साभार : फाइल फोटो |
त्याग, तपस्या एवं साहस की प्रतिमूर्ति गोकुल सिंह नेगी
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दिनेश कुकरेती
स्वतंत्रता सेनानी गोकुल सिंह नेगी एक छोटी-सी चारपाई पर लेटे जीवन की अंतिम सांसें गिन रहे थे। सुबह-सुबह उनके ज्येष्ठ पुत्र पत्रकार भूपेंद्र सिंह नेगी ने उन्हें स्मरण कराया कि आज 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) है, तो उनके मुखमंडल पर मुस्कान लौट आई। ना मालूम उस जर्जर काया में कहां से इतनी जान आई और वे एकदम उठ खडे़ हो गए। पास ही रखे संदूक को खोलकर उसमें से पांच-सात तिरंगे निकाले और कुटिया से बाहर आ गए। इसके बाद उन्होंने आंगन में अलग-अलग स्थानों पर झंडे टांगे और ऊंचे स्वर में 'भारत माता की जय', 'स्वतंत्र भारत की जय', 'कौमी नारा वंदेमातरम्', 'देश पर मर-मिटने वालों की जय', 'महात्मा गांधी, सरदार पटेल, पं.जवाहर लाल नेहरू की जय' जैसे नारे लगाने लगे। फिर सावधान होकर गा उठे- 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा।'
जब तक गीत पूरा नहीं हुआ नेगी वैसे ही सावधान खडे़ रहे। लेकिन, गीत खत्म होते ही उनके घुटने मुड़ने लगे, आवाज क्षीण होने लगी और फिर वे वहीं भूमि पर लुढ़क गए। उनके पुत्र भूपेंद्र व रघुवीर और नाती सुधींद्र ने उन्हें उठाया और सहारा देकर अंदर चारपाई पर लेटा दिया। उनकी बंद आंखें खुलीं, फिर उन्होंने सबको देखा और अंदर धंस चुकी आंखों से टप-टप आंसू टपकने लगे। तब पत्नी गायत्री देवी ने उन्हें ढाढस बंधाया कि 'घबराओ मत, ठीक हो जाओगे'। एक फीकी-सी मुस्कान फिर से चेहरे पर तैरी और धीरे-धीरे उन्होंने आंखें मूंद लीं। उसी अवस्था में वे शांत भाव से गीत गुनगुनाने लगे, 'उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहां जो सोवत है'। इसके बाद गीत 'उठो सोने वालों सवेरा हुआ है' की पंक्ति पूरी गा भी नहीं पाए थे कि उन्हें हिचकियां शुरू हो गईं। बंद आंखों से लगातार पानी बह रहा था और 16 अगस्त 1992 की रात सवा दस बजे के आसपास स्वतंत्रता आंदोलन का वह सिपहसालार सदा के लिए सो गया।
फाइल फोटो : स्वतंत्रता सेनानी प्रताप सिंह नेगी |
गोकुल सिंह नेगी गढ़वाल के उन प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानियों में गिने जाते हैं, जिन्होंने आजादी की जंग में अभूतपूर्व त्याग, तपस्या और साहस का परिचय दिया। उनके चित्ताकर्षक व्यक्तित्व से भला कौन प्रभावित न हुआ होगा। देश की आजादी के बाद भी उनके संघर्षों का जीवंत इतिहास रहा है। सड़क, स्कूल, चिकित्सालय और निर्बल वर्ग को उसका अधिकार दिलाने के लिए वे जीवनपर्यंत जूझते रहे। अपने जीवन काल में परोपकार के रूप में वे कई चिरस्मरणीय स्मृतियां छोड़ गए। नेगी की कर्मस्थली मुख्य रूप से देवीखेत रही। उनका जन्म संवत 1960 के आषाढ़ मास में पौडी़ गढ़वाल जिले की डबरालस्यूं पट्टी के ग्राम ढौंरी निवासी लुंगी सिंह नेगी व कुंदनी देवी के घर हुआ। उनके बडे़ भाई प्रताप सिंह नेगी स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रिम पंक्ति के सिपाही रहे। बाद में वे गढ़वाल सीट से लोकसभा के लिए भी निर्वाचित हुए। इसके अलावा उनकी दो बहन भी थीं, जिनमें से एक विवाह के कुछ माह बाद ही हैजे की बीमारी में चल बसीं।
