Thursday, 24 November 2022

24-11-2022 (गढ़वाल पर प्रथम गोरखा आक्रमण का गवाह लंगूरगढ़)


google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0
लंगूरगढ़ : गढ़वाल पर प्रथम गोरखा आक्रमण का गवाह 
-------------------------------------------------------------
दिनेश कुकरेती
तिहास न केवल अतीत से परिचित कराता है, बल्कि आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देता है। एक तरह से यह अतीत और वर्तमान के बीच का सेतु है। इतिहास विज्ञान का भी मार्गदर्शक है, इसलिए उसे भविष्य का आईना कहा गया है। इसीलिए राजनीति, दर्शन शास्त्र, अर्थशास्त्र व विज्ञान के साथ इतिहास भी मेरा प्रिय विषय रहा है। इतिहास ने ही समाज के प्रति मेरी क्या जिम्मेदारियां हैं, इसका अहसास कराया। खुद को तलाशने और अपने परिवेश को जानने में मेरी मदद की। मुझे लगता है कि मनुष्य होने के नाते हमें अपने इतिहास से अवश्य परिचित होना चाहिए। इसीलिए हमेशा मेरी कोशिश पहाड़ को अधिक से अधिक जानने की रही है। चलिए! इसी कडी़ में आपको लंगूरगढ़ (भैरवगढ़) के अतीत और वर्तमान से परिचित कराता हूं।
गढ़वाल को 52 गढो़ं का देश कहा गया है। कहते हैं कि कत्यूरी शासन की समाप्ति के पश्चात गढ़वाल में बहुराजकता का काल आरंभ हुआ तो गढ़वाल क्षेत्र छोटी-छोटी इकाइयों में विभाजित हो गया। ऐसा माना जाता है कि तब गढ़वाल में 52 गढ़ (किले) स्थापित थे, जिनका संचालन छोटे-छोटे राजा करते थे। इन्हें गढ़पति कहा जाता था। लेकिन, धीरे-धीरे ये गढ़ गढ़वाल राज्य के अधीन होते चले गए। प्रसिद्ध इतिहासकार डा. शिवप्रसाद डबराल 'चारण' लिखते हैं कि वर्ष 1790 में गोरखा फौज द्वारा कुमाऊं पर अधिकार कर लिए जाने के बाद गोरखा सैनिकों का ध्यान गढ़वाल की ओर गया। तब गढ़वाल में परमार वंश का शासन था और राजा प्रद्युम्न शाह गद्दीनशीन थे। वर्ष 1791 में हर्ष देव जोशी (हरक देव) की सहायता से गोरखों ने गढ़वाल पर हमला बोल दिया। लंगूरगढ़ में दोनों सेनाओं का आमना-सामना हुआ। (लंगूरगढ़ तत्कालीन गढ़वाल राज्य की दक्षिणी सीमा पर स्थित परगना गंगा सलाण का सामरिक रूप से संवेदनशील एवं प्रमुख गढ़ हुआ करता था।) तब गोरखा सेना का नेतृत्व चंद्रवीर और भक्ति थापा कर रहे थे। यह युद्ध 28 दिन चला, लेकिन अंततः प्रद्युम्न शाह की सेना ने गोरखाओं को नाकों चने चबाने के लिए मजबूर कर दिया। गोरखा सेना की हार हुई और उसे संधि के लिए विवश होना पडा़।
वर्ष 1792 में लंगूरगढ़ की संधि हुई, जिसके तहत गोरखाओं ने गढ़वाल पर कभी आक्रमण न करने का वचन दिया। साथ ही गोरखाओं पर 25 हजार रुपये वार्षिक कर भी आयद किया गया। कहते हैं कि गोरखाओं को पराजित करने वाले सेनापति रामा खंडूडी़ ने यहां चोटी पर भैरवनाथ का पूजन किया और अनुष्ठान के बाद सेना सहित वापस श्रीनगर (गढ़वाल) लौट गए। इसके बाद गढ़वाल नरेश ने इस क्षेत्र से एकत्र होने वाले भू-राजस्व को भैरवगढी़ मंदिर में पूजा-अर्चना पर खर्च करने के निर्देश दिए। हालांकि, वर्ष 1804 के दूसरे हमले में लंगूरगढ़ गोरखाओं के कब्जे में चला गया। तब उनके द्वारा यहां मंदिर की स्थापना की गई।
क्षेत्रीय पुरातत्व इकाई पौडी़ की रिपोर्ट के अनुसार यहां भैरव मंदिर में स्थापित शिवलिंग पर एक मन (40 सेर या किलो) वजनी ताम्रपत्र चढा़ है। इस पर फाल्गुन संवत 1884 और देवनागरी लिपि में भक्ति थापा के नाम का उल्लेख है। कहते हैं कि गोरखाओं ने इसे अपना वर्चस्व साबित करने के लिए मंदिर में चढा़या था। मंदिर में 30 गुणा 15 सेमी माप की पंचाग्नितप हरे रंग की देवी पार्वती की पाषाण प्रतिमा भी दर्शनीय है। शैलीगत आधार पर यह प्रतिमा दसवीं व 11वीं शताब्दी के बीच की बताई जाती है।

लंगूरगढ़ का परिचय
-----------------------

समुद्रतल से 2750 मीटर की ऊंचाई पर पौडी़ गढ़वाल जिले के द्वारीखाल विकासखंड में स्थित भैरवगढ़ गढ़वाल के 52 गढो़ं में से एक है। इसका वास्तविक नाम लंगूरगढ़ है। संभवत: लांगूल पर्वत पर स्थित होने के कारण इसे लंगूरगढ़ कहा गया। लांगूल पर्वत की आमने-सामने स्थित चोटियों पर दो किले (गढ़) हैं, जिनमें एक का नाम लंगूरगढ़ और दूसरे का भैरवगढ़ है। लंगूरगढ़ को हनुमानगढ़ और भैरवगढ़ को भैरवगढी़ भी कहा जाता है। इन चोटियों तक पहुंचने के रास्ते भी अलग-अलग हैं, बावजूद इसके दोनों गढ़ को एक ही माना गया है।

