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Monday, 16 May 2022

16-05-2022 (किताबों की बातें)





















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किताबों की बातें
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दिनेश कुकरेती
मैक्सिम गोर्की का हर उपन्यास अपने आप में अनूठा होता है। उनकी कहानियां भी मैंने खूब पढी़ हैं। सभी संघर्ष की प्रेरणा देती हैं। यही कारण है कि मुझे आज भी उनकी पुस्तकों की तलाश रहती है। इसके साथ ही अमरीका के महान उपन्यासकार एवं लेखक हावर्ड फास्ट की पुस्तकें 'आदि विद्रोही', 'मुक्तिमार्ग' आदि भी मेरे पसंदीदा उपन्यास रहे हैं। इन्हें पढ़कर मुझे विश्व इतिहास को जानने-समझने का मौका मिला। क्यूबा की क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना के मार्क्सवादी क्रांतिकारी अर्नेस्तो चे गेवारा (Ernesto Che Guevara) तो मेरे रोल माडल हैं। उनके संघर्षों को पढ़कर ऐसा लगता है, जैसे उनसे साक्षात्कार हो रहा हो। उन्नीसवीं सदी के सर्वाधिक सम्मानित लेखकों में शुमार लेव निकोलायेविच तोलस्तोय (लियो टाल्स्टाय) के उपन्यास 'युद्ध और शांति' व 'पुनरुत्थान' भी अद्भुत हैं।

यह मेरे जीवन का महत्वपूर्ण दौर था। किसी दिन मुझे कुछ नया पढ़ने को नहीं मिलता तो मन उदास हो जाता था। नई पुस्तक हाथ लगने पर मैं भोजन करना तक भूल जाता था। यहां तक कि मां की गलियों का भी मुझ पर कोई असर नहीं होता था। सृंजय का उपन्यास 'कामरेड का कोट', यशपाल का 'दादा कामरेड', अवतार सिंह संधु 'पाश' का कविता संग्रह 'बीच का रास्ता नहीं होता', फिदेल कास्त्रो की पुस्तक 'चे ग्वेरा की याद में', अलेक्जेंडर (अलेक्सांद्र) पुश्किन का उपन्यास 'बदला', 'काव्य कानन' और 'इवान बेल्किन की कहानियां', जान रीड की पुस्तक 'दस दिन जब दुनिया हिल उठी', फ्रेडरिक एंगेल्स की 'वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका' व 'परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति', कार्ल मार्क्स व फ्रेडरिक एंगेल्स का 'कम्युनिस्ट घोषणा पत्र' जैसी अनूठी पुस्तकें मैंने उसी दौर में पढी़ं।

मैंने भी गाए गीत

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शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह, राही मासूम रजा, शाहिर लुधियानवी, फै़ज़ अहमद फै़ज़, दुष्यंत कुमार, अदम गोंडवी (रामनाथ सिंह), शलभ श्रीराम सिंह, मुक्तिबोध, बाबा नागार्जुन (वैद्यनाथ मिश्र), जौन एलिया, जावेद अख्तर, सफदर हाशमी, गांधीजी, नेहरूजी, बल्ली सिंह चीमा, दूधनाथ सिंह, गोरख पांडेय, मंगलेश डबराल जैसे लेखक, कवि, शायर, उपन्यासकार एवं समालोचक भी मुझे हमेशा ही प्रिय रहे हैं। इन्हीं तमाम क्रांतिकार रचनाकारों को पढ़कर मैंने भविष्य के लिए लिखने-पढ़ने की राह चुनी। दुष्यंत कुमार, बल्ली सिंह चीमा, अदम गोंडवी, शलभ श्रीराम सिंह, बल्ली सिंह चीमा आदि की रचनाओं (कविता, गीत व गज़ल ) को तो मैं साथियों के साथ विभिन्न मौकों पर बडे़ उत्साह एवं उल्लास के साथ गाया करता था। 

साक्षरता की अलख

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ये सारे जनवादी कवि एवं गीतकार मेरे संघर्ष के साथी रहे हैं। आज भी जब कभी मन में निराशा का भाव प्रवेश करने की कोशिश करता है तो इन साथियों को मैं अपने साथ खडा़ पाता हूं। वर्ष 1990 में मुझे 'भारतीय ज्ञान-विज्ञान समिति' के साथ काम करने का मौका मिला। तब हमारी टीम ने लगभग आधा पौडी़ जिले और चमोली व टिहरी जिले के कुछ हिस्सों में नुक्कड़ नाटक व जनगीतों के माध्यम से साक्षरता की अलख जगाने का प्रयास किया। यह अभियान लगभग 40 दिन चला था। टीम में हम लगभग 14 सदस्य थे। इनमें साथी विपिन उनियाल, चंद्रशेखर बेंजवाल, योगेंद्र उनियाल, अवनीश नेगी, मुकेश नैथानी, अंजु ध्यानी व ओंमप्रकाश कवटियाल के अलावा बाकी नाम मुझे याद नहीं रहे। 