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नेगी की प्रारंभिक शिक्षा तिमली संस्कृत पाठशाला में हुई। लेकिन, पिता का देहांत और स्वयं बीमार होने की वजह से उन्होंने स्कूल छोड़ दिया। उनके बडे़ भाई प्रताप सिंह नेगी देहरादून में सेठ राधाबल्लाभ खंडूडी़ के यहां नौकरी करते थे, लिहाजा उन्हें घर-परिवार की जिम्मेदारी संभालनी पडी़। हालांकि, घरेलू कामकाज में मन नहीं लगने के कारण बाद में उन्होंने भी घर छोड़ दिया और सहारनपुर जाकर दर्जी का काम सीखने लगे। कुछ समय बाद वे सहारनपुर से देहरादून आ गए और जौनसार बावर क्षेत्र में सिलाई का कार्य करने लगे। इन्हीं दिनों उनके तयेरे भाई बाबू रणजीत सिंह नेगी ने उन्हें जंगलात में खूंट मुहर्रिर की नौकरी पर लगा दिया। नेगी अक्सर अपने बडे़ भाई प्रताप सिंह नेगी से मिलने देहरादून आते रहते थे। 29 वर्ष की आयु में उनका दिखेत गांव निवासी बहादुर सिंह बिष्ट की बेटी गायत्री से विवाह कर दिया गया।
वर्ष 1930 में गांधीजी का नमक सत्याग्रह (असहयोग आंदोलन) चरम पर था। देहरादून में भी आंदोलनकारी नमक बनाकर बेचते थे। पुलिस को पता चलता तो वह आंदोलनकारियों को पकड़कर जेला में ठूंस देती और निर्ममतापूर्वक उनकी पिटाई करती थी। तब नेगी के बडे़ भाई स्वतंत्रता आंदोलन में शरीक हो चुके थे। सो, भाई की अनुपस्थिति में वे परेड मैदान में पुलिस व आंदोलनकारियों की झड़पों को छिप-छिपकर देखा करते। इसका नतीजा यह हुआ कि कुछ दिन बाद उन्होंने भी गांव लौटकर असहयोग आंदोलन छेड़ने का संकल्प उठा लिया।
साभार - फाइल फोटो |
संयोग देखिए कि एक दिन बडे़ भाई प्रताप उनसे बोले, 'भाई मैं गढ़वाल में असहयोग आंदोलन की कमान संभालने जा रहा हूं, तुम भी गांव लौटकर परिवार की देखभाल करो'। बडे़ भाई की बात उन्होंने मान ली और अगले ही दिन कोटद्वार पहुंच गए। उधर, बडे़ भाई कृपाराम मिश्र मनहर के साथ पौडी़ के लिए प्रस्थान कर चुके थे। सो, नेगी ने भी सीधे अपने गांव ढौंरी की राह पकड़ ली। उस दौर में परदेस से जब कोई घर लौटता था तो बचपन के संगी-साथी मिलने के लिए दौडे़ चले आते थे। गांव पहुंचने पर नेगी से मिलने भी उनके साथी घर पर आ धमके। तब नेगी ने उन्हें देहरादून में चल रहे असहयोग आंदोलन के कई साहसपूर्ण किस्से सुनाए। उन्होंने साथियों को ऐसा उकसाया कि वे दुगड्डा जाकर शराब की भट्टी पर पिकेटिंग करने के लिए राजी हो गए।
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अगले ही दिन नेगी के साथ अंबर सिंह, औतार सिंह, केसर सिंह, बेलमू, रैजा, राममूर्ति व जितार सिंह शराब भट्टी पर पिकेटिंग करने दुगड्डा पहुंच गए। जैसे ही इन लोगों ने शराब भट्टी के आगे नारे लगाने शुरू किए, पुलिस ने इन्हें घेर लिया। अन्य को कम उम्र होने के कारण बेंत मारकर छोड़ दिया गया, लेकिन नेगी गिरफ्तार कर लिए गए। यहां से उन्हें बिजनौर और फिर गोंडा जेल भेज दिया गया। छह माह की सख्त कैद काटकर जब वे लौटे तो स्वतंत्रता आंदोलन का सक्रिय हिस्सा बन गए। कुछ समय बाद शासन की आंखों में धूल झोंककर उन्होंने देवीखेत में मंडल कांग्रेस कमेटी का गठन किया। वर्ष 1935 तक इस कमेटी में 193 सदस्य हो चुके थे। धीरे-धीरे ढौंरी-देवीखेत गढ़वाल के स्वतंत्रता प्रेमियों का तीर्थ बन गया। अब गोकुल के साथ उनके भतीजे दयाल सिंह, मेहरबान सिंह, उनके पुरोहित लूथाराम डबराल, राममूर्ति, बेलमू (सभी ढौंरी), लीलानंद डबराल, ईश्वरी दत्त डबराल (कूंतणी), गोपाल सिंह बिष्ट (जल्ठा), बलदेव प्रसाद बलूनी, सुरेशानंद बलूनी (कंडाखणी) भी आंदोलन का नेतृत्व करने लगे।
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सभा करने के जुर्म में एक माह की कैद
