Pages

Tuesday, 29 June 2021

21-06-2021 (आभासी दुनिया के दोस्त और जन्मदिन )


google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0
आभासी दुनिया के दोस्त और जन्मदिन 
---------------------------------------------
दिनेश कुकरेती
मुझे जन्मदिन मनाने का क्रेज कभी नहीं रहा। मेरे लिए तो हर दिन खास है। हर दिन की एक समान अहमियत है। हां! पहले इस दिन घर में पूजा जरूर हुआ करती थी। दीप प्रज्ज्वलित  किया जाता था। अब तो यह भी 12-13 साल पुरानी बात हो चुकी है। ऐसा क्यों हुआ, मुझे इसकी वजह भी नहीं मालूम। सच कहूं तो जन्मदिन के मौके पर मोमबत्ती बुझाने की परंपरा मुझे कतई पसंद नहीं रही। मैं तो दीप प्रज्ज्वलित करने वाली परंपरा से आता हूं। दीप बुझाने की अनुमति न तो हमारी संस्कृति देती है और न संस्कार ही। फिर मोमबत्ती भी दीप का ही प्रतिरूप तो है। रही बात शुभकामनाओं की, वह तो अंतर्मन की अभिव्यक्ति हैं, जो उत्साहवर्द्धन ही करती हैं।

फेसबुक का कमाल देखिए कि शुभकामनाएं मध्यरात्रि के बाद से ही मिलने लगती हैं। मुझे भी रात से ही मिलनी शुरू हो गई थीं। इनमें रेडीमेड और लिहाजदारी के शुभकामना संदेश बहुत ज्यादा हैं। आभासी दुनिया का यही दस्तूर है। जो फेसबुक पर शुभकामनाएं देते हैं, सामने मिलने पर वो हाय-हैल्लो करना भी जरूरी नहीं समझते। अभी शाम के चार बजे हैं और 160 से अधिक फेसबुक मित्र शुभकामनाएं दे चुके हैं। अलग-अलग अंदाज में। कुछ ने लिखा है एचबीडी तो कुछ ने शुभकामना। माना गुस्से में पत्थर मार रहे हों। कुछ इमोजी भी भेज रहे हैं। ये लिहाजदारी की शुभकामनाएं हैं, जो एक-दूसरे की देखा-देखी दी जाती हैं। इनका उद्देश्य फेसबुक मित्र होने के नाते अपनी इज्जत बचाना होता है।
  शुभकामनाओं का सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता। कुछ फेसबुक मैसेंजर में भेज रहे हैं तो कुछ वाट्सएप में। इनमें अधिकांश आत्मीयजन हैं। खासकर वाट्सएप में भेजने वाले। वाट्सएप में सबसे पहले शुभकामना संदेश सुबह साढे़ छह बजे के आसपास मेरी पत्नी रजनी और छोटी बिटिया साक्षी की ओर से भेजे गए। साक्षी अपनी मां को बता रही थी कि पापा का जन्मदिन आज ही है, न कि 20 जून को। इसलिए उसने कल विश नहीं किया। ये बात रजनी ने मुझे फोन पर बताई। एक बेहद करीबी मित्र मुकेश नौटियाल ने तो बाकायदा फोन कर मुझे शुभकामनाएं दीं। तो एक मित्र ने स्पेशल मैसेज भेजकर, क्षमा प्रार्थना के साथ।

यह सिलसिला आफिस में भी चलता रहा। दरअसल किसी भी पत्रकार साथी के जन्मदिन पर मुख्यालय नोएडा से एचआर टीम की ओर से शुभकामना संदेश आता है। यह संदेश पूरे स्टाफ को कापी होता है, इसलिए अधिकांश लोग लिहाजदारी में संबंधित रिपोर्टर या डेस्क के साथी को शुभकामनाएं देते हैं। पिछले आठ साल साल से यह परिपाटी चली आ रही है। पर, मजा देखिए, मुझे शुभकामना वाली ऐसी मेल कभी नहीं मिली, इसलिए आफिस में किसी को पता भी नहीं चलता है। मैं मेल न मिलने को अन्यथा भी नहीं लेता। हालांकि, आज न जाने कैसे पता चल गया आफिस में दो-एक साथियों को और उन्होंने मुझे शुभकामनाएं भी दीं। मुझे लगता है प्रेस क्लब वाले ग्रुप या फेसबुक से ही उन्हें यह जानकारी मिली होगी।

  खैर! ये सिलसिला तो अभी दो-एक दिन चलता रहेगा। हां! इस लिहाज से यह दिन मेरे लिए खास है कि मैंने अब और ज्यादा पुस्तकें पढ़ने का संकल्प लिया है। अच्छी, ज्ञानवर्द्धक, वैज्ञानिक सोच विकसित करने वाली, तर्कपूर्ण और प्रगतिशील। सच कहूं तो पुस्तकें ही मेरी सबसे करीबी साथी हैं। मुझे आगे बढ़ने की राह सुझाती हैं और मेरे कष्ट मिटाती हैं। मेरा सपना है कि कभी मैं मकान बना सकूं तो उसमें मेरी पर्सनल लाइब्रेरी भी होगी। जो दुनिया की दुर्लभ पुस्तकों का भंडार होगी। उम्मीद है कि ये सपना अवश्य पूरा होगा, क्योंकि ये दुनिया का सबसे उत्कृष्ट सपना है।

इन्‍हें भी पढ़ें : 

--------------------------------------------------------------

Virtual world friends and birthdays
----------------------------------------------
Dinesh Kukreti
I have never been crazy about celebrating birthdays.  For me every day is special.  Every day has equal importance.  Yes!  Earlier on this day worship was definitely done in the house.  The lamp was lit.  Now this too is 12-13 years old.  Why this happened, I do not even know the reason.  To be honest, I did not like the tradition of lighting candles on the occasion of birthday.  I come from the tradition of lighting the lamp.  Neither our culture nor our culture gives permission to light the lamp.  Then the candle is also a replica of the lamp.  As for good wishes, it is an expression of inner self, which only encourages.
See the wonder of Facebook that the best wishes start coming only after midnight.  I too started seeing me from the night itself.  There are a lot of readymade and thoughtful greetings messages among them.  This is the custom of the virtual world.  Those who greet on Facebook, they do not even consider it necessary to say hi-hello when they meet in front.  It's 4 o'clock in the evening and more than 160 Facebook friends have poured in their wishes.  In different style.  Some have written HBD and some have wished.  As if you were pelting stones in anger.  Sending some emoji too.  These are the wishes of respect, which are given to each other.  Their purpose is to save their reputation as Facebook friends.