हिंदी-गढ़वाली में करते थे नाटक

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साथी चंद्रशेखर बेंजवाल व अंजु ध्यानी ने इसके लिए बाकायदा ट्रेनिंग ली थी। इसके बाद सात या दस दिन तक उन्होंने कोटद्वार के श्री गुरु राम राय स्कूल में हम बाकी साथियों को ट्रेंड किया। हम हिंदी व गढ़वाली में नाटकों की प्रस्तुति देते थे। साथी सफदर हाशमी के लिखे साक्षरता गीत 'पढ़ना-लिखना सीखो वो मेहनत करने वालों, पढ़ना लिखना सीखो वो भूख से मरने वालों' और 'क, ख, ग सीखोगे अगर, कठिन न होगी कोई डगर', 'किताबें करती हैं बातें, बीते जमाने की' को विशेष रूप से गाया करते थे। इसमें कितना आनंद आता था, शब्दों में व्यक्त कर पाना संभव नहीं है। गांव-गांव जाकर नाट्य प्रस्तुति देना, वहां की संस्कृति, परंपरा एवं खान-पान से परिचित होना मेरे जीवन की दिव्य अनुभूतियां हैं।

मेरी कुल जमा पूंजी

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मेरी खुशनसीबी है कि मुझे मशहूर कवि एवं साहित्यकार  बाबा नागार्जुन से कविताएं और जनकवि अदम गोंडवी से गज़लें सुनने का मौका, तो मशहूर नाट्यकर्मी सफदर हाशमी के साथ बैठने का भी। मशहूर चरित्र अभिनेत्री सीमा बिस्वास के साथ हमारी टीम इलाहाबाद में नुक्कड़ नाटक किया करती थी। कविता लिखने का हुनर भी मुझमें इन्हीं तमाम विभूतियों को सुन-सुनकर आया। सच कहूं तो यही सब मेरी जमा पूंजी है, जिसमें महंगाई के इस दौर में भी कमी नहीं आई है। इन दिनों मैं मैक्सिक गोर्की की 'लेव तोलस्तोय' और स्टीफेन हाकिंग की 'समय का संक्षिप्त इतिहास' पढ़ रहा हूं।


इन्हें भी पढे़ं -

अग्निदीक्षा

किताबों ने बदल दी जीवन की धारा 

सुनहरे दिन

वनवास, जो जारी है

ऐतिहासिक लालपुल

कच्‍चे नारियल (भाग-2)

कच्‍चेे नारियल (भाग-1)

अमीन की खटिया (भाग-3)

अमीन की खटिया (भाग-2)

अमीन की खटिया (भाग-1)

पत्‍थरों की बारिश

नेगीदा के साथ एक दिन

शरारती बचपन

उमस भरी रातें

ऐसी थी मेरी नानी

नानी

क्‍या ऐसे भी कोई जाता है

फूल संगरांद

रंगोत्‍सव

बर्फ की चादर ओढे हैं हिमालय के चारधाम

किताबों की दुनिया

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Things of books

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Dinesh Kukreti

Each novel of Maxim Gorky is unique in itself.  I have read a lot of his stories too.  All inspire struggle.  This is the reason why I keep looking for his books even today.  Along with this, the great American novelist and writer Howard Fast's books 'Adi Vidrohi', 'Muktimarg' etc. have also been my favorite novels.  By reading these, I got a chance to know and understand world history.  Ernesto Che Guevara, the Marxist revolutionary of Argentina, who played an important role in the Cuban revolution, is my role model.  Reading his struggles, it seems as if he is being interviewed.  The novels 'War and Peace' and 'Resurrection' by Lev Nikolayevich Tolstoy (Leo Tolstoy), one of the most respected writers of the nineteenth century, are also wonderful.

This was an important period in my life.  If I don't get to read something new someday, my mind used to get sad.  I even forgot to eat when I got a new book.  Even the streets of my mother had no effect on me.  Srinjay's novel 'Comrade Ka Kot', Yashpal's 'Dada Comrade', Avtar Singh Sandhu's Pash's collection of poems 'Beech Ka Rasta Nahi Hota', Fidel Castro's book 'In memory of Che Guevara', Alexander (Alexandra) Pushkin  The novels of 'Revenge', 'Poetry Kanan' and 'The Stories of Ivan Belkin', John Reed's 'Ten Days When the World Was Shaken', Friedrich Engels' 'The Role of Labor in From Apes to Males' and 'Family, Private Property'  I read unique books like 'The Origin of the State', 'Communist Manifesto' by Karl Marx and Friedrich Engels during that period.