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वर्ष 1937-38 में नेगी को ग्राम सुधार आर्गेनाइजर की जिम्मेदारी मिली। मेरठ से हिंदुस्तान स्काउट की दीक्षा लेने के बाद वे ग्राम सुधार के कार्यों में व्यस्त हो गए, लेकिन इसी बीच स्वतंत्रता आंदोलन के तीव्र होने के कारण उन्होंने आर्गेनाइजर के पद से त्यागपत्र दे दिया। उनके प्रयास से देवीखेत में जो केंद्र बना था, कुछ दिन बाद वो भी टूट गया। इस केंद्र से कई युवाओं ने ग्राम सुधार का प्रशिक्षण लिया था। वर्ष 1938-39 में देवीखेत में सभा करने के जुर्म में उन्हें बंदी बना लिया गया। एक महीने कैद में रहे और फिर 50 रुपये जुर्माना अदा करने के बाद रिहाई मिली। इन्हीं दिनों उनकी संपत्ति भी कुर्क कर ली गई, जिसे बाद में उनके तयेरे भाई बाबू रणजीत सिंह नेगी ने छुड़वाया।
देवीखेत में गढ़वाल कांग्रेस का ऐतिहासिक सम्मेलन
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वर्ष 1940 तक आंदोलन का स्वरूप देशव्यापी हो चुका था, सो ढौंरी-देवीखेत भी स्वतंत्रता प्रेमियों का गढ़ बन गया। तब डाडामंडी और देवीखेत दो ऐसे केंद्र बन चुके थे, जहां से आंदोलन का पूरा संचालन होता रहा। वर्ष 1941 में देशभर में जेल भरो आंदोलन चला। इसके संचालन की जिम्मेदारी नेगी पर आई, जिसका उन्होंने पूरी निष्ठा के साथ निर्वहन किया। इसी वर्ष ढौंरी-देवीखेत में गढ़वाल कांग्रेस का ऐतिहासिक सम्मेलन करने का जिम्मा उन्होंने अपने ऊपर लिया। लगभग 500 प्रतिनिधि इस सम्मेलन में पहुंचे। उस जमाने में इस ऐतिहासिक सम्मेलन पर कुल छह रुपये 15 आना खर्चा आया था। भोजन व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी ढौंरी और निकटवर्ती गांव वालों ने संभाली। इनमें तारा सिंह नेगी (ढौंरी), संग्राम सिंह रावत (बमोली), भूपाल सिंह रावत (ढांढरी), सुल्तान सिंह बिष्ट, रघुवीर सिंह बिष्ट (दिखेत) प्रमुख रूप से शामिल थे। वर्ष 1941 में ही ग्राम हिलोगी निवासी जय सिंह बिष्ट के आवास पर कांग्रेस का जिला सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसकी संपूर्ण व्यवस्था भी बिष्ट ने स्वयं ही की।
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क्रांतिकारियों ने की भारत के स्वतंत्र होने की घोषणा
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इसी दौरान एक महत्वपूर्ण घटना घटी और ढांगू, डबरालस्यूं व लंगूर के क्रांतिकारियों ने जौली, तिमली व जल्ठा गांव के मध्य सभा कर भारत के स्वतंत्र होने की घोषणा कर दी। फिर ढौंरी, दिखेत, कंडाखणी, बमोली, कुठार व चेलूसैंण में भी इसी तरह सभाएं कर भारत के स्वतंत्र होने की घोषणा की गई। इधर, हिलोगी निवासी जय सिंह के नेतृत्व में लैंसडौन छावनी से हथियार लूटने की योजना बनी। लेकिन, दुगड्डा में एक साथी ने पुलिस को इसकी सूचना दे दी, जिससे योजना परवान नहीं चढ़ पाई।
इसी वर्ष एक वृहद जनसभा डबल चौकी (हिंवल नदी के किनारे) में हुई, जिसमें हजारों की संख्या में लोग शामिल हुए। इस सभा को मुख्य रूप से आचार्य नरदेव शास्त्री ने संबोधिता किया। क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन भी तब आंदोलनकारियों का मार्गदर्शन करने ढौंरी पहुंचे थे। वर्ष 1942 में 'अंग्रेजों भारत छोडो़' आंदोलन के दौरान नेगी को बागी करार देकर गिरफ्तार कर बरेली जेल भेज दिया गया। ढाई वर्ष जेल में रहने के बाद जब नेगी रिहा हुए तो उन्होंने देवीखेत में हिंदी मिडिल स्कूल की स्थापना में अहम भूमिका निभाई। उन्हीं के प्रयासों से तब का यह मिडिल स्कूल आज राजकीय इंटर कालेज के रूप में विद्यमान है।
देवीखेत में विकास प्रदर्शनी का आयोजन