ऐसे पहुंचते हैं लंगूरगढ़
-------------------------

भैरवगढ़ जाने के लिए पहले गढ़वाल के प्रवेशद्वार कोटद्वार पहुंचना पड़ता है। कोटद्वार से 36 किमी की दूरी पर गुमखाल और यहां से ऋषिकेश रोड पर चार किमी आगे कीर्तिखाल़ (केतुखाल़) पड़ता है। यहां से लंगूरगढ़ पहुंचने के लिए ढाई की खडी़ चढा़ई पैदल तय करनी पड़ती है। कीर्तिखाल ऋषिकेश और कोटद्वार से सीधे पहुंचा जा सकता है। जबकि, गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंटल सेंटर एवं छावनी शहर लैंसडौन से भैरवगढ़ की दूरी राजखिल गांव होते हुए लगभग 17 किमी है।आपको अगर भैरवगढ़ से लंगूरगढ़ पहुंचना है तो इस चोटी से आधा किमी नीचे उतरना पडे़गा। यहां घास के एक छोटे से मैदान (बुग्याल) से कच्चा रास्ता दाहिनी ओर जाता है। इस पर कुछ दूर तक उतराई के बाद फिर चढा़ई शुरू हो जाती है। यह चढा़ई आपको सीधे इसी पर्वत की दूसरी चोटी यानी लंगूरगढ़ पहुंचा देगी। यहां से नीचे उतरने के भी दो रास्ते हैं। पहला वापस घास के मैदान से होते हुए सीधे कीर्तिखाल पहुंचाता है। जबकि, दूसरा रास्ता भैरवगढी़ से थोडा़ नीचे आने के बाद दाहिनी ओर पगडंडी के रूप में है। बाहर से आने वाले लोग इस टेढे़-मेढे़ रास्ते का कम ही उपयोग करते हैं।


लंगूरगढ़ के भैरव
-------------------

भगवान शिव के 15 अवतारों में से एक नाम भैरव का आता है, उसी भैरव रूप को समर्पित है, भैरवगढ़ की चोटी पर स्थित बाबा कालनाथ भैरव (भैरोंनाथ) का प्रसिद्ध मंदिर। यह मंदिर भैरव की गुमटी पर बना हुआ है और इसके बायें हिस्से में शक्तिकुंड स्थित है। भैरोंनाथ को गढ़वाल का रक्षक (द्वारपाल) माना गया है। मनोकामना पूर्ति पर भक्त यहां चांदी के छत्र चढा़ते हैं। क्षेत्र के नवविवाहित जोडे़ तो भैरोंनाथ के दर्शनों के बाद ही अपने दाम्पत्य जीवन की शुरूआत करते हैं। धाम का प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटकों को भी अपनी ओर खींचता है। शीतकाल के दौरान यहां बर्फबारी का आनंद भी लिया जा सकता है। चोटी पर होने के कारण यहां से हिमालय का विहंगम नजारा देखते ही बनता है। साथ ही आसपास बिखरी हरियाली भी पर्यटकों असीम शांति की अनुभूति कराती है।

भैरोंनाथ को लगता है मंडुवे के आटे से बने रोट का भोग
-------------------------------------------------------------
लोक मान्यता है कि कालनाथ भैरों को काली वस्तुएं सर्वाधिक पसंद हैं। इसलिए यहां मंडुवे के आटे का रोट के रूप में प्रसाद तैयार किया जाता है। हर साल जेठ (ज्येष्ठ) के महीने यहां जात (जात्रा या यात्रा) के साथ दो-दिवसीय मेले का आयोजन होता है। मेले के प्रथम दिन राजखिल गांव से भैरवगढ़ तक जात निकाली जाती है। इस वार्षिक अनुष्ठान में हजारों की संख्या में श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं। एक दौर में भले ही यहां पशुबलि की प्रथा रही हो, लेकिन अब यह प्रथा पूरी तरह बंद हो चुकी है।


लंगूरगढ़ का एक नाम अजेयगढ़ भी
----------------------------------------
गढ़वाल पर गोरखाओं का प्रथम आक्रमण लंगूरगढ़ में ही हुआ था। इस युद्ध को लंगूरगढ़ युद्ध के नाम से जाना जाता है। तब लंगूरगढ़ पर असवाल ठाकुरों का राज हुआ करता था, जिन्होंने गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह की सेना की मदद से गोरखा सैनिकों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। तब इस किले को अजेय मानते हुए अजेयगढ़ (अजयगढ़) नाम से भी जाना जाने लगा।

हमारे ईष्ट भी हैं लंगूरगढ़ के भैरव
----------------------------------------

संयोग से मेरा गांव भलगांव भी भैरवगढ़ की परिधि में आता है और भैरोंनाथ हमारे परिवार के भी ईष्ट देव हैं। वैसे मेरा मूल गांव बरसूडी़ है, लेकिन बाद में मेरे परदादा या उनसे पहले की पीढी़ दो मील नीचे भलगांव आ गई। मुझे ठीक से तो याद नहीं है, लेकिन 22-23 साल पहले जब मैं देवपूजा में शामिल होने के लिए गांव गया था तो इस दौरान मुझे राजखिल जाने का भी मौका मिला। राजखिल जाने और वहां से भलगांव वापस लौटने में मुझे लगभग पांच घंटे का समय लगा था। राजखिल से लंगूरगढ़ की चोटी दो किमी के फासले पर है। वहां भैरों मंदिर के पुजारी राजखिल के डोबरियाल जाति के लोग ही होते हैं।

-----------------------------------------------------------------------------------


The first Gorkha attack on Garhwal took place in Langurgarh
-------------------------------------------------------------
Dinesh Kukreti
History not only introduces us to the past, but also inspires us to move forward. In a way, it is a bridge between the past and the present. History is also the guide of science, hence it has been called the mirror of the future. That's why along with politics, philosophy, economics and science, history has also been my favorite subject. History itself made me realize what are my responsibilities towards the society. Helped me discover myself and know my surroundings. I think that as human beings we must be familiar with our history. That is why it has always been my endeavor to know the mountain as much as possible. Let go! In this episode, let me introduce you to the past and present of Langurgarh (Bhairavgarh).

