रूपी शिव का धड़ प्रतिष्ठित है। चंद्रशिला चोटी के नीचे काले पत्थरों से उत्तराखंड शैली में निर्मित यह मंदिर बेहद रमणीक स्थल पर स्थित है। कथा है कि भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए पांडवों ने यहां उनकी आराधना की थी। वर्तमान मंदिर को एक हजार वर्ष से भी अधिक पुराना माना जाता है। मक्कूमठ के मैठाणी ब्राह्मण यहां के पुजारी होते हैं। शीतकाल में यहां भी छह माह के लिए कपाट बंद रहते हैं। तब मक्कूमठ में भगवान तुंगनाथ की पूजा होती है।
रुद्रनाथ धाम
रुद्रनाथ धाम
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चतुर्थ केदार के रूप में भगवान रुद्रनाथ जगप्रसिद्ध हैं। चमोली जिले में समुद्रतल से 11808 फीट की ऊंचाई पर यह मंदिर बुग्यालों के बीच एक गुफा में स्थित है। यहां भगवान शिव के मुख दर्शन होते हैं। भारत में यह अकेला स्थान है, जहां भगवान शिव के मुख की पूजा होती है। एकानन के रूप में रुद्रनाथ, चतुरानन के रूप में पशुपतिनाथ नेपाल और पंचानन विग्रह के रूप में इंडोनेशिया में भगवान शिव के मुख दर्शन होते हैं। रुद्रनाथ के लिए एक रास्ता उर्गम घाटी के दुमुक गांव से गुजरता है, लेकिन बेहद दुर्गम होने के कारण श्रद्धालुओं को यहां पहुंचने में दो दिन लग जाते हैं। सो, ज्यादातर श्रद्धालु गोपेश्वर के निकट सगर गांव से रुद्रनाथ जाते हैं। शीतकाल में कपाट बंद होने पर भगवान रुद्रनाथ की पूजा गोपेश्वर में होती है।
कल्पेश्वर धाम
कल्पेश्वर धाम
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पंचम केदार के रूप में कल्पेश्वर धाम विख्यात है। समुद्रतल से 2134 मीटर की ऊंचाई पर चमोली जिले में स्थित इस मंदिर तक पहुंचने के लिए दस किमी का सफर पैदल तय करना पड़ता है। कल्पेश्वर धाम को कल्पनाथ नाम से भी जाना जाता है। यहां सालभर भगवान शिव के जटा रूप में दर्शन होते हैं। कहते हैं कि इस स्थल पर दुर्वासा ऋषि ने कल्प वृक्ष के नीचे घोर तप किया था। तभी से यह स्थान कल्पेश्वर या 'कल्पनाथ' नाम से प्रसिद्ध हुआ। अन्य कथा के अनुसार देवताओं ने असुरों के अत्याचारों से त्रस्त होकर कल्पस्थल में नारायण स्तुति की और भगवान शिव के दर्शन कर अभय का वरदान प्राप्त किया था। मंदिर के गर्भगृह का रास्ता एक गुफा से होकर जाता है।
बूढ़ा केदार धाम
बूढ़ा केदार धाम
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टिहरी जिले में समुद्रतल से 4400 फीट की ऊंचाई पर स्थित बूढ़ा केदार (वृद्ध केदारेश्वर) धाम हालांकि पंचकेदार समूह का हिस्सा नहीं है, लेकिन ऐतिहासिक-पौराणिक दृष्टि से इसका महत्व भी पंचकेदार सरीखा ही है। वृद्ध केदारेश्वर की चर्चा स्कंद पुराण के केदारखंड में सोमेश्वर महादेव के रूप में हुई है। मान्यता है कि गोत्रहत्या के पाप से मुक्ति पाने को पांडव इसी मार्ग से स्वर्गारोहिणी की यात्रा पर गए थे। यहीं बालगंगा-धर्मगंगा के संगम पर भगवान शिव ने बूढ़े ब्राह्मण के रूप में पांडवों को दर्शन दिए और बूढ़ा केदारनाथ कहलाए। बूढ़ा केदार मंदिर के गर्भगृह में विशाल लिंगाकार फैलाव वाले पाषाण पर भगवान शिव की मूर्ति और लिंग विराजमान है। इतना बड़ा शिवलिंग शायद ही देश के किसी मंदिर में हो। इस पर उभरी पांडवों की मूर्ति आज भी रहस्य बनी हुई है। बगल में ही भू-शक्ति, आकाश शक्ति और पाताल शक्ति के रूप में विशाल त्रिशूल विराजमान है। बूढ़ा केदार मंदिर के पुजारी नाथ जाति के राजपूत होते हैं। वह भी, जिनके कान छिदे हों।
पशुपतिनाथ धाम
पशुपतिनाथ धाम
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पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल की राजधानी काठमांडू से तीन किमी उत्तर-पश्चिम में बागमती नदी के किनारे देवपाटन गांव में स्थित है। पशुपतिनाथ दरअसल चार मुखों वाला लिंग हैं। पूर्व दिशा की ओर वाले मुख को तत्पुरुष, पश्चिम दिशा वाले मुख को सद्ज्योत, उत्तर दिशा वाले को वामवेद और दक्षिण दिशा वाले मुख को अघोरा कहते हैं। इस मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश के पशुप्रेक्ष ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में करवाया था। लेकिन, उपलब्ध ऐतिहासिक दस्तावेज 13वीं सदी के ही हैं। मूल मंदिर कई बार नष्ट हुआ और इसे वर्तमान स्वरूप नरेश भूपलेंद्र मल्ला ने 1697 में प्रदान किया। यह मंदिर यूनेस्को की विश्व सांस्कृतिक विरासत स्थल की सूची में भी शामिल है। 15वीं सदी के राजा प्रताप मल्ल से शुरू हुई परंपरा है कि मंदिर में चार पुजारी (भट्ट) और एक मुख्य पुजारी (मूल-भट्ट) दक्षिण भारत से आते हैं। मान्यता है कि जब बैल रूप में भगवान शिव केदारेश्वर में अंतर्ध्यान हुए तो उनका मुख नेपाल में प्रकट हुआ। यहां वे पशुपतिनाथ कहलाए।
विल्व केदार धाम
विल्व केदार धाम
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कोटद्वार-श्रीनगर मोटर मार्ग पर खंडाह के पास मंजुमती नदी के किनारे खांडव मुनि ने तप किया था। तब से इसका नाम खांडव नदी पड़ा। महाभारत आदिपर्व के अध्याय-95 व वनपर्व के अध्याय-90 में उल्लेख है कि राजर्षि ययाति और महर्षि भृगु ने खांडव व अलकनंदा नदी के संगम शिवप्रयाग पर पूर्व काल में तप किया था। इसी के ठीक विपरीत अलकनंदा नदी के दायें किनारे, जहां ढुंढि ऋषि ने तप किया, उसे ढुंढि प्रयाग कहा जाता है। इसके उत्तर की ओर का पर्वत इंद्रकील पर्वत है। शिवप्रयाग में शिव माया से निर्मित मृग के वध के लिए अर्जुन और किरात रूपी शिव के बीच घनघोर युद्ध हुआ और अर्जुन को परास्त होना पड़ा। तब अर्जुन ने यहां शिवलिंग की स्थापना कर बिल्व पत्र व कमल माल्य से शिव की आराधना की। इसलिए यहां स्थापित शिवलिंग बिल्व केदार नाम से प्रसिद्ध हुआ। बिल्व केदार महादेव का यहां प्राचीन मंदिर है।
बसु केदार