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संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान एवं वाणी वाचाल वाणी विलास डबराल (शास्त्री) ने उन्हें हमेशा सहयोग किया। देवीखेत के विकास में शास्त्रीजी हमेशा उनके साथ साये की तरह रहे। वर्ष 1948 में प्रथम जिला परिषद में नेगी सदस्य निर्वाचित हुए। वर्ष 1953 में उन्होंने देवीखेत में विकास प्रदर्शनी का आयोजन किया, जो चार दिन तक चली। यातायात के साधन शून्य होने की स्थिति में भी यहां बाहर से कई दुकानदार, खेल, तमाशे, मौत का कुआं आदि पहुंचे। इस अवसर पर देवीखेत में विकास की कई योजनाएं बनीं, जो समय के साथ धीरे-धीरे पूरी हो रही हैं। नेगी गढ़वाल के संत सदानंद कुकरेती को अपना प्रेरक मानते थे और उन्हीं के आदर्शों का पालन करते हुए उन्हें अनेक सामाजिक कार्यों में सफलता मिली।
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सत्ता और सुविधा से नेगी का दूर-दूर तक कभी कोई वास्ता नहीं रहा। उन्होंने हमेशा अभावों में रहकर भी सम्मानजनक जीवन जिया। हां! इस बात का उन्हें हमेशा मलाल रहा कि जिस आजादी के लिए वे लडे़, वो आजादी चंद घरों तक सिमटकर रह गई है। एक अर्द्धविक्षिप्त पटवारी और कोटद्वार तहसील के सनकी परगनाधिकारी ने जब उनको अकारण उत्पीडि़त किया तो वे इस पीडा़ को सहन नहीं कर पाए। तभी से अंदर ही अंदर घुटन के कारण उनका स्वास्थ्य गिरता चला गया और यही उनकी मृत्यु का कारण भी बना।
डीएम से अस्पताल और गांव के लिए पानी मांगा
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वर्ष 1956-57 के बाद नेगी झंडीचौड़ (कोटद्वार भाबर) आकर बस गए। वर्ष1953-54 की बात होगी, तब झंडीचौड़ नयाबाद हो रहा था। पौडी़ के तत्कालीन जिलाधिकारी अब्दुल जलील खां निरीक्षण हेतु इस नए गांव पधारे। हाथी पर बैठ वे तीतर का शिकार भी कर रहे थे। गलती से उनकी बंदूक से निकले छर्रे गोकुल सिंह नेगी को लग गए और वे मूर्छित होकर गिर पडे़। जिलाधिकारी बडे़ घबराये, लेकिन सही उपचार मिलने से नेगी शीघ्र स्वस्थ हो गए। जिलाधिकारी ने उन्हें मदद के रूप में कुछ मांगने को कहा तो उन्होंने अस्पताल और जीने के लिए पानी की मांग की। अपने लिए उन्होंने कुछ नहीं मांगा। जिलाधिकारी उनसे इतने प्रभावित हुए कि बराबर सम्मान देने लगे। झंडीचौड़ आज कोटद्वार-भाबर का पूर्ण विकसित गांव है। यहां यातायात सुलभ है, सिंचाई हेतु नलकूप है, डाकघर है, चिकित्सालय हैं, स्कूल हैं और इन समस्त उपलब्धियों के मूल में नेगी का असीम संघर्ष समाहित है। नेगी वर्षों तक जिला स्वतंत्रता संग्राम कल्याण परिषद के उपाध्यक्ष भी रहे। इसके अलावा वे कई संस्थाओं के जनक रहे और सार्वजनिक संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों का निर्वाह भी करते रहे।
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The significance of celebrating Independence Day is only when we also know about the soldiers of the freedom movement, who remained confined in some corner of history. It has always been my endeavor to introduce you to such soldiers of freedom. Freedom fighter Gokul Singh Negi is also such a soldier of that era, who gave his all for freedom. Went to jail, ate police sticks, but died only after liberating the country. Even after independence, he never spread his hand in front of power and despite living in deprivation, continued to struggle for the progress of the region, society and nation. Luckily I have met freedom fighter Gokul Singh Negi. Their struggles also have to go. In the year 1994, on his third death anniversary, I also wrote an article on him, which for some reason could not be published anywhere. Today is the occasion to publish this article on the 75th anniversary of independence. This is my blog for today.