Garhwal has been called the country of 52 citadels. It is said that after the end of the Katyuri rule, the period of polyarchy started in Garhwal, then the Garhwal region was divided into small units. It is believed that then there were 52 garhs (forts) established in Garhwal, which were operated by small kings. He was called Gadhapati. But, gradually these forts came under the rule of Garhwal state. Famous historian Dr. Shivprasad Dabral 'Charan' writes that in the year 1790, after the Gorkha army took over Kumaon, the attention of Gorkha soldiers turned towards Garhwal. Then Garhwal was ruled by the Parmar dynasty and King Pradyuman Shah was the ruler. In the year 1791, with the help of Harsh Dev Joshi (Harak Dev), the Gurkhas attacked Garhwal. Both the armies came face to face in Langurgarh. (Langurgarh used to be a strategically sensitive and major stronghold of Pargana Ganga Salan, located on the southern border of the then Garhwal state.) Then the Gorkha army was led by Chandraveer and Bhakti Thapa. This war lasted for 28 days, but finally Pradyuman Shah's army forced the Gorkhas to chew gram. The Gorkha army was defeated and had to be forced to negotiate.

In the year 1792, the Treaty of Langurgarh took place, under which the Gurkhas pledged never to attack Garhwal. Along with this, an annual tax of 25 thousand rupees was also imposed on Gorkhas. It is said that Rama Khanduri, the commander who defeated the Gurkhas, worshiped Bhairavnath on the top here and returned to Srinagar (Garhwal) along with the army after the rituals. After this, the Garhwal King gave instructions to spend the land revenue collected from this area on worship in the Bhairavgarhi temple. However, in the second attack of 1804, Langurgarh was captured by the Gorkhas. Then the temple was established here by him.

According to the report of Regional Archaeological Unit Pauri, a copper plate weighing one mind (40 ser or kg) is mounted on the Shivling installed in the Bhairav ​​temple here. It is dated Falgun Samvat 1884 and mentions the name of Bhakti Thapa in Devanagari script. It is said that the Gurkhas had offered it in the temple to prove their supremacy. The stone idol of Panchagnitap green colored Goddess Parvati measuring 30 x 15 cm is also visible in the temple. On stylistic grounds, this statue is said to be between 10th and 11th century.


Introduction to Langurgarh
-------------------------------------
Bhairavgarh, located in the Dwarikhal development block of Pauri Garhwal district, at an altitude of 2750 meters above sea level, is one of the 52 Garhwal caves. Its real name is Langurgarh. Probably because of its location on the Langul mountain, it was called Langurgarh. There are two forts (citadels) on opposite peaks of Langul mountain, one is named Langurgarh and the other is Bhairavgarh. Langurgarh is also known as Hanumangarh and Bhairavgarh as Bhairavgarhi. The ways to reach these peaks are also different, yet both the citadels have been considered the same.

This is how to reach Langurgarh
------------------------------------------
To go to Bhairavgarh, first one has to reach Kotdwar, the gateway of Garhwal. Gumkhal is situated at a distance of 36 km from Kotdwar and Kirtikhal (Ketukhal) lies four km ahead on the Rishikesh road. To reach Langurgarh from here one has to walk a steep climb of two and a half feet. Kirtikhal is directly accessible from Rishikesh and Kotdwara. Whereas, the distance from Garhwal Rifles Regimental Center and Cantonment town Lansdowne to Bhairavgarh via Rajkhil village is about 17 km. If you want to reach Langurgarh from Bhairavgarh, you will have to descend half a km from this peak. Here a dirt road leads to the right through a small grassy field (bugyal). After descending for some distance, the ascent starts again. This climb will directly take you to the second peak of this mountain i.e. Langurgarh. There are two ways to get down from here. The first leads directly back to Kirtikhal through the meadows. Whereas, the second way is in the form of a footpath on the right side after coming down a little from Bhairavgarhi. People coming from outside rarely use this zigzag path.

Bhairav ​​of Langurgarh
------------------------------
The name Bhairav ​​comes from one of the 15 incarnations of Lord Shiva, dedicated to the same Bhairav ​​form, the famous temple of Baba Kalnath Bhairav ​​(Bhaironnath) situated on the top of Bhairavgarh. This temple is built on the dome of Bhairav ​​and Shaktikund is situated on its left side. Bhairon Nath has been considered as the protector (gatekeeper) of Garhwal. Devotees offer silver umbrellas here to fulfill their wishes. The newly married couples of the region start their married life only after visiting Bhairon Nath. The natural beauty of Dham also attracts tourists. One can also enjoy snowfall here during winters. Being on the top, one can get a panoramic view of the Himalayas from here. Along with this, the greenery scattered around also gives the tourists a feeling of infinite peace.

Bhairavnath enjoys bread made from Manduve flour

----------------------------------------------------------------------

It is a popular belief that Kalnath Bhairon likes black things the most. That's why Prasad is prepared here in the form of bread made of Manduve flour. Every year in the month of Jeth (eldest) a two-day fair is held here along with Jat (Jatra or Yatra). On the first day of the fair, a procession is taken out from Rajkhil village to Bhairavgarh. Thousands of devotees take part in this annual ritual. Even though there was a practice of animal sacrifice here at one time, but now this practice has completely stopped.

Ajeygarh is also a name of Langurgarh
---------------------------------------------------
The first attack of Gurkhas on Garhwal took place in Langurgarh itself. This war is known as Langurgarh war. Langurgarh was then ruled by the Aswal Thakurs, who with the help of Garhwal King Pradyuman Shah's army forced the Gorkha soldiers to surrender. Then considering this fort as invincible, it also came to be known as Ajeygarh (अजयगढ़).

Bhairav ​​of our presiding deity Langur Garh
---------------------------------------------------------
Incidentally, my village Bhalgaon also comes under the purview of Bhairavgarh and Bhairon Nath is also the presiding deity of our family. Although my native village is Barsudi, but later my great grandfather or the generation before him came to Bhalgaon two miles down. I do not remember exactly, but 22-23 years ago when I had gone to the village to participate in Devpuja, during this time I also got a chance to visit Rajkhil. It took me about five hours to go to Rajkhil and back to Bhalgaon. The peak of Langurgarh is at a distance of two km from Rajkhil. There the priests of Bhairon temple are the people of Dobriyal caste of Rajkhil.


