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Wednesday, 30 March 2022

30-03-2022 (उमस भरी रातें)























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किस्सागोई (तीन)

उमस भरी रातें

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दिनेश कुकरेती

ब तो आप जान ही गए होंगे कि नानी की कहानियों की मेरे जीवन में क्या अहमियत है। तब में छठी में पढ़ता था, जब नानी गांव छोड़कर स्थायी रूप से हमारे साथ रहने लगी थी। हम ऐसा ही चाहते भी थे। उस दौर में हम किराये के मकान में रहते थे। एक अदद कमरा व किचन हुआ करता था हमारे पास। महज 50 रुपया किराया था उस कमरे का। तब 50 रुपये की पांच हजार रुपये जितनी अहमियत हुआ करती थी। कोटद्वार बेहद गर्म शहर है और हम तब जोशीमठ जैसे ठंडे इलाके से आए थे। लिहाजा, ऐसी गर्मी को झेलना हमारे लिए आसान नहीं था। 

वैसे तो गहरे में होने के कारण मेरे गांव भलगांव में भी काफी गर्मी पड़ती है। लेकिन, सुबह-शाम और रात के वक्त आसपास के जंगल से चलती ठंडी हवाएं वातावरण में सुकून घोल देती हैं। जबकि, कोटद्वार भाबर का हिस्सा है और यहां मैदानी क्षेत्र से आने वाली वाली गर्म हवाएं तन को झुलसा देती हैं। जेठ की तपती दुपहरी में चलने वाली लू के तो कहने ही क्या। उस पर घंटों बिजली का गुल रहना और मच्छरों का आतंक अलग से। उस दौर में रात-रातभर बिजली के कट लगना सामान्य बात हुआ करता था। कई बार तो दिन के वक्त भी बिजली घंटों नदारद रहती थी। सबसे बडी़ बात यह कि तब हमारे पास पंखा भी नहीं था। 

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तकरीबन दो-तीन साल की गर्मियां हमने बिना पंखे के ही काटीं। उस दौर में हम रात को आंगन में या छत पर सोया करते थे। हमारे पास सण की तीन चारपाई हुआ करती थी, जिनमें से एक स्थायी रूप से घर के बाहर रखी रहती थी। गर्मियों के दौरान चौक (आंगन) में हम इसी चारपाई को बिछाते थे। यह चारपाई मेरी व नानी की थी। मैं नानी के साथ ही सोता था। उमसभरी गर्मी में नींद तो घंटों आती ही नहीं थी, इसलिए मैं रोज नानी से कहानी सुनाने को कहता। नानी के पास कहानियों का कभी न खत्म होने वाला कोटा था, सो हर रात वो नई-नई कहानी सुनाती। ज्यादातर कहानियां राजा-रानी की हुआ करती थी। 

किसी कहानी में वजीर भी मुख्य किरदार होता। इसके अलावा तरह-तरह के अन्य पात्र भी हुआ करते। कुछ कहानियां तो उसी क्रम में मुझे आज भी याद हैं। सबसे अच्छी मुझे संत-बसंत, रग-ठग व लिंडर्या छ्वारा की कहानी लगती थी। कई कहानियां प्रेरणाप्रद होती तो कई जागरुकता लाने वाली। कई ठेठ मनोरंजक। आगे कोशिश करूंगा कि ये कहानियां एक-एक कर आपको भी सुना सकूं। खैर! कहानी सुनाने से पहले नानी हमेशा मुझे टहलाने की कोशिश करती, लेकिन मैं भला कहां मानने वाला था। आखिरकार मेरी जिद के आगे नानी को हार माननी पड़ती।

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कहानी सुनाने से पहले नानी की शर्त हुआ करती थी कि मैं उनके हर वाक्य के बाद हुंगरा जरूर दूं यानी हूं-हां जरूर करता रहूं। ताकि लगे कि मैं कहानी गंभीरता से सुन रहा हूं। हालांकि, कभी कहानी कहते-कहते नानी को नींद आ जाती तो कभी मुझे। नानी को नींद आती तो मैं उन्हें जगा देता, जबकि मुझे नींद आने पर नानी ने कभी मुझे जगाया नहीं। बल्कि, वह तो थपकी देकर मेरी नींद को और मजबूत कर देतीं। अगली रात मैं नानी से उस अधूरी छूट गई कहानी को पूरी करने की हठ करता। कई कहानियां तो ऐसी होती, जिन्हें बार-बार सुनने का मन करना। शायद ये नानी के कहानी कहने के अंदाज का जादू ही था, जो एक कहानी को बार-बार सुनकर भी जी नहीं भरता था।

कई दफा तो नानी बेहद सफाई से अपनी ही कहानी सुनाने लगती। लेकिन, जैसे ही मुझे लगता कि ये तो नानी की ही कहानी है, तुरंत दूसरी सुनाने के लिए कहता और नानी को मेरी बात माननी पड़ती। पूरी गर्मी कहानियों का यह सिलसिला चलता रहता। सचमुच! कैसा दौर था वो। जब भी उस दौर को याद करता हूं, अदृश्य रूप में तन-मन झूम उठता है। स्मृतियों का बडा़ भारी खजाना है, उस दौर का मेरे पास, जो कडी़ जोड़ने पर बढ़ता ही जा रहा है। लगता है कहानियों की एक नहीं, कई किताब तैयार हो जाएंगी। चलिए! देखते हैं क्या होता है।

(जारी...)

