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Sunday, 31 December 2023

09-12-2023 (इन्सान को कुत्ता बनने की शुभकामनाएं)

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इन्सान को कुत्ता बनने की शुभकामनाएं

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दिनेश कुकरेती
कुछ दिन पहले मैं रात 11 बजे के आसपास आफिस से कमरे में लौट रहा था। जैसे ही मैं अपने मुहल्ले की लेन में दाख़िल हुआ, 50 मीटर की दूरी पर कुत्ते भोंकते नज़र आए। गौर से देखा तो एक व्यक्ति सड़क किनारे अपने कुत्ते के गले में पड़े पट्टे की रस्सी पकड़े खड़ा था। पास ही उसका कुत्ता अपने मल-मूत्र से सड़क को पवित्र कर रहा था। इसीलिए शायद वह कुत्ते को टहलाने के बहाने इतनी रात को सड़क पर निकला था। घर खराब होने का डर रहता है ना। यहां कौन है पूछने वाला। कुत्ते वालों का तो वैसे भी रुतबा होता है और फिर आस-पड़ोस वाले भी तो यही करते हैं। 

खैर! कुत्ते का व्यवहार बता रहा था कि वह खतरनाक नस्ल का है। जरा छूट गया तो दो-एक की टांगें चट कर जाएगा। यह कुत्ता टहलाने वाले के हाव-भाव से तो लग ही रहा था, कुत्ता भी निवृत्त होने के साथ लगातार हर आने-जाने वाले पर भोंक रहा था। नतीजा, सड़क पर आवारागर्दी कर रहे स्ट्रीट डॉग भी उस पर जमकर बरस रहे थे, लेकिन दूर-दूर से। मैंने महसूस किया कि कुत्ते वाले उस व्यक्ति का आचरण भी कुछ अलग ही तरह का है। सर्दी के इस मौसम में भी वह नेकर पहने हुए है। ऊपर जरूर मोटी स्वेट शर्ट है, लेकिन हाव-भाव से ऐसे प्रदर्शित कर रहा है, मानो ठंड का उस पर कोई असर ही नहीं होता। हो भी सकता है कि न हो रहा हो। चाल भी उसकी अकड़ वाली है, हालांकि कुत्ता उससे भी ज्यादा अकड़ वाला प्रतीत होता है। ऐसे में अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा है कि दोनों में कौन किसका मालिक है। वैसे रुतबा तो कुत्ते का ही है मालिक वाला। 
इस दृश्य को देखकर मुझे एक और वाकया याद हो आया है। चलिए! आपको भी सुनाता हूं- मेरे एक परिचित पत्रकार हैं। एक शाम किसी खबर के सिलसिले में उन्होंने एक महिला अधिकारी को फ़ोन लगाया। अधिकारी ने फ़ोन उठाया तो उनके इर्द-गिर्द कुत्ते के जोर-जोर से भोंकने की आवाज सुनाई दे रही थी। इससे मेरे परिचित स्वयं को असहज महसूस करने लगे और बोले, 'मैडम! कुत्ता जोर-जोर से भोंक रहा है ना, इसलिए साफ नहीं सुनाई दे रहा।' परिचित का इतना कहना था कि मैडम आगबबूला हो गई और लगभग चिल्लाने के अंदाज में बोलीं, 'तमीज से बात कीजिए...।' यह सुन बेचारे परिचित के सामने तो 'उगले बने न निगले' वाली स्थिति खड़ी हो गई। वह समझ नहीं पा रहे थे कि मैडम को अचानक यह क्या हो गया, जबकि उन्होंने तो कुछ भी नहीं कहा। 
फिर भी खबर के लिए तो बात करनी ही थी, सो बेहद सतर्क होकर बोले, 'मैडम कोई गलती हो गई क्या?' परिचित की इस बात से मैडम का पारा और चढ़ गया। बोलीं, 'गलती कह रहे हो, आपने मेरे बेबी को कुत्ता कैसे बोल दिया। नाराज़ कर दिया उसे। कुत्ता है क्या वह?' आप समझ सकते हैं कि मैडम की यह बात सुनकर परिचित का क्या हाल हुआ होगा। वह तो परिचित धीर-गंभीर स्वभाव वाले हैं, इसलिए चुपचाप खून का घूंट पीकर यह सब सहन कर गए। उनकी जगह मैं रहा होता तो परिणाम की चिंता किए बगैर न जाने क्या कह देता। हालांकि, अब लगता है कि परिचित ने ठीक ही किया। तर्क-वितर्क तभी ठीक लगते हैं, जब सामने वाले की फ़ितरत भी इन्सानी हो। 
बात चली ही है तो लगे हाथ एक वाकया और सुना दूं। दरअसल, पिछले दिनों मुझे किसी जरूरी काम से एक सज्जन के घर जाना पड़ा। उनके घर पर भी एक कुत्ता है विदेशी नस्ल का। कोई भी अनजान गेट के अंदर घुसने की हिमाकत नहीं कर सकता, उसकी अनुमति के बिना। हालांकि, मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई, क्योंकि मुझे तो उन सज्जन ने ही बुलाया था और रिसीव करने गेट पर भी स्वयं ही खड़े थे। बावजूद इसके स्वभाव के अनुसार कुत्ता भोंकने लगा। ऐसे में डर तो लगता ही है। सज्जन भी मेरे हावभाव देख समझ गए कि मैं डर रहा हूं, सो कुत्ते को पुचकारते हुए बोले, 'ना-ना बेबी, देखो आपको मम्मा बुला रही हैं।' तभी भीतर से सज्जन की पत्नी की आवाज सुनाई दी, 'बेबी मम्मा इधर है।' यह सुन कुत्ता उसी ओर दौड़ा। 
सच कहूं, यह सब देख-सुन अपन का तो दिमाग भन्ना गया। यह विडंबना नहीं तो और क्या है। इन्सान की कोई औकात नहीं और कुत्ते से आप-आप। अब तो मुझे यकीन होने लगा है कि इन्सान कुत्ता और कुत्ता इन्सान बनने की ओर अग्रसर है। मैं रोज अपने मकान मालिक के परिवार को बड़े प्रेम से कुत्तों का मल-मूत्र साफ करते और आस-पड़ोस में कागज के टुकड़े बिखरे होने पर भी लोगों को खरी-खोटी सुनाते देखता हूं। तब लगता है कि इन्सान की इन्सान के प्रति संवेदनाएं किस तरह मरती जा रही हैं। अगर यही नियति है तो मेरी और से भी इन्सान को कुत्ता बनने की ढेरों शुभकामनाएं।
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Best wishes for a human being to become a dog
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Dinesh Kukreti
A few days ago, I was returning to my room from office around 11 pm.  As soon as I entered the lane of my locality, dogs were seen barking at a distance of 50 meters.  If I looked closely, I saw that a person was standing on the roadside holding the rope of the leash around his dog's neck.  Nearby his dog was purifying the road with its feces and urine.  That's probably why he went out on the road so late at night on the pretext of walking the dog.  There is a fear of damage to the house.  Who is here to ask?  People with dogs have a status anyway and the neighbors also do the same.

well!  The behavior of the dog indicated that it was a dangerous breed.  If you miss a bit, you will break someone's legs.  It was evident from the behavior of the dog walker that even after retiring, the dog was continuously barking at every passerby.  As a result, the street dogs roaming on the road were also attacking him fiercely, but from a distance.  I realized that the behavior of the person with the dog was also different.  Even in this winter season he is wearing neckerchief.  He is definitely wearing a thick sweat shirt on top, but through his body language he is showing as if the cold has no effect on him.  It may or may not be happening.  His gait is also swaggering, although the dog appears to be even more swaggering.  In such a situation, it is becoming difficult to guess who is the owner of whom.  Well, the status of the dog is that of its owner.