Gokul Singh Negi, the epitome of sacrifice, penance and courage
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Dinesh Kukreti
Freedom fighter Gokul Singh Negi was counting his last breaths lying on a small cot. Early in the morning his eldest son journalist Bhupendra Singh Negi reminded him that today is 15th August (Independence Day), so a smile returned to his face. I don't know from where so much life came in that shabby body and they stood up suddenly. Opening the box kept nearby, took out five or seven tricolors from it and came out of the hut. After this, he hung flags at different places in the courtyard and raised the slogan 'Bharat Mata ki Jai', 'Swatantra Bharat ki Jai', 'Quami Nara Vande Mataram', 'Jai to the dead on the country', 'Mahatma Gandhi'. Slogans like 'Sardar Patel, Pt.Jawaharlal Nehru ki Jai' began to be raised. Then he sang with caution - 'Victory world tricolor dear, our flag remains high.'
Negi stood guard till the song was completed. But, as soon as the song ended, his knees began to bend, his voice weakened, and then he rolled down on the ground. His sons Bhupendra and Raghuveer and grandson Sudheendra picked him up and supported him and made him lie down on a cot inside. His closed eyes opened, then he looked at everyone, and tears began to drip from the eyes that had sunk inside. Then wife Gayatri Devi consoled him that 'Don't panic, you will be fine'. A faint smile flashed across his face again and slowly he closed his eyes. At the same stage, he quietly started humming the song, 'Uth jag musafir bhor bhai, ab rain kahan jo sowat hai'. After this, he could not even sing the entire line of the song 'Utho Sone Walon Savera Hua Hai' that he started having hiccups. Water was flowing continuously from his closed eyes and on the night of 16 August 1992, around 10.15 pm, the warlord of the freedom movement fell asleep forever.
Gokul Singh Negi is counted among those eminent freedom fighters of Garhwal, who showed unprecedented sacrifice, austerity and courage in the freedom struggle. Who wouldn't have been impressed by his charming personality? Their struggles have a vibrant history even after the country's independence. He struggled throughout his life to get his right to the road, school, hospital and the weaker section. He left many memorable memories in the form of philanthropy during his lifetime. The work place of Negi was mainly Devikhet. He was born in the month of Ashadh in the year 1960 to Lungi Singh Negi and Kundani Devi, residents of village Dhauri of Dabralasun belt of Pauri Garhwal district. His elder brother Pratap Singh Negi was a frontline soldier in the freedom movement. Later he was also elected to the Lok Sabha from the Garhwal seat. Apart from this, he also had two sisters, one of whom died of cholera a few months after the marriage.