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Anecdote (3)

Sultry nights

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Dinesh Kukreti

Now you must have come to know that what is the importance of Nani's stories in my life.  Then I was studying in the sixth grade, when Nani left the village and started living with us permanently.  That's what we wanted too.  At that time we used to live in a rented house.  We used to have a lot of room and kitchen.  The rent for that room was only 50 rupees.  Then 50 rupees used to be as important as five thousand rupees.  Kotdwar is a very hot city and we had come from a cooler area like Joshimath then.  So, it was not easy for us to bear such heat.

By the way, due to being in the deep, it is very hot in my village Bhalgaon too.  But, in the morning and evening and at night, the cold winds blowing from the surrounding forest add to the atmosphere.  Whereas, Kotdwar is a part of Bhabar and the hot winds coming from the plains here scorch the body.  What to say about the heat wave that runs in the scorching afternoon of the brother-in-law.  There is a power failure on it for hours and the terror of mosquitoes separately.  In those days, power cuts throughout the night used to be common.  At times, even during the day, electricity was absent for hours.  The biggest thing is that we didn't even have a fan at that time.

We spent almost two-three years of summer without a fan.  At that time we used to sleep in the courtyard or on the terrace at night.  We used to have three sun beds, one of which was permanently kept outside the house.  We used to lay this charpai in the chowk (courtyard) during summers.  This cot was mine and grandmother's.  I slept with my grandmother.  In the sweltering heat, I could not sleep for hours, so I would ask my grandmother to tell the story every day.  Nani had a never-ending quota of stories, so every night she would tell a new story.  Most of the stories were of kings and queens.

The wazir would also be the main character in a story.  Apart from this, there would have been different types of other characters as well.  I still remember some stories in the same sequence.  Best of all, I liked the stories of Sant-Basant, Rag-Thag and Lindarya Chhavara.  Many stories were inspirational and many would bring awareness.  Lots of fun.  I will try to narrate these stories to you one by one.  So!  Nani would always try to walk me before narrating the story, but where was I supposed to believe?  Eventually, in front of my insistence, Nani had to give up.

Before narrating the story, it used to be the condition of the grandmother that I must give Hungra after every sentence, that is, I must keep doing it.  So that it seems that I am listening to the story seriously.  However, sometimes while telling the story, Nani would fall asleep and sometimes I would.  If Nani felt sleepy, I would wake her up, whereas Nani never woke me up when I fell asleep.  Rather, she would have strengthened my sleep by giving me a pat.  The next night I would insist on Nani to complete that unfinished story.  There are many stories that you want to hear again and again.  Perhaps it was the magic of Nani's storytelling style, which could not live up to hearing a story over and over again.

At times, the grandmother would start telling her own story very clearly.  But, as soon as I felt that this is the story of Nani, I would immediately ask for another narration and Nani would have to obey me.  This series of stories continued throughout the summer.  Really!  What was that period?  Whenever I remember that period, my body and mind shudder in an invisible form.  There is a huge treasure trove of memories, of that era with me, which is increasing with every link.  It seems that not one book of stories, but many books will be ready.  Let go!  Let's see what happens.

 (Ongoing...)



Tuesday, 29 March 2022

29-03-2022 (ऐसी थी मेरी नानी)


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किस्सागोई (दो)

ऐसी थी मेरी नानी

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दिनेश कुकरेती

नानी की कहानियों की बात चली है तो सबसे पहले क्यों न नानी के व्यक्तित्व से भी परिचित हो लिया जाए। मैं पहले भी कह चुका हूं कि नानी निपट अनपढ़ महिला थी, लेकिन सरोकारों की समझ के मामले में उनका शायद ही कोई सानी रहा हो। नानी का नाम पीतांबरी देवी था और कद पांच फीट। वैसे नानी अक्सर बीमार रहती थी, लेकिन उनकी जीवटता ने कभी यह महसूस नहीं होने दिया। हालांकि, दो-तीन महीने में उन्हें ठंड लगकर हाड़तोड़ बुखार आ जाता था। इस दौरान वह बिस्तर से भी नहीं उठ पाती थी। नानी स्वयं बताती थी कि उनका पीलिया बिगडा़ हुआ है। 

बीमारी के कारण ही बाद के वर्षों में नानी के एक आंख की रोशनी भी चली गई थी। उस आंख से उन्हें धुंधला दिखाई देता था। डाक्टरों का कहना था कि उस आंख में काला मोतिया आ गया है, इसलिए रोशनी का लौट पाना संभव नहीं है। नाते-रिश्तों के प्रति नानी इस कदर संवेदनशील थी कि जीवनभर रिश्ते में अपने से बडो़ं का कभी नाम नहीं लिया। कुटुंब में उनके किसी ससुर का नाम बदरी था, इसलिए बदरीनाथ को वो बडा़ देवता बोलती थीं। इसी तरह जेठ के महीने को घामुक मैना (धूप वाला महीना) और सावन को छालुक मैना (बारिश का महीना) कहती थी। ईश्वर के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी। कहती थी, सब-कुछ ईश्वर की कृपा से ही हो रहा है। 

कभी-कभी इसी बात पर नानी के साथ मेरी बहस हो जाया करती थी। तब नानी कहती ईश्वर की महिमा तेरी समझ में नहीं आएगी। वह तो हमारे पूर्वजन्मों का फल प्रदान करते हैं। खैर! ये सब उनकी व्यक्तिगत आस्था के विषय थे, जिन पर उनकी धारणा बदलना कम से कम मेरे बूते में तो नहीं था। बावजूद इस सबके नानी हमारे लिए उस वृक्ष की तरह थी, जिसकी छांव में शीतलता ही मिलती है। नानी को उनके मायके की तरफ के सारे  रिश्तेदार अगाध स्नेह करते थे, इसलिए बीच-बीच में कुछ वक्त नानी उनके पास भी गुजारा करती थी। मसलन नानी की एक छोटी और एक बडी़ बहन थी। दोनों के बच्चे (मेरे मामा-मौसी) उन्हें छोटी (कान्सी) मां व बडी़ (जेठी) मां कहते थे। 

