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Thursday, 12 October 2023

12-10-2023 (इंसान की शक्ल देखने को तरस जाएगा पहाड़)


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इंसान की शक्ल देखने को तरस जाएगा पहाड़

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दिनेश कुकरेती
त्‍तराखंड के पर्वतीय जिलों में एक के बाद एक गांव जिस तरह मानवविहीन होते जा रहे हैं, उससे तय मानिए कि एक दिन पहाड़ इंसान की शक्‍ल देखने को भी तरस जाएगा। इस त्रासदी के लिए शासन व्‍यवस्‍था तो जिम्‍मेदार है ही, जंगली जानवर भी इसकी बड़ी वजह बनते जा रहे हैं। खासकर बाघ-गुलदार व भालुओं ने तो पहाड़वासियों का जीना ही दूभर कर दिया है। बाघ-गुलदार के किसी न किसी व्‍यक्ति पर झपट्टा मारने की खबरें तो आए दिन आती रहती हैं। हफ्ते में एक या दो व्‍यक्तियों का बाघ-गुलदार का निवाला बन जाना भी अब सामान्‍य बात हो गई है। इस अक्‍टूबर में ही बाघ दो और गुलदार चार व्‍यक्तियों को निवाला बना चुका है। पौड़ी जिले में कार्बेट टाइगर रिजर्व से लगे नैनीडांडा ब्‍लाक के दो दर्जन गांवों में तो अघोषित कर्फ्यू की-सी स्थिति है। शाम चार बजे के बाद लोग घरों में कैद होकर रह जाते हैं। इन गांवों के बच्‍चे स्‍कूल जाने तक का साहस नहीं जुटा पा रहे। 
बाघ-गुलदार के अलावा बंदर, सुअर आदि जानवर भी पहाड़ की तबाही के लिए कम जिम्‍मेदार नहीं हैं। लेकिन, पहाड़वासियों की सुनने वाला कोई नहीं। सरकार, वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और पर्यावरणवादियों को पहाड़ में जंगली जानवरों का जमघट चाहिए। आप इन जानवरों पर खरोंच तक नहीं लगा सकते। ऐसा किया तो धर लिए जाओगे। वन विभाग जुर्माना ठोेक देगा, पुलिस गिरफ्तार कर देगी और अदालत जेल भेज देगी। लेकिन, बाघ-गुलदार किसी व्‍यक्ति को निवाला बना दे तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। पांच लाख का मुआवजा देकर पीड़ित परिवार का मुंह बंद करा दिया जाएगा। इसके अलावा और कुछ नहीं होने वाला।
वैसे तो पहाड़ हमेशा से ही भेदभाव का शिकार रहा है, वह चाहे शिक्षा के मामले में हो या सड़क के। पहाड़ के स्‍कूलों में शिक्षक न होना कोई बड़ी बात नहीं है। जिन स्‍कूलों में शिक्षक हैं भी, वो पहाड़ में रहना पसंद नहीं करते। बल्कि, मैदानी क्षेत्र से सुबह ट्रैकर के जरिये स्‍कूल पहुंचते हैं और शाम को वापस लौट आते हैं। स्‍कूल भवनों का तो कहना ही क्‍या। कई जगह दो-दो कमरों के भवन में इंटर कालेज तक चल रहे हैं। इन स्‍कूलों में तैनात शि‍क्षक भी जोड़-जंक से अपना तबादला मैदानी क्षेत्र के स्‍कूलों में करा लेते हैं। समझा जा सकता है कि इन स्‍कूलों में कैसा भविष्‍य तैयार हो रहा है। 
स्‍वास्‍थ्‍य व्‍यवस्‍था का तो और भी बुरा हाल है। शहर वालों के लिए मेडिकल कालेज, जिला चिकित्‍सालय, बेस चिकित्‍सालय व संयुक्‍त चिकित्‍सालय हैं और ग्रामीणों के लिए प्राथमिक स्‍वास्‍थ्‍य केंद्र। बुखार व पेट दर्द होने पर भी ग्रामीणों को दवा के लिए 50 से सौ किमी तक की दौड़ लगानी पड़ती है। गांवों के आसपास जो अस्‍पताल हैं भी, उनमें न तो डाक्‍टर हैं, न फार्मेसिस्‍ट व अन्‍य स्‍टाफ ही। दवाइयों का भी घोर अभाव है। आपरेशन आदि के बारे में तो सोचना भी गुनाह है। अफसरों से लेकर विधायक, सांसद, मंत्री व मुख्‍यमंत्री तक का इससे कोई लेना-देना नहीं। देहरादून में बैठकर उनके तो स्‍वार्थ सिद्ध हो ही रहे हैं।
जनप्रतिनिधियों को वैसे भी ग्रामीणों (जो 18 साल से अधिक उम्र के हैं) की जरूरत सिर्फ वोट के लिए पड़ती है और इसके लिए उनके पास तमाम मुद्दे हैं। मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान, बामण-ठाकुर, सेना, पाकिस्‍तान, गो, गंगा, श्मशान-कब्रिस्तान, मज़ार आदि मुद्दों पर जब चुनाव जीता जा सकता है तो रोजी-कपड़ा-मकान की बात कौन मूर्ख उठाएगा और क्यों उठाएगा। फिर वोट तो कंबल, साड़ी, हजार-पांच सौ रुपये और दारु के पव्‍वे में भी आसानी से मिल जाते हैं, इसके लिए शिक्षा-स्‍वास्‍थ्‍य की बात करने की क्‍या जरूरत। इसके अलावा बिजली, पानी, सिंचाई, सड़क व संचार के मामले में भी पहाड़ की हमेशा उपेक्षा ही हुई है। फिर भी लोग पहाड़ में रह रहे थे, लेकिन जंगली जानवरों के आतंक ने तो पहाड़ की तस्‍वीर ही बदल डाली है। 
ऐसा कौन होगा, जो बाघ-गुलदार-भालू को अपनों की बलि देना चाहेगा। इसलिए वह पहाड़ छोड़ने में ही भलाई समझ रहा है। पहाड़ में रहने को वही विवश है, जिसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं। मुफ़लिसी के चलते वह कहीं बाहर भी नहीं जा सकता। ...और अब तो पहाड़ में जीवन गुजारना भी उसके लिए मुश्किल होता जा रहा है। ख़ौफ़ के साये में उसके दिन गुजर रहे हैं। मौत कब, किस पेड़ के पीछे या किस झाड़ी में से झपट्टा मार दे, कहा नहीं जा सकता। लोग खेती-किसानी और पशुपालन से भी इसीलिए विमुख हो रहे हैं। लेकिन, सरकार व पर्यावरणवादियों को इसका कोई मलाल नहीं। उनकी बला से। टाइगर प्रोजेक्ट के बजट में कोई कमी नहीं आनी चाहिए, बस! 
देखा जाए तो उत्तराखंड अब अमीरों की सैर-सपाटे की जगह बनकर रह गया है। उन्हें यहां जंगल चाहिएं, जानवर चाहिएं और इस सबसे बढ़कर प्राकृतिक वातावरण चाहिए। इसके लिए पार्कों का क्षेत्रफल बढ़ाया जा रहा है। फॉरेस्ट एरिया में पक्की सड़कें नही बनने दी जा रहीं। बिजली, पानी और संचार सुविधा से भी फॉरेस्ट एरिया के आसपास रहने वाली आबादी को महरूम रखा गया है। कहने का मतलब यहां रहने वाले लोगों की नियति सिर्फ बाघ-गुलदार का आहार बनना है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि लोगों की लड़ने की ताकत भी अब खत्म हो चुकी है। ऐसा ही होना भी है, क्योंकि उनके हक में खड़ा होने वाला कोई जो नहीं है।

