Tuesday, 26 April 2022

26-04-2022 (ऐतिहासिक लालपुल)

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ऐतिहासिक लालपुल 
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दिनेश कुकरेती

र्षों बाद आज नजीबाबाद-बुआखाल राष्ट्रीय राजमार्ग पर कोटद्वार-दुगड्डा के मध्य स्थित लालपुल तक जाना हुआ तो अतीत की स्मृतियां ताजा हो आईं। लेकिन, पहले आपको मैं लालपुल के अतीत से परिचित करा दूं। यह पुल कोटद्वार भाबर के ईष्ट सिद्ध बाबा (सिद्धबली) मंदिर से कुछ आगे खोह नदी पर बना हुआ है। कोटद्वार से इसकी दूरी लगभग तीन किमी है। सरकारी दस्तावेजों के अनुसार 16 टन क्षमता का यह स्टील गार्डर पुल 74 वर्ष पूर्व सन् 1948 में बनकर तैयार हुआ। लेकिन, वर्तमान में क्षमता से तीन गुना भारी वाहनों के गुजरने से यह जर्जरहाल हो चुका है। मैदानी क्षेत्र से गढ़वाल के एक बडे़ हिस्से को जोड़ने वाला मार्ग होने के कारण इस पुल से रोजाना सैकडो़ं छोटे-बडे़ और लोडेड वाहन गुजरते हैं। गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंटल सेंटर लैंसडौन को जोड़ने वाला भी यही प्रमुख मार्ग है, इसलिए सेना के वाहनों की आवाजाही भी इस पुल से निरंतर होती रहती है। बावजूद इसके पुल की बदहाली की ओर किसी का ध्यान नहीं है।

अतीत के पन्ने पलटें तो दुगड्डा से गढ़वाल के प्रवेश द्वार कोटद्वार की ओर सड़क निर्माण का कार्य ब्रिटिश शासनकाल में वर्ष 1901 में शुरू हुआ। तब सिद्धबली मंदिर के सामने वाली पहाडी़ को काटकर सड़क निकाली गई थी। वर्तमान में इस स्थान पर लोक निर्माण विभाग का गोदाम है। इस सड़क को टुटगदेरा की पहाडी़ पर काटी गई सड़क से जोड़ने के लिए झूलापुल बनाया गया था, जिससे राहगीरों के साथ ही बैलगाड़ी भी गुजरती थी। वर्ष 1890 में कोटद्वार तक रेल पहुंचने के साथ ही कोटद्वार-भाबर में बसागत बढ़ने लगी। धीरे-धीरे यहां एक छोटे-मोटे बाजार ने भी आकार ले लिया, लिहाजा इस सड़क से चौपहिया वाहनों की आवाजाही भी होने लगी। ऐसे में सड़क को नए सिरे काटने की जरूरत महसूस हुई। सो, झूलापुल से कुछ ही दूर खोह नदी पर स्टील गार्डर पुल का निर्माण हुआ, जिसे वर्तमान में लालपुल के नाम से जाना जाता है।













इस पुल की सुरक्षा के लिए दूसरे छोर पर चौकी भी बनी थी, जो नब्बे के दशक तक अस्तित्व में रही। लेकिन, इसके बाद से सब भगवान भरोसे है। पुल भी अब जर्जरहाल हो चला है और जिस तरह इस पर धड़ल्ले से 40 से 50 टन वजनी वाहन गुजर रहे हैं, उससे यह कभी भी खतरनाक साबित हो सकता है। अपनी उम्र पूरी कर चुके इस पुल के स्थान पर अब नए पुल का निर्माण होना है, लेकिन कब होगा, कहना मुश्किल है। कारण, इस स्थान के आरक्षित वन क्षेत्र में होने के कारण वन कानून नए पुल की राह में अवरोध खडे़ कर रहे हैं। खैर! देखते जाइए, आगे-आगे  क्या होता है।

सच कहूं तो लालपुल के चारों ओर स्थित मनभावन अरण्य मेरे लिए हमेशा पसंदीदा सैरगाह रहा है। बचपन और छात्र जीवन में यहां अक्सर आना होता था। भोर की बेला में कोटद्वार से दुगड्डा की ओर जाते हुए कई बार यहां से मैंने शावकों के साथ बाघ को गुजरते देखा है। ग्रीष्मकाल के दौरान हाथी तो यहां से रोज ही पानी पीने के लिए खोह नदी में उतरते हैं। पुल के पास सड़क से नदी में उन्हें अठखेलियां करते देखना अपने आप में आनंददायक अनुभूति है। आज भी लालपुल से 500 मीटर पहले सिद्धबली पुल के पास काफी देर तक मैं जंगल में विचरण करते हाथी को निहारता रहा। 

जेठ की तन झुलसाती गर्मी में यहां विशालकाय दरख्तों की छांव तन-मन को सुकून का एहसास कराती है। इसलिए शाम के वक्त लालपुल से यहां तक स्थानीय लोगों की भीड़ उमडी़ रहती है। हां! इतना जरूर है कि जब यहां से हाथियों का झुंड नदी में उतरता है, तब उससे दूर ही रहना चाहिए। वैसे सुखद यह है कि हाथियों इस झुंड ने कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया। लेकिन, इसका मतलब यह कतई नहीं कि हम लापरवाह हो जाएं। बहरहाल! आज इतना ही। कल फिर नए अनुभवों के साथ हाजिर होऊंगा। तब तक के लिए नमस्कार!

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Historic Lalpul

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Dinesh Kukreti

Years later, when I went to Lalpul located in the middle of Kotdwar-Dugadda on the Najibabad-Buakhal National Highway today, the memories of the past came back.  But, first let me introduce you to the past of Lalpul.  This bridge is built on the Khoh river, just ahead of the Ishta Siddha Baba (Siddhabali) temple of Kotdwar Bhabar.  Its distance from Kotdwar is about 3 km.  According to government documents, this 16-ton steel girder bridge was completed 74 years ago in 1948.  But, at present, it has become dilapidated due to heavy vehicles passing three times the capacity.  Being a road connecting a large part of Garhwal to the plain area, hundreds of small and large and loaded vehicles pass through this bridge daily.  This is also the main road connecting the Garhwal Rifles Regimental Center Lansdowne, so the movement of army vehicles also keeps on passing through this bridge.  Despite this, no one is paying attention to the condition of the bridge.
