बसु केदार
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केदारघाटी के अगस्त्यमुनि विकासखंड में एक मंदिर ऐसा भी है, जहां भूमिगत शिवलिंग की पूजा होती है। मान्यता है कि भगवान शिव ने यहां पर एक रात बासा (विश्राम ) किया था, सो कालांतर में इस स्थान को बसु केदार नाम से जाना गया। कथा है कि इस मंदिर का निर्माण 1600 वर्ष पूर्व आदि शंकराचार्य ने कराया था। यह कत्यूरी शैली मे निर्मित आठ छोटे-बड़े मंदिरों का समूह है। मुख्य मंदिर शिव के केदार स्वरूप को समर्पित है। यह भी मान्यता है कि बसु केदार मंदिर के नीचे पानी भरा हुआ है और इस पानी के नीचे एक गुप्त शिवलिंग है। इसका उल्लेख 'स्कंद पुराण' के केदारखंड में भी मिलता है। बसु केदार पहुंचने के तीन मार्ग हैं। पहला रुद्रप्रयाग से विजयनगर-डडोली होते हुए बसुकेदार पहुंचता है। इससे 40 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है। दूसरा मार्ग रुद्रप्रयाग से बांसवाड़ा-बष्टी होते हुए बसु केदार पहुंचता है, जो कुल 42 किमी है, जबकि तीसरा रुद्रप्रयाग से गुप्तकाशी-मयाली होते हुए है। इस मार्ग से 67 किमी का सफ़र करना पड़ता है। बसु केदार क्षेत्र में उतरने के बाद सड़क से 200 मीटर पैदल चलकर मंदिर पहुंचा जाता है।
कल्प केदार



