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Wednesday, 2 October 2024

01-10-2024 (कहानी : हम जरूर मिलेंगे)


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कहानी

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हम जरूर मिलेंगे
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दिनेश कुकरेती
ज जब मैं अपने कमरे में नितांत अकेला हूं तो बरबस अंजलि का स्मरण हो आया है। ऐसा लग रहा है, मानो अंजलि मेरे समक्ष खड़ी हो। कुछ ही दिन पूर्व की बात है, जब लगभग सत्रह बरस बाद अचानक अप्रत्याशित ढंग से उससे मुलाकात हो गई थी। मैं कुछ समय पूर्व उन दिनों देहरादून अपने मित्र नरेंद्र के यहां गया हुआ था। कुछ परिस्थितियां ऐसी बनीं कि मुझे वहां पंद्रह दिन ठहरना पड़ा। मेरे मित्र के पिता ‘सीमा सड़क सगठन’ में सीनियर इंजीनियर हैं। वह सोमवार का दिन था। तारीख तो ठीक-ठीक याद नहीं, शायद अप्रैल की बीस-बाईस तारीख रही होगी। उस दिन नरेंद्र के पिता ने अपने घर पर एक पार्टी का आयोजन किया था। पार्टी नरेंद्र के जन्मदिन के उपलक्ष्य में रखी गई थी। इस परिवार को देहरादून में बसे अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है, इसलिए जान-पहचान सीमित ही है, जिस वजह से पार्टी में कुछ विशेष लोगों को ही आमंत्रित किया गया था। नरेंद्र के परिवार में, मेरा भी, परिवार के सदस्य-जैसा स्थान है। इस कारण मैं वहां पर पार्टी को अंजाम देने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा था। मेहमानों का आगमन शुरू हो चुका था, जिनमें कुछ नरेंद्र के मित्र व बाकी उसके पिता के मित्र और सगे-संबंधी थे। मेहमानों में एक युवा दम्पती भी था। बड़ा सुंदर जोड़ा था। युवती की गोद में एक खूबसूरत सलोना-सा, फूल जैसा बालक भी था।

मैंने उस जोड़े को देखा तो कुछ पल के लिए मेरी नजर उस युवती पर स्थिर हो गई। मस्तिष्क में हल्की बिजली-सी कौंधी। ऐसा लगा, मानो मैं उससे पूर्व परिचित हूं, लेकिन कब, कैसे और कहां उससे परिचय हुआ, कुछ भी याद न था। मैंने दिमाग पर जोर डालकर कुछ याद करने की कोशिश की, लेकिन सब व्यर्थ रहा। कुछ क्षण मैं यूं ही सोचता रहा, फिर झटके से मन में उमड़-घुमड़ रहे विचारों की शृंखला भंग की। सोचा, कभी-कभी ऐसा हो जाया करता है कि कोई व्यक्ति पहली बार मुलाकात होने पर भी कुछ जाना-पहचाना सा लगता है। फिर मैं अपने कार्य में तल्लीन हो गया।



उस युवा जोड़े के आगमन से घर के सभी सदस्य बहुत खुश थे। वह युवती स्वयं भी अतिथि थी और अन्य अतिथियों के स्वागत-सत्कार में व्यस्त थी। इससे मैंने अंदाजा लगा लिया कि हो-न-हो यह जोड़ा अन्य अतिथियों में विशेष है। नरेंद्र भी जीजाजी-जीजाजी कहकर उनके कुछ ज्यादा ही चक्कर काटे जा रहा था। तभी उसके पिता ने उस युवती से मुखातिब होते हुए कहा- "बेटी अंजलि! तुम व्यर्थ परेशान क्यों हो रही हो, काम करने के लिए हम हैं ना।"

मैंने जब उनकी जुबान से "अंजलि" शब्द सुना, तो मेरी स्मृति में सत्रह बरस पहले का वह चित्र सजीव हो उठा, जब में तीसरी कक्षा में पढ़ता था। अब मुझसे नहीं रहा जा रहा था। मन में कौतुहल मचा हुआ था कि क्या यह सचमुच सत्रह बरस पहले की, वही अंजलि है? 