Seeing this scene, I remember another incident.  Let go!  Let me tell you also - I have an acquaintance who is a journalist.  One evening he called a lady officer regarding some news.  When the officer picked up the phone, the sound of dogs barking loudly could be heard all around him.  Due to this my acquaintance started feeling uncomfortable and said, 'Madam!  The dog is barking loudly, so it cannot be heard clearly.  The acquaintance said so much that madam became furious and said almost in a shouting manner, 'Talk politely...'  Hearing this, the poor acquaintance faced a situation of 'spitting out or swallowing'.  He was not able to understand what happened to madam suddenly, even though she did not say anything.

Still, he had to talk for the sake of news, so he said very cautiously, 'Madam, has there been any mistake?'  Madam's temper rose further due to this acquaintance.  She said, 'You are making a mistake, how did you call my baby a dog?  Made him angry.  Is that a dog?'  You can understand what would have been the condition of the acquaintance after hearing these words from madam.  He is known to have a patient and serious nature, hence he tolerated all this silently by drinking a sip of blood.  If I had been in his place, I don't know what I would have said without worrying about the consequences.  However, now it seems that the acquaintance did the right thing.  Arguments seem appropriate only when the other person's nature is also human.

Since the discussion is going on, let me tell you one more incident.  Actually, recently I had to go to a gentleman's house for some important work.  He also has a dog of a foreign breed at home.  No stranger can dare to enter the gate without his permission.  However, I did not face any problem, because the gentleman himself had called me and he himself was standing at the gate to receive me.  Despite this, the dog started barking as per its nature.  In such a situation one definitely feels scared.  Seeing my expressions, the gentleman also understood that I was scared, so while caressing the dog he said, 'No-no baby, look, mom is calling you.'  Just then the voice of the gentleman's wife was heard from inside, 'Baby mummy is here.'  Hearing this the dog ran in that direction.

To tell the truth, after seeing and hearing all this, my mind was blown.  If this is not irony then what is it?  A human being has no status and a dog has nothing to do with you.  Now I have started believing that man is moving towards becoming dog and dog is moving towards becoming human.  Every day I see my landlord's family lovingly cleaning the dog's urine and feces and scolding people even when there are pieces of paper scattered in the neighborhood.  Then it seems how man's feelings towards man are dying.  If this is the destiny, then I wish the human being all the best for becoming a dog.






 

Sunday, 10 December 2023

08-12-2023 (कुत्ते से ज्यादा खतरनाक है कुत्ता होना)


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कुत्ते से ज्यादा खतरनाक है कुत्ता होना

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दिनेश कुकरेती
ज (आठ नवंबर 2023) को रुड़की में पिटबुल नस्ल के कुत्ते ने एक बुजुर्ग महिला पर जानलेवा हमला कर उसे बुरी तरह नोंच  डाला। उसके शरीर पर जगह-जगह गहरे जख़्म आए हैं। वह तो शुक्र है आस-पड़ोस के उन लोगों का, जिनके शोर मचाने पर महिला की जान बच गई। आप इसे सामान्य घटना मान सकते हैं, लेकिन मेरी दृष्टि में यह स्थिति बेहद गंभीर एवं चिंताजनक है। दरअसल, पिटबुल पालने पर दुनिया के लगभग 40 देशों में प्रतिबंध है। कारण है इसकी हिंसक प्रवृत्ति। बावजूद इसके भारत में इसे लोगों ने स्टेटस सिंबल बना लिया लिया है, फिर चाहे यह किसी की जान ही क्यों न ले ले। देश में ऐसे कई मामले हो चुके हैं, लेकिन न कुत्ते पालने वालों पर इसका कुछ असर होता, न समाज की सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार एजेंसियों पर ही।  


मेरी तो समझ में नहीं आता कि हम जा किस दिशा में रहे हैं। दुहाई देते हैं मानवता की और चिंता आस-पड़ोस वालों तक की नहीं करते। जिस देश में 80 करोड़ लोग गर्दिश में जीने को मजबूर हों, वहां पिटबुल जैसे हिंसक जानवर पालने वाले उन पर लाखों रुपये पानी की तरह बहा दे रहे हैं। चलो घर की चहारदीवारी में तो वे जो करें-सो करें, लेकिन यहां तो वे आस-पड़ोस वालों के जीवन को भी खतरे में डाल रहे हैं। आखिर समाज के प्रति भी तो हमारी कोई जिम्मेदारी होती है। मैंने वर्षों पूर्व 'अंदर कुत्ता रहता है' शीर्षक से एक लेख लिखा था, जो वर्तमान में पूरी तरह चरितार्थ हो रहा है। कुत्तों के कुत्तेपने में तो आज भी कोई बदलाव नहीं आया, लेकिन इंसान में इंसानियत का भाव कहीं नज़र नहीं आता। 
मुझे तो आश्चर्य तब होता है, जब देखता हूं कि गाय पालने वाले की समाज में कोई इज्ज़त नहीं और कुत्ता पालने वाला रसूखदार माना जाता है। जबकि, दूध सबको गाय का ही पीना है, कुत्ते का नहीं। विडंबना देखिए, आज गाय पालना उसे भी मंजूर नहीं, जिसके पास पर्याप्त जगह है और वह उसके लिए चारे की व्यवस्था भी आसानी से कर सकता है। हां! चार-चार कुत्ते पालने में उसे कोई दिक्कत नहीं, भले ही इसके लिए बच्चों का हक क्यों न मारना पड़े। उनका मलमूत्र क्यों न साफ करना पड़े। मैंने ऐसे कई लोग देखे हैं, जो अपना मुंह भले ही न धोते हों, लेकिन सुबह उठकर कुत्तों को रगड़-रगड़कर नहलाना नहीं भूलते। बच्चों के बीमार पड़ने पर मेडिकल स्टोर से दवाई ले आते हैं, लेकिन कुत्ता बीमार पड़ जाए तो उसे हर हाल में डॉक्टर के पास ले जाना है।
मितरों! आप मुझे 'ओल्ड माइंडेड' कह सकते हो, मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला। जानवरों से प्रेम कीजिए, बहुत अच्छी बात है। लेकिन, इस बात को हमेशा याद रखिए कि जानवर इंसान से ऊपर नहीं है और कभी हो भी नहीं सकता। अगर आपकी नज़र में इंसान की जानवर, खासकर कुत्ते के सामने कोई इज्जत नहीं है तो यकीन जानिए कि आपने इंसान होने का ओहदा खो दिया है। लाखों वर्ष पहले आप जहां थे, फिर वहीं जाने की ओर अग्रसर हो। याद रखिए, यह बदलाव आपके बाहरी स्वरूप में नहीं होने वाला, बल्कि इससे आपका अंतर्मन कलुषित हो उठेगा। यदि ऐसा होता है तो यह मानव सभ्यता के लिए गंभीर खतरा है, जिसे हम शायद भांप नहीं पा रहे या फिर भांपना ही नहीं चाहते। 
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Being a dog is more dangerous than being a dog
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Dinesh Kukreti
Today (November 8, 2023) in Roorkee, a dog of the Pitbull breed fatally attacked an elderly woman and scratched her badly.  There are deep wounds at many places on his body.  It is thanks to the people in the neighborhood whose noise saved the woman's life.  You may consider this a normal incident, but in my view this situation is very serious and worrying.  Actually, there is a ban on raising pitbulls in about 40 countries of the world.  The reason is its violent tendencies.  Despite this, people in India have made it a status symbol, even if it takes someone's life.  There have been many such cases in the country, but it has had no impact on dog owners or on the agencies responsible for the safety of the society.