If you turn the pages of the past, the work of road construction from Dugadda towards Kotdwar, the gateway of Garhwal, started in the year 1901 during the British rule.  Then the road was taken out by cutting the hill in front of the Siddhabali temple.  Presently there is a warehouse of Public Works Department at this place.  Jhulapul was made to connect this road with the road cut on the hill of Tutgadera, through which the bullock carts passed along with the passers-by.  With the arrival of rail to Kotdwar in the year 1890, the settlement of Kotdwar-Bhabar started increasing.  Gradually, a small market also took shape here, so the movement of four wheelers also started from this road.  Therefore, the need to cut the road again was felt.  So, a short distance from Jhulapul, a steel girder bridge was built on the Khoh river, which is currently known as Lalpul.

To protect this bridge, a post was also built on the other end, which remained in existence till the nineties.  But, since then everything is in God's trust.  The bridge has also become dilapidated now and the way vehicles weighing 40 to 50 tonnes are passing on it indiscriminately, it can prove to be dangerous anytime.  Now a new bridge is to be constructed in place of this bridge which has completed its age, but when it will happen, it is difficult to say.  Due to this place being in the reserved forest area, the forest laws are creating obstacles in the way of the new bridge.  So!  Let's see what happens next.

To be honest, the lovely sanctuary around Lalpul has always been my favorite resort.  Used to come here often in childhood and student life.  On my way from Kotdwar to Dugadda in the early hours of the morning, I have seen the tiger passing along with the cubs several times.  During summers, elephants descend into Khoh river to drink water every day from here.  It is a pleasure in itself to watch them play in the river from the road near the bridge.  Even today, 500 meters before Lalpul, I kept looking at the elephant walking in the forest for a long time near the Siddhbali bridge.

In the scorching heat of Jeth's body, the shade of giant trees gives a feeling of relaxation to the body and mind.  Therefore, in the evening, there is a crowd of local people from Lalpul till here.  Yes!  It is so necessary that when a herd of elephants descends into the river from here, then one should stay away from it.  Well the good thing is that this herd of elephants never harmed anyone.  But, that does not mean that we should be careless.  However!  That's all today.  Tomorrow I will be back again with new experiences.  Goodbye until then!

Saturday, 23 April 2022

23-04-2022 (कच्चे नारियल) (Part-2)


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किस्सागोई (दस)

कच्चे नारियल (भाग-2)

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दिनेश कुकरेती

ही वक्त पर रात ठीक दो बजे हम अपने-अपने घर पहुंच चुके थे। तब दो-सवा दो बजे तक रामलीला का मंचन चलता था। लौटते हुए हमने अगले दिन की प्लानिंग भी कर ली थी। हालांकि, यह तय था कि सुबह नारियल के पेड़ से फल टूटे देख बागीचे का मालिक भी सतर्क हो जाएगा। हमने पांच बडे़-बडे़ नारियल तोडे़ थे, इसलिए चोरी का पता लगना लाजिमी था। ऐसा ही हुआ भी। जब हम सुबह के वक्त उधर गए तो बागीचे का मालिक उस हिस्से में लकडी़ की बाड़ लगा रहा था, जो पैदल रास्ते की ओर था। इसके अलावा उसने नारियल के पेड़ पर भी एक बल्ब टांग दिया था। ताकि रात को वहां उजाला रहे। पर, हम भी इरादे के पक्के थे, इसलिए ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, हम अपने संकल्प से डिगेंगे नहीं।

रात साढे़ नौ बजे हम फिर रामलीला देखने निकल पडे़। बारह बजे तक रामलीला देखी, पांच रुपये की मूंगफली खाई और फिर अपनी मंजिल की ओर लौट पडे़। पेड़ पर बल्ब टंगे होने के कारण वहां उजाला पसरा हुआ था। ऐसे में जरूरी था कि पहले स्थिति जांच ली जाए, कहीं बागीचे का मालिक जाग तो नहीं रहा है। हमारी किस्मत अच्छी थी कि कोई जागा हुआ नहीं था। अब योजना के मुताबिक कल वाला साथी पेड़ पर चढ़ गया। सबसे पहला काम उसने यही किया कि रुमाल से पकड़कर बल्ब को होल्डर से अलग कर दिया। इससे वहां फिर आंधेरा पसर गया। पहले दिन हुई परेशानी को देखते हुए हम बडा़ और धारदार चाकू साथ ले गए थे। सो, नारियल काटने में कोई दिक्कत नहीं हुई। हमने बडे़-बडे़ पांच नारियल काट डाले।

निकाले गए बल्ब को फिर होल्डर में फिट कर दिया गया। पेड़ पर चढे़ साथी ने बल्ब को निकालने के बाद उसे रुमाल में लपेटकर जेब में रखा हुआ था। इसके बाद हम फिर नदी के टापू की ओर चल पडे़। उस रात नारियल छीलने में भी हमें ज्यादा वक्त नहीं लगा, इसलिए दो बजे से पहले ही घर पहुंच गए। लेकिन, इस संकल्प के साथ कि कल बाकी बचे पांच-छह नारियल पर भी हाथ साफ कर देंगे। अगले दिन नारियल चोरी की मोहल्लेभर भी चर्चा थी और हम मन ही मन प्रफुल्लित हुए जा रहे थे। योजना के मुताबिक रात को फिर आधी रामलीला देखने के बाद हम बागीचे में धमक पडे़। लेकिन, टाइमिंग में एक घंटे का बदलाव करके यानी रात ठीक एक बजे। 

इस बार पेड़ पर सौ वाट का बल्ब लटका हुआ था, इसलिए रोशनी काफी तेज थी। हमारे अभियान की यह अंतिम रात थी, लिहाजा निकाले गए बल्ब को हमने होल्डर पर दोबारा नहीं लगाया, बल्कि उसे वहीं खेत में फेंक दिया। उस रात हमने छह नारियल तोडे़। अब 12-14 छोटे-छोटे नारियल ही पेड़ पर रह गए थे, जिन्हें पकने में अभी वक्त लगना था। भलाई इसी में थी कि ज्यादा लालच न किया जाए। फिर छोटे-छोटे नारियल तोड़ने का कोई फायदा भी नहीं था। उधर, बागीचा मालिक भी अब ज्यादा ही सतर्क हो गया। उसने नारियल ही नहीं, आसपास आम के तीन-चार पेडो़ं पर भी बल्व लटका दिए। साथ ही रात को पहरा भी देने लगा। इस घटना के बाद मोहल्ले वाले भी काफी चौकन्ने हो गए थे। इससे हमारी इस तरह की शरारतों पर फिलहाल के लिए तो विराम लग ही गया। 
(समाप्त)

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Anecdote (10)

Raw Coconut (Part-2)

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Dinesh Kukreti

We had reached our respective homes at the right time at exactly two o'clock in the night.  Then the Ramlila was staged till 2.15 pm.  While returning, we had also planned for the next day.  However, it was certain that the owner of the orchard would also be alerted on seeing the fruit broken from the coconut tree in the morning.  We had broken five huge coconuts, so the theft was bound to happen.  The same thing happened.  When we went there in the morning, the owner of the garden was putting up a wooden fence in the area which was towards the walkway.  Apart from this, he had also hung a bulb on a coconut tree.  So that there is light there at night.  But, we were also firm in our intention, so we were determined that no matter what happens, we will not deviate from our resolve.