मैंने नरेंद्र से पूछ ही लिया- "नरेंद्र ! यह अंजलि जी कौन हैं?"

"यह मेरे पिता के दोस्त की बेटी और मेरी मुंहबोली बहन हैं।" - नरेंद्र बोला

"कहीं ये अंजलि जी सूबेदार मेजर कपूर साहब की बेटी तो नहीं?" मेरे मुंह से अनायास निकला।

"हां! क्या तुम उन्हें जानते हो" - नरेंद्र बोला। 

लेकिन... मैंने उसके शब्दों को सुना ही नहीं। मैं तो सत्रह बरस पूर्व की स्मृतियों में खो गया था, जो अनायास ही सजीव हो उठी थीं। सारी घटनाएं मेरे मस्तिष्क में चलचित्र की भांति तैर रही थीं।
तब मैं जोशीमठ में तीसरे दर्जे में पढ़ता था। उम्र यही कोई आठ-नौ साल के बीच रही होगी। मेरे पिता तब सेना में सेवारत थे और उनकी पोस्टिंग जोशीमठ हुई थी। हम लोग सपरिवार जोशीमठ से दो किमी नीचे मारवाड़ी गांव में रहते थे। मारवाड़ी के ही एक स्थानीय प्राइमरी स्कूल में  पिताजी ने मुझे तीसरी कक्षा में दाखिल करवा दिया था।
हमारी कक्षा में कुल 36 विद्यार्थी थे, जिनमें 35 लड़के और मात्र एक लड़की थी। अंजलि नाम था उसका। गोल-मटोल, औसत कद, इकहरा बदन और मनमोहक आंखों वाली लड़की थी अंजलि। उम्र नौ बरस से ज्यादा न थी। वह जब हंसती तो प्रतीत होता मानो अलकनंदा की लहरें हिलौरें ले रही हैं। पढ़ने में अंजलि काफी होशियार थी। उसका परिवार भी कुछ दिन पहले हो जोशीमठ आया था।



बचपन में लड़कियों से बात करने के मामले में मैं संकोची स्वभाव का रहा हूं। इसलिए पहले-पहल तो मैं उससे बिल्कुल बात नहीं करता था। एक ही कक्षा में पढ़ने के कारण वह स्वयं ही कभी कुछ बोलती तो मैं "हूं-हां" में जवाब दे देता। लेकिन, धीरे-धीरे उससे बात करने में मेरा संकोच दूर होता चला गया। अब मैं उससे खूब बातें करने लगा था। वह सामने वाली लाइन में ठीक मेरी सीध में बैठती थी, इसलिए किसी भी चीज की जरूरत होने पर मुझसे ही पहले बोलती। गणित में अंजलि कक्षा में अव्वल आती थी, सो मेरी परेशानी को भी वही हल करती थी।
अब तो मैं उससे इतना घुल-मिल गया था कि अगर वह एक भी दिन अनुपस्थित रहती तो मन बिल्कुल नहीं लगता। कक्षा में उस दिन जो कुछ पढ़ाया जाता, वह भी समझ नहीं आता था। हम दोनों एक-दूसरे की सूरत देखे बिना नहीं रह सकते थे। अगर स्कूल में मैं अंजलि को नहीं दिखता तो वह नाराज हो जाती। फिर मैं उसे इधर-उधर के किस्से सुनाता तो वह खिलखिला पड़ती। मध्यांतर में दोनों एक साथ खेलते थे। "बाघ-बकरी" का खेल अंजलि को बहुत पसंद था, सो रोज वह मेरे साथ "बाघ-बकरी" खेलती। हम दोनों की स्थिति ऐसे हो गई थी कि इतवार को भी घर पर चैन से नहीं रह पाते थे।