कल्प केदार
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उत्तरकाशी नगर से 75 किमी दूर गंगोत्री राजमार्ग पर धराली गांव में सड़क से करीब 50 मीटर की दूरी पर स्थित है कल्प केदार मंदिर। वर्ष 1945 में स्थानीय लोगों को भागीरथी नदी के तट पर मंदिर का एक शिखर नजर आया। इसके बाद वहां करीब 12 फ़ीट खुदाई कर मंदिर के प्रवेश द्वार तक जाने का रास्ता बनाया गया। मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म के पुनरुत्थान को यहां भी मंदिर समूह स्थापित किए थे। इस समूह में 240 मंदिर थे, जो 19वीं सदी की शुरुआत में श्रीकंठ पर्वत से निकलने वाली खीर गंगा नदी में आई बाढ़ के मलबे में दब गए। वर्ष 1816 में भागीरथी के उद्गम की खोज में निकले अंग्रेज यात्री जेम्स विलियम फ्रेजर ने अपने वृत्तांत में धराली में मंदिरों में विश्राम करने का उल्लेख किया है। फिर वर्ष 1869 में गोमुख तक पहुंचे अंग्रेज फोटोग्राफर एवं खोजकर्ता सैमुअल ब्राउन ने धराली में तीन प्राचीन मंदिरों की फोटो भी खींची, जो पुरातत्व विभाग के पास सुरक्षित हैं। कल्प केदार मंदिर कत्यूर शिखर शैली का मंदिर है। इसका गर्भगृह प्रवेश द्वार से करीब सात मीटर नीचे है। इसमें भगवान शिव की सफेद रंग की स्फटिक की मूर्ति रखी है। मंदिर के बाहर शेर, नंदी, शिवलिंग और घड़े की आकृति समेत पत्थरों पर उकेरी गई नक्काशी की गई है। यह बताना भी समीचीन होगा कि भागीरथी और खीरगंगा नदी के संगम पर स्थित धराली क़स्बे का प्राचीन नाम श्यामप्रयाग भी है। इसका उल्लेख स्कंद पुराण के केदारखंड में भी हुआ है।
वृद्ध केदार