I also sang

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Shaheed-e-Azam Sardar Bhagat Singh, Rahi Masoom Raza, Shahir Ludhianvi, Faiz Ahmed Faiz, Dushyant Kumar, Adam Gondvi (Ramnath Singh), Shalabh Shriram Singh, Muktibodh, Baba Nagarjuna (Vaidyanath Mishra), Jaun Elia, Javed Akhtar, Safdar  Writers, poets, poets, novelists and critics like Hashmi, Gandhiji, Nehruji, Bally Singh Cheema, Dudhnath Singh, Gorakh Pandey, Mangalesh Dabral have always been dear to me.  After reading all these revolutionary writers, I chose the path of writing and reading for the future.  I used to sing the compositions (poems, songs and ghazals) of Dushyant Kumar, Bally Singh Cheema, Adam Gondvi, Shalabh Shriram Singh, Bally Singh Cheema etc. with great enthusiasm and gaiety on various occasions with my companions.

Light of literacy

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All these democratic poets and lyricists have been the companions of my struggle.  Even today, whenever the feeling of despair tries to enter my mind, I find these companions standing with me.  In the year 1990, I got an opportunity to work with 'Indian Society of Gyan-Vigyan'.  Then our team tried to create awareness of literacy through street plays and folk songs in some parts of Pauri district and Chamoli and Tehri districts.  This campaign lasted for about 40 days.  We were about 14 members in the team.  Among them I can not remember the other names apart from fellow Vipin Uniyal, Chandrashekhar Benzwal, Yogendra Uniyal, Avnish Negi, Mukesh Naithani, Anju Dhyani and Omprakash Kavatiyal.

Used to do drama in Hindi-Garhwali

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Companions Chandrashekhar Benzwal and Anju Dhyani had taken proper training for this.  After this, for seven or ten days, he trained the rest of us at Shri Guru Ram Rai School in Kotdwar.  We used to perform plays in Hindi and Garhwali.  Literacy songs written by fellow Safdar Hashmi 'Those who work hard, learn to read and write, those who die of hunger' and 'A, B, C, if you will learn, no path will be difficult', 'Books do talk, the past'  Specially used to sing 'Zaam Ki'.  It is not possible to express in words how much joy it was.  Going from village to village, giving theatrical performances, getting acquainted with the culture, tradition and food there is a divine experience of my life.

My net worth

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I am fortunate to have the opportunity to listen to poems by famous poet and litterateur, Baba Nagarjuna and ghazals from Janakavi Adam Gondvi, and also to sit with renowned dramatist Safdar Hashmi.  Our team used to do street plays in Allahabad with famous character actress Seema Biswas.  The skill of writing poetry also came in me after listening to all these personalities.  To be honest, this is all my accumulated capital, which has not decreased even in this period of inflation.  These days I am reading 'Lev Tolstoy' by Max Gorky and 'A Brief History of Time' by Stephen Hawking.

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Sunday, 15 May 2022

15-05-2022 (अग्नि दीक्षा)

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किस्‍सागोई (13)
अग्नि दीक्षा
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दिनेश कुकरेती
मैं अपने अनुभवों के आधार पर दावे के साथ कह सकता हूं कि जिस तरह की दृष्टि इन्सान को अच्छी और वैज्ञानिक सोच वाली पुस्तकें प्रदान करती हैं, वैसी किसी और माध्यम से संभव नहीं है। किस्सागोई की पिछली किस्त में मैंने जिक्र किया था कि मुंशी प्रेमचंद, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, सव्यसाची, मोहन राकेश, सरदार भगत सिंह, राधामोहन गोकुल, यशपाल, विभूतिनारायण राय, राही मासूम रजा़, बीटी रणदिवे आदि को पढ़ने के बाद सोवियत साहित्य मेरे जीवन में प्रवेश कर चुका था। हालांकि,  सोवियत पत्रिकाएं 'स्‍पूतनिक' आदि मैं पहले ही काफी पढ़ चुका था, लेकिन साहित्य के रूप में पहली बार मैंने निकोलाई आस्त्रोवस्की (Nikolai Osteovsky) की 'अग्नि दीक्षा' पढा़। यह ऐसा अनूठा उपन्यास है, 80 वर्ष की वृद्ध काया में भी 20 साल के नौजवान जैसा जोश भर देता है। 
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इस रूसी उपन्यास How the Steel was Tempered का 'अग्नि दीक्षा' नाम से  हिंदी अनुवाद प्रसिद्ध उपन्यासकार, निबंधकार, समीक्षक एवं अनुवादक अमृत राय ने किया है। अमृत राय उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के छोटे पुत्र थे। उपन्यास का जैसा भावानुवाद उन्होंने किया, लगता है, जैसे हम मूल उपन्यास ही पढ़ रहे हैं। निकोलाई आस्त्रोवस्की स्वयं बोल्शेविक क्रांति का हिस्सा रहे हैं। एक क्रांतिकारी के रूप में उन्हें जिन-जिन कठिन चुनौतियों का सामना करना पडा़, वही इस उपन्यास का सार है। उपन्यास के मुख्य पात्र पावेल कोर्चागिन स्वयं निकोलाई आस्त्रोवस्की ही हैं। ऐसा भी दौर आया जब वे शारीरिक रूप से पूरी तरह अशक्त हो गए, लेकिन क्रांति के प्रति उनका जज़्बा जरा भी कम नहीं हुआ। उन्होंने तब कलम को हथियार बनाया और मैदान-ए-जंग में कूद पडे़।