The series of wishes does not end here.  Some are sending in Facebook Messenger and some in WhatsApp.  Most of them are relatives.  Especially those who send in WhatsApp.  The first greetings on WhatsApp were sent from my wife Rajni and little daughter Sakshi around 6.30 am.  Sakshi was telling her mother that today is her father's birthday and not on June 20.  That's why he didn't wish yesterday.  Rajni told this to me over the phone.  A very close friend Mukesh Nautiyal called me and wished me well.  So a friend sent a special message, with apologies.

This trend continued in the office as well.  Actually, on the birthday of any journalist fellow, a greeting message comes from the HR team from Headquarters Noida.  This message is copied to the entire staff, so most people politely wish the concerned reporter or desk mate.  This practice has been going on for the last eight years.  But, look at the fun, I have never received such a good luck mail, so nobody in the office even gets to know.  I don't even take otherwise for non-receipt of mail.  However, today I do not know how I came to know about two colleagues in the office and they also wished me the best.  I think they must have got this information from the Press Club group or Facebook itself.

Well!  This cycle will continue for a day or two.  Yes!  In this sense, this day is special for me that I have now resolved to read more books.  Good, informative, developing scientific temper, reasoning and progressive.  To be honest, books are my closest companion.  He guides me on the way forward and removes my troubles.  I have a dream that if I can build a house, it will also have my personal library.  Which will be the storehouse of rare books of the world.  Hope this dream will come true because it is the best dream in the world.

Monday, 28 June 2021

20-06-2021 (Today is my birthday and tomorrow is also)

google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0
आज भी मेरा जन्मदिन और कल भी

-----------------------------------------

दिनेश कुकरेती

ह गते आषाढ़ को मेरा अवतरण हुआ था। इस तिथि को अंग्रेजी माह जून की 20 तारीख पड़ती है। हालांकि, मेरे जन्म के समय सुबह के साढे़ चार बजे रहे होंगे, इसलिए दस्तावेजों  में मेरी जन्मतिथि 21 जून दर्ज है। दरअसल, अंग्रेजी तारीख मध्यरात्रि में बारह बजे बदल जाती है, जबकि भारतीय परंपरा में नए दिन की शुरुआत सूर्योदय से होती है। मेरा जन्म सूर्योदय से पहले का है। इस लिहाज से दोनों तिथियों को मेरा जन्मदिन मनाया मनाया जाता है। कहने का मतलब आज आषाढ़ की छह गते है और घर में मेरा जन्मदिन मनाया जा रहा है।

सुबह जैसे ही मेरी नींद खुली, आदतानुसार सीधे मोबाइल पर दृष्टिपात किया। देखा कि वाट्सएप में दो शुभकामना संदेश पडे़ हुए हैं। एक रजनी का है और दूसरा बडी़ बिटिया सृष्टि का। मैंने जवाब में धन्यवाद! लिखा और फिर दैनिक कार्यों में जुट गया। दोपहर 12 बजे के आसपास जब मैं भोजन बना रहा था, तभी रजनी का फोन आया। उस वक्त वह अपने मायके यानी मेरे ससुराल में थी। दरअसल गर्मियों की छुट्टियां होने के कारण इन दिनों दोनों सालियां भी मायके आई हुई हैं। दो-एक दिन में रजनी भी चली जाएगी। आज तो वह मेरे जन्मदिन की खुशी में पकौडि़यां लेकर गई थी।

फोन पर बधाई देने के साथ रजनी बोली- "मुझे तो ये जानकारी थी कि आपका जन्मदिन कल है। वह तो सासजी पकौडी़ बना रही थीं, तब मालूम पडा़ कि आज ही है। उनका कहना था कि हमारे महीने के हिसाब से आपका जन्मदिन 20 जून को ही पड़ता है। 21 जून तो स्कूल के हिसाब से होता है। मैंने तब बनाई पकौडि़यां।"

"छह गते आषाढ़ भी सही है और 21 जून भी। मेरा जन्म सूर्योदय से पहले ब्रह्ममुहूर्त में हुआ। तब छह गते ही थी, लेकिन अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से 21 तारीख शुरू हो चुकी थी। इसलिए जन्मदिन दोनों में से किसी भी दिन मनाओ, कोई फर्क नहीं पड़ता"- मैंने कहा।

अब बात रजनी की समझ में भी आ गई। खैर! मेरे सास-ससुर रजनी के पास ही बैठे थे, इसलिए उन्होंने भी मुझे जन्मदिन की शुभकामनाएं दीं। इसके बाद बारी थी मेरी बडी़ साली सुनीता की। वो लगभग हर साल ही विश करती है। संयोग से छोटी साली लक्ष्मी भी वहीं मौजूद थी, सो उसने भी विश किया। मेरे लिए यह भी एक सुखद एहसास था। मुझे याद नहीं कि आखिरी बार उसने कब मेरे जन्मदिन पर विश किया था। दस-बारह साल तो हो ही गए होंगे। पता नहीं आज सूरज किधर से निकला, मैं स्वयं चकित हूं।

इसके बाद फिर रजनी से ही कुछ देर बात हुई। पूछने लगी क्या खास पका रहे हो। मैंने कहा- "क्या खास पकाना है, मेरे लिए तो जो पक जाए, वही खास है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए आज लौकी की सब्जी और रोटी सेलिब्रेट करूंगा।" ऐसा ही मैंने किया भी।

पराये शहर में और वह भी अकेले, इससे बेहतर कुछ हो भी नहीं सकता। खैर! जन्मदिन अभी जारी रहेगा। पूरे 24 घंटे हैं अभी सेलिब्रेट करने के लिए। रात के एक बज चुके और फेसबुक पर शुभकामना संदेश आने लगे हैं। लेकिन, सच कहूं तो मुझे अब नींद आ रही है। डायरी लिखते-लिखते नींद के कई झोंके आ चुके हैं। इसलिए फिलहाल आपसे इजाज़त चाहता हूं। कल फिर मिलेंगे। शुभरात्रि!!