नानी बडी़ नानी की बेटी (मेरी मौसी) के पास ऋषिकेश व छोटी नानी की बेटी (मेरी जेठी) के पास रुड़की अक्सर जाया करती थी। उनके बच्चे भी बडी़ नानी-छोटी नानी कहकर उन्हें अगाध स्नेह करते थे। अफसोस कि जीवन की आपाधापी में स्नेह के इन रिश्तों को मैं कायम नहीं रख पाया। रुड़की वाली जेठी तो अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन ऋषिकेश वाली मौसी से भी पिछले बीस बरस से मिलना नहीं हो पाया। जबकि, वो देहरादून में ही कहीं रहती हैं। मौसी-जेठी के बच्चों से तो कभी मेलमिलाप रहा ही नहीं, इसलिए एक-दूसरे को पहचानने का सवाल ही नहीं उठता। इसके लिए कौन दोषी है, इस पर चर्चा से कुछ हासिल नहीं होने वाला।

(जारी...)

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Anecdote ( 2)

Such was my meternal grandmother

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Dinesh Kukreti

Talking about the stories of Nani, then why not first get acquainted with the personality of Nani.  I have said in the past that Nani was a completely illiterate woman, but she could hardly have matched her in terms of understanding of her concerns.  Her maternal grandmother's name was Pitambari Devi and her height was five feet.  Although Nani was often ill, her vitality never allowed her to feel that way.  However, within two-three months, he used to develop fever with chills.  During this she could not even get out of bed.  The grandmother herself used to tell that her jaundice had worsened.

Due to illness, in later years, Nani had lost sight in one eye.  He could see blurred with that eye.  The doctors said that black cataract has come in that eye, so it is not possible to get the light back.  Nani was so sensitive towards relationships that she never took the names of elders in her life-long relationship.  Some of her father-in-law's name in the family was Badri, so she used to call Badrinath as a big deity.  Similarly, the month of Jeth was called Ghamuk Maina (sunny month) and Sawan was called Chhaluk Maina (rainy month).  He had great faith in God.  She used to say that everything is happening only by the grace of God.

Sometimes I used to argue with my grandmother on this issue.  Then the grandmother would say that you will not understand the glory of God.  He gives the fruits of our previous births.  So!  These were all matters of his personal beliefs, on which it was not possible for me to change his perception, at least.  Despite all this, our grandmother was like a tree in whose shade we find coolness.  Nani was loved by all the relatives on his maternal side, so Nani used to spend some time with him in between.  For example, the grandmother had a younger sister and an elder sister.  The children of both of them (my maternal uncle) called her small (Kansi) mother and bad (jethi) mother.

Nani used to visit Rishikesh to elder maternal grandmother's daughter (my aunt) and Roorkee to younger grandmother's daughter (meri Jethi).  His children also used to love him very much by calling him big grandmother and small grandmother.  Regrettably, in the hustle and bustle of life, I could not maintain these relationships of affection.  The Jethi of Roorkee is no longer in this world, but even the aunt from Rishikesh could not be met for the last twenty years.  Whereas, she lives somewhere in Dehradun.  There has never been any reconciliation with the children of aunt and daughter-in-law, so the question of recognizing each other does not arise.  There is nothing to be gained by discussing who is to blame for this.

(Ongoing...)


Monday, 28 March 2022

28-03-2022 (नानी)


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किस्सागोई (एक)

नानी

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दिनेश कुकरेती

मुझे किस्से-कहानियां सुनने में बडा़ आनंद आता है। बालपन में नानी की कहानियां जो सुनी हैं। इसी वजह से आज भी मैं बेहद उम्दा किस्म का श्रोता हूं, ठीक वैसा ही, जैसा कि उम्दा पाठक हूं। फिर भी न जाने क्यों, सुबह से ही रह-रहकर मन में विचार आ रहा है कि मैं भी किस्सागोई करूं। हल्की-फुल्की नहीं, सोलह आना स्तरीय। बोले तो...ठेठ लिटरेरी। अब, जबकि यह ख्याल आ ही गया है और मैं मन से लगभग तैयार भी हो गया हूं, तो क्यों न आपको अपने बचपन के उस दौर में ले चलूं, जब किस्सागोई आम हुआ करती थी। बल्कि, सच कहूं तो किस्सागोई तब जीवन के लिए आहार की तरह थी। 

आज मैं ये जो किस्सागो बनने का साहस जुटा पा रहा हूं, उसके पीछे भी कहीं न कहीं नानी की ही प्रेरणा है। एक पुस्तक प्रेमी होने के नाते मैंने देश-दुनिया का साहित्य खूब पढा़ है। इसमें भी रूसी साहित्य पहले नंबर पर होगा। लेकिन, नानी को दादी जैसी जगह रूसी साहित्य को छोड़कर शायद ही किसी और साहित्य में मिली हो। प्रेरणा के रूप में तो कतई नहीं। नानी को यह सम्मान सिर्फ महान रूसी उपन्यासकार मैक्सिम गोर्की ही दिला पाए। संयोग से मेरे जीवन में भी नानी की ही भूमिका अहम रही। दादी की भूमिका तो रस्मअदायगी तक ही सीमित थी।