Saturday, 12 November 2022

11-11-2022 (दून में बिखरे संस्कृति के रंग)


google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0
दून में बिखरे संस्कृति के रंग

---------------------------------

दिनेश कुकरेती

लोक कोई भी क्यों न हो, मुझे अति प्यारा है। लोक हर रूप, हर रंग में मुझे सुहाता है और मन करता है कि मैं उसमें गहरे तक डूब जाऊं। मेरी कोशिश रहती है कि जब भी, जितना भी वक्त मिले, वह लोक को समर्पित हो। हालांकि, बचपन के सात-आठ साल छोड़ दिए जाएं तो इसके बाद आज तक मुझे गांव में रहने का सौभाग्य नहीं मिला, लेकिन किसी न किसी बहाने जब भी मौका मिला, मैं गांवों में घूमा खूब हूं। शायद इसीलिए लोक कभी मुझसे जुदा नहीं हो पाया। शहरों में रहते हुए भी मैं हमेशा लोक के करीब रहा और लोक मेरे करीब। बीते दिनों जब बात चली कि अखिल गढ़वाल सभा कोरोनाकाल के दो साल बाद इस बार फिर देहरादून में 'कौथिग' का आयोजन करा रही है तो मन प्रफुल्लित हो उठा। वैसे तो बीते वर्षों में भी कौथिग में भागीदारी करता रहा हूं, लेकिन आखिल गढ़वाल सभा के सदस्य के रूप में यह पहला मौका है।


खास बात यह कि पहली बार कौथिग दस दिनों तक चलेगा और इस अवधि में लोक के हर रूप के दर्शन होंगे। गीतों में, बातों में, चर्चा-परिचर्चा में, नृत्य और नाटकों में लोक परिलक्षित होगा। आज कौथिग का पहला दिन था, जिसका आगाज शहर के केंद्रस्थल गांधीपार्क से रंगभरी सद्भावना रैली के साथ हुआ। रैली लोकवाद्यों की अनुगूंज के साथ गढ़वाली, कुमौनी, जौनसारी, नेपाली, जौनपुरी, भोटिया लोक संस्कृति के रंग बिखेरते हुई पूर्वाह्न 11 बजे अपने गंतव्य  रेसकोर्स के लिए आगे बढी़। मैं रैली में धारा चौकी के पास शामिल हुआ। पारंपरिक वेशभूषा में लोक नृत्यों पर थिरकते देहरादून में बसे पहाड़ के रैबासी और लोक कलाकार मनमोहक छटा बिखेर रहे थे। कुछ दूर चलने पर अखिल गढ़वाल सभा के महामंत्री गजेंद्र भंडारी नजर आए। उनके सिर पर सजी पहाडी़ काली टोपी की आभा देखते ही बन रही थी।

मेरे साथ उत्तरांचल प्रेस क्लब के महामंत्री ओपी बेंजवाल भी रैली का हिस्सा बने। हम प्रेस क्लब में अपना दुपहिया खडा़ कर रैली में शामिल हुए थे। मैंने भंडारी जी से हमें भी काली टोपी उपलब्ध कराने का आग्रह किया। उन्होंने दो टोपी दी तो मैंने एक और प्रेस क्लब अध्यक्ष जितेंद्र आंथवाल के लिए भी मांग ली। उन्होंने तहसील चौक के आसपास रैली में शामिल होने की बात कही थी। इसके बाद हमने भी सिर पर टोपियां सजा लीं। घंटाकर से रैली पलटन बाजार की ओर मुड़ गई। जगह-जगह लोग रैली का अभिनंदन कर रहे थे। कोतवाली के पास अंथवाल जी भी रैली में शामिल हुए। मैंने उन्हें टोपी भेंट की और हम कुछ अन्य परिचितों के साथ रैली के आगे-आगे चलने लगे। तहसील चौक जाने वाले मोड़ पर व्यापारी पुष्प वर्षा कर रैली का स्वागत कर रहे थे। साथ ही सभी को पानी भी पिला रहे थे।


कुछ आगे चलकर रैली राजा रोड की ओर मुड़ गई और हाइवे पर पहुंचने के बाद सीधे कचहरी को जोड़ने वाले संपर्क मार्ग में प्रवेश किया। धीरे-धीरे हम कचहरी परिसर स्थित शहीद स्मारक की ओर बढे़। वहां अखिल गढ़वाल सभा से जुडी़ महिलाओं ने पुष्प वर्षा कर रैली की आगवानी की। स्मारक की परिक्रमा करने के बाद शहीदों का स्मरण करते हुए उनके चित्रों पर सभी ने बारी-बारी से पुष्पांजलि अर्पित की। इस दौरान शहीद स्मारक परिसर लोक की मधुर लहरियों से गूंज उठा। यहां से रैली कौथिग आयोजन स्थल की ओर बढ़ गई, जहां दोपहर दो बजे के बाद कौथिग का विधिवत शुभारांभ होना था। हमें आफिस पहुंचने की जल्दी थी, इसलिए हमने कचहरी परिसर से सीधे प्रेस क्लब का रुख किया।

लगभग 15 मिनट बाद हम क्लब पहुंचे। मैंने वहां एक घंटे क्लब की शीघ्र प्रकाशित होने वाली स्मारिका 'गुलदस्ता' में प्रकाशन के लिए आए लेखों का संपादन किया और फिर दोपहर का भोजन कर आफिस के लिए रवाना हो गया। संयोग देखिए कि इस बार अखिल गढ़वाल सभा की ओर से अपनी स्मारिका के संपादन मंडल में मुझे भी शामिल किया गया है। अपना लेख मैं पहले ही ई-मेल से गढ़वाल सभा को प्रेषित कर चुका हूं। अब देखते हैं, कैसे स्मारिका का कार्य आगे बढ़ता है। फिलहाल तो जल्द से जल्द 'गुलदस्ता' का प्रकाशन करना है और इसके लिए इन दिनों मैं पूरे मनोयोग से जुटा हुआ हूं।

--------------------------------------------------------------

Colors of culture scattered in Doon

---------------------------------------------

Dinesh Kukreti

No matter who the people are, they are very dear to me.  Lok suits me in every form, every color and I feel like drowning deep in it.  It is my endeavor that whenever I get time, it should be devoted to the people.  Although, except for the seven-eight years of my childhood, till today I did not get the fortune of living in the village, but whenever I got a chance on some pretext or the other, I used to visit the villages a lot.  Maybe that's why people could never get separated from me.  Even while living in the cities, I have always been close to the people and the people close to me.  Recently, when it came to light that Akhil Garhwal Sabha is once again organizing 'Kauthig' in Dehradun after two years of the Corona period, then my mind became elated.  Although I have been participating in Kauthig in the past years also, but this is the first time as a member of Akhil Garhwal Sabha.


















