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दिनेश कुकरेती
आज बेहद गर्म दिन रहा। चिलचिलाती धूप और घुटन पैदा करने वाली उमस। ऐसे मैं जब मैं आफिस पहुंचा तो पसीने से बुरी तरह भीग चुका था। मेरे रूम से आफिस तक की दूरी ढाई किमी के आसपास होगी। लेकिन, मेरे लिए यह दूरी खास मायने नहीं रखती। पहाडी़ आदमी हूं। वर्षों तक सड़कें व पगडंडिया पैदल नापी हैं। अब भी मौका मिल जाता है तो पीछे नहीं हटता। लेकिन, देहरादून में ऐसा कम हो पाता है। दुपहिया ने थोडा़ आदत बिगाड़ दी है। महीनों में पैदल चलना हो पाता है। ऐसे में पसीना बहना लाजिमी है।
खैर! बाइक न होने के कारण मैंने ठीक सवा दो बजे आफिस की राह पकड़ ली। पहुंचने में आधा घंटा तो लग ही जाना था। फिर बाइक में पेट्रोल भरवाने भी जाना था। क्योंकि, रात को जब गुसाईं जी को बाइक दी, पेट्रोल तब ही कम था। इसलिए आज तो भरवाना ही था। बेवजह का रिस्क लेना ठीक नहीं। इसलिए, आफिस पहुंचते ही मैं बाइक में पेट्रोल चेक करने सीधे पार्किंग में गया। अरे! यह क्या? टंकी में पेट्रोल तो भरा हुआ है। फिर भी संतुष्टि के लिए चेक करना मुनासिब समझा।
असल में ज्यादा बारिश होने पर मेरी बाइक की टंकी में पानी आ जाता है। इसलिए बरसात के दौरान मैं टंकी के ढक्कन पर चारों ओर प्लास्टिक की पट्टी लपेट लेता हूं। यही पट्टी ढीली हो रखी थी। इससे मुझे अंदाजा हो गया कि गुसाईं जी ने पेट्रोल भरवा रखा है। अब मुझे पंप में दौड़ने की जरूरत नहीं थी। लेकिन, मैंने तय कर लिया था कि गुसाईं जी को आफिस पहुंचने पर उतने पैसे दे दूंगा, जितने का उन्होंने पेट्रोल भरवाया है। यह नैतिकता भी नहीं है कि वो मेरी बाइक में पेट्रोल भरवाएं। फिर मैंने उनकी क्या मदद की भला।
शाम पांच बजे के आसपास गुसाईं जी का आफिस में आगमन हुआ। आते ही बाइक का जिक्र हो गया। सो, मैंने भी बिना किसी लाग-लपेट के पूछ लिया कि- "आपने पेट्रोल कितने का भरवाया"। गुसाईं जी ने टालने की कोशिश की, लेकिन फिर मेरे बार-बार आग्रह करने पर बोल पडे़- "सौ रुपये"। मैंने जेब से सौ रुपये निकाले और उन्हें देने लगा, लेकिन उन्होंने लेने से साफ इन्कार कर लिया और अपनी कुर्सी से उठकर चले गए। अब मैं मजबूर था, इसलिए पैसे जेब में रख लिए। गुसाईं से हठ करना अब बेकार था।
हालांकि, यह बात कई दिन मेरे मनो-मस्तिष्क को घेरे रहेगी। अभी भी मैं यही सोच रहा हूं कि मुझे गुसाईं जी से रात को बाइक में पेट्रोल कम होने का जिक्र नहीं करना चाहिए था। पर, क्या किया जाए, जीवन में इस तरह के किस्से होते रहते हैं। इनके बगैर जीवन में रस भी तो नहीं है। हां! एक बात और, जीवन में रस बना रहे, इसके लिए किस्सों की ही तरह नींद भी जरूरी है। ...तो क्यों न अब नींद के आगोश में जाने का जतन करें। ताकि कल फिर नई ताजगी के साथ नए-नए किस्से-कहानियां गढ़ सकें। अभी तो इजाजत दीजिए। शुभरात्रि!!
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That's the joy of life
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Dinesh Kukreti
Today was a very hot day. Scorching sun and suffocating humidity. When I reached the office like this, I was drenched with sweat. The distance from my room to the office will be around 2.5 km. But, for me this distance does not matter much. I am a mountain man. For years the roads and trails have been measured on foot. If you still get a chance, don't hold back. But, this happens less in Dehradun. The two wheeler has spoiled the habit a bit. Walking can be done in months. In such a situation, sweating is normal.
Well! Due to not having a bike, I took my way to the office at exactly 2.15 pm. It was supposed to take half an hour to reach. Then had to go to fill petrol in the bike. Because, when the bike was given to Gusain ji at night, only then the petrol was less. So today had to be filled. Taking unnecessary risk is not good. So, as soon as I reached the office, I went straight to the parking lot to check the petrol in the bike. Hey! What is this? The tank is full of petrol. Still thought it worth checking for satisfaction.
In fact my bike tank gets water when it rains heavily. So during the rainy season I wrap a plastic bandage around the lid of the tank. This bandage was loosened. This gave me an idea that Gusain ji has filled petrol. Now I didn't need to run to the pump. But, I had decided that on reaching Gusain ji's office, I will give as much money as he has paid for petrol. It is not even moral to fill petrol in my bike. Then how did I help them?
Gusain ji arrived in the office around five o'clock in the evening. The bike was mentioned as soon as it arrived. So, I also asked without any hesitation- "How much did you fill up with petrol". Gusain ji tried to avoid, but then on my repeated requests, he said - "A hundred rupees". I took out a hundred rupees from my pocket and started giving it to him, but he flatly refused to take it and got up from his chair and left. Now I was compelled, so kept the money in my pocket. It was useless now to be stubborn with anger.
However, this thing will haunt my mind for many days. Still I am thinking that I should not have mentioned to Gusain ji about less petrol in the bike at night. But, what to do, such stories keep happening in life. Without them there is no juice in life. Yes! One more thing, to keep the juice in life, sleep is also necessary like the stories. So why not try to go into the lap of sleep now. So that tomorrow again with new freshness, new stories can be created. Give it permission now. good night!!
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