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विडंबना देखिए कि जब आस्त्रोवस्की आधा से अधिक उपन्यास लिख चुके थे, तब पांडुलिपि आग की भेंट चढ़ गई। लेकिन, यह क्रांतिकारी कहां हार मानने वाला था। उसने स्मृति के आधार पर न केवल नष्ट हो चुकी पांडुलिपि को रिकवर किया, बल्कि उपन्यास पूरा भी कर दिखाया।  उपन्यास पूरा करने से पहले आस्त्रोवस्की दोनों आंखें गंवा चुके थे, तब पत्नी तान्या उनकी सारथी बनीं और इस तरह दुनिया की एक सर्वश्रेष्ठ रचना का जन्म हुआ। मैं अब तक साहित्य की न जाने कितनी श्रेष्ठ रचनाएं पढ़ चुका हूं, लेकिन किसी को भी 'अग्नि दीक्षा' के समकक्ष खडा़ करने का साहस नहीं जुटा पाया। आज भी मेरी धारणा यही है कि जिसने 'अग्नि दीक्षा' नहीं पढा़, कुछ नहीं पढा़। यह सब लिखते-लिखते मेरी 'अग्नि दीक्षा' को फिर से पढ़ने की भावना प्रबल हो गई है। 

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हां, 'अग्नि दीक्षा' के बाद निकोलाई आस्त्रोवस्की ने एक और उपन्यास 'तूफान के बेटे' भी लिखा। यह उपन्यास अभी मैंने पढा़ नहीं है, लेकिन देर-सबेर जरूर पढूंगा। खैर! अग्नि दीक्षा के बाद मेरी सबसे प्रिय रचना मैक्सिम गोर्की (अलिक्सेय मक्सीमविच पेश्कोव) का उपन्यास मां (Mother) है। जिसे बार- बार पढ़ने को मन करता है। बेटे के लिए मां के संघर्ष को बयां करता इससे बेहतर दूसरा उपन्यास मैंने नहीं पढा़। मैक्सिम गोर्की के ही 'मेरा बचपन', 'मेरे विश्वविद्यालय', 'जीवन की राहों पर' जैसे उपन्यासों ने भी मुझे नई दृष्टि दी। हर परिस्थिति में सही को सही और गलत को गलत कहने की ताकत मुझे इन्हीं महान रचनाओं से मिली।

(जारी...)

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बर्फ की चादर ओढे हैं हिमालय के चारधाम

किताबों की दुनिया

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Anecdote (13)

Agni Diksha

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Dinesh Kukreti

On the basis of my experiences, I can say with the claim that the kind of vision that good and scientific thinking books provide to the human being, it is not possible through any other medium.  In the previous installment of Kasagoi I had mentioned that Soviet literature came into my life after reading Munshi Premchand, Mahapandit Rahul Sankrityayan, Savyasachi, Mohan Rakesh, Sardar Bhagat Singh, Radhamohan Gokul, Yashpal, Vibhutinarayan Rai, Rahi Masoom Raza, BT Ranadive etc.  had entered.  Although I had already read a lot of Soviet magazines, for the first time in the form of literature I read Nikolai Osteovsky's 'Agni Diksha'.  This is such a unique novel, that even an 80 year old physique fills the spirit of a 20 year old young man.

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The Hindi translation of this Russian novel How the Steel was Tempered by the name 'Agni Diksha' has been done by the famous novelist, essayist, critic and translator Amrit Rai.  Amrit Rai was the younger son of the novel emperor Munshi Premchand.  The way he translated the novel, it seems as if we are reading the original novel.  Nikolai Astrovsky himself has been a part of the Bolshevik Revolution.  The arduous challenges he had to face as a revolutionary are the essence of this novel.  The main character of the novel is Pavel Korchagin himself Nikolai Astrovsky.  There came a time when he became completely disabled physically, but his passion for the revolution did not diminish in the slightest.  He then took the pen as a weapon and jumped into the Maidan-e-Jung.

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Ironically, when Astrowski had written more than half the novel, the manuscript caught fire.  But, where was this revolutionary going to give up?  He not only recovered the destroyed manuscript on the basis of memory, but also completed the novel.  Astovsky lost both eyes before completing the novel, then wife Tanya became his charioteer and thus one of the world's best works was born.  I have read so many great works of literature till now, but I could not muster the courage to equate anyone with 'Agni Diksha'.  Even today my belief is that one who has not studied 'Agni Diksha' has not studied anything.  While writing all this, the feeling of re-reading my 'Agni Diksha' has become stronger.

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Yes, after 'Agni Diksha' Nikolai Astrovsky also wrote another novel 'Sons of the Storm'.  I haven't read this novel yet, but I will definitely read it sooner or later.  So!  My favorite work after the initiation of fire is the novel Mother by Maxim Gorky (Alexey Maksimevich Peshkov).  Which he likes to read again and again.  I haven't read a better novel than this that describes a mother's struggle for her son.  Novels like 'My childhood', 'My university', 'On the paths of life' by Maxim Gorky also gave me a new perspective.  In every situation, I got the power to say right as right and wrong as wrong from these great works.