हमारे बीच अपनत्व का एक ऐसा रिश्ता था, जिसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता। इस नादान उम्र में हमारा यह बालसुलभ प्यार अनोखा था। हमें तो यह भी नहीं मालूम था कि प्यार होता क्या है। हमारा प्यार तो अलकनंदा और धौली के संगम की तरह निश्च्छल था, जिसमें असीम बालसुलभ पवित्रता थी।

खेल-खेल में मैं कभी उसके बाल खींच लेता, तो कभी वह मेरे कान उमेठ देती। कभी हमारे बीच झगड़ा हो जाता तो दोनों एक-दूसरे से बात नहीं करते थे। लेकिन, यह सब ज्यादा देर नहीं चलता था। वह कुछ देर बाद ही कहती- "अनुज! तू मुझसे नाराज है?"

मैं कुछ जवाब न देता तो वह झट से मेरे गाल चूम लेती। मैं मुस्करा देता और फिर दोनों खेलने में व्यस्त हो जाते। कक्षा के अन्य बच्चे हमें देखकर खिलखिला कर हंस देते। इस तरह स्कूल जाते वक्त भी वह मेरा इंतजार करती रहती। घर भी दोनों साथ ही लौटते थे।



जोशीमठ में शीत ऋतु में अत्याधिक ठंड पड़ने के कारण डेढ़ महीने के लिए स्कूल बंद हो जाया करते हैं। बर्फ में घर से बाहर निकलना भी दुश्वार रहता है। उस साल भी सर्दियों की छुट्टियां पड़ने वाली थीं। हम दोनों अब चौथी कक्षा में आ गए थे। इसी दौरान पिताजी की पोस्टिंग अरुणाचल प्रदेश हो गई, सो हमें भी अब जोशीमठ छोड़ना पड़ रहा था। जोशीमठ छोड़ने की कल्पना मात्र से ही मेरा मन उदास रहने लगा था, लेकिन छोड़ना विवशता थी।

अगले दिन जब मैं विद्यालय गया तो खोया-खोया-सा था। किसी से बात करने को भी मन नहीं कर रहा था। अंजलि मेरी यह स्थिति देखकर परेशान थी, आखिर उसने पूछ ही लिया- "अनुज, आज तू उदास क्यों है?" मैं चुपचाप एकटक उसे देखता रहा। 

"तू मुझसे नाराज है अनुज? ‘’ - अंजलि बोली

"नहीं"। मैंने सपाट-सा जवाब दिया। 

"फिर तू बताता क्यों नहीं है कि तुझे क्या हुआ है?" - अंजलि बोली

अंजलि अब में चला जाऊंगा।" मैंने धीरे से कहा। 

’’कहां?’’

"तुमसे बहुत दूर अपने घर।"

क्यों? अंजलि में कंहा।

पिताजी अरुणाचल प्रदेश जा रहे हैं। कल कह रहे थे, अब तुम्हें घर भेज दूंगा। 

"क्या तू यहां नहीं पढ़ेगा?" - अंजलि ने प्रश्न किया।

"नहीं अंजू। मैं अकेला किसके साथ रहूंगा।" - मैंने उससे कहा।

मेरी बात सुनकर अंजलि का चेहरा उतर गया। वह खामोश हो गई और मुझे एकटक निहारने लगी। कुछ देर खामोश रहने के उपरांत वह फिर बोली- "अनुज क्या तू मुझे भूल जाएगा?"

"नहीं रे! मैं तुझे कैसे भुला सकता हूं?"

"क्या तू मुझे रोज याद करेगा?"

"हां अंजू! मैं तुझे रोज याद करूंगा। क्या तू भी मुझे याद करेगी?"

"हां अनुज! अब मैं तेरे बगैर किसके साथ खेलूंगी बाघ-बकरी का खेल?" - अंजलि ने मासूमियत से कहा।

मैं खामोश रहा। उसने मेरी तंद्रा भंग करते हुए कहा, "अनुज तुम लोग घर कब जाओगे?"