 
I don't understand in which direction we are going.  They cry out for humanity and don't even care about their neighbours.  In a country where 80 crore people are forced to live in poverty, those who keep violent animals like pit bulls are spending lakhs of rupees on them like water.  Let them do whatever they want within the boundary walls of the house, but here they are putting the lives of the neighbors in danger.  After all, we have some responsibility towards the society also.  I had written an article years ago titled 'The dog lives inside', which is currently being fully implemented.  Even today, there is no change in the dog-ness of dogs, but there is no sense of humanity in humans.

I am surprised when I see that the one who keeps cows has no respect in the society and the one who keeps dogs is considered influential.  Whereas, everyone has to drink milk of cow only, not of dog.  See the irony, today rearing a cow is not acceptable even to those who have enough space and can easily arrange fodder for it.  Yes!  He has no problem in keeping four dogs, even if it means sacrificing the rights of his children.  Why don't we have to clean their excreta?  I have seen many people who, even if they do not wash their faces, do not forget to rub and bathe their dogs after getting up in the morning.  When children fall ill, medicines are bought from the medical store, but if a dog falls ill, it must be taken to the doctor.

 Friends!  You can call me 'old minded', it won't make any difference to me.  Love animals, it is a very good thing.  But, always remember that animals are not and can never be above humans.  If in your view, humans have no respect for animals, especially dogs, then rest assured that you have lost your status as a human being.  You are on your way to getting back to where you were millions of years ago.  Remember, this change will not happen in your external appearance, rather it will pollute your inner self.  If this happens then it is a serious threat to human civilization, which we perhaps are not able to realize or do not want to realize.

यह भी देखेंhttps://youtu.be/iuNyp04_rik?si=SKzKmPoFb1MMgzj5

Friday, 8 December 2023

22-11-2023 (दूरदर्शन में मंगलेश दा पर चर्चा)

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दिनेश कुकरेती
मझ नहीं आ रहा कि कहां से शुरू करूं। मेरे जैसे अदने व्यक्ति के लिए संभव भी नहीं है मंगलेश डबराल जैसे विराट व्यक्तित्व को किसी खांचे में फिट कर परिभाषित करना। सच कहूं तो ऐसा किया भी नहीं जाना चाहिए। मैंने मंगलेश दा को करीब से देखा और समझा भी है। पहली नज़र में वे बेहद कठोर नज़र आए थे, ठेठ अकड़ू टाइप। लेकिन, धीरे-धीरे जब उन्हें जान-समझ गया, तब महसूस हुआ कि वह तो बेहद सहृदय इन्सान हैं। एक व्यक्ति के रूप में भी और एक कवि एवं साहित्यकार के रूप में भी। उनमें पहाड़ समय हुआ था और पहाड़ में वो। यह दीगर बात है कि गांव छोड़ने के बाद वे कभी वापस नहीं लौटे, बावजूद उनके अंदर पहाड़ हमेशा उसी रूप में जिंदा रहा, जैसा कि वह छोड़कर गए थे। 


मंगलेश की लेखनी कभी भी स्वयं को पहाड़ से विरत नहीं कर पाई। वह उत्तराखंड के पहले कवि हैं, जिन्होंने पहाड़ को अपनी कविता और गद्य में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। इसलिए जब उनकी चेतना और संवेदना पर परिचर्चा की बात आई तो मैं इसमें हिस्सा लेने से इन्कार नहीं कर पाया और निर्धारित समय से पूर्व दूरदर्शन पहुंच गया। साथी मुकेश नौटियाल लगभग 20 मिनट बाद पहुंचे। तब तक मैं गेट पर ही उनका इंतजार करता रहा। एक बजे के आसपास हम अतिथिगृह में पहुंचे। वहां राणाजी (कार्यक्रम अधिकारी) ने हमसे मेकअप रूम में चलने का आग्रह किया। वहां पहुंचे तो देखा कि कवियत्री बीना बेंजवाल का मेकअप किया रहा है। मैंने सोचा शायद महिलाओं के लिए जरूरी होता होगा, लेकिन बीना जी के उठने के बाद जब मेकअप कर रही महिला ने मुझसे भी दर्पण के सामने बैठने के लिए कहा तो तब जाकर सारा माजरा मेरी समझ मे आया।
मेरे लिए यह बिल्कुल नया अनुभव था, क्योंकि पहले कभी इस तरह चेहरे की सजावट नही की गई थी। फिर सोचा हो सकता है उम्र के प्रभाव को दबाने के लिए ऐसा किया जाना जरूरी हो। खैर! मेकअप रूम से सज-धजकर हमने स्टूडियो में प्रवेश किया, उसका हासिल यह परिचर्चा है। मैं अच्छा वक्ता नहीं हूं, लेकिन विषयों की थोड़ा-बहुत समझ होने के कारण साहित्यिक बिरादरी के लोग मेरे साथ बैठना पसंद करते हैं। मेरी हमेशा यही कोशिश रहती है कि दिमाग को वैचारिक स्तर पर तरोताजा रखूं। अच्छे एवं वैज्ञानिक सोच वाले लेखकों को पढूं। संस्कृति एवं संस्कारों से ख़ुद को जोड़े रखूं। मंगलेश डबराल भी इसी पांत के कवि एवं साहित्यकार हैं। समकालीनों में सबसे ज्यादा तैयार, मंझी हुई और तहदार ज़बान लिखने वाले। इससे भी बड़ी बात यह कि वह उत्तराखंड से हैं और उनकी कविताओं ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत पहचान कायम की।
मुझे अच्छा लगा कि कवियत्री बीना बेंजवाल के पास मंगलेश डबराल की सभी पुस्तकें मौजूद हैं और उन्होंने इनका गहन अध्ययन भी किया है। भाई मुकेश नौटियाल भी मंगलेश दा के काफी करीबी रहे हैं और उन्होंने मंगलेश को पढ़ा भी खूब है। यही पढ़ने-लिखने की परंपरा हमें एक-दूसरे के करीब लाती है। हमारा मंगलेश से अपनापा भी इसी विशेषता के कारण है। मैं दूरदर्शन जाते हुए उत्तरांचल प्रेस क्लब की पत्रिका 'गुलदस्ता' की दो प्रति भी साथ ले गया था। इसमें तमाम साथियों के उत्तराखंड आंदोलन के संस्मरणों को समाहित किया गया है। इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूं कि पत्रिका के संपादन की जिम्मेदारी मुझे मिली और मैंने भी इसे निभाने में अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं रखी। लिहाज़ा ऐसे दस्तावेज को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना मैं जरूरी समझता हूं। अच्छा यह लगा कि बीना जी और मुकेश भाई पत्रिका की प्रति पाकर काफी खुश हुए। इसके बाद मैंने मुकेश भाई को उनके आफिस तक छोड़ा और खुद भी आफिस की राह चल पड़ा।

परिचर्चा का वीडियो देखने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कीजिए ;

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Discussion on Manglesh Da in Doordarshan
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Dinesh Kukreti
Don't know where to start.  It is not even possible for an ordinary person like me to fit a huge personality like Manglesh Dabral into any box and define him.  To be honest, this should not even be done.  I have seen and understood Manglesh da closely.  At first glance he appeared very rigid, a typical stubborn type.  But, when I gradually got to know him better, I realized that he was a very kind-hearted person.  Both as a person and also as a poet and litterateur.  There was a mountain of time in them and he in the mountain.  It is a different matter that after leaving the village he never returned, yet the mountain always remained alive within him in the same form in which he had left it.