The special thing is that for the first time Kauthig will last for ten days and during this period every form of people will be seen.  Folk will be reflected in songs, talks, discussions, dances and plays.  Today was the first day of Kauthig, which began with a colorful Sadbhavna Rally from Gandhi Park, the heart of the city.  The rally proceeded to its destination racecourse at 11 am, spreading the colors of Garhwali, Kumauni, Jaunsari, Nepali, Jaunpuri, Bhotia folk culture with echo of folk songs.  I joined the rally near Dhara Chowki.  Dancing on folk dances in traditional costumes, mountain rabasis and folk artists settled in Dehradun were spreading attractive shades.  After walking some distance, the General Secretary of Akhil Garhwal Sabha Gajendra Bhandari was seen.  The hill adorned on his head was becoming aura of black cap.

Along with me, OP Benzwal, General Secretary of Uttaranchal Press Club also became a part of the rally.  We had joined the rally by parking our two wheeler at the Press Club.  I requested Bhandari ji to provide us the black cap too.  They gave two caps, so I also asked for another Press Club President Jitendra Aanthwal.  He had talked about attending the rally around Tehsil Chowk.  After this we also decorated caps on our heads.  From Ghantakar, the rally turned towards Paltan Bazar.  People were felicitating the rally everywhere.  Anthwal ji also participated in the rally near Kotwali.  I presented him with a cap and we along with some other acquaintances proceeded to the rally.  Traders were welcoming the rally by showering flowers at the turn leading to Tehsil Chowk.  Along with this, everyone was also drinking water.

After some time, the rally turned towards Raja Road and after reaching the highway, directly entered the link road connecting the court.  Slowly we proceeded towards the martyr memorial located in the court complex.  There the women associated with Akhil Garhwal Sabha welcomed the rally by showering flowers.  After circumambulating the memorial, everyone took turns to pay floral tributes to the martyrs on their portraits.  During this, the Martyr Memorial complex resonated with the melodious waves of the people.  From here the rally proceeded towards the venue of the Kauthig, where after two o'clock in the afternoon, the formal inauguration of the Kauthig was to be held.  We were in a hurry to reach the office, so we headed straight from the court premises to the Press Club.

After about 15 minutes we reached the club.  I spent an hour there editing articles for publication in the Club's soon to be published souvenir 'Guldasta' and then left for office after having lunch.  Coincidentally, this time I have also been included in the editing board of my souvenir on behalf of Akhil Garhwal Sabha.  I have already sent my article to Garhwal Sabha by e-mail.  Now let's see how the work of the souvenir progresses.  For the time being, I have to publish 'Guldasta' as soon as possible and for this these days I am busy with all my heart.






Wednesday, 9 November 2022

07-11-2022 (एक यादगार शाम, दोस्त के नाम)


google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0

एक यादगार शाम, दोस्त के नाम
--------------------------------------

दिनेश कुकरेती
मैं शाम को आफिस के कार्य में व्यस्त था कि तभी एक काल आई। नंबर सेव नहीं था, इसलिए मैंने फोन उठाया नहीं। लेकिन, फिर सोचा कि क्यों न नंबर को ट्रूकालर में सर्च कर देखा जाए कि किसका है। सर्च किया तो उसमें जेपी कोटनाला नाम आ रहा था। मैं समझ गया कि काल मेरे बहुत पुराने साहित्यकार मित्र डा. जगदंबा प्रसाद कोटनाला (कुटज भारती) कर रहे हैं। लिहाजा मैंने नंबर डायल किया तो दूसरी तरह मित्र ही थे। शायद कुछ ज्यादा ही चढा़ रखी थी, इसलिए आवाज में लड़खडा़हट थी। लेकिन, अर्से बाद बात हो रही थी, इसलिए मैं भी बातचीत का लोभ संवरण न कर पाया। लगभग पौन घंटे हमारी बातचीत हुई, जिसे ज्यों के त्यों प्रस्तुत कर रहा हूं-

अरे साब! कुकरेती जी नमस्कार।

नमस्कार साब! नमस्कार!

अरे साब! तुम त हमरु फोन भि नि उठंदओ?
(साहब! तुम तो हमारा फोन भी नहीं उठाते हो)

क्या बात कना छौ। नि उठांदु त तुम सणि फोन किलै करदु।
(क्या बात करते हो। नहीं उठाता तो सामने से फोन क्यों करता)

चला क्वी बात नीs। भौत दिनो बात बात होंणी तुमरा दगड़। मिन फोन यांकु कारs कि अजकाल हमरा बच्चा भि तुमरैs मौला मा अयां छन।
(चलो कोई बात नहीं। बहुत दिनों बाद बात हो रही है तुम्हारे साथ। मैंने फोन इसलिए किया कि आजकल हमारे बच्चे भी तुम्हारे ही मोहल्ले में रह रहे हैं)

बच्चाs? हमरा मौला मा? कख अर किलै अयां छन? 
(बच्चा...? हमारे मोहल्ले में? कहां और क्यों आए हुए हैं?)

अरे भई! हमरि स्कूलक बच्चा। अजकाल खेल हूंणा छन न जिलास्तरीय। तुमरा घौरै समणि स्कूल मा छ ऊंकि ठैरणे व्यवस्था। क्या नाम छ यार वै स्कूलाकु ...चिल्ड्रन एकेडमी सैद।
(अरे भाई! हमारी स्कूल के बच्चे। आजकाल जिलास्तरीय खेल हो रहे हैं ना। क्या नाम है यार...उस स्कूल का...चिल्ड्रन एकेडमी शायद)

अच्छा-अच्छा। जो सिद्धबली रोड पर है ना। जिधर कवटियाल जी का घर है। गुरुजी का। हैप्पी चिल्ड्रन एकेडमी है उसका नाम।

हां-हां। कुकरेती जी मैं फोन इसलिए कर रहा था कि बच्चों को वहां वहां थोडा़ दिक्कत हो रही है। इसलिए सोचा, स्कूल आपके मोहल्ले में है तो आपको भी बता दूं। वैसे उन्होंने व्यवस्था सब ठीक की हुई है। पर...क्या बोलु तब। तुमतै बताणु भि जरूरी छौ। (क्या कहूं तब। तुम्हें बताना भी जरूरी था )

फिर भी... बतावा त सही, क्या दिक्कत छ? 
(फिर भी...बताओ तो सही, क्या दिक्कत है?)