इन्‍हें भी पढ़ें : 

--------------------------------------------------------------

Today is my birthday and tomorrow is also

-------------------------------------------------------

Dinesh Kukreti

My incarnation took place on the 6th of Ashada.  This date falls on the 20th of the English month of June.  However, the time of my birth must have been 4:30 in the morning, so my date of birth is recorded as June 21 in the documents.  Actually, the English date changes at 12 midnight, whereas in Indian tradition the new day begins at sunrise.  I was born before sunrise.  In this sense, my birthday is celebrated on both the dates.  It means to say that today is the six days of Ashadh and my birthday is being celebrated in the house.

As soon as I woke up in the morning, I looked directly at my mobile as per the habit.  Saw that there are two greeting messages lying in WhatsApp.  One is of Rajni and the other is of elder daughter Srishti.  Thanks in reply!  Wrote and then got involved in daily work.  Around 12 noon, while I was cooking, Rajni's call came.  At that time she was in her maternal house i.e. my in-laws' house.  Actually, due to the summer holidays, these days both the daughters-in-law have also come to their maternal home.  Rajni will also be gone in a day or two.  Today she took dumplings to celebrate my birthday.

With congratulatory on the phone, Rajni said - "I knew that your birthday is tomorrow. She was cooking pakodi, then she came to know that it is today. She said that according to our month, your birthday is June 20.  It is only on June 21. It is according to the school. I made dumplings then."

"Six gates Ashadha is also correct and 21st June also. I was born in Brahmamuhurta before sunrise. Then there were six gates, but according to the English calendar, the 21st had started. So celebrate the birthday on either of the two days,  Doesn't matter"- I said.

Now Rajni's point is also understood.  Well!  My father-in-law was sitting next to Rajni, so he also wished me a happy birthday.  After this it was my elder sister-in-law Sunita's turn.  She prays almost every year.  Incidentally, the younger sister-in-law Lakshmi was also present there, so she also wished.  It was also a pleasant feeling for me.  I can't remember the last time he wished me on my birthday.  Ten or twelve years must have passed.  I don't know where the sun came out today, I myself am amazed.

After this again talked to Rajni for some time.  Started asking what special you are cooking.  I said- "What is special to cook, what is cooked for me is special. Today I will celebrate gourd vegetable and roti for good health."  That's what I did too.

In a foreign city and that too alone, nothing can be better than this.  Well!  Birthday continues.  There are 24 hours to celebrate now.  It is past one o'clock in the night and wishes have started pouring in on Facebook.  But, to be honest, I am sleeping now.  While writing the diary, there have been many bouts of sleep.  That's why I want your permission for now.  We will meet tomorrow again.  good night!!

Sunday, 27 June 2021

13-06-2021 ( Engagement rasgullas and those two meetings)


google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0
(भाग - तीन)
सगाई के रसगुल्ले और वो दो मुलाकातें
-------------------------------------------
दिनेश कुकरेती
गाई हो चुकी थी, लेकिन दोस्तों को इसकी भनक तक नहीं थी। हां! मोहल्ला-पडो़स में जरूर लड्डू बांटे जा चुके थे। रिश्तेदारी में भी जानकारी हो चुकी थी। बस! दोस्त रह गए थे, जिन्हें बताया जाना बाकी था। इसकी शुरुआत आफिस से ही होनी थी। पौने दस बजे के आसपास मैं घर से आफिस के लिए निकला। आफिस से महज पचास कदम पहले रास्ते में ही मिठाई की दुकान पड़ती है, सो मैं सीधे वहीं जा धमका। दो मिनट सोचता रहा कि क्या लिया जाए, फिर आधा किलो छोटे वाले रसगुल्ले लिए और चढ़ने लगा आफिस की सीढि़यां।
आफिस में सबसे पहले हमारा इंचार्ज पहुंचता था। सो, मैं सीधे इंचार्ज के कक्ष में पहुंचा और रसगुल्ले का डिब्बा खोलकर सामने कर दिया। साथ ही विनम्रता से कहा - "भाई साहब! लीजिए मुंह मीठा कीजिए।"

इंचार्ज के चेहरे पर मुस्कान के साथ सवाल भी तैरने लगे। फिर मेरी तरफ मुखातिब हो बोला- "किस खुशी में कुकरेती जी।"

"भाई साहब! सगाई की खुशी में" - मैं बोला।

इंचार्ज ने फिर व्यग्रता से पूछा- "किसकी?"

"जी भाई साहब! मेरी" - मैंने कहा।

यह सुनते ही इंचार्ज ऐसे उछला, मानो 440 वोल्ट का  करंट लगा हो। फिर स्वयं को संयत करते हुए बोला- "पर कब?"

"भाई साहब! कल"- मैंने कहा।

"कल? पर किस वक्त? दिनभर तो आप यहां से हिले ही नहीं"- इंचार्ज ने पूछा।

जी लंच टाइम में मैं सीधे लड़की के घर ही चला गया था- "मैंने कहा।"
"क्या...? वाह! कुकरेती जी...मान गया आपको। छुपे रुस्तम निकले आप तो। कब बात हुई, कब मुलाकात हुई और कब सगाई...किसी को हवा तक नहीं लगी" - इंचार्ज ने कहा।

"बस! भाई साहब, बन गया ऐसा ही संयोग" - मैंने कहा।

"बधाई हो यार! बहुत-बहुत बधाई!" - इंचार्ज ने एक रसगुल्ला मुंह में डालते हुए कहा।

तब तक अन्य साथी भी आफिस पहुंच चुके थे। सारे ही मुझे कौतुहलभरी निगाहों से देख रहे थे। खैर! सभी ने मुंह मीठा किया और साथ में दावत की भी डिमांड कर दी। मैंने वादा किया कि जल्द बैठेंगे।