Manglesh's writing could never distance itself from the mountain.  He is the first poet from Uttarakhand, who gave international recognition to the mountain in his poetry and prose.  Therefore, when it came to the discussion on his consciousness and sensitivity, I could not refuse to participate in it and reached Doordarshan before the scheduled time.  Partner Mukesh Nautiyal arrived after about 20 minutes.  Till then I kept waiting for him at the gate.  We reached the guest house around 1 o'clock.  There Ranaji (programme officer) requested us to go to the make-up room.  When we reached there, we saw that poetess Beena Benjwal was doing her makeup.  I thought maybe it would be necessary for women, but after Beena ji got up, when the woman doing make-up asked me to sit in front of the mirror, then I understood the whole matter.

This was a completely new experience for me, because face decoration had never been done like this before.  Then it was thought that it might be necessary to do this to suppress the effects of age.  well!  After getting dressed up from the make-up room, we entered the studio, what we achieved is this discussion.  I am not a good speaker, but because of my slight understanding of the subjects, people from the literary fraternity like to sit with me.  I always try to keep my mind fresh at the ideological level.  Read good and scientifically minded writers.  Keep myself connected to culture and traditions.  Manglesh Dabral is also a poet and litterateur of this line.  The most prepared, fluent and well-spoken writer among his contemporaries.  What's more, he is from Uttarakhand and his poems have gained strong recognition at the international level.

I liked that poetess Beena Benjwal has all the books of Manglesh Dabral and has studied them thoroughly.  Brother Mukesh Nautiyal has also been very close to Manglesh da and he has also studied Manglesh a lot.  This tradition of reading and writing brings us closer to each other.  Our affinity with Manglesh is also due to this specialty.  While going to Doordarshan, I had also taken with me two copies of Uttaranchal Press Club's magazine 'Guldasta'.  It contains the memoirs of many comrades about the Uttarakhand movement.  I consider it my good fortune that I got the responsibility of editing the magazine and I left no stone unturned in fulfilling it.  Therefore, I consider it necessary to make such documents available to as many people as possible.  It was good that Bina ji and Mukesh Bhai were very happy after receiving the copy of the magazine.  After this, I dropped Mukesh Bhai to his office and I myself started on my way to the office.

Tuesday, 21 November 2023

21-11-2023 (चेतना और संवेदना के कवि मंगलेश)

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चेतना और संवेदना के कवि मंगलेश
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दिनेश कुकरेती
मैंने समकालीन हिंदी कवियों में सबसे चर्चित कवि मंगलेश डबराल की कविता और साहित्य को ही नहीं, उन्हें प्रत्यक्ष भी खूब पढ़ा है। पहाड़ से दूर रहते हुए भी उन्होंने जिस गहराई से पहाड़ को समझा, उतनी गहराई से शायद ही कोई और समझ पाया हो। वह पहाड़ छोड़कर गए तो फिर लौटकर वापस नहीं आए, लेकिन महानगरीय चकाचौंध में भी उनसे उनके हिस्से का पहाड़ कभी कोई छीन नहीं पाया। उनकी कविता में पहाड़ के प्रति उनकी चाहत, घर और विस्थापन के विचार, उन स्थानों का प्रतिनिधित्व करने का वर्णन किया गया है, जहां से वे आए थे। इसलिए मंगलेश को सुनना मुझे हमेशा ही बड़ा आनंद देता था। 

आप सोच रहे होंगे कि आज अचानक मंगलेश चर्चा में कैसे आ गए। दरअसल, लंबे अर्से बाद आज सुबह साढ़े दस बजे के आसपास साहित्यिक मित्र मुकेश नौटियाल का फ़ोन आया। मैं तब हल्का-फुल्का (सत्तू वगैरह का) नाश्ता कर रहा था। एक-दूसरे का हालचाल जानने के बाद मुकेश भाई सीधे विषय पर आते हुए बोले, 'भाई साहब! आपने मंगलेश डबराल जी पर कुछ लिखा है।' मैंने 'हां' में जवाब तो दिया, लेकिन समझ नहीं पाया कि मुकेश भाई ने यह सवाल पूछा क्यों है। फिर उन्हीं ने मेरे संशय का निदान किया। बोले, 'उत्तराखंड में इतने बड़े साहित्यकार और कवि हुए हैं, लेकिन उनके बारे में जानते तक नहीं। जबकि होना तो यह चाहिए था कि नई पीढ़ी भी उनके बारे में जानती।'
मैंने उनसे सहमति जताई तो वह आगे बोले, 'यार दिनेश भाई, मंगलेश जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर के कवि हमारे पहाड़ में हुए हैं और हम उनके बारे में कभी चर्चा तक नहीं कर पाते। यही सोचकर मन में विचार आया कि कल क्यों न आधे घंटे मंगलेश की कविता पर बात कर ली जाए।' मुझे भला इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी, सो बोला, 'यह तो बहुत अच्छी बात है।' मुकेश भाई मेरा जवाब 'हां' में ही सुनना चाहते थे, इसलिए बोले, 'कल दोपहर एक बजे दूरदर्शन पहुंच जाना। प्रश्नोत्तरी मैं कुछ देर में आपको भेज दूंगा।' मैंने कहा, 'ठीक है।' इसके बाद मुकेश भाई ने फोन रख दिया। तकरीबन एक घंटे में उन्होंने प्रश्नोत्तरी भी भेज दी।
परिचर्चा का विषय था, 'चेतना और संवेदना के कवि - मंगलेश डबराल'। इसमें मुझे और साहित्यकार बीना बेंजवाल को भाग लेना है, जबकि संचालन की जिम्मेदारी स्वयं मुकेश भाई संभाल रहे हैं। मेरे अलावा दोनों ही लोग बहुत अच्छे वक्ता हैं। मैंने मंगलेश को खूब पढ़ा और सुना है। उनसे वैचारिक साम्य भी रहा। उन पर और उनके साहित्य पर बेहतरीन ढंग से लिख भी सकता हूं, लेकिन यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि मैं कोई वक्ता नहीं हूं। मतलब लच्छेदार बोलना मुझे नहीं आता। खैर! मुकेश भाई ने मुझे परिचर्चा के लिए उपयुक्त माना है तो इसके पीछे कोई वजह तो जरूर रही होगी। इसलिए कल का बेसब्री से इंतजार है। पत्रकार हूं, स्थितियां कैसी भी हों, उनका मुकाबला करना जानता हूं।
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Poet of consciousness and sensitivity
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Dinesh Kukreti
I have not only read the poetry and literature of Manglesh Dabral, the most famous contemporary Hindi poet, but have also read him directly.  Despite being away from the mountain, he understood the mountain with such depth that hardly anyone else could.  When he left the mountain, he never came back, but even in the glare of the metropolitan world, no one could ever take away his share of the mountain from him.  His poetry describes his longing for the mountain, the ideas of home and displacement, representing the places he came from.  That's why listening to Manglesh always gave me great pleasure.