वृद्ध केदार
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रामनगर से 101 किमी और रानीखेत से 67 किमी दूर रामनगर-बदरीनाथ मोटर मार्ग पर रामगंगा नदी के किनारे उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के केदार गांव में स्थित है पौराणिक वृद्ध केदार मंदिर। चंद वंशीय राजा रुद्र चंद ने राष्ट्रीय शाके 1490 (1568 ईस्वी) में इस मंदिर को भव्य स्वरूप प्रदान किया था। माना जाता है कि युद्ध के दौरान राजा रुद्र चंद जब एक रात इस स्थान पर ठहरे तो भगवान शिव ने उन्हें सपने में इस स्थान पर मंदिर बनाने का आदेश दिया। मंदिर निर्माण के बाद राजा की हारती हुई सेना ने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। वृद्ध केदार मंदिर को भगवान केदारनाथ के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। कुमाऊं में यह मंदिर बूढ़ा केदार के नाम से प्रसिद्ध है। इसका उल्लेख स्कंद पुराण के मानस खंड में भी हुआ है। मंदिर में मौजूद ताम्रपत्र के अनुसार मंदिर स्थापना के बाद राजा रुद्र चंद ने पुजारी के लिए पौड़ी जिले के डुंगरी गांव से ब्राह्मण जाति के कुछ लोगों को यहां लाकर बसाया। मूलरूप से डुंगरी गांव के होने के कारण ये पुजारी डुंगरियाल कहलाए। मंदिर सरपंच के लिए मनराल जाति के लोगों को नियुक्त किया गया। यहां विशाल शिलाखंड की भगवान शिव के धड़ के रूप में पूजा होती है। इस क्षेत्र के श्रद्धालु उत्तराखंड के चारधाम की यात्रा पर जाने से पहले वृद्ध केदार मंदिर में दर्शन अवश्य करते हैं। वृद्ध केदार मंदिर को महातीर्थ माना जाता है, क्योंकि यहां रामगंगा व विनोद नदी ( बिनो नदी) का संगम है, जो त्रिवेणी संगम नाम से प्रसिद्ध है।
आदि केदारेश्वर धाम
आदि केदारेश्वर धाम
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भू-वैकुंठ बदरीनाथ धाम में भी आदि केदारेश्वर के रूप में बाबा केदार निवास करते हैं। 'स्कंद पुराण' के 'केदारखंड' में प्रसंग आता है कि बदरीनाथ पहले भगवान शिव का ही धाम था, लेकिन भगवान नारायण के यहां विराजमान होने से भगवान शिव केदारपुरी चले गए। हालांकि, आदि केदारेश्वर के रूप में आज भी वह बदरीनाथ धाम में दर्शन देते हैं। बदरीनाथ धाम में भगवान नारायण के दर्शन से पूर्व भगवान आदि केदारेश्वर के दर्शन का विधान है। 'केदारखंड' में उल्लेख है कि जो यात्री केदारनाथ नहीं जा सकते, वे बदरीनाथ में ही बाबा केदार के दर्शन कर सकते हैं। बदरीनाथ और आदि केदारेश्वर मंदिर के कपाट एक ही दिन खुलते हैं और बदरीनाथ के कपाट बंद होने से तीन दिन पूर्व आदि केदारेश्वर के कपाट बंद हो जाते हैं। कथा है कि भगवान शिव माता पार्वती के साथ हमेशा नीलकंठ क्षेत्र व बामणी गांव के आसपास विचरण करते रहते थे। एक दिन उन्हें वहां किसी बालक के रोने की आवाज सुनाई दी, जो एक चट्टान पर बैठा हुआ था। बालक को देख माता पार्वती का हृदय पसीज गया और वह भगवान से उसे अपने साथ ले जाने की जिद करने लगीं। भगवान शिव ने लाख मना किया, लेकिन माता नहीं मानीं। त्रिकालदर्शी शिव जानते थे की यह कोई साधारण बालक नहीं है, लेकिन माता पार्वती की जिद के आगे उन्हें विवश होना पड़ा। माता ने बदरीनाथ धाम स्थित तप्तकुंड में बालक को नहलाया और फिर स्वयं भी स्नान करने लगीं। इसी बीच बालक ने मौका देख बदरीनाथ मंदिर में प्रवेश कर अंदर से दरवाजा बंद कर दिया। मान्यता है कि भगवान विष्णु तिब्बत के थोलिंग मठ से बदरीनाथ पहुंचे थे और वहां शिव-पार्वती को देखकर बालक का रूप धारण कर लिया। बामणी गांव में जहां श्रीहरि ने बालक का रूप धरा, उस स्थान को आज 'लीलाढुंगी' कहते हैं। इस घटना के बाद भगवान शिव ने बदरीनाथ धाम को छोड़ दिया और ज्योतिर्लिंग के रूप में केदारनाथ धाम में विराजमान हो गए।
जौनसार बावर का केदारनाथ मंदिर



जौनसार बावर का केदारनाथ मंदिर
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देहरादून जिले में जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर के लाखामंडल से सटे भटाड़ गांव में भी बाबा केदार का पांडवकालीन मंदिर है। अब ग्रमीणों ने यहां पौराणिक मंदिर के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ किए बिना नए भव्य मंदिर का निर्माण कर लिया है। मंदिर में हर साल छह अगस्त को नुणाई मेला लगता है। इसमें बाबा के दर्शनों को बोंदूर खत से जुड़े 24 गांवों के लोग जुटते हैं। यहां नौटियाल, थपलियाल व उनियाल जाति के करीब 20 परिवारों के सदस्य वंशानुगत परंपरा के अनुसार बारी-बारी पूजा-अर्चना करते हैं। मान्यता है कि पांडवकाल में भीमसेन ने बाबा केदार के मंदिर में भगवान शिव की आराधना कर शिवलिंग स्थापित किया था।
जागेश्वर धाम के केदार



