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दिनेश कुकरेती
लंबे समय से मेरा डेली रुटीन पूरी तरह गड़बडा़या हुआ था। इसलिए व्यवस्थित रूप से उसे लिख भी नहीं पाया। हालांकि, अब मैं अपने रुटीन को व्यवस्थित करने की कोशिश कर रहा हूं। असल में इस गड़बडी़ की मुख्य वजह आफिस का सिस्टम है, जिसमें मैं भी घिरा हुआ हूं। ऊपर से कोरोना काल ने इस सिस्टम को और भोंथरा बना दिया। इसलिए सोचा, क्यों न कुछ दिन की छुट्टी लेकर घर हो आऊं। गुरुवार सुबह साढे़ पांच बजे वाली उत्तराखंड परिवहन निगम की बस से मैं घर के लिए निकला। दरअसल, जब भी मुझे घर आना होता है, तो रात के चार घंटे जागकर ही गुजारता हूं, ताकि सुबह समय पर बस अड्डा पहुंचा जा सके। इस बार भी मैंने ऐसा ही किया।
रात ग्यारह बजे मैं आफिस से रूम में पहुंच गया था। भोजन करते-करते सवा बारह बज गए। इसके बाद मैं चादर ओढ़कर यू-ट्यूब में वीडियो देखने लगा। बीच- बीच में हल्की झपकियां भी आ रही थीं, लेकिन मैंने खुद पर नींद को हावी नहीं होने दिया। घडी़ ने जैसे ही सुबह के चार बजाए, मैंने बिस्तर त्याग दिया। नित्य क्रिया में 15-20 मिनट का समय लगा होगा। इसके बाद मैं तैयार होकर बैठ गया। जब पांच बजने में दस मिनट शेष थे, मैं बस अड्डे के लिए रवाना हुआ। मेरे रूम से मंडी तक की दूरी दो से सवा दो किमी के बीच होगी। इस दूरी को मैं हमेशा पैदल ही तय करता हूं। आराम से चलने में आधा घंटा लगता है।
जैसे ही मैं मंडी पहुंचा, वहां एक आटो सवारियों के इंतजार में खडा़ था। मैं सीधे उसमें जा बैठा और दस मिनट बाद मैं बस अड्डे में था। पांच बजकर 28 मिनट हुए थे कि कोटद्वार आने वाली बस अड्डे में पहुंच गई। सीट काफी खाली थीं, इसलिए पीछे नहीं बैठना पडा़। मेरी सबसे बडी़ मुश्किल यह है कि बस, टैक्सी या कार में बैठते ही नींद के झोंके आने लगते हैं। इस बार भी तीन-चार किमी के सफर के बाद मुझ पर नींद हावी हो गई। फिर हरिद्वार बस अड्डा पहुंचने के बाद ही चंद मिनट के लिए मेरी आंख खुली। इसके बाद बस कब कोटद्वार पहुंच गई, मुझे पता ही नहीं चला। बस अड्डे से घर पहुंचने में मुझे बामुश्किल 15 मिनट लगे होंगे। तब सुबह के साढे़ नौ बजे थे।
खैर! फिलहाल सुकून की नींद आ रही है। पांच-छह दिन आराम में कट जाएंगे। साथ ही थोडा़-बहुत घर के काम भी हो जाएंगे। फिर रुटीन में बदलाव से जीवन में ताजगी का एहसास तो होता ही है। इसके बाद तो रूम से आफिस और आफिस से रूम। पता ही नहीं चलता कि वक्त कब गुजर गया। पराये शहर में और कोई विकल्प भी तो नहीं है। शहर में खामखां घूमना भी मुझे रास नहीं आता। समय और पैसा, दोनों की ही बरबादी होती है और हाथ भी कुछ नहीं लगता। आज इतना ही...बाकी बातें देहरादून पहुंचकर...।
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Relaxing days at home
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Dinesh Kukreti
For a long time my daily routine was completely messed up. Therefore, he could not even write it systematically. However, now I am trying to organize my routine. Actually, the main reason for this mess is the office system in which I am also surrounded. The corona period from above made this system more imperceptible. So thought why should I come home after taking a few days off. On Thursday morning, I left for home by the bus of Uttarakhand Transport Corporation at half past five. Actually, whenever I have to come home, I stay awake for four hours of the night so that the bus station can be reached in the morning. I did the same this time.
I reached the room from the office at eleven o'clock. It was a quarter past twelve while eating food. After this, I started watching the video in YouTube by covering the sheet. There were light naps in between, but I did not let myself dominate my sleep. As the clock struck four in the morning, I left the bed. The routine should have taken 15-20 minutes. After this I got ready and sat down. When ten minutes were past five, I left for the bus station. The distance from my room to Mandi will be between two and a quarter to two km. I always cover this distance on foot. It takes half an hour to walk comfortably.
As soon as I reached Mandi, there was an auto waiting for the passengers. I sat straight into it and ten minutes later I was in the bus station. It was five past 28 minutes that the bus coming to Kotdwar reached the base. The seats were quite empty, so no one had to sit back. My biggest difficulty is that as soon as I sit in the bus, taxi or car, I start feeling sleepy. This time too, after a journey of three to four km, sleep prevailed over me. Then after reaching Haridwar bus stand my eyes opened for a few minutes. After this, when the bus reached Kotdwar, I did not know. It would have hardly taken me 15 minutes to reach home from the bus station. It was half past nine in the morning.
Well! At the moment, I am feeling sleepy. Five-six days will be spent in rest. Along with this, some household chores will also be done. Then a change in routine makes one feel fresh in life. After this, office to room and office to room. I do not know when the time has passed. There is no other option in a foreign city. I do not like to visit Khamkhan in the city. Both time and money are wasted and nothing is felt. Today only this much ... other things reach Dehradun ...
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