You must be wondering how Manglesh suddenly came into discussion today.  Actually, after a long time, today around 10.30 am, I got a call from literary friend Mukesh Nautiyal.  I was then having light breakfast (of Sattu etc.).  After knowing each other's well-being, Mukesh Bhai came straight to the topic and said, 'Brother!  You have written something on Manglesh Dabral ji.  I replied 'yes', but could not understand why Mukesh Bhai had asked this question.  Then he solved my doubt.  He said, 'There have been so many great litterateurs and poets in Uttarakhand, but we don't even know about them.  Whereas it should have happened that the new generation also knew about him.

When I agreed with him, he further said, 'Man, there are international level poets like Dinesh Bhai, Manglesh in our mountain and we are never able to even discuss about them.  Thinking this, the thought came to my mind that why not talk about Manglesh's poetry for half an hour tomorrow.  What objection could I have to this, so I said, 'This is a very good thing.'  Mukesh Bhai wanted to hear my answer only in 'yes', so he said, 'Please reach Doordarshan tomorrow at 1 pm.  I will send you the quiz in some time.  I said, 'Okay.'  After this Mukesh Bhai hung up the phone.  In about an hour he also sent the questionnaire.

The topic of discussion was, 'Poet of consciousness and sensitivity - Manglesh Dabral'.  I and litterateur Beena Benjwal have to participate in this, while Mukesh Bhai himself is handling the responsibility of operation.  Apart from me, both the people are very good speakers.  I have read and heard Manglesh a lot.  There was also ideological similarity with him.  I can write very well on him and his literature, but I have no hesitation in saying that I am not a speaker.  Meaning, I don't know how to speak waxed.  well!  Mukesh Bhai has considered me suitable for the discussion, so there must be some reason behind it.  So eagerly waiting for tomorrow.  I am a journalist, no matter what the situations are, I know how to deal with them.


Thursday, 9 November 2023

09-11-2023 (विज्ञान बनाम पाखंड)

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विज्ञान बनाम पाखंड

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दिनेश कुकरेती
देहरादून, जहां दो दर्जन से अधिक वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान हैं, जहां हजारों वैज्ञानिक शोध कार्य में जुटे हुए हैं, जहां शिक्षा का स्तर देशभर में सबसे ऊंचा माना जाता है, वहां अगर 30-35 हजार लोग पाखंड को शीश नवाने के लिए एक जगह जुटते हों तो यकीन जानिए न इस शहर का कुछ भला हो सकता है, न इस देश का ही। आखिर कहां जा रहा है स्वयं को आधुनिक और तकनीक से लैस कहलाने वाला ये शहर। क्या यही इसकी नियति है? यदि इसका जवाब ना में है तो माफ कीजिये इससे बड़ी बदनसीबी और कुछ नहीं हो सकती।

मुझे इस शहर में रहते हुए 17 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन कभी लगा नहीं कि एक आधुनिक शहर में रह रहा हूं। शायद इसी वजह से आज तक मैं इस शहर में बसने का मन नहीं बना पाया और लगता नहीं कि आगे भी ऐसा संभव हो पाएगा। दरअसल, मेरी सोच ने इस शहर से कभी मेल नहीं खाया। कारण, इस शहर के अधिकांश लोग जमीन पर कम और आसमान पर ज्यादा नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब मैं इस शहर में मौजूद वैज्ञानिक संस्थानों को देखता हूं, मुझे वहां जाने और वैज्ञानिकों से रूबरू होने का मौका मिलता है, तो गर्व की ऐसी अनुभूति होती है, जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। सोचता हूं, जिन्होंने इन्हें बनवाया, समाज के प्रति उनका कितना स्पष्ट नज़रिया रहा होगा। उन्होंने ज़रूर देश के उज्जवल भविष्य का सपना देखा होगा। लेकिन, अब हासिल देखकर खुद पर भी अफ़सोस होने लगता है।
इस शहर में भारतीय वन अनुसंधान संस्थान, वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पेट्रोलियम, ओएनजीसी, सर्वे ऑफ इंडिया, वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, मौसम विज्ञान केंद्र जैसे तमाम राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के वैज्ञानिक संस्थान हैं। इनमें हर साल हजारों युवा देश-विदेश से शोध करने के लिए पहुंचते हैं। लेकिन, अफ़सोस! देहरादून की बड़ी आबादी ठीक से इन संस्थानों के बारे में जानती तक नहीं। एफआरआई घूमने तो देश- विदेश से पर्यटक भी बड़ी तादाद में पहुंचते हैं। लेकिन, स्थानीय लोग सिर्फ इतना ही जानते हैं कि एफआरआई का खूबसूरत परिसर और  हेरिटेज बिल्डिंग है। इस बिल्डिंग के आगे एक सेल्फी तो होनी ही चाहिए। इससे ज्यादा कुछ नहीं।
मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि एफआरआई के अंदर क्या होता है, यह जानकारी बहुत कम लोगों को है। एफआरआई के म्यूज़ियम को भी कम ही लोगों ने देखा होगा। लेकिन, संस्थान में क्या नए शोध चल रहे हैं, अब तक कौन-कौन से महत्वपूर्ण शोध वहां हो चुके हैं, यह जानकारी रखने वाले इस आधुनिक कहलाने वाले शहर में गिनती के हैं। बाकी संस्थानों की तो लोगों ने देहरी भी नहीं लांघी है। जबकि, बातें सुनिए तो लगता है कि इनसे बड़ा जानकार कोई है ही नहीं। इस मामले में मैं स्वयं को भाग्यशाली समझता हूं कि मुझे इन संस्थानों के बारे में न केवल जानकारी है, बल्कि मैं इनकी अहमियत भी समझता हूं।
हालांकि, होना तो यह चाहिए था कि इस शहर के लोगों की दृष्टि में भी इन वैज्ञानिक संस्थानों की झलक नज़र आती, लेकिन यहां तो आंखों पर पट्टी बंधी हुई है। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि क्या फायदा ऐसी शिक्षा का, जो हमें अंधे कुएं की ओर ले जाती है। जो विज्ञान से ऊपर तथाकथित चमत्कारों को मानती है, जो यह समझने की शक्ति भी क्षीण कर देती है कि जिन्हें हम चमत्कार समझते हैं, उनके पीछे भी विज्ञान ही है। पर, यह उन्हें कौन समझाए, जिनके लिए ढोंग-पाखंड और कथित दिव्य दरबार ही सब-कुछ हैं। जो कर्म में नहीं, पाखंडियों पर विश्वास करते हैं। यही तो हो रहा, अपने इस आगे बढ़े शहर में।
अब देखिए, बीते चार नवंबर को अस्थायी राजधानी देहरादून के परेड मैदान में स्वयं का भगवान से संपर्क होने का दावा करने वाले एक बाबा का कथित दिव्य दरबार सजा, जिसमें मंत्रियों से लेकर अफ़सर तक लोटते नज़र आए। हैरत तो तब हुई, जब पता चला कि 35 हजार लोग बाबा के दर्शन को पहुंचे हैं। सारे काम-काज छोड़कर। शहर को नर्क बनाकर। एक बात तो मेरी समझ में आ गई है कि इसके पीछे कोई-न-कोई सोच जरूर काम कर रही है। यह वही सोच है, जो देश में लोगों को सुशिक्षित नहीं देखना चाहती। विज्ञान की प्रगति उसे पसंद नहीं। उसे वोटर चाहिए, सजग नागरिक नहीं। मैं अगर सही हूं तो यकीनन यह बेहद खतरनाक स्थिति है।
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Science vs hypocrisy
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Dinesh Kukreti
In Dehradun, where there are more than two dozen scientific research institutes, where thousands of scientists are engaged in research work, where the level of education is considered to be the highest in the country, then if 30-35 thousand people had gathered at one place to expose the hypocrisy.  If yes then rest assured that neither this city nor this country can get any good.  After all, where is this city going which calls itself modern and equipped with technology?  Is this its destiny?  If the answer to this is no then please forgive me, nothing can be worse than this.