जागेश्वर धाम के केदार
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अल्मोड़ा जिले में भी केदारनाथ का प्राचीन मंदिर स्थापित है। यह मंदिर अल्मोड़ा शहर से तकरीबन 35 किमी की दूरी पर विश्व विख्यात जागेश्वर धाम में है। केदारनाथ धाम में जिस तरह भगवान शिव रूपी वृषभ का पृष्ठ भाग यानी पीठ वाला हिस्सा देखने को मिलता है, ठीक ऐसे ही स्वरूप में वह जागेश्वर धाम में भी विराजमान हैं। यह स्वयंभू शिवलिंग है। कहते हैं कि केदारनाथ और जागेश्वर धाम एक ही हैं। आदि शंकराचार्य ने भी अपनी जागेश्वर धाम की यात्रा के दौरान माना था कि यहां पर साक्षात भोलेनाथ विराजमान हैं।
छिपला केदार
छिपला केदार
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छिपला केदार, पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील के बरम से लेकर खेत तक, सभी गांवों के ईष्ट देव हैं। इन सभी गांवों में हर दूसरे वर्ष छिपला केदार की यात्रा का आयोजन होता है, जो गांवों की छिपलाकोट (नाजुरीकोट) से दूरी के अनुसार तीन से पांच दिन की होती है। यहां एक खूबसूरत ताल है, जिसे छिपला नाम से जाना जाता है। छिपलाकोट पिथौरागढ़ जिले में काली और गोरी नदी के बीच स्थित हिमालय पर्वत शृंखला को कहा जाता है। कुमाऊंनी मे इसे छिपुलधुरा कहते हैं। छिपुलधुरा या छिपलाकोट का अर्थ है भगवान छिपला केदार का स्थान या निवास। छिपला केदार का क्षेत्र काली और गोरी गंगा नदी के बीच है, इसलिए इस क्षेत्र का नाम छिपलाकोट पड़ा। यह केदार देवता का गढ़ या कोट था, जहां एक पुराने किले के अवशेष आज भी मौजूद हैं। छिपलाकोट पूर्व में नेपाल, पश्चिम में मुनस्यारी, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में अस्कोट से घिरा है। यह पर्वत पंचाचूली के दक्षिण में स्थित है। इस श्रेणी की सबसे ऊंची चोटी नाजुरीकोट है, जो समुद्रतल से लगभग 4497 ​​मीटर ऊंची है।
छिपला ताल
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Fourteen forms of Baba Kedar in the Himalayas
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Dinesh Kukreti
The group of five temples dedicated to Shiva of Shaiva sect located in the Uttarakhand Himalayas has been called Panch Kedar.  However, there are not five but fourteen temples of Baba Kedar here.  Apart from this, Pashupatinath temple located in Nepal is also recognized as the temple of Baba Kedar.  It is said about Panch Kedar that all these temples were built by the descendants of Pandavas, which are situated at a high altitude in Garhwal.  Of these, four pilgrimages - Kedarnath, Second Kedar Madhyameshwar, Third Kedar Tunganath and Fourth Kedar Rudranath are open for darshan only during summers.  During winter season, Kedarnath and Madhyameshwar are worshiped at Omkareshwar Temple, Ukhimath, Tungnath is worshiped at Markandeya Temple, Makkumath and Rudranath is worshiped at Gopinath Temple, Gopeshwar.  Pancham Kedar Kalpeshwar is the only Dham, which remains open for devotees throughout the year.  Among these five Dhams, Kedarnath is the main temple, which is one of the famous four small Dhams of the Himalayas namely Badrinath, Kedarnath, Gangotri and Yamunotri.  Kedarnath, second Kedar Madhyameshwar and third Kedar Tunganath are in Rudraprayag district and fourth Kedar Rudranath and fifth Kedar Kalpeshwar are in Chamoli district.  Kedarnath is also included in the twelve Jyotirlingas of the country. The story goes that after the Mahabharata war, the Pandavas wanted to be freed from the sin of fratricide.  So, Lord Krishna advised him to take blessings of Lord Shiva.  For this the Pandavas reached Kashi, the city of Lord Shiva.  But, the Lord did not want to give darshan to the Pandavas, so he came to Guptkashi in the Himalayas and hid himself.  Pandavas knew this, so Lord reached Kedarnath before they could reach Guptkashi and took the form of Brishabha (bull) and went among other animals.  When the Pandavas became suspicious, Bhima assumed his huge form and spread his legs on two hills.  All the other cows and bulls went away, but Shiva in the form of a bull was not ready to go under his feet.  When Bhim pounced on the bull, the bull started sinking into the ground.  Then Bhima caught hold of the triangular back part of the bull.  Shiva was pleased with the devotion and determination of the Pandavas and appeared to them and freed them from their sins.  Since then, the Lord is worshiped in Kedarnath in the form of a bull's back i.e. Pinda.  It is believed that during the antardhyaan, the upper part of the Lord's torso appeared in Kathmandu (Nepal) and was called Pashupatinath.  Shiva's arms appeared in the third Kedar Tunganath, face in the fourth Kedar Rudranath, navel in the second Kedar Madhyameshwar, back part i.e. back in the first Kedar Kedarnath and hair in the fifth Kedar Kalpeshwar.  ...so come!  Along with Panch Kedar, you will also get darshan of Pashupatinath and other eight Kedars.  Apart from one of these eight, you will not even know about the rest.

Kedarnath Dham
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Kedarnath Dham, located in Rudraprayag district of Uttarakhand at an altitude of 11657 feet above sea level, also holds a place among the twelve Jyotirlingas of the country.  In Kedarnath Dham, the back part of Lord Shiva is seen in the bull form.  Here in the sanctum sanctorum, the idol of God is present in triangular form.  Regarding the Katyuri style Kedarnath temple made of stones, it is believed that it was built by Janmejay, a descendant of the Pandavas, while Adi Shankaracharya got the temple renovated.  The specialty of the temple is that it was not damaged even in the terrible disaster of 2013.