(Ongoing...)



Saturday, 14 May 2022

14-05-2022 (किताबों ने बदल दी जीवन की धारा)

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किस्‍सागोई (12)

किताबों ने बदल दी जीवन की धारा

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दिनेश कुकरेती

कामिक्स और उपन्यास पढ़ने का शौक तो मुझे था ही, धीरे-धीरे लिखने का चस्का भी लग गया। तब मैं कुछ दोस्तों के साथ म्युनिसिपैलिटी की सार्वजनिक लाइब्रेरी में भी कदम रख चुका था। लाइब्रेरी तरह-तरह की स्तरीय पुस्तकें थीं, लेकिन उन्हें पढ़ने के लिए सदस्यता लेना जरूरी था और यह मेरे लिए संभव नहीं था। हां! वाचनालय में बैठकर अखबार और पत्र-पत्रिकाएं जी-भरकर पढी़ जा सकती थीं। तब मैं संभवतः ग्यारहवीं में रहा हूंगा। अखबार और पत्रिकाओं में कविता, कहानियां व लेख पढ़कर मन करता कि काश! मैं भी लिख पाता। उस दौर में आकाशवाणी का भी मैं नियमित श्रोता हुआ करता था। आकाशवाणी नजीबाबाद का 'ग्राम जगत' और आकाशवाणी लखनऊ का 'उत्तरायण' कार्यक्रम तो शायद ही मैंने कभी छोडा़ होगा। 
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इसमें भी आकाशवाणी नजीबाबाद मुझे विशेष प्रिय था। यहां से तमाम परिचित और स्थानीय लोगों को कार्यक्रम प्रस्तुत करने का मौका मिलता था। इनमें मेरे मामाजी बृजमोहन कवटियाल भी शामिल थे। वो अक्सर गढ़वाली कविता पाठ करने आकाशवाणी जाया करते थे। उन्हें सुनकर मेरा भी मन आकाशवाणी में कविता पाठ करने का करता। सो, धीरे-धीरे मैं भी शब्द पिरोने लगा, गढ़वाली और हिंदी, दोनों भाषाओं में। पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखने कि प्रेरणा मुझे भारतेंदु हरिश्चंद्र को पढ़ते-पढ़ते मिली। हालांकि, आकाशवाणी जाना और पत्र-पत्रिकाओं में कविता-कहानी व लेख भेजना मैंने 1990 के बाद शुरू किया। इससे पूर्व तक मैं लिख तो रहा था, लेकिन सिर्फ स्वानत: सुखाय के लिए।

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आकाशवाणी और पत्र-पत्रिकाओं तक मेरी पहुंच कैसे हुई, यह एक लंबी कहानी है। इस पर आगे तफ़सील से लिखूंगा, फिलहाल तो चर्चा पुस्तको से लगाव पर ही केंद्रित कर रहा हूं। पिछले अंक में मैंने जिक्र किया था कि कामिक्स के बाद में दस-दस रुपये में बिकने वाले उपन्यासों का दीवाना हो गया था। उपन्यास एक बार हाथ में आ जाता तो आखिरी पेज तक पढ़ने के बाद ही दम लेता था। उपन्यासों के साथ मुझे राजनीति, अर्थ, विज्ञान, कला, इतिहास व सामाजिक पृष्ठभूमि से जुडी़ पत्रिकाएं भी खूब पसंद आती थीं। 'अविष्कार' और 'विज्ञान पत्रिका' का तो हर महीने मुझे बेसब्री से इंतजार रहता।

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मेरे जीवन में सबसे बडा़ बदलाव तो तब आया, जब मैं प्रगतिशील साहित्य की ओर उन्मुख हुआ। तब मैं महाविद्यालय में प्रवेश कर चुका था। वहीं मेरा संपर्क पढ़ने-लिखने वाले जनवादी छात्रों के संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया (एसएफआई) से हुआ। तब छात्र राजनीति का स्तर भी बहुत ऊंचा हुआ करता था। छात्र समाज के हर ज्वलंत मसले पर चर्चा करते और संघर्ष में भी सबसे आगे रहते थे। हम रोज शाम को किसी एक स्थान पर इकट्ठा होते और वैज्ञानिक दृष्टि से समाज और देश-काल-परिस्थितियों को समझने की कोशिश करते। मेरे अलावा तब सभी साथियों के पास अपनी व्यक्तिगत लाइब्रेरी भी हुआ करती थी। उन्हीं से सबसे पहले मुझे जनवादी साहित्य पढ़ने को मिला।