I have been living in this city for 17 years, but I never felt that I was living in a modern city.  Perhaps this is the reason why till date I have not been able to make up my mind to settle in this city and I do not think that this will be possible in future also.  Actually, my thinking never matched with this city.  Because, the people of this city are seen less on the ground and more in the sky.  On the contrary, when I see the scientific institutions present in this city, I get a chance to go there and meet scientists, I feel a feeling of pride which cannot be expressed in words.  I wonder who built these, how clear their vision must have been towards the society.  He must have dreamed of a bright future for the country.  But now, seeing what has been achieved, I start feeling sorry for myself.

In this city, many national and international institutions like Indian Forest Research Institute, Wadia Himalayan Institute of Geology, Indian Institute of Petroleum, ONGC, Survey of India, Wildlife Institute of India, Geological Survey of India, Archaeological Survey of India, Meteorological Center etc. are situated in this city.  level scientific institutions.  Every year thousands of youth from India and abroad come here to do research.  But, alas!  A large population of Dehradun does not even know properly about these institutions.  A large number of tourists from India and abroad also come to visit FRI.  But, the local people only know that FRI has a beautiful campus and heritage buildings.  There must be a selfie in front of this building.  Nothing more than that.

I can say with certainty that very few people know what happens inside FRI.  Very few people would have seen the FRI museum.  But, those who have information about what new research is going on in the institute and what important research has been done there till now, are counted in this so-called modern city.  People have not even crossed the threshold of other institutions.  Whereas, if you listen to things, it seems that there is no one more knowledgeable than him.  In this matter, I consider myself fortunate that I not only know about these institutions, but I also understand their importance.

However, what should have happened is that the glimpse of these scientific institutions should have been visible in the eyes of the people of this city, but here the eyes are blindfolded.  Sometimes I wonder what is the use of such education, which leads us towards a blind well.  Which considers so-called miracles above science, which also weakens the power to understand that there is science behind even those things which we consider miracles.  But, who will explain this to those for whom hypocrisy and the so-called divine court are everything.  Those who believe in hypocrites and not in deeds.  This is what is happening in this progressive city of ours.

 Now see, on November 4, at the parade grounds of the temporary capital Dehradun, the alleged divine court of a Baba who claimed to have contact with God was held, in which everyone from ministers to officers were seen dancing.  I was surprised when I came to know that 35 thousand people had come to see Baba.  Leaving all work.  By making the city hell.  One thing I have understood is that some thinking is definitely working behind this.  This is the same thinking which does not want to see people in the country well educated.  He does not like the progress of science.  He wants voters, not conscious citizens.  If I am right then this is definitely a very dangerous situation.


Thursday, 12 October 2023

12-10-2023 (इंसान की शक्ल देखने को तरस जाएगा पहाड़)


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इंसान की शक्ल देखने को तरस जाएगा पहाड़