Madhyameshwar Dham
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The Dham of Second Kedar Lord Madhyameshwar is situated at the foothills of Chaukhambha peak at an altitude of 11470 feet above sea level in Rudraprayag district.  Here the central part of Lord Shiva is seen in the bull form.  Shaivite (Lingayat) priests of South India worship here like at Kedarnath.  According to the legend, it was because of the natural beauty that Shiva and Parvati celebrated the Madhuchandra night here.  It is believed that only a few drops of water here are enough for salvation.  The doors here also remain closed for six months during winter.

Tunganath Dham
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Third Kedar, the abode of Lord Tunganath is the highest situated Shiva temple in India.  The torso of Shiva in the form of a bull is revered in this Dham located in Rudraprayag district at a height of 12073 feet above sea level.  This temple, built in Uttarakhand style with black stones, is situated at a very picturesque place below the Chandrashila peak.  The story is that to please Lord Shiva, Pandavas worshiped him here.  The present temple is considered to be more than a thousand years old.  Maithani Brahmins of Makkumath are the priests here.  During winter season here too the doors remain closed for six months.  Then Lord Tunganath is worshiped in Makkumath.

Rudranath Dham
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Lord Rudranath is world famous as the fourth Kedar.  This temple is situated in a cave among the Bugyaals at an altitude of 11808 feet above sea level in Chamoli district.  Here the face of Lord Shiva is seen.  This is the only place in India, where the face of Lord Shiva is worshipped.  Rudranath is seen in the form of Ekanan, Pashupatinath in the form of Chaturanan in Nepal and Lord Shiva in the form of Panchanan Vigraha in Indonesia.  One route to Rudranath passes through Dumuk village in the Urgam valley, but due to it being extremely inaccessible, it takes two days for devotees to reach here.  So, most of the devotees go to Rudranath from Sagar village near Gopeshwar.  Lord Rudranath is worshiped in Gopeshwar when the doors are closed during winter.

Kalpeshwar Dham
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Kalpeshwar Dham is famous as Pancham Kedar.  To reach this temple situated in Chamoli district at an altitude of 2134 meters above sea level, one has to travel ten kilometers on foot.  Kalpeshwar Dham is also known by the name Kalpanath.  Lord Shiva is seen here in his matted form throughout the year.  It is said that at this place, sage Durvasa performed severe penance under the Kalpa tree.  Since then this place became famous by the name Kalpeshwar or 'Kalpnath'.  According to another story, the gods, troubled by the atrocities of the demons, praised Narayana in Kalpasthal and received the boon of fearlessness after seeing Lord Shiva.  The path to the sanctum sanctorum of the temple goes through a cave.

Budha Kedar Dham
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Although Budha Kedar (Old Kedareshwar) Dham, situated at a height of 4400 feet above sea level in Tehri district, is not a part of the Panchkedar group, but from the historical-mythological point of view, its importance is also like that of Panchkedar.  Old Kedareshwar has been discussed as Someshwar Mahadev in Kedarkhand of Skanda Purana.  It is believed that the Pandavas had gone on this route to Swargarohini to get freedom from the sin of killing a cow.  Here, at the confluence of Balganga-Dharmganga, Lord Shiva appeared to the Pandavas in the form of an old Brahmin and was called Budha Kedarnath.  In the sanctum sanctorum of the Budha Kedar temple, the idol and linga of Lord Shiva are seated on a huge linga-shaped spread stone.  Such a big Shivalinga is hardly found in any temple in the country.  The statue of Pandavas raised on it remains a mystery even today.  A huge trident is present nearby in the form of earth power, sky power and underworld power.  The priests of Budha Kedar temple are Rajputs of Nath caste.  Even those who have pierced ears.

Pashupatinath Dham
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Pashupatinath Temple is located in Devpatan village on the banks of Bagmati River, three km north-west of Nepal's capital Kathmandu.  Pashupatinath is actually a four faced Linga.  The face towards east is called Tatpurush, the face towards west is called Sadjyot, the face towards north is called Vamveda and the face towards south is called Aghora.  This temple was built by Pashupreksha of the Somdev dynasty in the 3rd century BC.  But, the available historical documents are from the 13th century only.  The original temple was destroyed several times and was given its present form by King Bhupalendra Malla in 1697.  This temple is also included in the UNESCO list of World Cultural Heritage Sites.  The tradition, which began with the 15th century king Pratap Malla, is that the temple has four priests (Bhatts) and a chief priest (Mul-Bhatt) who come from South India.  It is believed that when Lord Shiva appeared in Kedareshwar in the form of a bull, his face appeared in Nepal.  Here he was called Pashupatinath.