At 9.30 pm we again went out to see Ramlila.  Watched Ramlila till twelve o'clock, ate groundnut worth five rupees and then returned to his destination.  Due to the bulb hanging on the tree, the light was spread there.  In such a situation, it was necessary that the situation should be checked first, whether the owner of the garden was awake or not.  We were lucky that no one was awake.  Now as per the plan yesterday's companion climbed the tree.  The first thing he did was to separate the bulb from the holder by holding it with a handkerchief.  Due to this, darkness spread again there.  Seeing the trouble that happened on the first day, we took a big and sharp knife with us.  So, there was no problem in cutting the coconut.  We cut five big coconuts.

The removed bulb was then fitted into the holder.  The companion climbing the tree, after removing the bulb, wrapped it in a handkerchief and kept it in the pocket.  After that we again headed towards the river island.  It did not take us much time to peel the coconut that night, so we reached home before 2 o'clock.  But, with the resolve that tomorrow I will clear my hands on the remaining five-six coconuts as well.  The next day, there was talk of coconut theft throughout the locality and we were getting excited in our mind.  According to the plan, after watching the Ramlila again in the middle of the night, we stormed into the garden.  But, by changing the timing by one hour, that is, exactly one o'clock in the night.

This time a hundred watt bulb was hanging on the tree, so the light was very bright.  It was the last night of our campaign, so we did not reattach the removed bulb to the holder, but threw it there in the field.  We broke six coconuts that night.  Now only 12-14 small coconuts were left on the tree, which was yet to take time to ripen.  It was good not to be too greedy.  Then there was no use of breaking small coconuts.  On the other hand, the owner of the garden has also become more cautious now.  He hung bulbs not only on coconuts, but also on three or four mango trees around him.  Along with this, he also started guarding the night.  After this incident, the residents of the locality also became very alert.  This has put an end to our mischief for the time being.

 (End)

Friday, 22 April 2022

22-04-2022 (कच्चे नारियल) (Part-1)

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किस्सागोई (नौ) 
कच्चे नारियल (भाग-1)
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दिनेश कुकरेती
बात 1986 की है। बरसात बीत चुकी थी और रामलीलाओं का दौर शुरू होने वाला था। रामलीला को लेकर हम बेहद उत्साहित रहा करते थे। कोशिश होती थी रोज लीला का मंचन देखा जाए। इसकी एक वजह यह भी थी कि टीवी तक गिनती के घरों में ही हुआ करते थे, वह भी ब्लैक एंड व्हाइट। हालांकि, तब हमारी उम्र दो साल बढ़ गई थी, लेकिन खुरापातों का सिलसिला फिर भी जारी था। इसके लिए नई-नई तरकीब निकाली जाती थीं। सभी दोस्तों के सुझाव सुने जाते और जो खुरापात सबसे बेहतर लगती, उस पर अमल शुरू हो जाता। इस बार योजना यह बनी कि मोहल्ले में ही स्थित नारियल के पेड़ से कच्चे नारियल तोड़कर खाए जाएं। अब तक हममें से किसी ने भी कभी कच्चे नारियल नहीं खाये थे।

दरअसल, हमारे मोहल्ले की शुरुआत में सड़क से लगभग दस मीटर अंदर पैदल मार्ग से लगे बागीचे में यह नारियल का पेड़ था (अब भी है)। उस साल इस पर पहली बार नारियल लगे थे। पेड़ काफी ऊंचा था, इसलिए नारियल  चोरी होने का कोई डर भी नहीं था, हमें तो इसी चुनौती से पार पाना था। अक्टूबर शुरू होते ही रामलीलाएं भी शुरू हो चुकी थीं और हमें इसी अवधि में अभियान शुरू करना था। नारियल काटने के लिए चाकू और नारियल पानी पीने के लिए गिलास हमने पहले ही सुरक्षित रख लिए थे। अभियान में हम सिर्फ चार लोग शामिल थे। इस दौरान किस तरह की चुनौतियां सामने आ सकती हैं, इसके लिए शुरुआती दो दिन हम स्थिति का जायजा लेते रहे।

अब हम अभियान को अंजाम देने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो चुके थे। असल में नारियल बहुत ऊंचाई पर थे और पेड़ पर चढ़कर ही उन्हें तोडा़ जा सकता था। खैर! अगले दिन हम निकल पडे़ अभियान पर। लगभग रात बारह बजे तक हमने रामलीला का आनंद लिया और फिर पहुंच गए बागीचे में अपनी कर्मस्थली पर। आसपास का अच्छी तरह मुआयना करने के बाद तय हुआ कि हममें से एक ऐसा बंदा पेड़ पर चढे़गा, जिसे इसकी आदत है। इसके लिए हम सबमें सबसे बडे़ साथी ने यह जिम्मेदारी ली।

हालांकि, नारियल के पेड़ पर चढ़ना आसान काम नहीं है। इंसके लिए व्यक्ति का प्रशिक्षित होना बेहद जरूरी है। बहरहाल! हमारे बंदे ने पेड़ पर चढ़ना शुरू किया और आखिरकार शिखर पर पहुंच ही गया। वह चाकू भी अपने साथ लेकर पेड़ पर चढा़ था। लेकिन, पांच नारियल काटने में उसे लगभग आधा घंटा लग गया। इसके बाद पेड़ से नीचे उतरना भी किसी चुनौती से कम नहीं था, जिससे आखिरकार हमने  पार पा ही लिया। अब सवाल यह था कि तोडे़ गए नारियल छीले कहां जाएं। इसके लिए हमें सबसे बेहतर स्थान खोह नदी का तप्पड़ (टापू) लगा, जहां किसी की नजर नहीं पड़नी थी। सो, चल पडे़ हम उस टापू की ओर।

टापू बागीचे से ज्यादा दूर नहीं है। बामुश्किल एक किमी का फासला होगा बागीचा और टापू के बीच। सितंबर-अक्टूबर में वहां पहुंचने के लिए खोह नदी को पार करना पड़ता है। हालांकि, तब नदी में पानी बहुत ज्यादा मात्रा में नहीं रहता, फिर भी सावधानी बरतना बेहद जरूरी है। संयोग से तब नदी का रुख टापू के दूसरी ओर यानी पूर्वी छोर में था, इसलिए हम आसानी से टापू पर पहुंच गए। फिर शुरू हुआ नारियल छीलने का काम। ले-देकर हमारे पास एकमात्र चाकू था, इसलिए बडी़ मुश्किल से नारियल छीले जा सके। पहली बार कच्चे नारियल खाने को मिल रहे थे, इसलिए आनंद की अनुभूति तो होनी ही थी। 

(जारी...)