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दिनेश कुकरेती
त्‍तराखंड के पर्वतीय जिलों में एक के बाद एक गांव जिस तरह मानवविहीन होते जा रहे हैं, उससे तय मानिए कि एक दिन पहाड़ इंसान की शक्‍ल देखने को भी तरस जाएगा। इस त्रासदी के लिए शासन व्‍यवस्‍था तो जिम्‍मेदार है ही, जंगली जानवर भी इसकी बड़ी वजह बनते जा रहे हैं। खासकर बाघ-गुलदार व भालुओं ने तो पहाड़वासियों का जीना ही दूभर कर दिया है। बाघ-गुलदार के किसी न किसी व्‍यक्ति पर झपट्टा मारने की खबरें तो आए दिन आती रहती हैं। हफ्ते में एक या दो व्‍यक्तियों का बाघ-गुलदार का निवाला बन जाना भी अब सामान्‍य बात हो गई है। इस अक्‍टूबर में ही बाघ दो और गुलदार चार व्‍यक्तियों को निवाला बना चुका है। पौड़ी जिले में कार्बेट टाइगर रिजर्व से लगे नैनीडांडा ब्‍लाक के दो दर्जन गांवों में तो अघोषित कर्फ्यू की-सी स्थिति है। शाम चार बजे के बाद लोग घरों में कैद होकर रह जाते हैं। इन गांवों के बच्‍चे स्‍कूल जाने तक का साहस नहीं जुटा पा रहे। 
बाघ-गुलदार के अलावा बंदर, सुअर आदि जानवर भी पहाड़ की तबाही के लिए कम जिम्‍मेदार नहीं हैं। लेकिन, पहाड़वासियों की सुनने वाला कोई नहीं। सरकार, वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और पर्यावरणवादियों को पहाड़ में जंगली जानवरों का जमघट चाहिए। आप इन जानवरों पर खरोंच तक नहीं लगा सकते। ऐसा किया तो धर लिए जाओगे। वन विभाग जुर्माना ठोेक देगा, पुलिस गिरफ्तार कर देगी और अदालत जेल भेज देगी। लेकिन, बाघ-गुलदार किसी व्‍यक्ति को निवाला बना दे तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। पांच लाख का मुआवजा देकर पीड़ित परिवार का मुंह बंद करा दिया जाएगा। इसके अलावा और कुछ नहीं होने वाला।
वैसे तो पहाड़ हमेशा से ही भेदभाव का शिकार रहा है, वह चाहे शिक्षा के मामले में हो या सड़क के। पहाड़ के स्‍कूलों में शिक्षक न होना कोई बड़ी बात नहीं है। जिन स्‍कूलों में शिक्षक हैं भी, वो पहाड़ में रहना पसंद नहीं करते। बल्कि, मैदानी क्षेत्र से सुबह ट्रैकर के जरिये स्‍कूल पहुंचते हैं और शाम को वापस लौट आते हैं। स्‍कूल भवनों का तो कहना ही क्‍या। कई जगह दो-दो कमरों के भवन में इंटर कालेज तक चल रहे हैं। इन स्‍कूलों में तैनात शि‍क्षक भी जोड़-जंक से अपना तबादला मैदानी क्षेत्र के स्‍कूलों में करा लेते हैं। समझा जा सकता है कि इन स्‍कूलों में कैसा भविष्‍य तैयार हो रहा है। 
स्‍वास्‍थ्‍य व्‍यवस्‍था का तो और भी बुरा हाल है। शहर वालों के लिए मेडिकल कालेज, जिला चिकित्‍सालय, बेस चिकित्‍सालय व संयुक्‍त चिकित्‍सालय हैं और ग्रामीणों के लिए प्राथमिक स्‍वास्‍थ्‍य केंद्र। बुखार व पेट दर्द होने पर भी ग्रामीणों को दवा के लिए 50 से सौ किमी तक की दौड़ लगानी पड़ती है। गांवों के आसपास जो अस्‍पताल हैं भी, उनमें न तो डाक्‍टर हैं, न फार्मेसिस्‍ट व अन्‍य स्‍टाफ ही। दवाइयों का भी घोर अभाव है। आपरेशन आदि के बारे में तो सोचना भी गुनाह है। अफसरों से लेकर विधायक, सांसद, मंत्री व मुख्‍यमंत्री तक का इससे कोई लेना-देना नहीं। देहरादून में बैठकर उनके तो स्‍वार्थ सिद्ध हो ही रहे हैं।
जनप्रतिनिधियों को वैसे भी ग्रामीणों (जो 18 साल से अधिक उम्र के हैं) की जरूरत सिर्फ वोट के लिए पड़ती है और इसके लिए उनके पास तमाम मुद्दे हैं। मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान, बामण-ठाकुर, सेना, पाकिस्‍तान, गो, गंगा, श्मशान-कब्रिस्तान, मज़ार आदि मुद्दों पर जब चुनाव जीता जा सकता है तो रोजी-कपड़ा-मकान की बात कौन मूर्ख उठाएगा और क्यों उठाएगा। फिर वोट तो कंबल, साड़ी, हजार-पांच सौ रुपये और दारु के पव्‍वे में भी आसानी से मिल जाते हैं, इसके लिए शिक्षा-स्‍वास्‍थ्‍य की बात करने की क्‍या जरूरत। इसके अलावा बिजली, पानी, सिंचाई, सड़क व संचार के मामले में भी पहाड़ की हमेशा उपेक्षा ही हुई है। फिर भी लोग पहाड़ में रह रहे थे, लेकिन जंगली जानवरों के आतंक ने तो पहाड़ की तस्‍वीर ही बदल डाली है। 
ऐसा कौन होगा, जो बाघ-गुलदार-भालू को अपनों की बलि देना चाहेगा। इसलिए वह पहाड़ छोड़ने में ही भलाई समझ रहा है। पहाड़ में रहने को वही विवश है, जिसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं। मुफ़लिसी के चलते वह कहीं बाहर भी नहीं जा सकता। ...और अब तो पहाड़ में जीवन गुजारना भी उसके लिए मुश्किल होता जा रहा है। ख़ौफ़ के साये में उसके दिन गुजर रहे हैं। मौत कब, किस पेड़ के पीछे या किस झाड़ी में से झपट्टा मार दे, कहा नहीं जा सकता। लोग खेती-किसानी और पशुपालन से भी इसीलिए विमुख हो रहे हैं। लेकिन, सरकार व पर्यावरणवादियों को इसका कोई मलाल नहीं। उनकी बला से। टाइगर प्रोजेक्ट के बजट में कोई कमी नहीं आनी चाहिए, बस! 
देखा जाए तो उत्तराखंड अब अमीरों की सैर-सपाटे की जगह बनकर रह गया है। उन्हें यहां जंगल चाहिएं, जानवर चाहिएं और इस सबसे बढ़कर प्राकृतिक वातावरण चाहिए। इसके लिए पार्कों का क्षेत्रफल बढ़ाया जा रहा है। फॉरेस्ट एरिया में पक्की सड़कें नही बनने दी जा रहीं। बिजली, पानी और संचार सुविधा से भी फॉरेस्ट एरिया के आसपास रहने वाली आबादी को महरूम रखा गया है। कहने का मतलब यहां रहने वाले लोगों की नियति सिर्फ बाघ-गुलदार का आहार बनना है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि लोगों की लड़ने की ताकत भी अब खत्म हो चुकी है। ऐसा ही होना भी है, क्योंकि उनके हक में खड़ा होने वाला कोई जो नहीं है।

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--------------------------------------------------------------The mountain will yearn to see the human face

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Dinesh Kukreti

The way villages are becoming humanless one after the other in the hilly districts of Uttarakhand, it is certain that one day the mountains will long to see the face of humans.  Not only is the government responsible for this tragedy, wild animals are also becoming a major reason for it.  Especially tigers, leopards and bears have made life difficult for the mountain people.  There are news every day about a tiger pouncing on some person or the other.  It has now become a normal thing for one or two people to become a tiger-guldar's morsel in a week.  This October alone, tiger have killed two people and leopard have killed four people.  There is a situation of undeclared curfew in two dozen villages of Nainidanda block adjacent to Corbett Tiger Reserve in Pauri district.  After 4 pm, people remain confined to their homes.  The children of these villages are not able to muster the courage to even go to school.

 Apart from tigers and leopards, animals like monkeys, pigs etc. are also no less responsible for the destruction of the mountains.  But, no one listens to the mountain people.  The government, the Ministry of Forest and Environment and environmentalists want the abundance of wild animals in the mountains.  You can't even scratch these animals.  If you do this you will be arrested.  The forest department will impose fine, the police will arrest and the court will send him to jail.  But, if a tiger-guldar turns a person into a morsel, no one will care.  The victim's family will be silenced by giving a compensation of Rs 5 lakh.  Apart from this nothing else is going to happen.

Although the hills have always been a victim of discrimination, be it in the matter of education or roads.  Not having teachers in mountain schools is not a big deal.  Even in schools where there are teachers, they do not like to live in the mountains.  Rather, they reach school from the plains in the morning via tracker and return in the evening.  What to say about school buildings.  At many places, even inter colleges are running in two-room buildings.  The teachers posted in these schools also get themselves transferred to the schools in the plains.  It can be understood what kind of future is being prepared in these schools.

The condition of the health system is even worse.  There are medical colleges, district hospitals, base hospitals and joint hospitals for the city residents and for the villagers.
 Primary Health Center for.  Even in case of fever and stomach ache, villagers have to run 50 to 100 kilometers to get medicine.  Even in the hospitals around the villages, there are neither doctors, pharmacists nor other staff.  There is also a severe shortage of medicines.  Even thinking about operation etc. is a crime.  From officers to MLAs, MPs, Ministers and Chief Ministers have nothing to do with it.  By sitting in Dehradun, their self-interests are being fulfilled.

In any case, public representatives need villagers (who are above 18 years of age) only for votes and for this they have many issues.  When elections can be won on the issues of temple-mosque, Hindu-Muslim, Baman-Thakur, army, Pakistan, cow, Ganga, crematorium-cemetery, tomb etc. then which fool would raise the issue of livelihood-clothes-house and why.  Then votes can be easily obtained through blankets, sarees, Rs 1000-500 and liquor, so there is no need to talk about education and health for this.  Apart from this, the mountains have always been neglected in matters of electricity, water, irrigation, roads and communication.  Still people were living in the mountains, but the terror of wild animals has changed the picture of the mountains.

Who would want to sacrifice their loved ones to a tiger, leopard or bear?  That's why he thinks it best to leave the mountain.  Only those who have no other option are forced to live in the mountains.  Due to poverty he cannot go out anywhere.  ...And now even living life in the mountains is becoming difficult for him.  His days are passing under the shadow of fear.  It cannot be predicted when, behind which tree or from which bush death will pounce.  This is why people are turning away from farming and animal husbandry.  But, the government and environmentalists have no qualms about this.  By their power.  There should be no reduction in the budget of the Tiger Project, that's all!