Negi's early education took place in Timli Sanskrit Pathshala. However, he dropped out of school due to the death of his father and his own illness. His elder brother Pratap Singh Negi used to work with Seth Radhaballabh Khandudi in Dehradun, so he had to take care of the family. However, due to lack of interest in domestic work, later he also left home and went to Saharanpur to learn tailor's work. After some time he came to Dehradun from Saharanpur and started doing sewing work in Jaunsar Bawar area. It was during these days that his brother, Babu Ranjit Singh Negi, put him on the job of peg muharrir in the jungle. Negi often used to come to Dehradun to meet his elder brother Pratap Singh Negi. At the age of 29, he was married to Gayatri, the daughter of Bahadur Singh Bisht, a resident of Dikhet village.
Gandhi's Salt Satyagraha (Non-Cooperation Movement) was at its peak in the year 1930. In Dehradun also, the agitators used to sell salt by making it. If the police came to know, she would have caught the agitators and put them in the jail and used to beat them mercilessly. Then Negi's elder brother had joined the freedom movement. So, in the absence of his brother, he would secretly watch the clashes between the police and the agitators in the parade ground. The result of this was that after a few days, he also returned to the village and took a pledge to launch a non-cooperation movement.
Incidentally, one day elder brother Pratap said to him, 'Brother, I am going to take charge of the non-cooperation movement in Garhwal, you also return to the village and take care of the family'. He agreed to the elder brother and reached Kotdwar the very next day. On the other hand, elder brother Kriparam Mishra had left for Pauri with Manhar. So, Negi also took the path directly to his village Dhauri. At that time, when someone used to return home from abroad, his childhood companions used to run to meet him. On reaching the village, his companions also came to meet Negi at home. Then Negi told him many courageous tales of the non-cooperation movement going on in Dehradun. He instigated the companions to such an extent that they agreed to go to Dugadda and do picketing at the brewery.
साभार - फाइल फोटो |
The very next day, Negi along with Amber Singh, Autar Singh, Kesar Singh, Belmu, Raiza, Ramamurthy and Jitar Singh reached Dugadda for picketing at the brewery. As soon as these people started raising slogans in front of the liquor furnace, the police surrounded them. Others were let off with a cane because of their young age, but Negi was arrested. From here he was sent to Bijnor and then to Gonda jail. When he returned after serving six months of rigorous imprisonment, he became an active part of the freedom movement. After some time, throwing dust in the eyes of the government, he formed the Mandal Congress Committee in Devikhet. By the year 1935, this committee had 193 members. Gradually, Dhaunri-Devikhet became a pilgrimage for the freedom lovers of Garhwal. Now Gokul is accompanied by his nephew Dayal Singh, Meherban Singh, his priest Lutharam Dabral, Ramamurthy, Belmu (all drummers), Leelanand Dabral, Ishwari Dutt Dabral (Kuntani), Gopal Singh Bisht (Jaltha), Baldev Prasad Baluni, Sureshanand Baluni (Kandakhani) ) also started leading the movement.
One month imprisonment for holding a meeting
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In the year 1937-38, Negi got the responsibility of village reform organizer. After taking the initiation of Hindustan Scout from Meerut, he got busy in the work of village reform, but in the meantime he resigned from the post of Organizer due to the intensification of the freedom movement. The center which had been built in Devikhet due to his efforts, was also broken after a few days. Many youth had taken training in village reforms from this centre. In the year 1938-39, he was taken prisoner for holding a meeting in Devikhet. He was imprisoned for a month and then released after paying a fine of Rs 50. On these days his property was also attached, which was later freed by his brother-in-law, Babu Ranjit Singh Negi.