Vilva Kedar Dham
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Khandava Muni had performed penance on the banks of Manjumati river near Khandah on the Kotdwar-Srinagar motor road.  Since then it was named Khandav River.  It is mentioned in Chapter-95 of Mahabharata Adiparva and Chapter-90 of Vanparva that Rajarshi Yayati and Maharishi Bhrigu had performed penance in ancient times at Shivprayag, the confluence of Khandava and Alaknanda rivers.  Just opposite to this, the right bank of Alaknanda river, where Dhundhi Rishi performed penance, is called Dhundhi Prayag.  The mountain on its north side is Indrakil Mountain.  In Shivprayag, there was a fierce battle between Arjuna and Shiva in the form of Kirat to kill the deer created by Shiva's illusion and Arjuna had to be defeated.  Then Arjun established Shivalinga here and worshiped Shiva with Bilva leaves and lotus garland.  Therefore the Shivalinga established here became famous by the name Bilva Kedar.  There is an ancient temple of Bilva Kedar Mahadev here.

Basu Kedar
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There is a temple in Agastyamuni development block of Kedarghati, where underground Shivalinga is worshipped.  It is believed that Lord Shiva had rested here for a night, hence later this place came to be known as Basu Kedar.  The story is that this temple was built by Adi Shankaracharya 1600 years ago.  This is a group of eight small and big temples built in Katyuri style.  The main temple is dedicated to the Kedar form of Shiva.  It is also believed that there is water filled below the Basu Kedar temple and there is a secret Shivalinga beneath this water.  Its mention is also found in Kedarkhand of 'Skanda Purana'.  There are three routes to reach Basu Kedar.  The first one reaches Basukedar from Rudraprayag via Vijayanagar-Dadoli.  From this one has to cover a distance of 40 km.  The second route reaches Basu Kedar from Rudraprayag via Banswara-Bashti, which is a total of 42 km, while the third route is from Rudraprayag via Guptkashi-Mayali.  One has to travel 67 km through this route.  After landing in Basu Kedar area, the temple is reached by walking 200 meters from the road.

Kalp Kedar
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Kalp Kedar Temple is situated at a distance of about 50 meters from the road in Dharali village on Gangotri Highway, 75 km from Uttarkashi city.  In the year 1945, the local people saw a spire of the temple on the banks of river Bhagirathi.  After this, by digging about 12 feet, a path was made to reach the entrance of the temple.  It is believed that Adi Shankaracharya had established a group of temples here also for the revival of Sanatan Dharma.  There were 240 temples in this group, which were buried under the debris of floods in the Kheer Ganga river originating from Srikanth mountain in the beginning of the 19th century.  In the year 1816, the English traveler James William Fraser, who set out in search of the origin of Bhagirathi, has mentioned in his account about resting in the temples in Dharali.  Then in the year 1869, the British photographer and explorer Samuel Brown, who reached Gomukh, also took photographs of three ancient temples in Dharali, which are safe with the Archeology Department.  Kalp Kedar Temple is a Katyur Shikhar style temple.  Its sanctum sanctorum is about seven meters below the entrance.  A white colored crystal idol of Lord Shiva is kept in it.  Outside the temple, there are stone carvings including figures of lion, Nandi, Shivalinga and pitcher.  It would also be appropriate to mention that the ancient name of Dharali town situated at the confluence of Bhagirathi and Kheerganga rivers is also Shyamprayag.  It is also mentioned in Kedarkhand of Skanda Purana.

Old Kedar
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The legendary Old Kedar Temple is situated in Kedar village of Almora district of Uttarakhand on the banks of river Ramganga on the Ramnagar-Badrinath motor road, 101 km from Ramnagar and 67 km from Ranikhet.  Chand dynasty king Rudra Chand gave a grand appearance to this temple in Rashtriya Shaka 1490 (1568 AD).  It is believed that when King Rudra Chand stayed at this place one night during the war, Lord Shiva ordered him in his dream to build a temple at this place.  After the construction of the temple, the king's losing army won over the enemies.  Vriddha Kedar Temple is also recognized as Lord Kedarnath.  This temple in Kumaon is famous by the name of Budha Kedar.  It is also mentioned in the Manas section of Skanda Purana.  According to the copper plate present in the temple, after the establishment of the temple, King Rudra Chand brought some people of Brahmin caste from Dungri village of Pauri district and settled here for the priest.  Being originally from Dungri village, these priests were called Dungriyal.  People from Manral caste were appointed as temple sarpanch.  Here a huge rock is worshiped as the torso of Lord Shiva.  Devotees of this region definitely visit the Vriddha Kedar Temple before going on a pilgrimage to Chardham in Uttarakhand.  Vriddha Kedar Temple is considered a Mahatirtha, because here there is a confluence of Ramganga and Vinod River (Bino River), which is famous by the name Triveni Sangam.