(लड़खडा़ते स्वर में) यार...भई...क्या बतये जाव। मिन ऊंमा ब्वाल दिनेश कुकरेती जी अर ओमप्रकाश कवटियाल जी तैं जणदा छावा, त ऊंन मुंडु हलैकि ना बोलि द्ये। बृजमोहन कवटियाल जी को नौं ल्हे तो ब्वलण बैठिन, हां! ऊंतैं त जणदा छौं। बतावा तब, दिनेश कुकरेती तैं नि जणदना वु। य्या क्या बात ह्वे?
(यार...भाई...क्या बताया जाए। मैंने उनसे कहा, दिनेश कुकरेती जी और ओमप्रकाश कवटियाल जी को जानते हो, तो उन्होंने ना में सिर हिला दिया। बृजमोहन कवटियाल जी का नाम लेने पर बोले, हां! उन्हें तो जानते हैं। बताओ तब, दिनेश कुकरेती को नहीं जानते वो। ये क्या बात हुई)

क्वी बात नीs। मितैं त कई लोग नि जणदा। छ्वटा लोग छवां ना?
(कोई बात नहीं। मुझे कई लोग नहीं जानते। हम छोटे लोग हैं ना)












(विषय बदलते हुए) यारssss तुम त कम्युनिस्ट छा। क्या करे जा। हमसे त य्या लगीं छुटदी नीs। कतगा कोशिश कार छुडणा कि, पर और बढि़ ग्याई। तुमि बतावा, क्या उपाय छ यांकु। तुम कम्युनिस्ट ना, बिल्कुल अलग चलदौ, तुमुन अफु तैं बिल्कुल नि बदलू। कुछ नि कैरि साक तुम। दुनिया तैं द्याखा धौं, सौब अगनै चलि गैन अर तुम वखी छा। तुम पक्का कम्युनिस्ट छवा।
(यार...तुम तो कम्युनिस्ट हो। क्या करें, हमसे तो ये लगी हुई छूटती ही नहीं है। कितनी कोशिश की छोड़ने की, लेकिन और बढ़ती चली गई। तुम ही बताओ क्या उपाय है इसका? तुम कम्युनिस्ट तो बिल्कुल अलग चलते हो। तुमने अपने को बिल्कुल नहीं बदला। कुछ नहीं कर सके तुम, दुनिया को देखो ना, सब आगे चले गए और तुम वहीं के वहीं हो। तुम पक्के कम्युनिस्ट हो गए हो)

क्या करण फिर? हम भि बदल जवां क्या? हमरा बसाsक नी छन वु काम। हम जन छां, ठीक छां। मेहनत कना छां अर खुश छां।
(क्या करना है फिर? हम भी बदल जाएं क्या? हमारे बस का नहीं है वो काम। हम जैसे हैं, ठीक हैं। मेहनत कर रहे हैं और खुश हैं)

ना-ना। तुम कुछ नि छा। देवराणी जी तैं जणदा छवा? (ना-ना। तुम कुछ नहीं हो। देवराणी जी को जानते हो क्या?) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पौडी़ जिले के सचिव रहे वो। मैं दस साल उनके सानिध्य में रहा। उन्होंने मुझे जीवन के कई रहस्यों से परिचिति कराया, मैंने बहुत कुछ सीखा उनसे। वह कहते थे, कभी गीता पढी़ है तुमने। गीता को पढो़, उसमें जीवन जीने के सारे रहस्य समाए हुए हैं। गीता कर्म करना सिखाती है। पर, तुम कुछ नहीं मानते। तु-म कु-छ न-हीं मा-न-ते। तुम नास्तिक हो गए हो। घोर नास्तिक। तुमने नहीं पढा़ कभी गीता को।

अरे दादा! मैंने गीता भी पढी़ है और गुरुजी पीतांबर डेवरानी को भी अच्छे से जानता हूं। लंबे अर्से गुरुजी के साथ रहा और साप्ताहिक 'सत्यपथ' में उनके साथ काम भी किया। भगवद् गीता ही क्या, मैं हर ज्ञानवर्द्धक पुस्तक को पढ़ता हूं।

छोडो़ यार! 'सत्यपथ' से पहले देवराणी जी ने 'कर्मभूमि' निकाला। वर्ष 1985 से मैं उनसे जुडा़ रहा। 'सत्यपथ' में मैं उनसे नहीं मिला, पर तुमसे बहुत पहले से उनके साथ रहा। जरा बताओ तो,
'जो अपने खू़न में जारी नहीं है, अदाकारी, अदाकारी नहीं है'- ये शेर किसका है।

हरजीत का। में हरजीत के साथ रहा हूं और उन्हें सुना और पढा़ भी। दुर्भाग्य से अल्पायु में नियति ने उन्हें हमसे छीन लिया।

हां!
'जो अपने...खू़न...में...जारी...नहीं...है, अदाकारी... अदाकारी...नहीं...है।' क्या बात कही है हरजीत ने। तुम्हें पता है, ये शेर हरजीत ने कहां कहा था। कोटद्वार आए थे वो। उनके साथ गिरीश तिवारी गिर्दा भी थे। जब हरजीत गिर्दा से मिले तो गिर्दा ने हरजीत को आत्मीयता से गले लगाया था। हरजीत तब बीमार थे और कुछ ही महीने बाद चले गए। और...वो कार्यक्रम कमल जोशी जी ने कराया था। अब तो जोशी भी चले गए, पर मैः कभी नहीं भूलता कि, 'जो अपने...खू़न...में...जारी...नहीं...है, अदाकारी... अदाकारी... नहीं...है।'