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Anecdote (9)

Raw coconut (Part-1)

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Dinesh Kukreti

The rain of 1986 had passed and the era of Ramlilas was about to begin.  We used to be very excited about Ramlila.  Efforts were made to see the stage of Leela every day.  One of the reasons for this was that even TVs used to be in counting houses, that too black and white.  Although, then our age had increased by two years, but the process of dosages was still going on.  For this, new methods were invented.  The suggestions of all the friends were listened to and the dosage which seemed best, would be implemented.  This time the plan was that raw coconuts should be eaten by breaking them from the coconut tree located in the locality itself.  Till now none of us had ever eaten raw coconut.

In fact, at the beginning of our locality, about ten meters from the road, this coconut tree was (still is) in the garden adjacent to the walkway.  Coconuts were planted on it for the first time that year.  The tree was very tall, so there was no fear of the coconut being stolen, we had to overcome this challenge.  By the beginning of October, the Ramlilas had also started and we had to start the campaign in this period.  We had already kept a knife for cutting coconut and glasses for drinking coconut water.  Only four of us were involved in the campaign.  For the first two days, we kept taking stock of the situation for what kind of challenges might come up during this period.  

Now we were mentally prepared to carry out the campaign.  Actually the coconuts were very high and could be broken only by climbing the tree.  So!  The next day we set out on the expedition.  We enjoyed Ramlila till about twelve o'clock in the night and then reached our work place in the garden.  After thoroughly inspecting the surroundings, it was decided that one of us would climb the tree, who is used to it.  For this the greatest friend of all of us took this responsibility.

However, climbing a coconut tree is not an easy task.  It is very important for the person to be trained for this.  However!  Our fellow started climbing the tree and finally reached the summit.  He had also climbed the tree with the knife with him.  But, it took him about half an hour to cut five coconuts.  After this, even getting down from the tree was no less than a challenge, due to which we finally overcome.  Now the question was, where to go to peel the broken coconut.  For this, we found the best place to be the tappad (island) of Khoh river, where no one was to be seen.  So, let's go towards that island.

The island is not far from the garden.  There will be hardly a distance of one kilometer between the garden and the island.  One has to cross Khoh river to reach there in September-October.  Although, then the water in the river is not very much, still it is very important to take precautions.  Incidentally, then the river was on the other side of the island i.e. in the eastern end, so we reached the island easily.  Then the work of peeling the coconut started.  By the way, the only knife we ​​had was to peel the coconut with great difficulty.  For the first time, raw coconut was being eaten, so there was bound to be a feeling of happiness.

(Ongoing...)

Thursday, 21 April 2022

21-04-2022 (अमीन की खटिया) (Part-3)


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किस्सागोई (आठ) 

अमीन की खटिया (भाग-तीन)

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दिनेश कुकरेती

मीन जी यह सुते ही आग बबूला हो उठे। उस प्रौढ़ महिला पर नहीं, उन्हें खटिया समेत नदी में छोड़ने वालों पर। उनकी गालियां और चिल्लाने की आवाज सुनकर आस-पास के घरों से भी लोग बाहर निकल आए। हालांकि, अभी माजरा किसी की समझ में नहीं आ रहा था। लेकिन, जब उस प्रौढ़ महिला ने कुरेदा तो अमीन जी लाउडस्पीकर की तरह फट बडे़। आठ-दस ट्रेडिशनल गालियां सुनाते हुए बोले, "रात ये खटुला समेत जु छोडि़ ऐ होलू मि तैं बीच नदी मा, जु बाघ खै जांदु त"(रात न जाने कौन मुझे चारपाई समेत बीच नदी में छोड़ आया, जो बाघ खा जाता तो)? उनकी यह बात सुनकर वहां हंसी के गुल्ले फूट पडे़। हम भी जोर-जोर हंसना चाहते थे, लेकिन मौके की नजाकत इसकी इजाजत नहीं दे रही थी। 

उधर, प्रौढ़ महिला मुस्कराते हुए बोली, "भैजी! कन बिहोश छा तुम सियां, जु कै तैं खटुला उठांद बि नि चितै। दारु पिईं रै होलि जरूर। ये बुढा़पा मा कन खज्येणा छा तुम (भाई! कैसे बेहोश सो रखे थे तुम, जो तुम्हें यह भी पता नहीं चला कि कोई खाट को उठा रहा है। दारु पी रखी रही होगी जरूर। इस बुढा़पे में कैसे बर्बाद हो रहे हो तुम)। यह सुन अमीन जी को काटो तो खून नहीं, सो चुपचाप बिस्तर समेत खाट कंधे पर रखी और बड़बडा़ते हुए चल पडे़ अपने ठौर की ओर। उनके जाते ही वातावरण में फिर ठहाके गूंजने लगे, शराबियों का एक नया किस्सा जो अस्तित्व में आ गया था। महीने-दो महीने के मनोरंजन का जुगाड़ तो था ही ये किस्सा।

नदी के किनारे तक का चक्कर लगाकर अमीन जी के पीछे-पीछे हम भी यह संकल्प लेते हुए घर वापस लौट आए थे कि इस बारे में कभी किसी के सामने मुंह नहीं खोलेंगे। उधर, घंटे-दो घंटे बाद ही पूरे मोहल्ले में अमीन जी के चर्चे आम हो गए। यहां तक कि नदी के पार रहने लोगों की जुबान पर भी अमीन जी ही चढे़ हुए थे। जिसे देखो, बस एक ही बात कह रहा था कि अमीन जी को रात कोई खटिया समेत कोई नदी में छोड़ आया। वह कौन रहा होगा, कुछ मालूम नहीं। ज्यादातर लोग तो यही कह रहे थे कि जिसने भी किया, ठीक ही किया। कोई तो गुरु टकराया बेवडे़ का। यह सुनकर हमारे भी कालर खडे़ हो रहे थे, पर फिर...।