असल में दादी मेरे परिवार को पसंद नहीं करती थी। इसलिए मेरा दादी से कभी भावनात्मक जुडा़व नहीं हो पाया। मेरे बचपन के शुरुआती सात साल गांव में बीते। तब दादी भी गांव में ही रहती थी, लेकिन अलग। मां कहती है कि दादी को मैं अतिप्रिय था, लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह वास्तविकता है। कभी-कभी जो दिखता है, वो सच नहीं होता। दादी का ज्यादातर समय मेरी बुआ के पास कोटद्वार में गुजरता था। ताऊजी लोगों के परिवार भी दादी को प्रिय थे। सिर्फ मेरा परिवार ही दादी की आंखों की किरकिरी हुआ करता था। यहां तक कि मेरी नानी से भी दादी बैर रखती थी। जबकि नानी का मन निर्मल था और वो आंसू बहाकर सब भूल जाती थीं। 

तकनीकी रूप से नानी हमारे साथ ही रहती थीं, जबकि मेरा मानना है कि हम नानी के साथ रहते थे। नानी निपट अनपढ़ थीं, लेकिन दुनिया-जहान की समझ उन्हें हम से अधिक थी, शायद वक्त से मिली ठोकरों के कारण। जब मैं नवीं में था, तब नानी ने दुनिया से विदा ली। मेरी ही आंखों के सामने उन्होंने अंतिम सांस ली थी। तब उनकी उम्र 65 या 66 साल रही होगी। सबसे पहले मैंने ही नानी की पार्थिव देह को कंधा दिया।, हालांकि, उन्हें अंतिम विदाई देने मैं हरिद्वार नहीं गया, बल्कि जाने नहीं दिया गया। तब मैं सोलह साल का तो रहा ही हूंगा।

दादी भी अंतिम समय में कोटद्वार आ गई थीं, लेकिन हमारे घर आना उन्हें तब भी गवारा नहीं हुआ। वो ताऊजी के घर में रहती थीं। ताऊजी के घर से मेरे घर की दूरी बामुश्किल 200 मीटर रही होगी, लेकिन दादी को मीलों दूर लगती थी। तब तीन-चार बार मैं दादी से मिलने भी गया, लेकिन उनका व्यवहार किसी दूर के रिश्तेदार जैसा ही रहा। ताऊजी के घर में ही दादी ने अंतिम सांस ली। तब संभवतः मैं 18 साल का हो गया था। सच कहूं तो दादी के होने-न होने का मुझे कभी कोई मलाल नहीं रहा। आज भी नहीं है। दादी के साथ जुडी़ ऐसी कोई स्मृतियां भी तो नहीं हैं, जिन्हें याद रखा जाए।

इधर, दुनिया छोड़ने के बाद भी नानी वर्षों तक मेरी यादों में रहीं, लेकिन वक्त के साथ धीरे-धीरे उनका स्थान जीवन के झंझावतों ने ले लिया। बावजूद इसके नानी के साथ बिताए खूबसूरत पलों को मैं कभी नहीं भुला सकता। फुर्सत के क्षणों में ही सही, वो पल किस्सा-कहानियों के रूप में मुझे हमेशा बचपन की याद दिलाते हैं और दिलाते रहेंगे। लेखन के लिए मेरी प्रेरणा बने रहेंगे। मैं स्वयं को जहां खडा़ पाता हूं, इन पलों का भी उसमें अहम योगदान है।

(जारी...)

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--------------------------------------------------------------Anecdote ( one)

Maternal Grandmother

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Dinesh Kukreti

I take great pleasure in hearing stories.  The stories of nanny that have been heard in childhood.  That is why even today I am a very good listener, just as I am a good reader.  Still don't know why, since morning the thought is coming in my mind that I should also tell a story.  Not light-hearted, sixteen annas level.  So... typical literary.  Now that this thought has come and I am almost ready in my mind, why not take you back to the times of my childhood when storytelling used to be common.  Rather, to be honest, storytelling was like food for life then.

Today I am able to muster the courage to become this story, behind it too, somewhere the inspiration of my grandmother is there.  Being a book lover, I have read a lot of literature of the country and the world.  In this too, Russian literature will be at number one.  But, the place of grandmother as grandmother is hardly found in any other literature except Russian literature.  Absolutely not as an inspiration.  Only the great Russian novelist Maxim Gorky could bring this honor to Nani.  Incidentally, in my life too, the role of Nani was important.  The role of grandmother was limited to the rituals.

Actually Grandma didn't like my family.  That's why I never had an emotional connection with my grandmother.  The first seven years of my childhood were spent in the village.  Then grandmother also lived in the village, but separately.  Maa says I loved Dadi, but I don't think it is a reality.  Sometimes what you see is not true.  Most of my grandmother's time was spent near my aunt in Kotdwar.  The families of Tauji people were also dear to Dadi.  Only my family used to be the grit of grandma's eyes.  Even my grandmother hated my grandmother.  While Nani's mind was pure and she used to forget everything by shedding tears.

Technically Nani lived with us, whereas I believe we lived with Nani.  Nani was completely illiterate, but she had a better understanding of the world than us, probably because of the stumbling blocks from time.  When I was in ninth, Nani left the world.  He breathed his last before my very eyes.  Then his age would have been 65 or 66 years.  First of all, I shouldered the body of Nani's body. However, I did not go to Haridwar to give her the last farewell, but was not allowed to go.  I must have been sixteen years old then.