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--------------------------------------------------------------The mountain will yearn to see the human face

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Dinesh Kukreti

The way villages are becoming humanless one after the other in the hilly districts of Uttarakhand, it is certain that one day the mountains will long to see the face of humans.  Not only is the government responsible for this tragedy, wild animals are also becoming a major reason for it.  Especially tigers, leopards and bears have made life difficult for the mountain people.  There are news every day about a tiger pouncing on some person or the other.  It has now become a normal thing for one or two people to become a tiger-guldar's morsel in a week.  This October alone, tiger have killed two people and leopard have killed four people.  There is a situation of undeclared curfew in two dozen villages of Nainidanda block adjacent to Corbett Tiger Reserve in Pauri district.  After 4 pm, people remain confined to their homes.  The children of these villages are not able to muster the courage to even go to school.

 Apart from tigers and leopards, animals like monkeys, pigs etc. are also no less responsible for the destruction of the mountains.  But, no one listens to the mountain people.  The government, the Ministry of Forest and Environment and environmentalists want the abundance of wild animals in the mountains.  You can't even scratch these animals.  If you do this you will be arrested.  The forest department will impose fine, the police will arrest and the court will send him to jail.  But, if a tiger-guldar turns a person into a morsel, no one will care.  The victim's family will be silenced by giving a compensation of Rs 5 lakh.  Apart from this nothing else is going to happen.