"पिताजी बता रहे थे कि आज में दसवें दिन हम चले जाएंगे।"

अंजलि ने मेरे कंधे पर सिर टिका दिया था, उसकी आंखें डबडबा आई थीं। हौले से उसके सिर को हटाते हुए मैंने कहा था- "अब हम शायद ही कभी मिल पाएंगे अंजू।"

"अनुज, ऐसे मत बोल। हम जरूर मिलेंगे। अच्छा ऐसा कर, तेरी अंगुली में जो ये अंगूठी है, इसे मुझे दे दे।" - अंजलि बोली थी।

मेरे हाथ में सचमुच एक अंगूठी थी, जिसे पिताजी बदरीनाथ से लाए थे। उसका नग न जाने कहां खो गया था। मैंने कहा- "अंजू यह तो बेकार अंगूठी है, इसका नग भी न जाने कहां खो गया है।"

"नहीं अनुज! यह बहुत अच्छी अंगूठी है। तू इसे मुझे दे दे ना।"

"तू इसका क्या करेगी?"

"मैं रोज इसे देखूंगी और तुझे याद करूंगी।"

मैंने अपनी अंगुली से अंगूठी निकालकर उसकी अंगुली में पहना दी। उस दिन हम दोनों खामोश घर लौटे। बस! रास्तेभर एक-दूसरे को देखते रहे। 

इसके बाद के सात-आठ दिन भी उसी तरह उदासी में कट गए। आते वक्त मैं उसे देख भी न पाया। कुछ दिन तो मैं बहुत उदास रहा। खाते-सोते अंजलि की मासूम प्रतिमूर्ति सामने आ जाती थी। रात को मैं चुपके-चुपके रोया भी करता था।

समयचक्र निर्बाध गति से चलता रहा। धीरे-धीरे मैं उसे भूल गया। बचपन में घटी घटनाएं इतनी उम्र तक याद भी कहां रह पाती हैं। फिर नए-नए दोस्तों का साथ, नई जगह का नया माहौल और जीवन के तमाम उतार- चढ़ाव। लेकिन... आज सत्रह साल पहले की गुड़िया-सी अंजलि एक खूबसूरत युवती के रूप में मेरे सामने खड़ी थी। तभी नरेंद्र ने अचानक मुझे झकझोरा तो पुरानी स्मृतियों के तार अचानक टूट गए। मैं कुछ अनमने भाव से नरेंद्र को देखने लगा।

"अनुज! तुझे अचानक यह क्या हो गया था?" - नरेंद्र बोला।

"कुछ नहीं" - मैंने प्रत्युत्तर में कहा।

"फिर कहां खो गया था, तूने तो मेरी एक भी बात नहीं सुनी।" - नरेंद्र बोला।

"नरेंद्र! मैं सत्रह साल पहले चला गया था, अंजलि के साथ।"

"क्या कह रहा है? पगला गया है क्या?" - नरेंद्र बोला

"नहीं नरेंद्र!, मैं पागल नहीं हुआ। यह अंजलि मेरी बचपन की दोस्त है।"

"क्या तू दीदी को जानता है?" - नरेंद्र ने प्रश्न किया।

"सिर्फ जानता ही नहीं। इसके साथ जीवन के महत्वपूर्ण डेढ़ वर्ष बिताए हैं मैंने।"

यह सुन नरेंद्र आश्वर्य से मेरे चेहरे को एकटक देखता रह गया। 

शाम तक मुझे और अंजलि को छोड़कर सभी मेहमान विदा हो गये थे। नरेंद्र ने बताया कि दीदी एक-दो दिन यहीं रहेगी। जीजाजी को दो दिनों के लिए कहीं बाहर जाना था, इसलिए वे वापस चले गए हैं। हम दोनों बातों में मशगूल थे, तभी अंजलि चाय लेकर बैठक में आई। जब वह चाय रखकर लौटने लगी, तो नरेंद्र ने उसे रोक लिया। वह बगल वाली कुर्सी पर बैठ गई।