एक और महत्वपूर्ण बात, जो आज तक मैंने किसी को भी नहीं बताई। मुझे जरूरी भी नहीं लगा इसे किसी से साझा करना। पर, आज जब अतीत की सुनहरी यादें ताजा हो रही हैं तो जरूरी हो जाता है कि मैं "खुली किताब" हो जाऊं। दरअसल, जब मेरी सगाई की बात चल रही थी तो सीन में सिर्फ रजनी ही नहीं थी। दो और लड़कियां भी मेरे जीवन में प्रवेश करना चाहती थीं। हालांकि, मैंने तय कर लिया था कि शादी तो रजनी से ही करनी है। लेकिन, किसी लड़की को सीधे ना भी तो नहीं कहा जा सकता था।
पहली लड़की कोटद्वार-भाबर की ही रहने वाली थी। नाम तो अब याद नहीं रहा, पर वो पहाड़ के किसी राजकीय प्राथमिक विद्यालय में टीचर थी। गर्मियों की छुट्टियां पड़ रही थीं, इसलिए उसे कोटद्वार आना था। रिश्ते की बात आगे बढे़, इसके लिए उसने अपने घर वालों की अनुमति से मुझे संदेश भेजा था कि शाम पांच बजे के आसपास होटल "हाट एंड कोल्ड" में मिल जाना। मैं गया भी, लेकिन फिर अचानक मन में विचार आया कि, "छोड़ यार! क्या मिलना है। वैसे भी हमारी पटरी नहीं बैठने वाली। मैं खानाबदोश पत्रकार और वो सरकारी शिक्षक। दोनों ही घर में वक्त नहीं दे पाएंगे। किसी भी स्थिति में हमारी राह एक नहीं हो सकती। कमाई को लेकर भी। इसलिए बेहतर होगा कि अपनी राह लौट जाऊं।" इसके बाद मैं वापस लौट गया। वो आई या नहीं, मैंने पता करने की भी कोशिश नहीं की।

दूसरी लड़की के परिवार वालों से भी किसी करीबी ने ही बात चलाई थी। यह परिवार राजस्थान में रहता था और उन दिनों रिश्तेदारी में कोटद्वार आया हुआ था। लड़की राजस्थान में ही किसी अच्छे प्राइवेट स्कूल में टीचर थी और सरकारी नौकरी की तैयारी कर रही थी। मजा देखिए कि लड़की और उसके परिवार वाले, दोनों ही खुले मन से रिश्ते के लिए तैयार थे। पर, ईमानदारी से कहूं तो यहां भी मेरी दाल नहीं गलनी थी। इसलिए उनके आग्रह को मैं स्वीकार नहीं कर पाया। ऐसे में घर वाले तो चाहकर भी कुछ नहीं बोल सकते थे।

खैर! शादी की मुझे जल्दी नहीं थी और रजनी को भी नहीं। इसके कई कारण थे, जिन पर आगे रोशनी डालूंगा। हजारों किस्से हैं सुनाने के लिए, जिन्हें आहिस्ता-आहिस्ता आपकी नजर करूंगा। फिलहाल तो नींद के आगोश में जाने का वक्त हो गया है। मैं जानता हूं कि मेरे किस्सों को पढ़ने की चाह में आपको भी इतनी देर जागना पड़ता है, पर मितरों! इसमें न मेरा दोष है, न आपका ही। यह तो एक-दूसरे के प्रति हमारा स्नेह है। ये स्नेह यूं ही बना रहे। चलिए! अब सो जाते हैं। शुभ रात्रि।

इन्‍हें भी पढ़ें : 

--------------------------------------------------------------

(Part - Three)

Engagement rasgullas and those two meetings
-----------------------------------------------------------
Dinesh Kukreti
The engagement was done, but the friends were not even aware of it.  Yes!  The laddoos were definitely distributed in the neighborhood.  There was also information about kinship.  Bus!  Friends were left, which were yet to be told.  It had to start from the office itself.  Around ten o'clock I left home for the office.  Just fifty steps before the office, there is a sweet shop on the way, so I threatened to go straight there.  For two minutes he kept thinking about what to take, then took half a kilo of small rasgullas and started climbing the stairs of the office.
Our in-charge used to reach the office first.  So, I went straight to the in-charge's room and opened the box of rasgulla and put it in front.  At the same time politely said, "Brother! Take sweet your mouth."

With a smile on the face of the incharge, questions started floating.  Then he turned to me and said - "In what happiness Kukreti ji."

"Brother! In the joy of engagement" - I said.

The in-charge again asked anxiously - "Whose?"

"Yes brother! Mary" - I said.

On hearing this, the charge jumped as if a current of 440 volts was applied.  Then restraining himself he said - "But when?"

"Brother! Tomorrow"- I said.

"Tomorrow? But at what time? You haven't moved from here all day long," asked the in-charge.

Yes, I went straight to the girl's house in lunch time - "I said."

"What...? Wow! You agreed. When did we talk, when did we meet and when did we get engaged...no one even got air" - said the in-charge.

"That's it! Brother, it has become such a coincidence" - I said.

"Congratulations man! Many congratulations!"  - The incharge said while putting a rasgulla in his mouth.

By then other companions had also reached the office.  Everyone was looking at me with curious eyes.  Well!  Everyone sweetened their mouths and together demanded a feast.  I promised to sit soon.

Another important thing, which till date I have not told anyone.  I didn't even feel it necessary to share it with anyone.  But today, when the golden memories of the past are being refreshed, it is necessary that I become an "open book".  Actually, when the talk of my engagement was going on, it was not only Rajni in the scene.  Two more girls also wanted to enter my life.  However, I had decided that I have to marry Rajni only.  But, a girl could not be called straight either.

The first girl was a resident of Kotdwar-Bhabar.  Can't remember the name now, but she was a teacher in a government primary school in the mountain.  It was summer vacations, so he had to come to Kotdwar.  For the matter of the relationship to go ahead, for this he had sent me a message with the permission of his family members to meet him in the hotel "Hot and Cold" around 5 pm.  I went too, but then suddenly a thought came in my mind that, "Chod man! What to meet. Anyway, we will not be able to keep track of me. I am a nomadic journalist and that government teacher. Both will not be able to spend time at home. In any case.  Our path cannot be the same. Even with respect to earning. So it is better to go back to my path."  After that I went back.  I didn't even try to find out if she came or not.