हां! मैं वहीं तो था। नगर पालिका के सभागार में पूर्वाह्न के वक्त हुआ था वो कार्यक्रम। मैंने खबर भी लिखी थी। तब गिर्दा ने अपनी प्रसिद्ध ग़ज़ल सुनाई थी, ' सावनी सांझ आकाश खुला है, ओ हो रे ओ दिगौ लाली। छानी-खरीकों में धुंआ लगा है, ओ हो रे ओ दिगौ लाली।' मैं अपना बडा़ सौभाग्य मानता हूं कि इन लोगों के साथ रहा।


पर...तुम कम्युनिस्ट ना, कभी नहीं बदलोगे। तुमने बुद्ध को पढा़ है, जरथुस्त्र को पढा़, सुकरात को पढा़ है, वो क्या कहते हैं... कार्ल मार्क्स को पढा़ है? हरजीत ने यही तो कहा, 'जो अपने... खू़न... में... जारी...नहीं...है, अदाकारी... अदाकारी...नहीं...है।' तुमने खबर लिखी होगी। खबर लिखना अलग बात है। मैंने उन्हें साहित्य के नजरिये से समझा। तुम नहीं जानते मुझे। तुम बस! इतना जानते हो कि जगदंबा कोटनाला साहित्यकार है, पर मैं उससे और गहरा हूं। देवरानी जी के सानिध्य में रहा दस साल। अच्छा बताओ तो... 'जो... अपने... खू़न... में... जारी...नहीं...है', इसके आगे क्या है। नहीं मालूम ना। इससे आगे है, 'अदाकारी... अदाकारी...नहीं...है।' तुम्हें एक दिन पता चलेगा। मुझे भी पता चल गया। मैं भी नास्तिक था।

दादा...मैंने सब पढा़ है। आज भी पढ़ता हूं। वेद-उपनिषद भी पढे़ हैं। मैं चीजों को विज्ञान की दृष्टि से देखता हूं। मुझे अपने प्रति कोई गलतफहमी नहीं है।

याद है तुम्हें, हमारा एक अखबार निकलता था, साप्ताहिक 'वक्तव्य'। मैंने बहुत मेहनत की इस अखबार के लिए। तुम्हारे एक मित्र की मैंने कई बार मदद की। तीन महीने तक उसे पैसे दिए। पर, उसने मुझे धोखा दे दिया। तब मुझे दस हजार रुपये तनख्वाह मिलती थी अब तो एक लाख रुपये मिल रही है। प्रभु कि दया से कोई कमी नहीं है।फिर भी उसने धोखा दिया। हालांकि, आज भी वो मेरा बहुत अच्छा दोस्त है।

दादा। मैं सब जानता हूं, लेकिन सच में मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं है। मुझे तो यह बात आप से ही मालूम पडी़ है। मैंने तो 'वक्तव्य' के नाम पर अपने लिए कभी फूटी कौडी़ भी नहीं ली। खैर! जिसने जो किया, उसे मुबारक। मैं जैसा था और जैसा हूं, खुश हूं।

तुम तो नास्तिक हो गए हो, लेकिन एक दिन तुम्हें भी मेरे जैसे हकीकत मालूम पडे़गी।

हां-हां बिल्कुल पडे़गी। तब की तब देखी जाएगी।

चलो! मैंने तुम्हारा बहुत वक्त ले लिया। याद आ जाती है कभी दोस्तों की। मैं तो तुम्हें याद करते ही रहता हूं, पर बात करने का मौका कभी-कभी मिलता है। पर याद रखना 'जो अपने... खू़न... में... जारी...नहीं...है, अदाकारी... अदाकारी... नहीं...है।' मुझे बताओ 'सत्यमेव... जयते...' और 'जो अपने...खू़न... में...जारी...नहीं...है, अदाकारी... अदाकारी...नहीं...है', दोनों में क्या अंतर है?

दोनों का अर्थ एक ही है।

ये हुई न बात। पर कम्युनिस्टों के सामने 'सत्यमेव जयते' बोलूंगा तो सारे मुझे घेर लेंगे। और...'जो अपने... खू़न... में...जारी...नहीं...है, अदाकारी...अदाकारी...नहीं...है', बोलूंगा तो तालियां बजाएंगे।

ऐसा कुछ नहीं है। सत्य हर रूप में सत्य ही है और झूठ, झूठ ही।

अच्छाsss। कख छा इबरि? देरादूणs?
(अच्छा! कहां हो इस समय? देहरादून?)

हां! देरादूणीs छौं। आफिस मा।
(हां! देहरादून ही हूं। आफिस में)

चलो! अच्छी बात तब। नमस्कार!

नमस्कार! नमस्कार!








--------------------------------------------------------------


A memorable evening, friend's name
------------------------------------------------

Dinesh Kukreti
I was busy with office work in the evening that a call came. The number was not saved, so I did not pick up the phone. But, then thought why not search the number in Truecaller and see whose it is. When I searched, the name JP Kotnala was coming in it. I understood that Kaal is doing my very old literary friend Dr. Jagdamba Prasad Kotnala (Kutaj Bharati). So when I dialed the number, there were other friends only. Maybe it was too high, so there was a rumbling in the voice. But, after a long time the talk was going on, so I too could not explain the greed of the conversation. We had a conversation for about half an hour, which I am presenting as it is-
Hey sab! Hello Kukreti.

Hello Saab! Hi!

Hey sab! Tum ta humru phone bhi ni uthandao?

(Sir! You don't even pick up our phone)

What's the matter? Ni uthandu ta tum sani phone kilay kardu.
(What are you talking about. If you don't pick up, why would you call from the front)

Let's talk nees. You will talk about your future. Min phone yanku kar ki ajkaal hamara bachcha bhi tumrais maula ma ayan chan.
(Come on it doesn't matter. After a long time talking with you. I called because nowadays our children are also living in your locality)

kids? Our Maula Ma? What is it like? 
(Child...? In our locality? Where and why are you coming?)

Hey, Brother! We are school children. Ajkal Khel Huna Chan Na district level. Tumra Ghorai Samani School mach oonki thairane system. Kya naam chha yaar vai schoolaku ... Children's Academy Said.
(Hey brother! Children of our school. District level sports are being held these days, isn't it. What is the name of the school?

Good good. Which is on Siddhbali road. Where is the house of Kavatiyal ji. Why Guruji? Its name is Happy Children Academy.

Yes, yes. Kukreti ji, I was calling because the children are facing some problem there. So thought, if the school is in your locality, then let me tell you too. By the way, he has arranged everything right. But... what shall I say then? You need to talk. (What should I say then. I had to tell you too)

Still... tell me right, what's the problem? 
(Still... tell me right, what's the problem?)