Dadi had also come to Kotdwar at the last minute, but she did not mind coming to our house even then.  She used to live in Tauji's house.  The distance from Tauji's house to my house would have been hardly 200 meters, but Dadi seemed to be miles away.  Then three or four times I also went to meet Dadi, but her behavior remained like that of a distant relative.  Grandmother breathed her last in Tauji's house.  I was probably 18 then.  To be honest, I have never had any regrets about my grandmother's existence or not.  It's not today as well.  There are no such memories associated with grandmother, which should be remembered.

Here, even after leaving the world, Nani remained in my memories for years, but gradually with time, the storms of life took their place.  Despite this, I can never forget the beautiful moments spent with my grandmother.  In the moments of leisure, those moments always remind me of childhood in the form of anecdotes and will always remind me.  Will continue to be my inspiration for writing.  Where I find myself standing, these moments also play an important role in that.

(Ongoing...)


Wednesday, 23 March 2022

14-03-2022 (क्या ऐसे भी कोई जाता है)

































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क्या ऐसे भी कोई जाता है

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दिनेश कुकरेती

लोक के शिल्पी एवं जाने-माने रंगकर्मी कैलाश भट्ट का इस तरह अल्पवय में चले जाना स्तब्ध कर देने वाली घटना है। वो बीमार जरूर थे, लेकिन ऐसे भी तो नहीं कि लोक से इस तरह मुंह मोड़ लिया। अभी 23 फरवरी की ही तो बात है, तब मैं कोटद्वार गया हुआ था। शाम चार बजे का समय रहा होगा। कैलाश भाई का फोन आया कि वह बीमार हैं और श्रीमहंत इंदिरेश हास्पिटल में चेकअप कराने आए हुए हैं। मैंने पूछा कि क्या दिक्कत है तो बोले, 'किडनी में स्टोन हैं और बहुत ज्यादा दिक्कत हो रही है। इस समय एमआरआई कराने लाइन में लगे हुए हैं। यदि आपकी कोई पहचान है तो फोन करा दीजिए।'

 

मैंने कहा, 'ठीक है' और तत्काल श्रीमहंत इंदिरेश हास्पिटल के पीआरओ मित्र भूपेंद्र रतूडी़ से उनकी मदद करने का आग्रह किया। साथ ही उन्हें कैलाश भाई व कैलाश भाई को उनके फोन नंबर वाट्सएप पर भेज दिए। फिर मैंने कैलाश भाई को फोन लगाया तो उनकी पत्नी ने फोन उठाया। लगभग पांच मिनट बाद रतूडी़जी का फोन आया कि बात हो गई है, अब उन्हें लाइन में लगने की जरूरत नहीं है। कुछ देर बाद मैंने यह पता करने के लिए कि एमआरआई हुआ या नहीं, कैलाश भाई को दोबारा फोन लगाया तो कोई जवाब नहीं मिला। न ही फिर उनका फोन आया। ...और अभी कुछ देर पहले ही गोपेश्वर से खबर पढी़ तो दिमाग सुन्न-सा हो गया। 

कैलाश भाई से मेरा परिचय वर्ष 2014 में श्री नंदा देवी राजजात के दौरान हुआ था। हालांकि, उनके बारे में सुना हुआ मैंने पहले से था, लेकिन जाना राजजात में ही और इसकी वजह बनी पारंपरिक मिरजई। जिस मिरजई को हम वक्त के साथ भुला बैठे थे, उसे कैलाश भाई ने न सिर्फ नवजीवन दिया, बल्कि देश-दुनिया के आकर्षण का केंद्र भी बना दिया। उन्होंने मिरजई को वर्तमान के अनुरूप ढालकर न केवल इस पारंपरिक परिधान को संरक्षित करने का प्रयास किया, बल्कि नई पीढी़ में परंपराओं के प्रति रुचि भी जगाई। यही वजह है कि वर्ष 2014 के बाद आयोजित सभी वार्षिक लोकजातों में मिरजई यात्रियों की पहली पसंद रही।

पौडी़ जिले में एकेश्वर प्रखंड (चौंदकोट) के बिंजोली गांव निवासी कैलाश भट्ट बीते 24 साल से चमोली जिले के गोपेश्वर स्थित हल्दापानी में रहकर पारंपरिक परिधानों को नई पहचान देने का कार्य कर रहे थे। 52-वर्षीय कैलाश को यह कला विरासत में मिली थी, जिसने उन्होंने अपनी मेहनत से विशिष्ट पहचान दी। वह न केवल एक कुशल शिल्पी थे, बल्कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति भी उनकी गहरी समझ और आस्था थी। नाम के अनुरूप कैलाश को पहाड़ से अगाध लगाव था। पहाड़ में रहते हुए उन्होंने न केवल यहां की वेशभूषा एवं परिधानों को नया आयाम दिया, बल्कि वे प्रदेश के उन चुनिंदा शिल्पियों में भी शुमार थे, जिन्होंने बेहद कम समय में स्वयं को साबित कर दिखाया।

कैलाश भाई ने अपने हुनर से पारंपरिक मिरजई, झकोटा,आंगडी़, त्यूंखा, ऊनी दसलवार, सणकोट, अंगोछा, गमछा, दौंखा, पहाड़ी  टोपी, लव्वा, अंगडी़ गातीऔर घुंघटी जैसे पारंपरिक परिधानों से वर्तमान पीढी़ से परिचित कराया। इसी की परिणति है कि आज नई पीढ़ी में पारंपरिक  परिधानों के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है। इसके अलावा उन्होंने शादी-ब्याह के मौके पर मांगल गीत गाते वक्त पहनी जाने वाली मंगले़र ड्रेस, पांडव नृत्य की ड्रेस व बगड्वाल़ नृत्य की ड्रेस भी तैयार की। उनकी बनाई पहाडी़ टोपी का तो हर कोई दीवाना था। बल्कि यूं कहा जाए कि कैलाश भट्ट और पहाडी़ टोपी एक-दूसरे के पर्याय थे तो अतिश्योक्ति न होगी। विधानसभा व संसद से लेकर बालीवुड तक उनकी बनाई टोपी ने पहाड़ का मान बढा़या। देशभर में पहाडी़ बिरादरी के आयोजनों में इस टोपी की जबर्दस्त मांग रहती थी।