Someone close to the other girl's family members also talked about it.  This family lived in Rajasthan and in those days had come to Kotdwar in relation.  The girl was a teacher in a good private school in Rajasthan itself and was preparing for a government job.  It is fun to see that both the girl and her family were ready for a relationship with an open mind.  But, to be honest, my pulse was not to be melted here too.  So I could not accept his request.  In such a situation, the people of the house could not say anything even if they wanted to.

Well!  I was in no hurry to get married and neither was Rajni.  There were several reasons for this, which I will shed light on later.  There are thousands of tales to narrate, which I will slowly look at you.  For now, it is time to go to sleep.  I know you have to stay awake for so long to read my stories, but friends!  It's neither my fault nor yours.  This is our love for each other.  May this love remain the same.  Let go!  Now go to sleep.  good night.

Friday, 25 June 2021

12-06-2021 (Memorable engagement, memorable day)


google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0

(भाग - दो)

यादगार सगाई, यादगार दिन

---------------------------------

दिनेश कुकरेती

11 जून 2000। यह मेरे जीवन का अविस्मरणीय दिन तो है ही, अब लगता है मेरे जैसे लोगों के लिए प्रेरणा का दिन भी है। जब कभी अकेले में इस दिन को याद करता हूं तो अपने आप पर हंसी आ जाती है और गर्व भी होता है। किस्सा यूं है। दस जून 2000 शाम करीब साढ़े सात बजे को रजनी के घर से संदेश मिला कि उसके माता-पिता व दादी हमारी तुरंत सगाई करना चाहते हैं। इसके लिए कल 11 जून की तारीख तय हुई है। इन दिनों हल्द्वानी से रजनी के बडे़ मामाजी भी आए हुए हैं और आगे लंबे समय तक कोई शुभ मुहूर्त भी नहीं है। साथ ही वो भीड़ भी नहीं जुटाना चाहते थे। हमारी भी ऐसी ही राय थी, लेकिन थोडा़-बहुत तैयारी तो करनी ही थी।

संयोग से मेरे घर में तब लैंडलाइन फोन लग चुका था, इसलिए पंडितजी, मौसी व द्वारिका भाई को संदेश भेज दिया 11 तारीख को सुबह सगाई के लिए चलना है। आठ-दस दिन का समय मिला होता तो कुछ खरीदारी भी करते, लेकिन यहां तो महज कुछ घंटे का समय मिल रहा था। खैर! जाना तो था ही। हालांकि, मैंने घर में स्पष्ट कह दिया था कि मैं दोपहर दो बजे के बाद आफिस से सीधे वहां पहुंचूंगा। तब तक आप लोग सारी औपचारिकताएं निभा लेना। मेरा ऐसा कहने के पीछे दो कारण थे। एक तो मेरा इंचार्ज छुट्टी देने में रोता था, दूसरा मैं ढिंढोरा नहीं पीटना चाहता था।














11 जून को मैं तो सुबह साढे़ नौ बजे के आसपास आफिस के लिए निकल पडा़। विशेष सज-धजकर नहीं, बल्कि वही रुटीन के कपडो़ं में। नए जूतों में नहीं, बल्कि रुटीन में इस्तेमाल होने वाली सैंडिल में। हल्की दाढी़ में। हां! इतना जरूर था कि मैंने रुटीन के कपडो़ं को स्त्री करके चमका दिया था। दस-सवा दस बजे के आसपास घर से पिताजी, छोटी बहन, मंजू मौसी, द्वारिका भाई व पंडित जी भी मेरी होने वाली ससुराल के लिए निकल पडे़। ठीक से तो याद नहीं, लेकिन संभवत: सभी द्वारिका भाई की कार में या आटो बुक कर वहां गए थे। सामान्य आदमी के इंतजाम ऐसे ही होते हैं।

खैर! ठीक ढाई बजे मैं आफिस में अपने इंचार्ज को यह बताकर कि भोजन करने जा रहा हूं, ससुराल के लिए निकल पडा़। चिलचिलाती धूप आग बरसा रही थी। आफिस से महज 50 मीटर दूर झंडाचौक तक जाते-जाते मैं पसीने से तर-ब-तर हो गया। सो, मैं पैदल जाने का विचार त्यागा और रिक्शे में सवार हो गया। बता दूं कि उस दिन मैं पहली बार रिक्शे की सवारी कर रहा था। मेरे ससुराली तब जल निगम कालोनी में रहते थे। वहीं उनको सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था। कालोनी के गेट पर पहुंचते ही मैं रिक्शे से उतर गया, ताकि मुझ पर किसी की नजर न पडे़ और कह सकूं कि आटो से आया हूं। थोडा़ स्टैंडर्ड तो मेन्टेन करना होता ही है।

गेट से रजनी के घर की दूरी भी 50-60 मीटर के आसपास रही होगी। मैं पसीने से पूरी तरह भीग चुका था। इसलिए जब मैं उनके घर में पहुंचा तो उनके मेहमान ऐसे देखने लगे, जैसे मैं कोई अजूबा होऊं। मैंने महसूस किया कि मेरी दयनीय स्थिति ने उन्हें सोचने के लिए मजबूर कर दिया था। कोई सजावट न बनावट। उस पर चप्पलों में। वो क्या सोच रहे होंगे, मुझे इसकी कतई परवाह नहीं थी। क्योंकि रजनी मुझे अच्छी तरह पहचान गई थी। बहरहाल! दसेक मिनट आराम करने के बाद अंगूठी पहनाने की रस्म पूरी हुई और फिर भोजन की तैयारी होने लगी।

भोजन हो चुका था और अब मैं आफिस लौटने के लिए तैयार था। सो मैंने सबसे विदा ली और निकल पडा़ आफिस की राह। गेट पर पहुंचते ही मैंने अंगूठी निकालकर जेब में रखी और माथे पर से पिठाई (तिलक) को रुमाल से साफ कर दिया। मैं नहीं चाहता था कि आफिस में किसी को सगाई के बारे में पता चले। आफिस पहुंचते-पहुंचते मैं फिर पसीने से भीग चुका था। लेकिन, खुशी थी जीवन की एक महत्वपूर्ण सीढी़ चढ़ चुका हूं। खैर! फिर में काम में जुट गया।

मितरों, कहानी अभी काफी लंबी है और रोमांच से भी भरपूर। क्लाइमेक्स पर पहुंचते-पहुंचते आपको आनंद आ जाएगा। पर, इस सबके लिए आपको कल तक का इंतजार करना पडे़गा। फिलहाल तो मेरी यही गुजारिश है कि आप भी नींद के आगोश में चले जाएगा। मेरी भी आंखें बोझिल हुई जा रही हैं। और... फिर सपना भी तो देखना है, पहले मिलन की उन मधुर यादों का।...तो कल फिर मिलते हैं इसी समय, इसी अंदाज में। खुदा हाफिज!!