Although the hills have always been a victim of discrimination, be it in the matter of education or roads.  Not having teachers in mountain schools is not a big deal.  Even in schools where there are teachers, they do not like to live in the mountains.  Rather, they reach school from the plains in the morning via tracker and return in the evening.  What to say about school buildings.  At many places, even inter colleges are running in two-room buildings.  The teachers posted in these schools also get themselves transferred to the schools in the plains.  It can be understood what kind of future is being prepared in these schools.

The condition of the health system is even worse.  There are medical colleges, district hospitals, base hospitals and joint hospitals for the city residents and for the villagers.
 Primary Health Center for.  Even in case of fever and stomach ache, villagers have to run 50 to 100 kilometers to get medicine.  Even in the hospitals around the villages, there are neither doctors, pharmacists nor other staff.  There is also a severe shortage of medicines.  Even thinking about operation etc. is a crime.  From officers to MLAs, MPs, Ministers and Chief Ministers have nothing to do with it.  By sitting in Dehradun, their self-interests are being fulfilled.

In any case, public representatives need villagers (who are above 18 years of age) only for votes and for this they have many issues.  When elections can be won on the issues of temple-mosque, Hindu-Muslim, Baman-Thakur, army, Pakistan, cow, Ganga, crematorium-cemetery, tomb etc. then which fool would raise the issue of livelihood-clothes-house and why.  Then votes can be easily obtained through blankets, sarees, Rs 1000-500 and liquor, so there is no need to talk about education and health for this.  Apart from this, the mountains have always been neglected in matters of electricity, water, irrigation, roads and communication.  Still people were living in the mountains, but the terror of wild animals has changed the picture of the mountains.

Who would want to sacrifice their loved ones to a tiger, leopard or bear?  That's why he thinks it best to leave the mountain.  Only those who have no other option are forced to live in the mountains.  Due to poverty he cannot go out anywhere.  ...And now even living life in the mountains is becoming difficult for him.  His days are passing under the shadow of fear.  It cannot be predicted when, behind which tree or from which bush death will pounce.  This is why people are turning away from farming and animal husbandry.  But, the government and environmentalists have no qualms about this.  By their power.  There should be no reduction in the budget of the Tiger Project, that's all!

If we look closely, Uttarakhand has now become a picnic spot for the rich.  They want forests here, animals and above all they want the natural environment.  For this the area of ​​parks is being increased.  Paved roads are not being allowed to be built in the forest area.  The population living around the forest area has also been deprived of electricity, water and communication facilities.  That is to say, the destiny of the people living here is to become only food for tigers and leopards.  The biggest misfortune is that people's fighting power has also ended.  This is what has to happen, because there is no one to stand up for them.












 

Sunday, 8 October 2023

08-10-2023 ( ज्ञान का मूल)


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ज्ञान का मूल
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दिनेश कुकरेती
क्या आपने कभी सोचा कि दुनिया इक्कीसवीं में जहां खड़ी है, वहां तक पहुंची कैसे। हममें यह सब सोचने-विचारने की शक्ति कहां से आई। सृष्टि और ब्रह्मांड के बारे में हमने कैसे और कहां से ज्ञान अर्जित किया। इसका सीधा-सपाट जवाब है, अंक और अक्षर की बदौलत। लिपियों की बदौलत। सुविधा-संपन्न हो चुकी दुनिया में हम किसी भी भाषा की वर्णमाला को जरा भी अहमियत देना जरूरी नहीं समझते, जबकि यही वो बीज है, जो सृष्टि को व्यवस्थित ढंग से संचालित करने में सहायक बना। उदाहरण के लिए नज़र डालते हैं देवनागरी लिपि की वर्णमाला पर, जो अनेक भारतीय भाषाओं की मूल भी है।



देवनागरी के वर्णाक्षर
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स्‍वर :  अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ
अं अः

व्‍यंजन : क ख ग घ ङ
च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व
श ष स ह
क्ष त्र ज्ञ
 
(ऋ श्र)



शब्द ब्रह्म
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मनुष्य पहले आज के जैसा नही था। लाखों साल के संघर्ष और तमाम बदलाओं के बाद वह वर्तमान स्वरूप में आया। पहले वह जानवरों के जैसे चलता-फिरता था, खाता-सोता और रहता था। धीरे-धीरे वह आग जलाना, मांस व कंद-मूल को भूनकर खाना, समूह में रहना, घर बनाना, खेती करना, मनोरंजन के लिए नृत्य व स्वांग करना आदि कार्य सीखते चला गया। लेकिन, भावों की अभिव्यक्ति अब भी वह इशारों में और उछल-कूदकर ही करता था यानी उसके पास शब्द नहीं थे। वक़्त बदला और बुद्धि के विकास के साथ उसकी ज़ुबान से स्वर फूटने लगे। यही स्वर कालांतर में अक्षर बने और अक्षर से अक्षर मिलकर शब्द। मानवता के लिए यह एक विराट उपलब्धि थी। शब्दों ने जीव-जगत में मनुष्य की श्रेष्ठता साबित कर दी थी। इसीलिए 'शब्द' को 'ब्रह्म' कहा गया है।