वर्षों बाद आज जब उन कडि़यों को पिरो रहा हूं तो तन-मन में गुदगुदी-सी हो रही है। जोर-जोर से हंसने का मन कर रहा है, लेकिन ऐसा संभव नहीं। आस-पडो़स के लोग इकट्ठा हो जाएंगे। उन्हें लगेगा कि एकाकीपन ने मेरा दिमाग खराब कर दिया है। सचमुच कितना दुस्साहसिक कदम उठा बैठे थे तब हम। पर, नहीं उठाया होता तो क्या आज मैं आपको इतना शानदार किस्सा सुना रहा होता। निश्चित रूप से नहीं। यकीन जानिए, अतीत के यही किस्से तो हमारी धरोहर हैं और इसी बेशकीमती धरोहर को मैं शब्दों में पिरोकर आपकी नजर कर रहा हूं।

(समाप्त)

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Anecdote (8)

Amin's Cot (Part Three)

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Dinesh Kukreti

Amin ji got furious on hearing this.  Not on that mature lady, but on those who left her in the river with the cot.  Hearing their abuses and shouting, people also came out from the nearby houses.  However, no one could understand the matter right now.  But, when that mature lady scraped it, Amin ji exploded like a loudspeaker.  While uttering eight to ten traditional abuses, he said, "Raat ye khatula sath ju chhodi ae holu mi tain beach river ma, ju baag khai jandu ta" (Night don't know who left me in the middle river with a cot, if the tiger would have eaten)  ?  Hearing this, there were bursts of laughter.  We also wanted to laugh out loud, but the beauty of the occasion did not allow it.

On the other hand, the adult woman smiled and said, "Bhaiji!  You didn't even know that someone is lifting the cot. You must have been drinking alcohol. How are you getting wasted in this old age? If you bite Amin ji, then there is no blood, so quietly put the cot along with the bed on the shoulder.  And murmured, they walked towards their place. As soon as they left, laughter started reverberating in the atmosphere, a new story of alcoholics which had come into existence.

After circling up to the bank of the river, following Amin ji, we also returned home taking a pledge that we would never open our mouths in front of anyone about this.  On the other hand, after an hour or two, discussions of Amin ji became common in the entire locality.  Even Amin ji was on the tongue of the people living across the river.  Whoever you see, was saying only one thing that someone left Amin ji along with a cot in the river at night.  Who he must have been, I don't know.  Most of the people were saying that whoever did it, did it right.  Somebody collided with the guru of Bevde.  Hearing this, our calls were also getting raised, but then….

After years, when I am threading those links today, I am getting tickled in my body and mind.  Feeling like laughing out loud, but it is not possible.  Neighbors will gather.  They will feel that the loneliness has spoiled my mind.  We were really taking such an audacious step then.  But, had I not picked up, would I have been telling you such a wonderful story today.  Definitely not.  Know for sure, these tales of the past are our heritage and I am looking at you by putting this priceless heritage in words.

(The end)

Wednesday, 20 April 2022

20-04-2022 (अमीन की खटिया) (Part-2)

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किस्सागोई (सात)

अमीन की खटिया (भाग-2)

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दिनेश कुकरेती

ह हमारे बारात में जाने का दिन था। तारीख तो याद नहीं रही, लेकिन शायद उस दिन शनिवार था। हम बेसब्री से बारात के चलने का इंतजार कर रहे थे। बारात हमारे मोहल्ले से करीब डेढ़ किमी दूर मुख्य बाजार से लगे इलाके में ही जानी थी। रात दस बजे के आसपास बारात अपने गंतव्य स्थल पहुंची। भोजन करने में लगभग 11 बज गए। इसके बाद बाकायदा वीसीआर पर फिल्म चलने लगी, लेकिन अपुन का तो फिल्म देखने का मन ही नहीं था। मिशन पर जो जाना था। खैर! रात साढे़ बारह बजे तक हम जैसे-तैसे वहां डटे रहे और फिर निकल पडे़ मिशन को मंजिल तक पहुंचाने के लिए। ठीक एक बजे हम अमीन जी की खटिया के पास थे।

अमीन जी बेहोशी में खर्राटे ले रहे थे। हमने खटिया हिलाई, तो भी वह टस से मस तक नहीं हुए। सो, हम बेफिक्र हो गए कि अब कोई दिक्कत नहीं है। बस! प्रभु का स्मरण किया और खटिया कंधे पर उठाकर चल पडे़ सड़क की ओर। सड़क में पहुंचने पर हम बिना कुछ विचार किए तेजी से खोह नदी की दिशा में मुड़ गए। ताकि जल्द से जल्द आबादी वाले क्षेत्र से बाहर निकल सकें। तब सड़क नदी के छोर पर जाकर खत्म हो जाती थी। अब तो वहां से नदी पर शानदार आरसीसी पुल बन गया है। नदी में गर्मियों के दौरान सिद्धबली मंदिर से नीचे की ओर नाममात्र को ही पानी रहता है। इसलिए हम बेफिक्र हो लगभग एक किमी सिद्धबली मंदिर की ओर नदी के दूसरे छोर पर खटिया समेत अमीन जी को रखकर घर लौट आए। 

वहां से लौटते हुए हम तय कर चुके थे कि सुबह साढे़ सात बजे के आसपास फिर नदी की ओर जाएंगे, यह देखने कि अमीन जी उठे या नहीं और उठ चुके हैं तो उनकी क्या प्रतिक्रिया है। इसके बाद हम सोने के लिए चले गए, लेकिन नींद थी कि पास फटकने का नाम ही नहीं ले रही थी। दरअसल जोश में हम अमीन जी को खटिया समेत नदी में छोड़ तो जरूर आए थे, लेकिन अब डर यह लग रहा था कि कहीं कोई अनहोनी न घट जाए। पास ही उत्तर-पूर्व दिशा में घना जंगल होने के कारण रात के वक्त नदी में जंगली जानवरों की सक्रियता बढ़ जाती है। यहां तक कि बाघ-गुलदार की भी। ऐसे में किसी ने अमीन जी पर हमला कर दिया तो? नशे में टुन्न होने के कारण वह तो प्रतिरोध करने की स्थिति में भी नहीं थे।