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शुरुआत में मैंने प्रो.एसएल वशिष्ठ (सव्यसाची) की पुस्तकें पढी़ं। उन्होंने छोटी-छोटी ज्ञानवर्द्धक पुस्तकें लिखी हैं। तब उन पुस्तकों की कीमत दो रुपये से लेकर दस रुपये तक हुआ करती थी। उनमें 'समाज कैसे बदलता है', 'समाज को बदल डालो', 'इंदिरा गांधी से दो बातें', 'राजीव गांधी से दो बातें', 'धर्म', 'महिलाओं से दो बातें', 'कम्युनिस्ट क्या चाहते हैं', 'नौजवानों से', 'फिल्मों से', गांव के गरीबों से, रास्ता इधर है, उत्तरार्द्ध (त्रैमासिक पत्रिका) जैसी पुस्तकें प्रमुख थीं। इन पुस्तकों ने मेरा समाज को देखने का नजरिया ही बदल डाला। फिर तो जनवादी साहित्य को पढ़ने की भूख बढ़ती ही चली गई। सरदार भगत सिंह, मुंशी प्रेमचंद, बाबा नागार्जुन, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, मोहन राकेश, ईएमएस नंबूदरीपाद आदि को इतना पढा़ कि लगने लगा मानो मैं इन सभी से व्यक्तिगत रूप से परिचित हूं। 

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इसी दौरान मेरा कमल दा (कमल जोशी) की लाइब्रेरी 'आकार' में भी आना-जाना होने लगा। उनके पास प्रगतिशील साहित्य का अकूत भंडार था। वे पुस्तकें हर किसी को नहीं देते थे और अगर देते भी तो समयावधि तय कर। लेकिन, मेरे लिए उन्होंने कभी ऐसी शर्त नहीं रखी और मैंने भी उन्हें कभी शिकायत का मौका नहीं दिया। इसके साथ ही राजनीति, अर्थशास्त्र व सामाजिक विज्ञान भी मेरे प्रिय विषय हो गए। कोई साथ दिल्ली या लखनऊ जाता तो उनसे मैं पसंदीदा लेखकों की दो-चार पुस्तकें अवश्य मंगा लेता। धीरे-धीरे मैं रूसी साहित्य की ओर उन्मुख होने लगा।

(जारी...)

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Anecdote (12)

Books changed the stream of life

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Dinesh Kukreti

I was not only fond of reading comics and novels, but gradually I also got addicted to writing.  Then I had also entered the public library of the municipality with some friends.  The library had a variety of quality books, but reading them required a subscription and that was not possible for me.  Yes!  Newspapers and magazines could be read wholeheartedly by sitting in the reading room.  Then I might have been in class XI.  I wish to read poetry, stories and articles in newspapers and magazines.  I could write too.  I used to be a regular listener of All India Radio during that period.  I would hardly have left the 'Gram Jagat' program of Akashvani Najibabad and 'Uttarayan' program of Akashvani Lucknow.

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In this too, Akashvani Najibabad was very dear to me.  From here all the acquaintances and local people used to get a chance to present the program.  Among them was my maternal uncle Brijmohan Kavatiyal.  He often used to go to All India Radio to recite Garhwali poetry.  Hearing them, I would also like to recite poetry in Akashvani.  So, gradually I also started adding words in both Garhwali and Hindi languages.  I got inspiration to write for magazines while reading Bharatendu Harishchandra.  However, I started going to All India Radio and sending poetry-story and articles to magazines after 1990.  Before this, I was writing, but only for self-satisfaction.

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How I got access to All India Radio and magazines is a long story.  I will write on this in detail, for the time being, I am concentrating the discussion only on the attachment to books.  In the previous issue, I had mentioned that after the comics, I had become crazy about novels selling for ten rupees each.  Once the novel was in hand, it would have breathed after reading till the last page.  Along with novels, I also liked magazines related to politics, economics, science, art, history and social background.  Every month I would eagerly wait for 'Avishkar' and 'Science Magazine'.

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The biggest change in my life came when I turned towards progressive literature.  Then I had entered college.  At the same time, I got in touch with the Students Federation of India (SFI), an organization of democratic students of education and writing.  At that time the level of student politics was also very high.  The students used to discuss every burning issue of the society and were also in the forefront of the struggle.  We would gather every evening at one place and try to understand the society and the country-time-situations from a scientific point of view.  Apart from me, then all the companions also had their own personal library. First of all I got to read democratic literature from him.

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In the beginning I read the books of Prof. SL Vashistha (Savyasachi).  He has written small informative books.  Then the cost of those books used to range from two rupees to ten rupees.  They include 'How society changes', 'Change society', 'Two words from Indira Gandhi', 'Two words from Rajiv Gandhi', 'Religion', 'Two things for women', 'What do communists want', '  Books like 'Naujawan Se', 'Films Se' were prominent.  These books changed the way I looked at society.  Then the hunger to read democratic literature kept on increasing.  Read Sardar Bhagat Singh, Munshi Premchand, Baba Nagarjuna, Mahapandit Rahul Sankrityayan, Mohan Rakesh, EMS Namboodiripad etc. so much that it seemed as if I was personally acquainted with all of them.

