Friday, 25 June 2021

12-06-2021 (Memorable engagement, memorable day)


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(भाग - दो)

यादगार सगाई, यादगार दिन

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दिनेश कुकरेती

11 जून 2000। यह मेरे जीवन का अविस्मरणीय दिन तो है ही, अब लगता है मेरे जैसे लोगों के लिए प्रेरणा का दिन भी है। जब कभी अकेले में इस दिन को याद करता हूं तो अपने आप पर हंसी आ जाती है और गर्व भी होता है। किस्सा यूं है। दस जून 2000 शाम करीब साढ़े सात बजे को रजनी के घर से संदेश मिला कि उसके माता-पिता व दादी हमारी तुरंत सगाई करना चाहते हैं। इसके लिए कल 11 जून की तारीख तय हुई है। इन दिनों हल्द्वानी से रजनी के बडे़ मामाजी भी आए हुए हैं और आगे लंबे समय तक कोई शुभ मुहूर्त भी नहीं है। साथ ही वो भीड़ भी नहीं जुटाना चाहते थे। हमारी भी ऐसी ही राय थी, लेकिन थोडा़-बहुत तैयारी तो करनी ही थी।

संयोग से मेरे घर में तब लैंडलाइन फोन लग चुका था, इसलिए पंडितजी, मौसी व द्वारिका भाई को संदेश भेज दिया 11 तारीख को सुबह सगाई के लिए चलना है। आठ-दस दिन का समय मिला होता तो कुछ खरीदारी भी करते, लेकिन यहां तो महज कुछ घंटे का समय मिल रहा था। खैर! जाना तो था ही। हालांकि, मैंने घर में स्पष्ट कह दिया था कि मैं दोपहर दो बजे के बाद आफिस से सीधे वहां पहुंचूंगा। तब तक आप लोग सारी औपचारिकताएं निभा लेना। मेरा ऐसा कहने के पीछे दो कारण थे। एक तो मेरा इंचार्ज छुट्टी देने में रोता था, दूसरा मैं ढिंढोरा नहीं पीटना चाहता था।














11 जून को मैं तो सुबह साढे़ नौ बजे के आसपास आफिस के लिए निकल पडा़। विशेष सज-धजकर नहीं, बल्कि वही रुटीन के कपडो़ं में। नए जूतों में नहीं, बल्कि रुटीन में इस्तेमाल होने वाली सैंडिल में। हल्की दाढी़ में। हां! इतना जरूर था कि मैंने रुटीन के कपडो़ं को स्त्री करके चमका दिया था। दस-सवा दस बजे के आसपास घर से पिताजी, छोटी बहन, मंजू मौसी, द्वारिका भाई व पंडित जी भी मेरी होने वाली ससुराल के लिए निकल पडे़। ठीक से तो याद नहीं, लेकिन संभवत: सभी द्वारिका भाई की कार में या आटो बुक कर वहां गए थे। सामान्य आदमी के इंतजाम ऐसे ही होते हैं।

खैर! ठीक ढाई बजे मैं आफिस में अपने इंचार्ज को यह बताकर कि भोजन करने जा रहा हूं, ससुराल के लिए निकल पडा़। चिलचिलाती धूप आग बरसा रही थी। आफिस से महज 50 मीटर दूर झंडाचौक तक जाते-जाते मैं पसीने से तर-ब-तर हो गया। सो, मैं पैदल जाने का विचार त्यागा और रिक्शे में सवार हो गया। बता दूं कि उस दिन मैं पहली बार रिक्शे की सवारी कर रहा था। मेरे ससुराली तब जल निगम कालोनी में रहते थे। वहीं उनको सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था। कालोनी के गेट पर पहुंचते ही मैं रिक्शे से उतर गया, ताकि मुझ पर किसी की नजर न पडे़ और कह सकूं कि आटो से आया हूं। थोडा़ स्टैंडर्ड तो मेन्टेन करना होता ही है।

गेट से रजनी के घर की दूरी भी 50-60 मीटर के आसपास रही होगी। मैं पसीने से पूरी तरह भीग चुका था। इसलिए जब मैं उनके घर में पहुंचा तो उनके मेहमान ऐसे देखने लगे, जैसे मैं कोई अजूबा होऊं। मैंने महसूस किया कि मेरी दयनीय स्थिति ने उन्हें सोचने के लिए मजबूर कर दिया था। कोई सजावट न बनावट। उस पर चप्पलों में। वो क्या सोच रहे होंगे, मुझे इसकी कतई परवाह नहीं थी। क्योंकि रजनी मुझे अच्छी तरह पहचान गई थी। बहरहाल! दसेक मिनट आराम करने के बाद अंगूठी पहनाने की रस्म पूरी हुई और फिर भोजन की तैयारी होने लगी।