Historical convention of Garhwal Congress in Devikhet
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By the year 1940, the nature of the movement had become nationwide, so Dhauri-Devikhet also became a stronghold of freedom lovers. Then Dadamandi and Devikhet had become two such centers from where the entire movement of the movement continued. In the year 1941, there was a Jail Bharo movement across the country. The responsibility of its operation fell on Negi, which he discharged with full devotion. In the same year, he took upon himself the responsibility of holding the historic convention of the Garhwal Congress at Dhaunri-Devikhet. About 500 delegates attended the conference. At that time, a total cost of Rs.15 annas was spent on this historic conference. The entire responsibility of the food arrangement was taken over by Dhauri and the nearby villagers. These included Tara Singh Negi (Dhonri), Sangram Singh Rawat (Bamoli), Bhupal Singh Rawat (Dhandri), Sultan Singh Bisht, Raghuveer Singh Bisht (Dikhet). In the year 1941 itself, a district conference of Congress was held at the residence of Jai Singh Bisht, resident of village Hilogi, whose entire arrangement was also made by Bisht himself.
Revolutionaries declared India's independence
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During this time an important event took place and the revolutionaries of Dhangu, Dabralasun and Langur announced the independence of India by meeting between Joli, Timli and Jaltha villages. Then in Dhauri, Dikhet, Kandakhni, Bamoli, Kuthar and Chelusain, India's independence was announced by holding similar meetings. Here, under the leadership of Jai Singh, a resident of Hilogi, a plan was made to loot weapons from Lansdowne Cantonment. However, a colleague in Dugadda informed the police, due to which the plan did not materialise.
In the same year a large public meeting was held at Double Chowki (bank of Hinwal river), in which thousands of people attended. This meeting was mainly addressed by Acharya Nardev Shastri. Revolutionary Sridev Suman had also reached Dhauri to guide the then agitators. In the year 1942, during the 'British Quit India' movement, Negi was arrested and sent to Bareilly Jail, calling him a rebel. When Negi was released after two and a half years in jail, he played an important role in the establishment of Hindi Middle School in Devikhet. Due to his efforts, this middle school of that time is present today as Government Inter College.
Development exhibition organized in Devikhet
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Vilas Dabral (Shastri), a learned scholar of Sanskrit and speech, always supported him. Shastriji always remained with him like a shadow in the development of Devikhet. In the year 1948, Negi was elected as a member of the first Zilla Parishad. In the year 1953, he organized a development exhibition at Devikhet, which lasted for four days. Many shopkeepers, games, spectacles, wells of death etc. reached here even in the event of zero means of transport. On this occasion, many development schemes were made in Devikhet, which are being completed gradually with the passage of time. Negi considered Sant Sadanand Kukreti of Garhwal as his inspiration and following his ideals, he got success in many social works.
Negi never had anything to do with power and convenience. He always lived a respectable life despite living in deprivations. Yes! He always felt sorry for the fact that the freedom for which he fought, that freedom has remained confined to a few houses. When he was harassed for no reason by a semi-deranged patwari and eccentric pargan officer of Kotdwar tehsil, he could not bear this pain. Since then, his health kept on deteriorating due to suffocation inside and this also became the reason for his death.
Asked DM for water for hospital and village
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After the year 1956-57, Negi came and settled at Jhandichor (Kotdwar Bhabar). It would be about the year 1953-54, then Jhandichor was being Nayabad. Abdul Jalil Khan, the then District Magistrate of Pauri, visited this new village for inspection. Sitting on an elephant, he was also hunting a pheasant. By mistake, the shrapnel from his gun hit Gokul Singh Negi and he fell unconscious. The District Magistrate was very nervous, but after getting the right treatment, Negi quickly recovered. When the District Magistrate asked him to ask for something in the form of help, he asked for the hospital and water to live. He didn't ask for anything for himself. The District Magistrate was so impressed with him that he started giving equal respect. Today Jhandichor is a fully developed village of Kotdwar-Bhabar. Transport is accessible here, there is a tube well for irrigation, there is a post office, there are hospitals, there are schools and at the root of all these achievements lies the infinite struggle of Negi. Negi was also the Vice President of the District Freedom Struggle Welfare Council for years. Apart from this, he was the father of many institutions and also held important positions in public institutions.