During this time, I also started visiting Kamal da's (Kamal Joshi) library 'Aakar'.  He had a vast store of progressive literature.  They did not give books to everyone and even if they did, they fixed the time period.  But, he never put such a condition for me and I also never gave him a chance to complain.  Along with this, politics, economics and social science also became my favorite subjects.  If someone went to Delhi or Lucknow with me, I would have definitely asked for two-four books of favorite authors from them.  Gradually I began to gravitate towards Russian literature.

 (Ongoing...)

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Friday, 13 May 2022

12-05-2022 (सुनहरे दिन)

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किस्सागोई (11)

सुरे दि

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दिनेश कुकरेती

भागादौडी़ भरे जीवन की व्यस्तताओं के बीच जब कभी भी थोडा़-बहुत वक्त मिलता है, किशोरवय की स्मृतियां चलचित्र की भांति आंखों में तैरने लगती हैं। तब आज के जैसे संसाधन नहीं थे। मोबाइल तो छोडि़ए, लैंडलाइन फोन तक इक्का-दुक्का घरों में ही हुआ करता था। जिनके घरों में फोन थे, उनके कालर हमेशा खडे़ रहते थे। लेकिन, हम भी उस दौर के शहंशाह थे। हमारे पास नंगे पैर दौड़ने, दोस्तों के साथ नहर में नहाने, बागीचों में चोरी-छिपे आम-लीची के फल तोड़ने, घंटों पतंग उडा़ने या कंचे खेलने, जेठ की तपती दुपहरी में किसी घने दरख्त के नीचे ताश के पत्ते फेंटने और एक रुपये में एक घंटे तक साइकिल चलाने की पूरी आजादी थी। डांट भी पड़ती थी, लेकिन उसे हम कुछ देर में ही भूल जाया करते और फिर नई शरारत शुरू हो जाती।

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मेरे साथ एक सुखद संयोग यह भी रहा कि दस-बारह साल की उम्र से ही कामिक्स पढ़ने की आदत पड़ गई थी। इंद्रजाल व डायमंड कामिक्स सीरीज की कितनी किताबें पढी़ं, ठीक-ठीक बता पाना कठिन है। मोटू-पतलू, लंबू-छोटू, चाचा चौधरी और साबू, लोथार और मैनड्रैक, द फैंटम (बेताल), बहादुर, रिप किर्बी, फ्लैश गोर्डन, गार्थ, बज्ज सायर, पिंकी, बिल्लू, श्रीमती जी, रमन, पलटू, महाबली शाका, अंकुर, दाबू, स्पाइडरमैन, सुपरमैन, नागराज, राजन-इकबाल, जासूस चक्रम, ताऊजी, लंबू-मोटू, जेम्स बांड जैसे तमाम पात्र हैं, जिन्हें मैंने जी-भरकर पढा़। इसके अलावा नंदन, चंपक, मधु मुस्कान, चंदामामा, तेनालीराम आदि भी मेरी प्रिय पुस्तकें रही। तब शहरभर में जिसके पास भी कामिक्स होती थी, उससे हम किसी न किसी तरह दोस्ती गांठ ही लेते थे।

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खास बात यह कि तब इन पुस्तकों का संरक्षक मैं ही होता था। सारे दोस्त घरवालों के डर से अपनी किताबें मेरे पास जमा कर देते थे और फिर जब भी वक्त मिलता, पढ़ने के लिए ले जाया करते। इससे मुझे सबसे ज्यादा किताबें पढ़ने को मिल जाया करती थीं। किताबों की अदला-बदली भी खूब होती थी। यानी जो किताबें मैं पढ़ लेता था, उन्हें दूसरे को देकर उससे उन किताबों को ले आता, जो मेरी पढी़ हुई नहीं होती थीं। धीरे-धीरे किताबें पढ़ने का नशा इस कदर बढ़ गया कि हम किराये पर भी किताबें लाने लगे। इसके लिए हम पैसों का इंतजाम कबाड़ बेचकर करते थे। कबाड़ इकट्ठा करने का भी हमारा निराला अंदाज हुआ करता था। हम जहां भी बिजली की टूटी तार के टुकडे़ मिलते, उठा लाते और फिर उन्हें गलाकर तांबा या एल्यूमिनियम अलग कर लेते। 