राजजात के बाद कैलाश भाई से फोन पर अक्सर बात होती रहती थी। दो साल पहले उन्होंने यहां देहरादून में  घंटाघर के पास अपना शोरूम खोल लिया था, लेकिन कोरोना की वजह से फिर उसे बंद करना पडा़। मेरी जब भी उनसे बात होती, कहते थे, 'भाई साहब! मेरे प्राण तो पहाड़ में ही बसते हैं। देखते हैं, कब तक देहरादून में टिक पाता हूं।' मेरी मंशा थी कि कैलाश भाई और उनके हुनर पर विस्तार कुछ शोधपरक जानकारी दूं। अफसोस कि यह सपना पूरा नहीं हो पाया। 

इसी जनवरी में एक दिन कैलाश भाई का फोन आया कि वह पटेल नगर में हैं और चाहते हैं कि लगे हाथ मुझसे मुलाकात भी हो जाए। दुर्भाग्य से यह भी संभव नहीं हो पाया, क्योंकि तब मैं आफिस पहुंचा ही नहीं था। काश! उस वक्त मैं आफिस में होता। कैलाश भाई मुझे अपनी बनाई पहाडी़ टोपी भेंट करना चाहते थे, लेकिन नियति को शायद यह भी मंजूर नहीं था। मेरी इच्छा थी कि इस दीपावली उत्तरांचल प्रेस क्लब के दीवाली उत्सव में पूरी कार्यकारिणी को कैलाश भाई की बनाई पहाडी़ टोपी भेंट की जाए। विडंबना देखिए कि उन्होंने मेरी इस भावना का भी मान नहीं रखा। 

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Does anyone go like this

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Dinesh Kukreti

The passing away of Kailash Bhatt, a well-known artist and artist of the folk, at such a young age is a shocking incident.  He was definitely ill, but not in such a way that he turned his back on the people like this.  It was only on 23rd February, when I had gone to Kotdwar.  It would have been four o'clock in the evening.  Kailash Bhai got a call that he was ill and Shri Mahant Indiresh had come to the hospital for a checkup.  I asked what was the problem, then said, 'There are stones in the kidney and there is a lot of problem.  At present, they are in line to get MRI done.  If you have any identity then give me a call.'

















I said 'okay' and immediately requested PRO friend Bhupendra Raturi of Shrimahant Indiresh Hospital to help him.  Also sent them to Kailash Bhai and Kailash Bhai on their phone numbers on WhatsApp.  Then I called Kailash Bhai and his wife picked up the phone.  After about five minutes, Ratudiji got a call saying that the conversation is over, now he does not need to stand in line.  After sometime I called Kailash Bhai again to find out whether the MRI was done or not, but there was no response.  Nor did his call come again.  ... and just a while back, when I read the news from Gopeshwar, my mind became numb.

I was introduced to Kailash Bhai in the year 2014 during Shri Nanda Devi Rajjat.  Although, I had already heard about them, but it was known only in the Rajjaat and the reason for this was the traditional Mirzai.  The Mirzai which we had forgotten with time, Kailash Bhai not only gave him new life, but also made him the center of attraction of the country and the world.  He not only tried to preserve this traditional dress by adapting Mirzai according to the present, but also instilled interest in traditions in the new generation.  This is the reason why Mirzai has been the first choice of travelers in all the annual Lokjaats organized after the year 2014.



















Kailash Bhatt, a resident of Binjoli village of Ekeshwar block (Chundkot) in Pauri district, had been working for the last 24 years to give a new identity to traditional clothes by living in Haldapani, Gopeshwar in Chamoli district.  52-year-old Kailash had inherited this art, which he distinguished by his hard work.  He was not only a skilled craftsman but also had a deep understanding and faith in social and cultural concerns.  As the name suggests, Kailash had great attachment to the mountain.  While living in the mountain, he not only gave a new dimension to the costumes and costumes here, but he was also one of the few craftsmen of the state, who proved himself in a very short time.

Kailash Bhai introduced his skills to the present generation with traditional clothes like Mirzai, Jhakota, Angri, Tunkha, Woolen Dasalwar, Sankot, Angocha, Gamchha, Daunkha, Pahari Topi, Lavva, Angadi Gati and Ghungti.  The result of this is that today the attraction towards traditional clothes is increasing in the new generation.  Apart from this, he also prepared Mangaler dress, Pandava dance dress and Bagdwal dance dress to be worn while singing Mangal song on the occasion of marriage.  Everyone was crazy about the hill cap made by him.  Rather, it would not be an exaggeration to say that Kailash Bhatt and Pahari Topi were synonymous with each other.  From the assembly and parliament to Bollywood, the cap made by him increased the value of the mountain.  There was a great demand for this cap in the events of the hill fraternity across the country.

After the kingship, Kailash Bhai used to talk frequently on the phone.  Two years ago, he had opened his showroom here in Dehradun near Ghantaghar, but due to Corona, it had to be closed again.  Whenever I used to talk to him, he used to say, 'Brother!  My life resides in the mountain itself.  Let's see how long I can stay in Dehradun.  My intention was to give some research information on Kailash Bhai and his skill in detail.  It is a pity that this dream did not come true.