पर, अब किया भी क्या जा सकता था। तीर तो तरकश से निकल चुका था और उसे वापस तरकश में रखना किसी भी सूरत में संभव नहीं था। अब तो एक ही विकल्प शेष था कि धैर्य से भोर होने का इंतजार किया जाए। खैर! जैसे-तैसे आंखों ही आंखों में करवट बदलते हुए रात गुजारी और भोर होते ही बहाना बनाकर निकल पडे़ अमीन जी की सुध लेने। अमीन जी के घर के पास पहुंचे तो उनके दोनों लड़के नजर आ गए। दोनों हैरान-परेशान थे कि आखिर बापू चारपाई समेत कहां लापता हो गया। दोनों भाई तरह-तरह के कयास लगा रहे थे। धीरे-धीरे उनकी बातें सुनकर वहां लोग इकट्ठा होने लगे तो हमने चुपचाप वहां से खिसक लेने में ही भलाई समझी।

वहां से जैसे ही हम मोहल्ले को पार कर सड़क में पहुंचे,  तो देखा कि दूर नदी की ओर से कांधे पर खटिया व बिस्तर रखे एक व्यक्ति इधर ही चला आ रहा है। हम समझ गए कि वाह अमीन जी ही हैं। साथ ही देखकर सुकून भी हुआ कि सकुशल हैं। हम धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। अमीन जी एक मकान के पास पहुंच चुके थे। चलते-चलते वह तेज-तेज बड़बडा़ भी रहे थे। हालांकि, हम तक उनकी स्पष्ट आवाज नहीं पहुंच पा रही थी, लेकिन भाव-भंगिमायें चीख-चीखकर बयां कर रही थी कि वे हमें ही गालियां दे रहे हैं। आसपास के सभी लोग उन्हें जानते थे, इसलिए उस मकान के बाहर खडी़ प्रौढ़ महिला तो उनसे पूछ ही बैठी, "भैजी! कख बटि आणा छौ, स्ये खटुला ल्हेकि। अर गालि़ कै तैं दीणा छौ" (भाई जी! कहां से आ रहे हो इस खटिया को लेकर और गाली किसे दे रहे हो )।

(जारी...)

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Anecdote (7)

Amin's Cot (Part-2)

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Dinesh Kukreti

It was the day we went to the procession.  Can't remember the date, but maybe that day was Saturday.  We were eagerly waiting for the procession to start.  The procession was to be known only in the area adjacent to the main market, about one and a half km from our locality.  Around ten o'clock in the night the procession reached its destination.  It was almost 11 o'clock for dinner.  After this the film started playing on VCR, but Apun did not feel like watching the film.  Who had to go on the mission.  So!  We stayed there somehow till twelve o'clock in the night and then set out to take the mission to the destination.  At exactly one o'clock we were near Aminji's cot.

Amin ji was snoring unconsciously.  We shook the cot, even then it didn't budge.  So, we rest assured that there is no problem anymore.  bus!  He remembered the Lord and took the cot on his shoulder and walked towards the road.  On reaching the road, we took a quick turn in the direction of Khoh river without hesitation.  In order to get out of the populated area as soon as possible.  Then the road ended at the end of the river.  Now from there a magnificent RCC bridge has been built over the river.  During the summer, the river receives only nominal water from the Siddhabali temple downstream.  So we were carefree and returned home after keeping Amin ji along with the cot on the other end of the river towards Siddhabali temple, about one kilometer away.

Returning from there, we had decided to go back to the river around 7.30 in the morning to see if Amin had risen or not and if he had got up, what was his reaction.  After that we went to sleep, but there was sleep that the pass was not taking its name.  In fact, in enthusiasm, we had definitely come to leave Amin ji in the river along with the cot, but now there was a fear that something untoward might happen.  Due to the dense forest nearby in the north-east direction, the activity of wild animals increases in the river during the night.  Even the tiger-guldar.  In such a situation, if someone attacked Amin ji?  Being intoxicated, he was not even in a position to resist.

But what could have been done now?  The arrow had gone out of the quiver and it was not possible to put it back in the quiver.  Now the only option left was to patiently wait for the dawn.  So!  As soon as he spent the night changing his eyes in his eyes and as soon as the morning dawned, he went out to take care of Amin ji.  When he reached near Amin ji's house, both his boys were seen.  Both were puzzled as to where Bapu had gone missing with the cot.  Both the brothers were speculating.  Slowly people started gathering there after listening to his words, so we thought it better to move away from there silently.

From there, as soon as we crossed the locality and reached the road, we saw that a person with a cot and bed on his shoulder was walking from the far side of the river.  We understood that it is Wah Amin ji.  Also, it was a relief to see that he is safe.  We slowly started moving forward.  Amin ji had reached near a house.  He was murmuring loudly as he went on.  Although his clear voice could not reach us, but his expressions were screaming that he was abusing us.  Everyone around knew him, so the mature lady standing outside that house sat asking him, "Bhaiji! Kakh bati aana chau, sye khatula lheki. Ar gali kai tain deena chau" (Brother! Where are you coming from?  Who else are you abusing about this cot).

 (Ongoing...)



Tuesday, 19 April 2022

19-04-2022 (अमीन की खटिया) (Part-1)


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किस्सागोई (छह)

अमीन की खटिया (भाग-1)

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दिनेश कुकरेती

चपन में अगर शरारतें न हों तो कैसा बचपन। यह ठीक है कि मैंने सुविधा-संपन्न बचपन नहीं देखा, लेकिन कमोबेश एक बेफिक्र बचपन जरूर जिया। मिट्टी, पानी व पेड़-पौधों से तो मेरा हमेशा ही गहरा वास्ता रहा। खेल भी जो आम बच्चों के होते हैं (थे), उन्हें खूब खेला। हां! अन्य बच्चों से थोडा़ अंतर मुझमें यह रहा कि मुझे तब तरह-तरह के कामिक्स पढ़ने का चस्का लग चुका था और ज्यादातर वक्त कामिक्स की तलाश व उन्हें पढ़ने में गुजरता था। दरअसल तब पैसे तो होते थे नहीं, इसलिए कामिक्स के लिए इधर-उधर से जोड़-तोड़ करना पड़ती थी। खैर! ये एक लंबी कहानी है, जिसे किसी दिन फुर्सत में सुनाऊंगा। फिलहाल तो कुछ मनोरंजन हो जाए।

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वर्ष 1984 की बात होगी। तब मैं नवीं में पढ़ता था, बल्कि नवीं कर चुका था, क्योंकि तब वार्षिक परीक्षाएं हो चुकी थीं। उस दौर में वीसीआर और वीसीपी पर पिक्चर देखने का खासा क्रेज हुआ करता था। उसके लिए बाकायदा पैसे इकट्ठा किए जाते थे। लेकिन, किसी की शादी हो तो पूरी रात फ्री में पिक्चर देखने को मिल जाया करती थीं। तब हम दो-तीन दोस्त भी अगर किसी शादी में शामिल हो गए तो फिर दो या तीन फिल्म देखने के बाद ही घर लौटते थे। मेरे लिए तो ये खास मौका हुआ करते थे, क्योंकि तब मेरे घर में टीवी नहीं था। यह किस्सा ऐसी ही एक शादी का है।