(जारी......)

12-06-2021

--------------------------------------------------------------

(Part - Two)

Memorable engagement, memorable day

-----------------------------------------------------

Dinesh Kukreti

11 June 2000.  Not only is it an unforgettable day in my life, it seems that it is also a day of inspiration for people like me.  Whenever I remember this day alone, I laugh at myself and feel proud.  The story is like this.  On June 9, 2000, a message was received from Rajni's house that her parents and grandmother wanted us to get engaged immediately.  For this, the date of June 11 has been fixed after two days.  These days Rajni's elder maternal uncle has also come from Haldwani and there is no auspicious time for a long time.  At the same time, he did not want to mobilize the crowd.  We had the same opinion, but a little preparation had to be done.

Incidentally, a landline phone was installed in my house at that time, so sent a message to Panditji, Aunt and Dwarka Bhai to go for engagement on 11th morning.  If I had got eight-ten days' time, I would have done some shopping too, but here I was getting only one day's time.  Well!  Had to go.  However, I had clearly stated at home that I would reach there directly from the office after 2 pm.  Till then you guys should complete all the formalities.  I had two reasons for saying this.  One, my in-charge used to cry while giving leave, secondly, I did not want to bang the drums.

On June 11, I left for the office around 9.30 in the morning.  Not in special decorations, but in the clothes of the same routine.  Not in new shoes, but in sandals used in routine.  Light beard.  Yes!  It was so necessary that I had brightened the routine clothes by making them feminine.  Around 10.15 am, my father, younger sister, aunt, Dwarka Bhai and Pandit ji also left for my future in-laws' house.  Can't remember exactly, but probably everyone went there in Dwarka Bhai's car or booked an auto.  Such are the arrangements for the common man.

Well!  At exactly two o'clock, I left for my in-laws' house after telling my in-charge in the office that I was going to have food.  The scorching sun was raining fire.  I was drenched with sweat on my way to Jhanda Chowk, just 50 meters away from the office.  So, I dropped the idea of ​​going on foot and got into the rickshaw.  Let me tell you that that day I was riding a rickshaw for the first time.  My in-laws then lived in Jal Nigam Colony.  There they got the government quarters. As soon as I reached the gate of the colony, I got down from the rickshaw, so that no one could see me and say that I have come by auto.  Some standards have to be maintained.

The distance of Rajni's house from the gate would also have been around 50-60 meters.  I was completely drenched in sweat.  So when I reached his house, his guests started looking at me as if I were a wonder.  I realized that my pathetic condition had made them think.  No decorations or textures.  In slippers on it.  I didn't care what they were thinking.  Because Rajni knew me well.  However!  After resting for ten minutes, the ritual of wearing the ring was completed and then the food preparation started.

The meal was done and now I was ready to return to the office.  So I bid farewell to everyone and set out on the road to the office.  As soon as I reached the gate, I took out the ring and kept it in the pocket and cleaned the pithai (tilak) from the forehead with a handkerchief.  I didn't want anyone in the office to know about the engagement.  By the time I reached the office, I was again drenched with sweat.  But, there was happiness that I have climbed an important ladder of life.  Well!  Then I got to work.

Friends, the story is still very long and full of adventure.  You will be delighted by the time you reach the climax.  But, for all this you will have to wait till tomorrow.  For the time being, my only request is that you too will go into the lap of sleep.  My eyes are getting heavy too.  And... then you have to dream too, of those sweet memories of the first meeting. ... So see you again tomorrow at the same time, in the same style.  Khuda Hafiz!!

(To be continued......)

12-06-2021

Thursday, 24 June 2021

11-06-2021 (Historic day of happiness)

(भाग - एक)
खुशी का ऐतिहासिक दिन
-----------------------------
दिनेश कुकरेती
जून की 11 तारीख मेरे जीवन में खास मायने रखती है। मेरे लिए यह सेलिब्रेशन का दिन है। आज ही के दिन 21 वर्ष पूर्व हमारी सगाई हुई थी और हम एक हो गए थे। हालांकि, इस शानदार दिन को मैं हमेशा भूल जाता हूं और रजनी ही मुझे याद दिलाती है। आज भी रजनी ने ही याद दिलाया। मुझे अफसोस तो हुआ, लेकिन किया कुछ नहीं जा सकता था। सिवाय इसके कि मैं भविष्य में इस दिन को याद रखने का न सिर्फ संकल्प लूं, बल्कि सचमुच इस दिन को याद भी रखूं। वैसे सच कहूं तो हर साल मेरे साथ यही होता है। बस! रजनी थोडा़ नाराज होती है और फिर मेरी परिस्थितियों को समझते हुए मुझे माफ कर देती है।

























ऐसा नहीं कि आगे-पीछे मुझे यह दिन याद नहीं रहता। रहता है, पर हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि ऐन मौके पर भूल जाता हूं। आज भी सुबह तक मुझे याद था। सोच रहा था फोन करके पहले मैं ही रजनी को शुभकामनाएं दूंगा, लेकिन फिर बात दिमाग से ही उतर गई। इसलिए जब दोपहर बारह बजे के आसपास मैंने रजनी को फोन किया तो हमेशा की तरह रोजमर्रा की चर्चा में मशगूल हो गया। उसे तो सब-कुछ याद था, सो मुझसे सवाल करते हुए बोली- "आज क्या है, कुछ याद भी है?"

मैंने जवाब देने के बजाय उल्टे सवाल दागा- "तू ही बता क्या है?"

वो फिर बोली- "क्या कुछ याद नहीं है आपको?"

मैंने कहा- "अब बता भी दे?" हालांकि, मुझे एहसास होने लगा था कि मैं जरूर कुछ भूल रहा हूं।

वो व्यंग्यात्मक लहजे में बोली, "आपकी सगाई हुई थी शायद?"