One day in this January, Kailash Bhai got a call that he was in Patel Nagar and wanted to meet with me.  Unfortunately this was also not possible because I had not reached the office then.  If only!  I would have been in the office at that time.  Kailash Bhai wanted to present me the mountain cap he had made, but fate probably did not approve of it either.  It was my wish that this Diwali, during the Diwali festival of Uttaranchal Press Club, the entire executive body should be presented with a Pahari hat made by Kailash Bhai.  See the irony that he did not even respect my sentiment.

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Monday, 14 March 2022

14-03-2022 (फूल संगरांद)

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फूल संगरांद
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दिनेश कुकरेती
ज फूल संगरांद है। उत्तराखंडी लोक में इसे फूल संक्रांति, फूलदेई, छम्मादेई, दैणीद्वार आदि नामों से जाना जाता है। जब सूर्य का मीन राशि में आगमन होता है, तब यह लोकपर्व पड़ता है। इसलिए इसे मीन संक्रांति भी कहते हैं। वैसे तो फूलों का यह पर्व आठ दिनों तक चलता है, लेकिन गढ़वाल में कुछ स्थानों पर इसे पूरे महीने भी मनाया जाता है। बच्चे बिखोती यानी मेष संक्रांति तक उत्साहपूर्वक इसके साथ जुडे़ रहते हैं। छोटे-छोटे बच्चे रोज गोधूलि की बेला में हर घर की दहलीज पर फूल डालकर गाते हैं, 'फूलदेई-फूलदेई फूल संगरांद, सुफल करो नयो साल तुमुक श्री भगवान, रंगीला-सजीला फूल ऐ गीं, डाला़-बोटला़ हर्या ह्वेगीं, पौन-पंछी दौडी़ गैना, डाल़्यूं फूल है सदा रैना।' इसके साथ ही वो यह भी गाते हैं, 'चला फुलारी फूलों की, सौदा-सौदा फूल बिरौला, भौंरों का जूठा फूल ना तोड्यां, म्वारर्यूं का जूठा फूल न लैयां।'
कई गांवों में बच्चों के अलावा परिवार के सभी लोग अपने घरों में उगाई गई हर्याल़ (हरियाली) की टोकरियों को गांव के चौक (आंगन) में इकट्ठा कर उसकी सामूहिक पूजा करते हैं। फिर हर्याल़ को घरों की चौखट पर लगाया जाता है। चैत (चैत्र) के महीने पहाड़ में ब्याहता बेटियों (धियाण) को कलेवा (दाल के भरे हुए स्वाले़, रोट आदि) देने का रिवाज भी है। कुमाऊं में इसे भिटोली (भेंट) कहा जाता है। एक दौर में यह मैत्यों (मायके वालों) के पास दूर ब्याही बेटी की कुशलक्षेम पूछने का बहाना भी हुआ करता था। तब भाई कलेवा या भिटोला लेकर बहन के मायके जाता था। बहन खुशि-खुशी अपने आस-पडो़स में इस कलेवा को बांटती थी। लेकिन, समय के थपेडे़ सहते-सहते यह परंपरा रस्मी होती चली गई। 
हालांकि, सुकून वाली बात ये है कि बीते कुछ वर्षों में लोक के प्रहरियों ने लुप्त हो रही अपनी इस समृद्ध विरासत को दोबारा प्रतिष्ठापित करने का बीडा़ उठाया है। इनमें लोक के सरोकारों से जुडी़ 'धाद' संस्था का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। इसके अलावा बीते एक दशक से 'रंगोली' आंदोलन के संस्थापक शशिभूषण मैठाणी भी अपने स्तर से इस लोक विरासत के प्रचार-प्रसार जुटे हुए हैं। उनके प्रयासों से देहरादून जैसे दिखावे को वास्तविकता मानने वाले शहर में बीते एक दशक से सीमित स्तर पर ही सही, लेकिन फूल संगरांद मनाई जा रही है। देहरादून के अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अब मैठाणीजी के साथ हर साल राजभवन व मुख्यमंत्री आवास लेकर तमाम प्रमुख स्थानों पर देहरियों में रंग-बिरंगे फूल बिखेरते हैं। 
अच्छी बात यह है कि नई पीढी़ के आभिभावक व शिक्षक सीमित संख्या में ही सही, लेकिन लोक परंपराओं के संरक्षण को अपनी जिम्मेदारी समझने लगे हैं। संयोग से आज उत्तरांचल प्रेस क्लब को भी फूल संगराद मनाने का मौका मिला और इसका हेतु भी मैठाणीजी ही बने। उन्होंने कल शाम संदेश भिजवाया था कि बच्चों की टोली के साथ वह आज दोपहर बारह बजे उत्तरांचल प्रेस क्लब पहुंच रहे हैं। हमने खुशी-खुशी तत्काल 'हां' कर दी। लेकिन, सुबह प्रेस क्लब अध्यक्ष अंथवालजी का वाट्सएप मैसेज आया कि अब वह साढे़ दस बजे ही पहुंच रहे हैं। सो, सुबह स्नानादि के बाद मैं सीधे प्रेस क्लब पहुंच गया। 
