उन दिनों जिस मकान में हम किराये पर रहते थे, वह मेरे मोहल्ले का सबसे आखिरी मकान था। लेकिन, जिस मकान का मैं जिक्र करने वाला हूं, वह सड़क से मेरे मोहल्ले का पहला और मेरे घर से आखिरी मकान था। उस मकान के मालिक से पूरे मोहल्ले की नहीं बनती थी यानी अनबन रहती थी। मकान मालिक पति-पत्नी बुजुर्ग होने के बावजूद बेहद झगडा़लु थे। बस! अवसर की तलाश में रहते कि कब मोहल्ले के किसी व्यक्ति से कोई चूक हो और उससे झगडा़ शुरू किया जाए। मोहल्ले वाले भी उनसे विशेष सावधान रहते थे, लेकिन वह दोनों जान-बूझकर उन्हें उकसाने की कोशिश करते। इसलिए महीने में एक बार तो झगडा़ देखने को मिल ही जाता था।














इस झगडा़लु दंपती के मकान में दो बेटों के साथ एक सज्जन किराये पर रहते थे। 55-56 साल तो तब उम्र रही ही होगी उनकी। बेहद आला दर्जे के शराबी। शाम छह-सात बजे के बाद तो होश में रहना उन्हें गवारा ही नहीं था। तहसील में अमीन (जमीन की नाप-जोख करने वाला कर्मचारी) होने के कारण ऊपरी कमाई ठीक-ठाक हो जाया करती थी, इसलिए दिल खोलकर शराब पीते। कई बार तो बेहोशी की हालत में रात को लोग उन्हें घर पर छोड़ जाया करते थे। उनके छोटे लड़के से हमारी यानी मेरी और मेरे दोस्तों की अच्छी छनती थी। अमीन गर्मियों के दिनों में रात को कभी कमरे में नहीं सोते थे। खुले बरामदे में ही उसकी खटिया लगती थी और बरामदा बिल्कुल मोहल्ले के रास्ते से लगा हुआ था। 















तब मेरे मनो-मस्तिष्क में तो कोई न कोई खुरापात चलती ही रहती थी। एक दिन मन में आया कि क्यों न रात में अमीन जी को खटिया समते उठाकर कहीं दूर छोड़ दिया जाए। मैंने मन की बात अपने दोस्त से साझा की, जो मेरी ही उम्र का था। छह-साथ दिन तक हम अपने इस मिशन को कार्यरूप देने में जुटे रहे। तमाम किंतु-परंतु से निकलने का रास्ता तलाशा गया। मिशन को बेहद सतर्कता से अंजाम तक पहुंचाना था, इसलिए ऐसे दिन का चयन किया गया, जिस दिन हम किसी बारात में मेहमान हों। तय हुआ कि हम दोनों के सिवा किसी तीसरे को मिशन के बारे में कानोंकान भी खबर नहीं लगने दी जाएगी।

(...आगे क्या हुआ, जानने के लिए कल तक का इंतजार कीजिए।)

(जारी...)

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Anecdote (6)

Amin's cot

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Dinesh Kukreti

If there are no mischief in childhood, then what kind of childhood?  It is true that I did not see a prosperous childhood, but I did live more or less a carefree childhood.  I have always had a deep relationship with soil, water and plants.  Even the games which belong to ordinary children (were), played them a lot.  Yes!  The slight difference in me from other children was that I was addicted to reading different types of comics then and spent most of the time looking for comics and reading them.  Actually, there was no money then, so for the comics, manipulations had to be done from here and there.  So!  This is a long story, which I will tell someday at leisure.  For now, let's have some fun.














It will be about the year 1984.  Then I used to study in ninth, rather I had done ninth, because then the annual examinations were over.  At that time, there used to be a lot of craze to see pictures on VCR and VCP.  Money was collected for that.  But, if someone is married, then the whole night used to get to see the picture for free.  Then, if two or three friends also attended a wedding, then we would return home only after watching two or three films.  It used to be a special occasion for me, because then there was no TV in my house.  This story is about one such marriage.

In those days the house where we lived on rent was the last house in my locality.  But, the house I am about to mention was the first one in my neighborhood across the road and the last one from my house.  The entire locality was not formed with the owner of that house, that is, there was a rift.  Landlord husband and wife, despite being elderly, were very quarrelsome.  bus!  While looking for the opportunity when there is a mistake with any person of the locality and start a fight with him.  The local people were also very careful with them, but both of them would deliberately try to provoke them.  That's why fights used to be seen once in a month.

A gentleman with two sons lived on rent in the house of this quarrelsome couple.  His age must have been 55-56 years then.  Very high class alcoholic.  After six to seven o'clock in the evening, he could not bear to remain conscious.  Being an Amin (a land measuring employee) in the tehsil, the upper income used to be decent, so he used to drink alcohol openly.  Many times people used to leave them at home in the state of unconsciousness at night.  We used to have a good filtering with his little boy i.e. me and my friends.  Amin never slept in the room at night during the summer days.  His cot was used in the open verandah and the verandah was directly adjacent to the road of the locality.

At that time, there was always some misery going on in my mind.  One day it came to mind that why should not Amin ji be left somewhere far away after picking up a cot in the night.  I shared Mann ki Baat with my friend, who was my age.  For six days at a time, we were busy in making this mission work.  Finding a way out of all the buts.  The mission had to be carried out very carefully, so such a day was chosen, on which day we are guests in a procession.  It was decided that except the two of us, no third person would be allowed to hear about the mission.

(...Wait till tomorrow to know what happened next.)

(Ongoing...)