नरेंद्र ने अंजलि से मेरा परिचय कराया, "दीदी, यह मेरा दोस्त अनुज है। अभी कुछ दिन यहीं रहेगा।" लेकिन, अंजलि को तो कुछ भी याद नहीं था। नरेंद्र ही आगे बोला - "दीदी! क्या तुमने अनुज को नहीं पहचाना? उसने तो तुम्हें आते ही पहचान लिया था।"

अंजलि आश्चर्य मिश्रित शब्दों में बोली - "क्या आप मुझे जानते हैं ? लेकिन में तो आपको पहली बार देख रही हूं।"

"हां अंजलि! आज से सत्रह वर्ष पूर्व तुम और मैं जोशीमठ में एक साथ पढ़ते थे। तुम सिर्फ मेरे साथ खेलती थी। मेरे वापस आते वक्त हम दोनों ही कितने उदास थे। तब तुमने कहा था, अनुज! तुम मुझे अपनी अंगूठी दे दो, मैं उसे देखकर तुम्हें रोज याद करती रहूंगी। लेकिन... लेकिन... तुम तो..।" यह कहते-कहते मैं भावुक हो गया था।

"अनुज...! अनुज... क्या तुम? तुमने मुझे पहचान लिया अनुज? लेकिन मैं... नहीं...। मेरे पास तुम्हारी अंगूठी आज तक है। मैंने बहुत संजो कर रखी है। लेकिन...पिछले कुछ वर्षों में मैंने उसे देखा नहीं। अनुज! मैंने कहा था न, कि हम अवश्य मिलेंगे, कहा था न मैंने...और हम सचमुच मिल गए।" अंजलि की आंखों में खुशी के आंसू छलछला आए थे।
"हां अंजलि! तुमने सच कहा था। अंजलि तुम अब कितनी सुंदर हो गई हो। पहले से भी सुंदर। और... बच्चा!  कितना प्यारा बच्चा है... बिल्कुल तुम पर गया है।" 

अंजलि खामोश रही। वह आंसुओं को रोकने का असफल प्रयास कर रही थी। माहौल काफी बोझिल हो गया था। मैं अंजलि को उदास नहीं देख सकता था, इसलिए मैंने उसके आंसुओं को पोंछते हुए कहा- "अंजलि। सत्रह बरस बीत गए, तब से आज तक मैंने 'बाघ-बकरी' का खेल नहीं खेला। तुम तो बहुत अच्छा खेलती थीं। क्या आज मेरे साथ नहीं खेलोगी?"

"अनुज... तुम तो बिल्कुल नहीं बदले।" फिर वह खिलखिलाकर हंस पड़ी थी, बिल्कुल वैसे ही, जैसे सत्रह बरस पहले हंसती थी।  
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Story
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We will definitely meet
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Dinesh Kukreti
Today when I am completely alone in my room, I suddenly remember Anjali. It seems as if Anjali is standing in front of me. It was just a few days ago when I met her unexpectedly after almost seventeen years. Some time back I had gone to my friend Narendra's place in Dehradun. Some circumstances arose that I had to stay there for fifteen days. My friend's father is a senior engineer in the 'Border Roads Organisation'. It was a Monday. I don't remember the exact date, it must have been 20th or 22nd of April. That day Narendra's father had organized a party at his house. The party was organized to celebrate Narendra's birthday. It has not been long since this family settled in Dehradun, so the acquaintances are limited, due to which only a few special people were invited to the party. In Narendra's family, I too have a place like a family member.  For this reason, I was playing an important role in organising the party there. Guests had started arriving, some of whom were Narendra's friends and the rest were his father's friends and relatives. Among the guests was a young couple. It was a very beautiful couple. The young woman was also holding a beautiful, flower-like child in her lap.

When I saw the couple, my eyes were fixed on the young woman for a few moments. A slight flash of light flashed in my mind. It felt as if I knew her before, but I did not remember when, how and where I met her. I tried to remember something by putting pressure on my mind, but it was all in vain. I kept thinking like this for a few moments, then suddenly broke the chain of thoughts surging in my mind. I thought, sometimes it happens that even when we meet someone for the first time, a person seems somewhat familiar. Then I got engrossed in my work.
All the members of the house were very happy with the arrival of that young couple. That young lady was also a guest and was busy welcoming the other guests. From this I guessed that this couple was special among the other guests. Narendra was also circling them a bit too much calling them brother-in-law. Just then his father addressed that young lady and said- "Daughter Anjali! Why are you getting worried unnecessarily, we are there to do the work."