पूर्वाह्न साढे़ ग्यारह बजे के आसपास ढोल-दमौ व मशकबाज के साथ मैठाणीजी के नेतृत्व में रंग-बिरंगे फूलों की टोकरियां लिए बच्चों की टोली भी क्लब पहुंच गई। बच्चों के साथ उनके शिक्षक व अभिभावक भी थे। क्लब के प्रवेशद्वार पर हमने इन मेहमानों की आगवानी की। हमारी अपेक्षा से कहीं अधिक बच्चे क्लब पहुंचे थे। हालांकि, इसका अंदेशा हमें पहले से ही था, इसलिए बच्चों के लिए गिफ्ट आइटम पर्याप्त संख्या में रखवा लिए थे। इसके बाद क्लब के सभागार में बच्चों के साथ फूलदेई पर्व और लोक परंपराओं के संरक्षण पर चर्चा हुई। लोक से जुडा़व होने के कारण मुझे भी इस दौरान अपनी बात रखने का मौका मिला। मैठाणीजी के साथ बच्चों ने भी अपने अनुभव साझा किए। फिर सभी ने सूक्ष्म जलपान किया।
सच कहूं तो मेरे लिए यह बेहद शानदार एवं यादगार अनुभव रहा। मैं चाहता हूं कि लोक परंपराओं पर निरंतर चर्चा होती रही। हमारे तीज-त्योहारों की समृद्ध विरासत से नई पीढी़ परिचित हो और उसे आगे बढा़ने में भी सहभागी बने। समाज एवं राष्ट्र की उन्नति के लिए यह बेहद जरूरी है। खैर! संस्कृति एवं परंपराओं पर चर्चा-परिचर्चा आगे भी जारी रहेगी। फिलहाल तो नींद के आगोश में जाने का वक्त हो गया है, इसलिए बाकी बातें कल पर छोड़ता हुशढढ तब तक के लिए नमस्कार। आप सभी को फूल संगरांद की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
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Flower sangarand
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Dinesh Kukreti
Today is flower sangarand.  In Uttarakhandi folk it is known as Phool Sankranti, Phuldei, Chammadei, Dainidwar etc.  When the Sun enters the sign of Pisces, then this festival falls.  That is why it is also called Meen Sankranti.  Although this festival of flowers lasts for eight days, but in some places in Garhwal it is also celebrated for the whole month.  Children are enthusiastically associated with it till Bikhoti i.e. Mesh Sankranti.  Small children put flowers on the doorstep of every house every day at dusk and sing, 'Phaldei-Phuldei flower sangarand, make happy new year Tumuk Sri Bhagwan, colorful-adorable flowers Ae Gin, Dala-Botla Harya Hwegi, Paun-Panchi'  Rune Gaina, Dalyun Phool is always Raina.'  Along with this, he also sings, 'Chala Phulari flowers, Sauda-sauda flowers, Biraula, bumblebees' left flowers, no flowers, Mwarryun's left flowers.'
 





















In many villages, apart from the children, all the family members collect the baskets of Haryaal (greenery) grown in their homes in the village square (courtyard) and worship it collectively.  Then Haryal is applied on the doorsteps of the houses.  There is also a custom of giving kalewa (stuffed dal, roti, etc.) to daughters (Dhiyan) married in the mountain in the month of Chaitra (Chaitra).  In Kumaon it is called Bhitoli (offering).  Once upon a time, this used to be an excuse for the Maityas (mother-in-law) to inquire about the well-being of a distant married daughter.  Then the brother used to take Kaleva or Bhitola to the sister's maternal home.  Sister happily used to distribute this kalewa in her neighbourhood.  But, with the passage of time, this tradition became ritual.
 However, it is a matter of comfort that in the last few years, the guards of the people have taken the initiative to restore this rich heritage which is vanishing.  Among these, the name of 'Dhad' organization related to the concerns of the people can be taken prominently.  Apart from this, Shashibhushan Maithani, the founder of 'Rangoli' movement for the past decade, is also engaged in the promotion of this folk heritage from his level.  Due to his efforts, the city, which considers appearances like Dehradun to be a reality, is being celebrated on a limited scale for the past decade, but flower Sangrand is being celebrated.  Children studying in English-medium schools of Dehradun now, along with Maithani ji, take Raj Bhavan and Chief Minister's residence every year and spread colorful flowers in the dehris at all the major places.
 














The good thing is that only a limited number of parents and teachers of the new generation, but the preservation of folk traditions, have started to understand their responsibility.  Incidentally, today Uttaranchal Press Club also got a chance to celebrate flower sangrad and Maithanji became the reason for this too.  He had sent a message last evening that he was reaching Uttaranchal Press Club at 12 noon today along with a group of children.  We happily said 'yes' immediately.  But, in the morning, a WhatsApp message came from Press Club President Anthwalji that now he is reaching only at 10.30.  So, in the morning after taking bath, I went straight to the Press Club.
 Around 11.30 in the morning, a group of children with colorful flower baskets under the leadership of Maithanji, accompanied by drums and drums, also reached the club.  The children were accompanied by their teachers and parents.  We received these guests at the entrance of the club.  More kids had arrived at the club than we expected.  However, we had anticipated this in advance, so had kept enough number of gift items for the kids.  After this, discussions were held with the children in the auditorium of the club on the festival of Phuldei and the preservation of folk traditions.  Due to my association with the people, I also got a chance to speak during this time.  Children also shared their experiences with Maithanji.  Then everyone took subtle refreshments.
 




















To be honest, it was a wonderful and memorable experience for me.  I want that there should be continuous discussion on folk traditions.  The new generation should be acquainted with the rich heritage of our Teej-festivals and also participate in taking it forward.  It is very important for the progress of society and nation.  So!  Discussion and discussion on culture and traditions will continue.  For now, it is time to go into the lap of sleep, so leaving the rest of the things for tomorrow, hello till then.  Wishing you all a very Happy Flower Sangarand.