(in a stuttering voice) Dude... Bhai... what to say. Min umma bwal dinesh kukreti ji ar omprakash kavatiyal ji tain janada chhawa, ta un mundu halaiki na boli deye. If Brijmohan Kavatiyal ji is happy, then sit down, yes! Came to live forever. Tell me then, Dinesh Kukreti tai ni janadana vu. What's the matter?
(Dude…brother…what to be told. I told him, if you know Dinesh Kukreti ji and Omprakash Kavatiyal ji, he nodded his head in no. Brijmohan said on taking the name of Kavatiyal ji, yes! Tell me then, he doesn't know Dinesh Kukreti. What happened)

Qui thing nis. Friends, many people die. Sixth people, right?
(Never mind. I don't know many people. We are little people, right)

(changing subject) Man ssss you are a communist student. What to do It was like a holiday from us. He tried hard to get rid of the car, but it got better. Tell me, what is the solution? You are not a communist, go completely different, you must change completely. Some ni cari sak you. Duniya tain diyakha dhon, saub agnai chali gain aar tum wakhi chha. You are a sure communist image.
(Man... you are a communist. What to do, it is not possible for us to leave it. How much effort has been made to quit, but it keeps on increasing. You tell me what is the solution? You communist walk completely differently. You haven't changed yourself at all. You can't do anything, look at the world, everyone has gone ahead and you are right there. You have become a staunch communist)

What's up again? Have we changed too young? Hamara basasak ni chan vu work. We are fine, we are fine. Good to work hard and be happy.
(What to do then? Shall we also change? We just don't have that work. We are fine as we are. Working hard and happy)

Grandfather. You missed something Devrani ji are you alive? (Na-na. You are nothing. Do you know Devrani ji?) He was the secretary of the Pauri district of the Communist Party of India. I lived with him for ten years. He introduced me to many secrets of life, I learned a lot from him. He used to say, have you ever read the Gita? Read the Gita, all the secrets of living life are contained in it. The Gita teaches to act. But, you don't believe anything. Tu-me-no-no-ma-na-te. You have become an atheist. Extreme atheist. You have never read the Gita.

Oh grandpa! I have also read Gita and know Guruji Pitamber Devrani very well. Stayed with Guruji for a long time and also worked with him in weekly 'Satyapath'. Bhagvad Gita Hi Kya, I read every enlightening book.

Leave it man! Before 'Satyapath', Devrani ji took out 'Karmabhoomi'. I have been associated with him since 1985. I did not meet him in 'Satyapath', but stayed with him long before you. Just tell me, 'The one who does not continue in his blood, is not acting, is not acting' - whose lion is this.

Why Harjit? I have stayed with Harjeet and listened and studied him. Unfortunately, at a young age, destiny took him away from us.

Yes! 'Who is in his...blood...continue...not...is, acting... acting...not...is.' What has Harjeet said? You know, where did Harjeet say this lion? He had come to Kotdwar. Girish Tiwari was also with him. When Harjit met Girda, Girda hugged Harjeet intimately. Harjit was ill then and passed away a few months later. And... that program was done by Kamal Joshi ji. Now Joshi is also gone, but I never forget that, 'who in his... blood... continues... not...', acting... acting... no... Is.'

Yes! I was there. That program was held in the auditorium of the municipality in the forenoon. I also wrote the news. Then Girda recited his famous ghazal, 'Sawni saanjh sky open hai, o ho re o Digou lali. There is smoke in the filters, O ho re o Digou Lali.' I consider it my great fortune to be with these people.

But... you communist nah, will never change. You have read Buddha, you have read Zarathustra, you have read Socrates, what do they say... have you read Karl Marx? This is what Harjeet said, 'Who is... in his... blood... continues... not... is, acting... acting... is not...'. You must have written the news. Writing news is a different matter. I understood them from the point of view of literature. you don't know me you're just! You know this much that Jagdamba Kotnala is a litterateur, but I am deeper than him. He lived in the company of Devrani ji for ten years. Well then tell... 'Joe... in your... blood... in... Continued... No... what's next. Don't know. Beyond this, 'Acting... Acting... No...'. You'll know one day. I got to know too. I was an atheist too.

Dada... I have studied everything. I still read today. Have also read Vedas and Upanishads. I look at things from the point of view of science. I have no misunderstanding towards myself.

Do you remember, we used to have a newspaper, the weekly 'Statement'. I worked very hard for this newspaper. I helped a friend of yours many times. Gave him money for three months. But, he cheated on me. Then I used to get ten thousand rupees as salary, now I am getting one lakh rupees. There is no shortage of the mercy of the Lord. Still he cheated. However, he is still a very good friend of mine.

Grandpa. I know everything, but really I have no such information. I have come to know about this from you only. I have never even taken a single penny for myself in the name of 'Statement'. So! Congratulations to whoever did it. I am happy as I was and as I am.

You have become an atheist, but one day you will also come to know the reality like me.

Yes - yes absolutely it will. Then it will be seen.

Let us go! I took a lot of your time. Sometimes I miss friends. I keep on remembering you, but sometimes I get a chance to talk. But remember 'Whoever...is in his...blood...continue...not...is, acting... acting...not...'. Tell me 'Satyamev... Jayate...' and 'Who is... in his... blood... continues... not... is, acting... acting... no... is 'What's the difference between the two?

The meaning of both is same.

that's the way. But if I say 'Satyamev Jayate' in front of communists, everyone will surround me. And... 'Who in his... blood... continues... not... is, acting... acting... not...

There is nothing like that. Truth is truth in every form and lies are lies.

good sss. What is it Ibri? Deadoons?
(Okay! Where are you at this time? Dehradun?)

Yes! Late afternoon. Office ma.
(Yes! I am Dehradun. In the office)

Let us go! Good thing then Hi!

Hi! Hi!

13-11-2024 (खुशनुमा जलवायु के बीच सीढ़ियों पर बसा एक खूबसूरत पहाड़ी शहर)

खुशनुमा जलवायु के बीच सीढ़ियों पर बसा पहाड़ी शहर ------------------------------------------------ ------------- भागीरथी व भिलंगना नदी के संग...