When I heard the word "Anjali" from his mouth, that picture of seventeen years back came alive in my memory, when I was studying in the third class. Now I could not control myself. I was curious whether this was really the same Anjali of seventeen years back?

I asked Narendra- "Narendra! Who is this Anjali ji?"

"She is the daughter of my father's friend and my adopted sister." - Narendra said

"Is this Anjali ji the daughter of Subedar Major Kapoor sahab?"  It came out of my mouth involuntarily.

"Yes! Do you know him?" - Narendra said.

But... I did not hear his words. I was lost in the memories of seventeen years ago, which had suddenly come alive. All the incidents were floating in my mind like a movie.

At that time I was studying in third class in Joshimath. I must have been around eight-nine years old. My father was then serving in the army and was posted in Joshimath. We lived with our family in a Marwari village two kilometers below Joshimath. Father had enrolled me in third class in a local primary school in Marwari.

There were a total of 36 students in our class, out of which 35 were boys and only one girl. Her name was Anjali. Anjali was a chubby girl with average height, lean body and charming eyes. She was not more than nine years old. When she laughed, it seemed as if the waves of Alaknanda were rippling.  Anjali was very intelligent in studies. Her family had also come to Joshimath a few days ago.

In my childhood, I was shy about talking to girls. So initially, I did not talk to her at all. Being in the same class, if she herself said something, I would reply in "yes". But, gradually my shyness in talking to her went away. Now I started talking to her a lot. She used to sit in the front row, right in front of me, so whenever she needed anything, she would talk to me first. Anjali was the topper in the class in Mathematics, so she used to solve my problems too.

Now I had become so close to her that if she remained absent for even a single day, I would not feel like talking at all. Whatever was taught in the class that day, I would not even understand it. Both of us could not live without seeing each other's face. If Anjali did not see me in school, she would get angry. Then I would tell her random stories and she would burst out laughing. Both of us used to play together during the break.  Anjali loved the game of "Tiger-Goat", so she used to play "Tiger-Goat" with me everyday. The condition of both of us had become such that we could not stay peacefully at home even on Sundays.

There was a bond of intimacy between us which cannot be given any name. At this innocent age, our childlike love was unique. We did not even know what love is. Our love was as pure as the confluence of Alaknanda and Dhauli, which had infinite childlike purity.

While playing, sometimes I would pull her hair, and sometimes she would twist my ears. Sometimes we would have a fight and both of us would not talk to each other. But, all this did not last long. After some time she would say- "Anuj! Are you angry with me?"

If I did not reply, she would kiss my cheeks immediately. I would smile and then both of us would get busy playing. Other children in the class would laugh seeing us. In this way, she would wait for me even while going to school. Both of us would return home together.

In Joshimath, schools remain closed for one and a half months due to extreme cold during winters. It is difficult to even step out of the house in the snow. That year too, winter holidays were about to start. We both had now reached the fourth class. During this time, father got posted in Arunachal Pradesh, so we too had to leave Joshimath. Just the thought of leaving Joshimath made me sad, but leaving was a compulsion.

The next day when I went to school, I was lost. I did not feel like talking to anyone. Anjali was upset seeing my condition, finally she asked - "Anuj, why are you sad today?" I kept staring at her silently.

 "Are you angry with me Anuj?" - Anjali said

"No". I replied flatly.

"Then why don't you tell me what has happened to you?" - Anjali said

Anjali, I will leave now." I said softly.

"Where?"

"To my home, very far from you."

Why? Where did Anjali say.

Father is going to Arunachal Pradesh. Yesterday he was saying that he will send you home now.

"Will you not study here?" - Anjali asked.