Adi Kedareshwar Dham
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Baba Kedar resides in Bhu-Vaikuntha Badrinath Dham in the form of Adi Kedareshwar.  There is a context in 'Kedarkhand' of 'Skanda Purana' that earlier Badrinath was the abode of Lord Shiva, but due to Lord Narayana being present here, Lord Shiva moved to Kedarpuri.  However, even today he appears in Badrinath Dham in the form of Adi Kedareshwar.  In Badrinath Dham, there is a tradition of seeing Lord Adi Kedareshwar before seeing Lord Narayan.  It is mentioned in 'Kedarkhand' that the travelers who cannot go to Kedarnath can have darshan of Baba Kedar in Badrinath only.  The doors of Badrinath and Adi Kedareshwar temples open on the same day and the doors of Adi Kedareshwar are closed three days before the doors of Badrinath are closed.  The story is that Lord Shiva always roamed around Neelkanth area and Bamani village with Mother Parvati.  One day they heard the crying sound of a child who was sitting on a rock.  Seeing the child, Mother Parvati's heart ached and she started insisting to God to take him with her.  Lord Shiva refused a lot, but mother did not agree.  Trikaldarshi Shiva knew that this was no ordinary child, but he was forced to bow to the insistence of Mother Parvati.  The mother bathed the child in the Taptakund located at Badrinath Dham and then started bathing herself.  Meanwhile, seeing the opportunity, the child entered the Badrinath temple and closed the door from inside.  It is believed that Lord Vishnu had reached Badrinath from Tholing Monastery in Tibet and after seeing Shiva and Parvati there, he took the form of a child.  The place where Shri Hari took the form of a child in Bamani village is today called 'Leeladhungi'.  After this incident, Lord Shiva left Badrinath Dham and resided in Kedarnath Dham in the form of Jyotirlinga.

Kedarnath Temple of Jaunsar Bawar
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There is a Pandava era temple of Baba Kedar in Bhatad village adjacent to Lakhamandal of Jaunsar-Bawar tribal area in Dehradun district.  Now the villagers have built a new grand temple here without disturbing the original form of the mythological temple.  Nunai fair is held in the temple every year on 6th August.  In this, people from 24 villages associated with Bondur Khat gather to have Baba's darshan.  Here, members of about 20 families of Nautiyal, Thapliyal and Uniyal castes perform puja one by one as per the hereditary tradition.  It is believed that during the Pandava period, Bhimsen had worshiped Lord Shiva and installed Shivalinga in the temple of Baba Kedar.

Kedar of Jageshwar Dham
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The ancient temple of Kedarnath is also established in Almora district.  This temple is located in the world famous Jageshwar Dham at a distance of about 35 km from Almora city.  Just as the back part of Lord Shiva in the form of Taurus can be seen in Kedarnath Dham, in the same form he is present in Jageshwar Dham also.  This is the self-proclaimed Shivalinga.  It is said that Kedarnath and Jageshwar Dham are the same.  Adi Shankaracharya also believed during his visit to Jageshwar Dham that Bholenath is physically present here.

Chipla Kedar
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Chhipla Kedar is the presiding deity of all the villages, from the berm to the fields, in Dharchula tehsil of Pithoragarh district.  In all these villages, Chhipala Kedar Yatra is organized every second year, which lasts for three to five days depending on the distance of the villages from Chhipalakot (Nazurikot).  There is a beautiful pond here, which is known as Chhipla.  Chiplakot is the Himalayan mountain range situated between Kali and Gori rivers in Pithoragarh district.  In Kumaoni it is called Chhipuldhura.  Chipuldhura or Chiplakot means the place or abode of Lord Chipla Kedar.  The area of ​​Chipla Kedar is between Kali and Gori Ganga rivers, hence the name of this area was Chiplakot.  This was the Garh or Kot of Kedar Devta, where the remains of an old fort still exist.  Chiplakot is bounded by Nepal in the east, Munsiyari in the west, Himalayas in the north and Askot in the south.  This mountain is situated to the south of Panchachuli.  The highest peak of this range is Najurikot, which is about 4497 ​​meters above sea level.
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