उसके मुंह से यह सुनते ही मुझे सब-कुछ याद हो आया। ग्लानि भी होने लगी कि कैसा आदमी हूं मैं, जो खुशी के पल भी याद नहीं रख पाता।

खैर! अब हो क्या सकता था, सो मैंने रजनी को बधाई दी और समझाया कि भागादौडी़ की जिंदगी में कुछ भी याद नहीं रहता, सिवाय काम के। उस पर इस कोरोना महामारी ने तो सोचने-समझने की शक्ति ही छीन ली है। अब वो भी समझ गई थी कि मेरा नहीं परिस्थितियों का दोष है, इसलिए बधाई देते हुए बोली- "आज क्या खास बना रहे हो? मैंनै तो बच्चों के लिए मिल्क शेक बनाया था।"

मैंने कहा, "बस! हो तो गया, जब मैं घर आऊंगा, मेरे लिए भी बना देना। फिलहाल तो मैं दाल-रोटी बना रहा हूं।"

"ठीक है, पर अपने लिए भी कभी फ्रूट्स वगैरह भी ले आया करो। आप तो कभी लाते ही नहीं हो"- रजनी ने कहा।

मैं बोला- "ले आऊंगा भई।"

इसके बाद काफी देर इधर-उधर की बातें हुई। बच्चों की पढा़ई, घर का खर्चा, स्वास्थ्य, दिनचर्या वगैरह-वगैरह। फिर रजनी ही बोली- "काफी देर हो गई है। मैं भी खाना बनाती हूं। छोटे को तो बिल्कुल ठंडा खाना चाहिए। नहीं तो मुझे ही खाने दौडे़गा।"
मैंने कहा- "ठीक है फिर। रख दे अब फोन, मैं भी अब भोजन कर रहा हूं।" उधर से रजनी ने और इधर से मैं "बाय" कहा और फोन रख दिया।

इस तरह हमने जीवन के इस खास दिन को इंज्वाय किया। वो भी खुश और मैं खुश। संघर्ष में यही तो मजा है, इन्सान को खुशी के दो पल भी बहुत लंबे लगते हैं। बहरहाल! इसके बाद मैंने भोजन किया और आफिस की राह पकड़ ली। रात साढे़ दस बजे मैं वापस कमरे में लौटा। इस समय रात के पौने एक बज रहे हैं और मैं डायरी लिखने में मशगूल हूं।

मितरों! जब सगाई का यह खास दिन सेलिब्रेट हो ही रहा है तो मन कर रहा है कि क्यों न मैं वह किस्सा भी आपको सुना दूं, जिसने खास मेरे लिए इस दिन को ऐतिहासिक बना दिया। यकीन जानिए, आपको भरपूर आनंद आएगा और ऐसा किस्सा पहले आपने कभी सुना भी नहीं होगा । लेकिन...आज नहीं, इसके लिए आपको कल तक का इंतजार करना पडे़गा। तब तक के लिए मुझे इजाजत दीजिए, नमस्कार!! शुभरात्रि!!

(जारी......)
11-06-2021
--------------------------------------------------------------

(Part - one)

Historic day of happiness
---------------------------------
Dinesh Kukreti
The 11th of June holds a special significance in my life.  For me it is a day of celebration.  On this day 21 years ago we got engaged and we became one.  However, I always forget this wonderful day and it is Rajni who reminds me.  Even today Rajni reminded me.  I am sorry, but nothing could be done.  Except that I not only resolve to remember this day in future, but also really remember this day.  Well to be honest, this happens to me every year.  Bus!  Rajni gets a little annoyed and then understands my circumstances and forgives me.

























It's not that I don't remember this day back and forth.  It happens, but the situation becomes such that I forget at the last moment.  I still remember till this morning.  I was thinking that I would give best wishes to Rajni first by calling, but then the matter went out of my mind.  So when I called up Rajni around 12 noon, I got engrossed in my day-to-day discussions as usual.  He remembered everything, so while asking me, he said - "What is it today, do you remember anything?"

Instead of answering, I asked the opposite question - "What are you telling me?"

She said again - "Don't you remember anything?"

I said- "Now tell me too?"  However, I was beginning to realize that I must be forgetting something.

She said in a sarcastic tone, "Maybe you were engaged?"

Hearing this from his mouth, I remembered everything.  I also started feeling guilty that what kind of a person am I, who cannot remember even the happy moments.

Well!  Now what could have happened, so I congratulated Rajni and explained that nothing is remembered in Bhagadaudi's life except work.  On him, this corona epidemic has taken away the power to think and understand.

Now she also understood that it is not my fault but the circumstances, so while congratulating she said - "What are you making special today? I had made milkshake for the children."

I said, "That's it! It's gone, when I come home, make it for me too. Right now I'm making lentils and roti."

"Okay, but do bring some fruits for yourself as well. You never bring them" - said Rajni.

I said- "I will bring it."

After that, things happened here and there for a long time.  Children's education, household expenses, health, routine, etc., etc.  Then Rajni only said- "It is too late. I also cook. The little one should eat very cold. Otherwise I will have to run to eat."

I said- "Okay then. Keep the phone now, I am also having food now."  From there Rajni and from here I said "bye" and hung up the phone.

This is how we enjoyed this special day of life.  He is happy and I am happy.  That's the fun in struggle, even two moments of happiness take a long time.  However!  After this I had my meal and took my way to the office.  I returned to the room at ten.30 pm.  It is now quarter past one and I am busy writing my diary.

Friends!  When this special day of engagement is about to be celebrated, I feel like I should also tell you the anecdote which made this special day historic for me.  Know for sure, you will enjoy a lot and you have never heard such a story before.  But...not today, for that you will have to wait till tomorrow.  Till then allow me, hello!!  good night!!

 (To be continued......)