"No Anju. With whom will I stay alone?" - I told her.

On hearing my words, Anjali's face turned pale. She became silent and started staring at me. After being silent for some time, she again said- "Anuj, will you forget me?"

"No! How can I forget you?"

"Will you remember me every day?"

"Yes Anju! I will remember you every day. Will you also remember me?"

 "Yes Anuj! Now with whom will I play the game of tiger-goat without you?" - Anjali said innocently.

I remained silent. She broke my trance and said, "Anuj when will you all go home?"

"Father was telling me that we will leave on the tenth day today."

Anjali rested her head on my shoulder, her eyes were filled with tears. Gently removing her head, I said- "Now we will hardly be able to meet Anju."

"Anuj, don't talk like this. We will definitely meet. Well, do this, give me this ring which is on your finger." - Anjali said.

I actually had a ring in my hand, which father had brought from Badrinath. God knows where its stone had got lost. I said- "Anju, this is a useless ring, God knows where its stone has also got lost."

"No Anuj! This is a very nice ring. You give it to me."

"What will you do with it?"

"I will see it every day and remember you."

I took the ring off my finger and put it on her finger. That day, both of us returned home silently. That's it! We kept looking at each other all the way.

The next seven-eight days also passed in the same sadness. While coming, I could not even see her. For some days, I was very sad.  While eating or sleeping, Anjali's innocent image used to come in front of me. I used to cry silently at night.

The wheel of time kept moving at a steady pace. Slowly I forgot her. The incidents that happened in childhood are not remembered till this age. Then the company of new friends, new environment of a new place and all the ups and downs of life. But… today the doll-like Anjali of seventeen years ago was standing in front of me as a beautiful young woman. Then suddenly Narendra shook me and the strings of old memories suddenly broke. I started looking at Narendra with some reluctant expression.


"Anuj! What happened to you suddenly?" - Narendra said.

"Nothing" - I replied.

"Where were you lost then? You didn't listen to a single word of mine." - Narendra said.

"Narendra! I had gone seventeen years ago with Anjali."

"What are you saying? Have you gone mad?" - Narendra said.

"No Narendra! I have not gone mad. This Anjali is my childhood friend."

"Do you know Didi?" - Narendra asked.

"I don't just know. I have spent the important one and a half years of my life with her."

On hearing this, Narendra kept staring at my face in surprise.

By evening, all the guests had left except me and Anjali. Narendra told me that Didi will stay here for a day or two. Jijaji had to go out somewhere for two days, so he has gone back. We both were busy talking, when Anjali came to the drawing room with tea.  When she started to return after serving tea, Narendra stopped her. She sat on the chair next to him.

Narendra introduced me to Anjali, "Didi, this is my friend Anuj. He will stay here for a few days." But Anjali did not remember anything. Narendra said further - "Didi! Did you not recognize Anuj? He recognized you as soon as you arrived."

Anjali said in surprised words - "Do you know me? But I am seeing you for the first time."

"Yes Anjali! Seventeen years ago, you and I used to study together in Joshimath. You used to play only with me. When I came back, we both were so sad. Then you said, Anuj! Give me your ring, I will remember you every day by looking at it. But... but... you..." I became emotional while saying this.

 "Anuj...! Anuj... is it you? Did you recognize me Anuj? But I... no... I still have your ring. I have kept it very carefully. But... I have not seen it in the last few years. Anuj! I told you that we will surely meet, didn't I... and we really met." Anjali's eyes were welling up with tears of joy.

"Yes Anjali! You said it right. Anjali you have become so beautiful now. Even more beautiful than before. And... the child! What a cute child he is... he looks exactly like you."

Anjali remained silent. She was trying unsuccessfully to stop her tears. The atmosphere had become quite heavy. I could not see Anjali sad, so I wiped her tears and said - "Anjali. Seventeen years have passed, since then I have not played the game of 'tiger-goat'. You used to play very well. Won't you play with me today?"

"Anuj... you have not changed at all." Then she burst out laughing, just like she used to laugh seventeen years ago.

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