भोजन हो चुका था और अब मैं आफिस लौटने के लिए तैयार था। सो मैंने सबसे विदा ली और निकल पडा़ आफिस की राह। गेट पर पहुंचते ही मैंने अंगूठी निकालकर जेब में रखी और माथे पर से पिठाई (तिलक) को रुमाल से साफ कर दिया। मैं नहीं चाहता था कि आफिस में किसी को सगाई के बारे में पता चले। आफिस पहुंचते-पहुंचते मैं फिर पसीने से भीग चुका था। लेकिन, खुशी थी जीवन की एक महत्वपूर्ण सीढी़ चढ़ चुका हूं। खैर! फिर में काम में जुट गया।

मितरों, कहानी अभी काफी लंबी है और रोमांच से भी भरपूर। क्लाइमेक्स पर पहुंचते-पहुंचते आपको आनंद आ जाएगा। पर, इस सबके लिए आपको कल तक का इंतजार करना पडे़गा। फिलहाल तो मेरी यही गुजारिश है कि आप भी नींद के आगोश में चले जाएगा। मेरी भी आंखें बोझिल हुई जा रही हैं। और... फिर सपना भी तो देखना है, पहले मिलन की उन मधुर यादों का।...तो कल फिर मिलते हैं इसी समय, इसी अंदाज में। खुदा हाफिज!!

(जारी......)

12-06-2021

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(Part - Two)

Memorable engagement, memorable day

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Dinesh Kukreti

11 June 2000.  Not only is it an unforgettable day in my life, it seems that it is also a day of inspiration for people like me.  Whenever I remember this day alone, I laugh at myself and feel proud.  The story is like this.  On June 9, 2000, a message was received from Rajni's house that her parents and grandmother wanted us to get engaged immediately.  For this, the date of June 11 has been fixed after two days.  These days Rajni's elder maternal uncle has also come from Haldwani and there is no auspicious time for a long time.  At the same time, he did not want to mobilize the crowd.  We had the same opinion, but a little preparation had to be done.

Incidentally, a landline phone was installed in my house at that time, so sent a message to Panditji, Aunt and Dwarka Bhai to go for engagement on 11th morning.  If I had got eight-ten days' time, I would have done some shopping too, but here I was getting only one day's time.  Well!  Had to go.  However, I had clearly stated at home that I would reach there directly from the office after 2 pm.  Till then you guys should complete all the formalities.  I had two reasons for saying this.  One, my in-charge used to cry while giving leave, secondly, I did not want to bang the drums.

On June 11, I left for the office around 9.30 in the morning.  Not in special decorations, but in the clothes of the same routine.  Not in new shoes, but in sandals used in routine.  Light beard.  Yes!  It was so necessary that I had brightened the routine clothes by making them feminine.  Around 10.15 am, my father, younger sister, aunt, Dwarka Bhai and Pandit ji also left for my future in-laws' house.  Can't remember exactly, but probably everyone went there in Dwarka Bhai's car or booked an auto.  Such are the arrangements for the common man.

Well!  At exactly two o'clock, I left for my in-laws' house after telling my in-charge in the office that I was going to have food.  The scorching sun was raining fire.  I was drenched with sweat on my way to Jhanda Chowk, just 50 meters away from the office.  So, I dropped the idea of ​​going on foot and got into the rickshaw.  Let me tell you that that day I was riding a rickshaw for the first time.  My in-laws then lived in Jal Nigam Colony.  There they got the government quarters. As soon as I reached the gate of the colony, I got down from the rickshaw, so that no one could see me and say that I have come by auto.  Some standards have to be maintained.

The distance of Rajni's house from the gate would also have been around 50-60 meters.  I was completely drenched in sweat.  So when I reached his house, his guests started looking at me as if I were a wonder.  I realized that my pathetic condition had made them think.  No decorations or textures.  In slippers on it.  I didn't care what they were thinking.  Because Rajni knew me well.  However!  After resting for ten minutes, the ritual of wearing the ring was completed and then the food preparation started.

The meal was done and now I was ready to return to the office.  So I bid farewell to everyone and set out on the road to the office.  As soon as I reached the gate, I took out the ring and kept it in the pocket and cleaned the pithai (tilak) from the forehead with a handkerchief.  I didn't want anyone in the office to know about the engagement.  By the time I reached the office, I was again drenched with sweat.  But, there was happiness that I have climbed an important ladder of life.  Well!  Then I got to work.

Friends, the story is still very long and full of adventure.  You will be delighted by the time you reach the climax.  But, for all this you will have to wait till tomorrow.  For the time being, my only request is that you too will go into the lap of sleep.  My eyes are getting heavy too.  And... then you have to dream too, of those sweet memories of the first meeting. ... So see you again tomorrow at the same time, in the same style.  Khuda Hafiz!!

(To be continued......)

12-06-2021

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