If we look closely, Uttarakhand has now become a picnic spot for the rich.  They want forests here, animals and above all they want the natural environment.  For this the area of ​​parks is being increased.  Paved roads are not being allowed to be built in the forest area.  The population living around the forest area has also been deprived of electricity, water and communication facilities.  That is to say, the destiny of the people living here is to become only food for tigers and leopards.  The biggest misfortune is that people's fighting power has also ended.  This is what has to happen, because there is no one to stand up for them.












 

Sunday, 8 October 2023

08-10-2023 ( ज्ञान का मूल)


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ज्ञान का मूल
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दिनेश कुकरेती
क्या आपने कभी सोचा कि दुनिया इक्कीसवीं में जहां खड़ी है, वहां तक पहुंची कैसे। हममें यह सब सोचने-विचारने की शक्ति कहां से आई। सृष्टि और ब्रह्मांड के बारे में हमने कैसे और कहां से ज्ञान अर्जित किया। इसका सीधा-सपाट जवाब है, अंक और अक्षर की बदौलत। लिपियों की बदौलत। सुविधा-संपन्न हो चुकी दुनिया में हम किसी भी भाषा की वर्णमाला को जरा भी अहमियत देना जरूरी नहीं समझते, जबकि यही वो बीज है, जो सृष्टि को व्यवस्थित ढंग से संचालित करने में सहायक बना। उदाहरण के लिए नज़र डालते हैं देवनागरी लिपि की वर्णमाला पर, जो अनेक भारतीय भाषाओं की मूल भी है।



देवनागरी के वर्णाक्षर
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स्‍वर :  अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ
अं अः

व्‍यंजन : क ख ग घ ङ
च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व
श ष स ह
क्ष त्र ज्ञ
 
(ऋ श्र)



शब्द ब्रह्म
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मनुष्य पहले आज के जैसा नही था। लाखों साल के संघर्ष और तमाम बदलाओं के बाद वह वर्तमान स्वरूप में आया। पहले वह जानवरों के जैसे चलता-फिरता था, खाता-सोता और रहता था। धीरे-धीरे वह आग जलाना, मांस व कंद-मूल को भूनकर खाना, समूह में रहना, घर बनाना, खेती करना, मनोरंजन के लिए नृत्य व स्वांग करना आदि कार्य सीखते चला गया। लेकिन, भावों की अभिव्यक्ति अब भी वह इशारों में और उछल-कूदकर ही करता था यानी उसके पास शब्द नहीं थे। वक़्त बदला और बुद्धि के विकास के साथ उसकी ज़ुबान से स्वर फूटने लगे। यही स्वर कालांतर में अक्षर बने और अक्षर से अक्षर मिलकर शब्द। मानवता के लिए यह एक विराट उपलब्धि थी। शब्दों ने जीव-जगत में मनुष्य की श्रेष्ठता साबित कर दी थी। इसीलिए 'शब्द' को 'ब्रह्म' कहा गया है।

सच भी यही है। ईश्वर, भगवान, गॉड, अल्लाह, ख़ुदा जैसे संबोधन भी अक्षर की उत्पत्ति के बाद ही अस्तित्व में आए। जरा दिमाग पर जोर डालकर सोचिए, अक्षर के बिना क्या हम कभी ईश्वर की कल्पना भी कर सकते थे। आखिर यह ईश्वर, यह भगवान जैसे शब्द कहां से आए। क्या भाषा की उत्पत्ति से पहले यह शब्द मौजूद थे। इसका जवाब कोई भी समझदार व्यक्ति 'हां' में नहीं देना चाहेगा। वेद, पुराण, उपनिषद आदि लिखने के लिए भी तो भाषा लिपि की ही जरूरत पड़ी होगी। स्पष्ट है कि पहले भाषा लिपि अस्तित्व में आई और फिर ये धार्मिक ग्रंथ। यानी ईश्वर ईश्वर, भगवान भगवान, गॉड गॉड, अल्लाह अल्लाह इसलिए कहलाए, क्योंकि मनुष्य ने उन्हें ये संबोधन दिए। वास्तविकता यही है कि भाषा लिपि ही सृष्टि के विकास का आधार है। अगर अक्षर की उत्पत्ति नहीं हुई होती तो आज ईश्वर-धर्म, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला आदि कुछ भी नहीं होते।


मानव की देन हैं लिपि
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लिपियां मानव की ही देन हैं, उन्हें ईश्वर या देवता ने नहीं बनाया। प्राचीन काल में किसी पुरातन और कुछ जटिल वस्तु को रहस्यमय बनाए रखने के लिए उस पर ईश्वर या किसी देवता की मुहर लगा दी जाती थी। लेकिन, वर्तमान में हम जानते हैं कि लेखन-कला किसी 'ऊपर वाले' की देन नहीं है, बल्कि वह मानव की ही बौद्धिक कृति है।
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Core of knowledge
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Dinesh Kukreti
Have you ever wondered how the world got to where it stands in the twenty-first century?  Where did we get the power to think and think about all this?  How and where did we acquire knowledge about creation and universe.  The simple answer is thanks to numbers and letters.  Thanks to the scripts.  In a world that has become prosperous, we do not consider it necessary to give any importance to the alphabet of any language, whereas this is the seed which became helpful in running the universe in an orderly manner.  For example, let's look at the alphabet of the Devanagari script, which is also the root of many Indian languages.

Devanagari alphabets

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a aa i ee u oo e ai o au
an ah

ka kh ga gh na
ch chh ja jh na
ta th da dh na
ta th da dh na
pa ph ba bh ma
ya ra la va
sh sh sa ha
ksh tr gy

(r shr)

The alphabet is the form of Brahma

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Man was not like he is today.  After millions of years of struggle and many changes, it came into its present form.  Earlier he used to move, eat, sleep and live like an animal.  Gradually he started learning how to light a fire, eat roasted meat and tubers, live in a group, build a house, do farming, dance and mime for entertainment, etc.  But, he still expressed his feelings through gestures and jumping, that is, he had no words.  Time changed and with the development of intelligence, words started emerging from his tongue.  These vowels eventually became letters and letters combined into words.  This was a huge achievement for humanity.  Words had proved the superiority of man in the living world.  That is why 'Shabd' has been called 'Brahma'.

This is also the truth.  Addresses like Ishwar, Bhagwan, God, Allah, Khuda also came into existence only after the origin of the alphabet.  Just think hard, could we ever imagine God without letters?  After all, where did the words like this God, this God come from?  Did these words exist before the origin of language?  No sensible person would want to answer this with 'yes'.  To write Vedas, Puranas, Upanishads etc., language script would have been required.  It is clear that first the language script came into existence and then these religious texts.  That is, they were called Ishwar Ishwar, Bhagwan Bhagwan, God God, Allah Allah because humans gave them these addresses.  The reality is that language and script are the basis of development of the universe.  If letters had not originated then there would have been nothing like God, religion, knowledge, science, literature, art etc. today.

Script is a gift from humans

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Scripts are the gift of humans only, they were not created by God or a deity.  In ancient times, to keep any ancient and complex object mysterious, the seal of God or some deity was put on it.  But, at present we know that the art of writing is not the gift of someone 'above', rather it is the intellectual creation of human beings.