महीनेभर में हमारे पास तांबा व एल्यूमिनियम के तारों का अच्छा-खासा स्टाक जमा हो जाता। फिर हम मोटे-से पत्थर पर तार को लपेटकर उसका गोला बना लेते। इससे उसका भार बढ़ जाता था और कबाडी़ से अच्छे-खासे पैसे मिल जाते। तांबे वाले गोले के ज्यादा मिलते थे। इसके अलावा हम लोहा इकट्ठा कर भी बेचते थे। पैसे रखने की जिम्मेदारी भी मेरी ही होती थी, क्योंकि मेरे पास एक-एक पाई सुरक्षित रहती थी। समय के साथ कामिक्स के बजाय उपन्यास पढ़ने का चस्का लग गया। सुरेंद्र मोहन पाठक, वेदप्रकाश शर्मा, कर्नल राणा, वेद प्रकाश कांबोज, कैप्टन वीरेंद्र, केशव पंडित, जेम्स हेडली चेइज का तो मैं लगभग हर उपन्यास पढ़ता है। रात को टार्च की रोशनी में भी। ये उपन्यास तब दस-दस रुपये में मिल जाया करते थे।
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इसके साथ ही पतंग उडा़ने का भी मैं बेदह शौकीन रहा, लेकिन पतंग खरीदकर बहुत कम उडा़ईं। अपनी बनाई पतंग ही मैं ज्यादातर उडा़या करता था। पतंग लंबे समय तक चले, इसलिए पेज लडा़ना मुझे पसंद नहीं था। पतंग मैं बहुत ऊंचाई तक उडा़ता था। इसके लिए चरखी सद्दी व मांझा से भरी रहती थी। मांझा मैं स्वयं भी तैयार करता था। पतला व मोटा मांझा, दोनों ही मेरी पसंद हुआ करते थे। जब पतंग का सीजन नहीं होता था, तब जमकर कंचे खेले जाते थे। मेरे पास तब लगभग दो किलो तरह-तरह के कंचे थे। सारे दोस्तों के कंचे मेरे पास ही जमा रहते थे। जेब में जब दो-चार रुपये होते तो कुछ नए कंचे मैं बाजार से भी खरीद लाता था। वर्षों तक मेरे पास कंचों का खजाना रहा, बाद में उसे मैंने मोहल्ले के बच्चों में बांट दिया।
(जारी...)
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Anecdote (11)

Glory days
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Dinesh Kukreti
Whenever we get some time in the midst of the hectic life's hectic life, the memories of adolescence start floating in the eyes like a movie.  Then there were no such resources as today.  Leave the mobile, landline phone used to be in few homes.  Those who had phones in their homes, their callers were always standing.  But, we were also the emperors of that era.  We have the opportunity to run barefoot, bathe in the canal with friends, stealthily pluck mango-litchis in the gardens, fly kites or play marbles for hours, throw cards under a thick tree in the scorching afternoon of the brother-in-law and spend an hour for one rupee.  Till now there was complete freedom to ride a bicycle.  There was scolding too, but we would have forgotten it in a while and then a new mischief would start.
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I also had a happy coincidence that from the age of ten or twelve, I had got into the habit of reading comics.  It is difficult to tell exactly how many books of Indrajal and Diamond Comics series I have read.  Motu-Patlu, Lambu-Chhotu, Chacha Chaudhary and Sabu, Lothar and Mandrake, The Phantom (Betal), Bahadur, Rip Kirby, Flash Gordon, Garth, Buzz Sawyer, Pinky, Billu, Mrs. Ji, Raman, Paltu, Mahabali Shaka,  There are many characters like Ankur, Dabu, Spiderman, Superman, Nagraj, Rajan-Iqbal, Detective Chakram, Tauji, Lambu-Motu, James Bond, which I read wholeheartedly.  Apart from this, Nandan, Champak, Madhu Muskan, Chandamama, Tenaliram etc. were also my favorite books.  Then we used to take some kind of friendship knot with whoever had comics across the city.
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The special thing is that I was the custodian of these books then.  All the friends used to deposit their books with me for fear of family members and then whenever they got time, they used to take them to read.  This used to get me to read most of the books.  There was also a lot of exchange of books.  That is, giving the books that I used to read, giving them to others, I would have brought those books which were not read by me.  Gradually, the intoxication of reading books increased so much that we started bringing books on rent too.  For this, we used to arrange money by selling junk.  We also used to have a unique way of collecting junk.  Wherever we found pieces of broken electrical wire, we would pick them up and then melt them to separate copper or aluminum.
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Within a month, we would have accumulated a good stock of copper and aluminum wires.  Then we would wrap the wire on a thick stone and make a circle out of it.  Due to this his load would increase and he would get a lot of money from junk.  Copper balls were found more.  Apart from this, we used to collect iron and sell it.  It was also my responsibility to keep the money, because I had every pie safe with me.  Over time, instead of comics, I got addicted to reading novels.  I read almost every novel of Surendra Mohan Pathak, Vedprakash Sharma, Colonel Rana, Ved Prakash Kamboj, Captain Virendra, Keshav Pandit, James Headley Chaise.  Even in torchlight at night.  These novels used to be available for ten rupees then.
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Along with this, I was also very fond of flying kites, but bought kites and flew very little.  I used to fly mostly kites made by myself.  The kites lasted a long time, so I didn't like page fighting.  I used to fly kites very high.  For this, the winch was filled with Saddi and Manjha.  I used to prepare Manjha myself.  Thin and thick manjha, both used to be my favourite.  When there was no kite season, marbles were played fiercely.  I had about two kilos of different types of marbles then.  All the friends' marbles used to be stored near me.  When I had two or four rupees in my pocket, I used to buy some marbles from the market.  For years I had a treasure trove of marbles, later I distributed them among the children of the locality.

(Ongoing...)