सच भी यही है। ईश्वर, भगवान, गॉड, अल्लाह, ख़ुदा जैसे संबोधन भी अक्षर की उत्पत्ति के बाद ही अस्तित्व में आए। जरा दिमाग पर जोर डालकर सोचिए, अक्षर के बिना क्या हम कभी ईश्वर की कल्पना भी कर सकते थे। आखिर यह ईश्वर, यह भगवान जैसे शब्द कहां से आए। क्या भाषा की उत्पत्ति से पहले यह शब्द मौजूद थे। इसका जवाब कोई भी समझदार व्यक्ति 'हां' में नहीं देना चाहेगा। वेद, पुराण, उपनिषद आदि लिखने के लिए भी तो भाषा लिपि की ही जरूरत पड़ी होगी। स्पष्ट है कि पहले भाषा लिपि अस्तित्व में आई और फिर ये धार्मिक ग्रंथ। यानी ईश्वर ईश्वर, भगवान भगवान, गॉड गॉड, अल्लाह अल्लाह इसलिए कहलाए, क्योंकि मनुष्य ने उन्हें ये संबोधन दिए। वास्तविकता यही है कि भाषा लिपि ही सृष्टि के विकास का आधार है। अगर अक्षर की उत्पत्ति नहीं हुई होती तो आज ईश्वर-धर्म, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला आदि कुछ भी नहीं होते।


मानव की देन हैं लिपि
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लिपियां मानव की ही देन हैं, उन्हें ईश्वर या देवता ने नहीं बनाया। प्राचीन काल में किसी पुरातन और कुछ जटिल वस्तु को रहस्यमय बनाए रखने के लिए उस पर ईश्वर या किसी देवता की मुहर लगा दी जाती थी। लेकिन, वर्तमान में हम जानते हैं कि लेखन-कला किसी 'ऊपर वाले' की देन नहीं है, बल्कि वह मानव की ही बौद्धिक कृति है।
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Core of knowledge
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Dinesh Kukreti
Have you ever wondered how the world got to where it stands in the twenty-first century?  Where did we get the power to think and think about all this?  How and where did we acquire knowledge about creation and universe.  The simple answer is thanks to numbers and letters.  Thanks to the scripts.  In a world that has become prosperous, we do not consider it necessary to give any importance to the alphabet of any language, whereas this is the seed which became helpful in running the universe in an orderly manner.  For example, let's look at the alphabet of the Devanagari script, which is also the root of many Indian languages.

Devanagari alphabets

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a aa i ee u oo e ai o au
an ah

ka kh ga gh na
ch chh ja jh na
ta th da dh na
ta th da dh na
pa ph ba bh ma
ya ra la va
sh sh sa ha
ksh tr gy

(r shr)

The alphabet is the form of Brahma

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Man was not like he is today.  After millions of years of struggle and many changes, it came into its present form.  Earlier he used to move, eat, sleep and live like an animal.  Gradually he started learning how to light a fire, eat roasted meat and tubers, live in a group, build a house, do farming, dance and mime for entertainment, etc.  But, he still expressed his feelings through gestures and jumping, that is, he had no words.  Time changed and with the development of intelligence, words started emerging from his tongue.  These vowels eventually became letters and letters combined into words.  This was a huge achievement for humanity.  Words had proved the superiority of man in the living world.  That is why 'Shabd' has been called 'Brahma'.

This is also the truth.  Addresses like Ishwar, Bhagwan, God, Allah, Khuda also came into existence only after the origin of the alphabet.  Just think hard, could we ever imagine God without letters?  After all, where did the words like this God, this God come from?  Did these words exist before the origin of language?  No sensible person would want to answer this with 'yes'.  To write Vedas, Puranas, Upanishads etc., language script would have been required.  It is clear that first the language script came into existence and then these religious texts.  That is, they were called Ishwar Ishwar, Bhagwan Bhagwan, God God, Allah Allah because humans gave them these addresses.  The reality is that language and script are the basis of development of the universe.  If letters had not originated then there would have been nothing like God, religion, knowledge, science, literature, art etc. today.

Script is a gift from humans

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Scripts are the gift of humans only, they were not created by God or a deity.  In ancient times, to keep any ancient and complex object mysterious, the seal of God or some deity was put on it.  But, at present we know that the art of writing is not the gift of someone 'above', rather it is the intellectual creation of human beings.