  11-06-2021


Wednesday, 23 June 2021

08-06-2021 (वो पहली मुलाकात)

google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0
वो पहली मुलाकात---------------------
दिनेश कुकरेती
21 साल पहले की बात है, जून की आठ तारीख थी, जब रजनी से मेरी पहली बार मुलाकात हुई। तब मैं अमर उजाला में रिपोर्टर हुआ करता था। घर वालों के हिसाब से उम्र बीती जा रही थी, इसलिए मेरी शादी में अब वे और विलंब नहीं करना चाहते थे। मैंने भी तय कर लिया था कि अब घर वालों से इस विषय में कोई तर्क-वितर्क नहीं करूंगा। मौसी ने मेरे लिए यह रिश्ता ढूंढा था। संयोग से मैंनै रजनी को पहले से ही देखा हुआ था। लेकिन, घर वालों ने तय किया कि आठ जून को लड़की देखने जाना है। इसके लिए सुबह का वक्त तय किया गया।

आठ जून सुबह दस बजे के आसपास हम रजनी के घर पहुंचे। मेरी बहन तो उसे देखते ही बोली- "तू ही मेरी भाभी बनेगी"। लेकिन, मैं बिना उसकी इच्छा के कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था। सो, मैंने रजनी से बात करने की इच्छा जाहिर की। हमारी पांच-सात मिनट बात हुई। मैंने उससे स्पष्ट कह दिया कि मुझे बस! गुजर लायक ही पैसा मिलता है। हां! आने वाले समय में स्थिति सुधरना तय है। वह कुछ नहीं बोली। इसके बाद हम वापस लौट गए। उस दिन बारिश हो रही थी, इसलिए मेरे पास छाता भी था। सो, मैं सीधे आफिस चला गया।

यह वह दौर है, जब सप्ताह में सातों दिन की नौकरी होती थी। इस बीच मैं हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के बिड़ला परिसर से बीजेएमसी (बैचुलर आफ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन) की डिग्री ले चुका था। अब यह तय था कि मुझे पत्रकारिता में ही करियर बनाना है। इसलिए कम पैसे भी मुझे संतुष्टि प्रदान करते थे। खुशकिस्मती से तब मैं खबरें लिखने और खबरों के संपादन में महारथ हासिल कर चुका था। बस! अब विचार था कि दिल्ली, मेरठ या देहरादून की राह पकडी़ जाए। कोटद्वार से नजदीक होने के कारण देहरादून मेरी प्राथमिकता में था। लेकिन फिलहाल तो शादी करनी थी और यह रजनी की "हां" पर निर्भर था।

आज इस किस्से को मैं यहीं पर विराम दे रहा हूं। आगे क्या हुआ, रजनी ने "हां" कही या "ना", इसकी जानकारी मैं अगली किश्तों में दूंगा। हां! एक बात जो मुझे आपको बतानी है, वह यह कि उस दिन रजनी के घर मेरे साथ, छोटी बहन के अलावा पिताजी, मौसी व द्वारिका भाई भी गए थे। द्वारिका भाई मेरी बुआ के सबसे बडे़ लड़के हैं। बहरहाल! हमेशा की तरह रात काफी हो चुकी है और मेरे सोने का वक्त भी हो गया है। मैं जानता हूं कि इस समय आप भी मुझे झेल रहे हैं। इसलिए, माफी के साथ शुभरात्रि!!

और हां! सोने से पहले मैंने अपनी डायरी में दर्ज किया- आठ जून 2000। आज पहली बार मैं किसी लड़की को देखने गया, विवाह के उद्देश्य से। साथ ही गंभीर होकर भी। मुझे लड़की पसंद है। हालांकि, अभी मैं उसके परिवार के बारे में कुछ भी नहीं जानता। अलबत्ता मैंने उसे देखा कई बार है, कॉलेज जाते हुए। कॉलेज से लौटते हुए। इतना जरूर पता है कि वह एमए अंग्रेजी अंतिम वर्ष में पढ़ रही है। लेकिन, अभी यह स्पष्ट नहीं है कि वह मुझसे शादी करेगी भी या नहीं। उसने कहा है कि शीघ्र जवाब दे दूंगी। खैर! बाकी खुदा की मर्जी...।

इन्‍हें भी पढ़ें : 

--------------------------------------------------------------

That first meeting

------------------------

Dinesh Kukreti

It was 21 years ago, on the 8th of June, when I met Rajni for the first time.  Then I used to be a reporter in Amar Ujala.  According to the family members, the age was passing, so they did not want to delay my marriage any more.  I had also decided that now I will not argue with the family members in this matter.  Aunty had found this relationship for me.  Incidentally, I had already seen Rajni.  But, the family members decided that on June 8, they had to go to see the girl.  For this the morning was fixed.

We reached Rajni's house on June 8 around 10 am.  My sister said on seeing her - "You will become my sister-in-law".  But, I was not in a position to say anything without his wish.  So, I expressed my desire to talk to Rajni.  We talked for five to seven minutes.  I told him clearly that I just  The money is worth passing.  Yes!  The situation is sure to improve in the coming times.  She did not say anything.  After that we went back.  It was raining that day, so I had an umbrella.  So, I went straight to the office.

This is the time when there was a job seven days a week.  Meanwhile, I had completed my BJMC (Bachelor of Journalism and Mass Communication) degree from Birla Campus of Hemvati Nandan Bahuguna Garhwal University.  Now it was decided that I had to make a career in journalism.  So even less money used to give me satisfaction.  Luckily then I had mastered the news writing and news editing.  Bus!  Now the idea was to find the way to Delhi, Meerut or Dehradun.  Due to its proximity to Kotdwar, Dehradun was my priority.  But for the time being it was to be married and it was up to Rajni's "yes".

Today I am stopping this story right here.  What happened next, whether Rajni said "yes" or "no", I will give information about it in the next installments.  Yes!  One thing that I want to tell you is that that day, apart from my younger sister, my father, aunt and Dwarka brother had gone to Rajni's house with me.  Dwarka Bhai is the eldest son of my aunt.  However!  As always, it's night enough and it's time for me to sleep.  I know that you are also bearing me right now.  So, goodnight with apologies!!

And yes!  Before sleeping I wrote in my diary – 8th June 2000.  Today for the first time I went to see a girl, for the purpose of marriage.  And also being serious.  I like the girl.  However, right now I don't know anything about his family.  Although I have seen him many times, while going to college.  Returning from college.  What is definitely known is that she is studying in the final year of MA English.  But, it is not clear yet whether she will marry me or not.  She has said that she will reply soon.  well!  The rest is God's will.