Monday, 18 April 2022

18-04-2022 (पत्थरों की बारिश)


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किस्सागोई (पांच)

पत्थरों की बारिश

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दिनेश कुकरेती

हले दिन मिली सफलता ने मेरे हौसले बुलंद कर दिए थे। अब तैयारी अभियान को और गति देने की थी। इसलिए दूसरे दिन मैं दोगुने उत्साह के साथ लोगों के घरों पर पत्थर बरसाने की तैयारी में जुट गया। इधर, रात की घटना को लेकर मोहल्ले में तरह-तरह की चर्चाएं होने लगी थीं। कोई कहता कि जरूर मोहल्ले का ही कोई व्यक्ति इस कारस्तानी को अंजाम दे रहा है, तो कुछ घटना को भूत-प्रेत से जोड़ने लगे। इनमें बुजुर्ग लोग ज्यादा थे। मेरी मित्र चौकुडी़ भी अपनी सोच के हिसाब से कयास लगा रही थी। लेकिन, मुझे इस सब की कोई परवाह नहीं थी। इसलिए सांझ ढलने ही मैंने खुराफात की माला गूंथनी शुरू कर दी।

शाम का भोजन हो चुका तो सभी ने कुछ देर टहलने के बाद सोने की तैयारी शुरू कर दी। इस दौरान सभी पिछली रात की घटना पर ही चर्चा कर रहे थे। घटना की पुनरावृत्ति को लेकर मेरे घर वाले भी डरे हुए से थे, लेकिन कह कुछ नहीं रहे थे। मेरे भी अपने तर्क थे, जिनका उनके पास कोई जवाब नहीं था। फिर उनकी संतुष्टि के लिए हनुमान चालीस तो मैंने सिरहाने रखी हुई थी ही। लेकिन, अभियान को आगे बढा़ने के लिए उस दिन मुझे थोडा़ इंतजार करना पडा़, क्योंकि हर कोई अतिरिक्त सतर्कता बरत रहा था। खैर! जब साढे़ बारह बजे तक सब-कुछ सामान्य रहा तो सभी सोने के लिए चले गए। अब जागने की बारी मेरी थी, सो एक बजते ही मैंने पांच-पांच मिनट के अंतराल में पडो़स की चादर की छत पर निशाना साधना शुरू कर दिया।

फिर क्या, सब घरों से बाहर निकल पडे़। कुछ के हाथों में डंडे थे। यानी उस वक्त सचमुच पत्थर फेंकने वाला उनके हाथ आ जाता तो उसका कचूमर बना डालते। दोस्त की दादी के श्रीमुख से पुष्प वर्षा की तरह गालियां बरस रही थी। कुछ नई गालियां और कुछ परंपरा में चली आ रही यानी ट्रेडिशनल। मोहल्लेभर में पत्थरबाज की ढूंढ-खोज होने लगी थी, लेकिन किसी के हाथ कोई सुराग नहीं लगा। इससे कई पडो़सियों में यह धारणा भी पुख्ता होने लगी कि यह भूत-प्रेत का ही चक्कर है। मैंने हालांकि, भूत-प्रेत का अस्तित्व कभी नहीं माना, लेकिन थोडा़ भय इस बात को लेकर होने लगा कि कहीं ये लोग किसी पुछेरे (गणना कर वास्तविकता का पता लगाने वाला ) के पास न चले जाएं और मेरा भेद न खुल जाए। क्योंकि, दो-एक पडो़सी आपस में खुसर-पुसर कर रहे थे कि अब इस समस्या का हल कोई पुछेरा ही निकाल सकता है।

वैसे एक मन यह भी कह रहा था कि ये भले ही किसी के पास भी चले जाएं, कुछ हाथ लगने वाला नहीं। इसी उधेड़बुन में न जाने कब मुझे नींद ने आपने आगोश में ले लिया, पता ही नहीं चला। अगले दिन इस मुद्दे ने और व्यापकता ले ली। दिनभर बस! यही विषय लोगों की जुबान पर रहने लगा। जिनकी छत पर पत्थर बरस रहे थे, उनसे तो न उगले बन रहा था, न निगले ही। उनका बडा़ बेटा मेरे साथ ही रहता था। वह भी काफी डरा हुआ था। अगले कुछ दिनों में तो स्थिति यह हो गई कि जिन पडो़सियों के घरों में लाइसेंसी बंदूक थी, उसे उन्होंने बाहर निकाल लिया। पुलिस में जाने की बातें भी होने लगीं।

अभियान को दस दिन हो चुके थे। मुझ पर भी बाहर न सोने के लिए घर वालों का दबाव बढ़ता जा रहा था। मेरे लिए यही सबसे बडा़ चिंता का विषय था। कारण, अगर मैं बाहर नहीं सोता तो पत्थर भी नहीं बरसते और इससे शक की सुई सीधे मेरी ओर घूम जाती। इसलिए नवें दिन मैंने खुद ही युद्ध विराम की घोषणा कर दी। साथ ही घर वालों को भी मना लिया कि पत्थर बरसने पर मैं बिना किसी किंतु-परंतु के बाहर सोना बंद कर दूंगा। 

अगले दो-तीन दिन पत्थर बरसने की कोई घटना नहीं हुई। सब सुकून में थे, लेकिन साथ ही सबने एक मत से यह भी स्वीकार लिया था कि घटना के पीछे भूत-प्रेत ही था। मेरे हित में तो यही था कि सबकी सुनूं और अपनी जुबान को बंद रखूं। मितरों! लगभग दस साल तक मैं अपने इस संकल्प पर अडिग रहा और एक दिन जब उस दौर के कुछ दोस्तों व नाते-रिश्ते वालों के सामने मैंने सच्चाई बयां की तो सबकी आंखें खुली की खुली रह गईं। मेरे दोस्त की वह खतरनाक दादी, जिनकी जुबान से फूलों की तरह नाना प्रकार गालियां झरती थीं, मेरे मुंह से यह सब सुन अपनी उन गालियों के लिए स्वयं को कोसने लगीं। 

फिर उन्होंने स्नेह पूर्वक मुझे चाय पिलायी और साथ में आदतानुसार अपने नाती यानी मेरे दोस्त को दो गालियां भी सुनाई कि वह तो घटना के बारे में जानता रहा होगा। तब उन्हें बता देता तो वह क्यों मुझे इतनी गालियां सुनातीं। मैंने कहा, उसे भी कुछ मालूम नहीं था, क्योंकि मैंने उससे भी यह राज छिपा कर रखा था। अगर बता देता तो ऐसा यादगार किस्सा कैसे बन पाता। ऐसी ही न जाने कितनी यादें हैं, जिन्हें सुनाते हुए अब आनंद की अनुभूति हो रही है। ...तो कल फिर मिलते हैं, एक नए यादगार किस्से के साथ...।

(जारी...)

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Anecdote (5)


Rain of stones
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Dinesh Kukreti

The success I got on the first day raised my spirits.  Now preparations were on to give further impetus to the campaign.  So the next day, with double enthusiasm, I started preparing to throw stones at people's homes.  Here, various discussions started taking place in the locality regarding the incident of the night.  Some would say that definitely some person from the locality is doing this act, then some started connecting the incident with ghosts and ghosts.  Elderly people were more among them.  My friend Chaukudi was also speculating according to his thinking.  But, I didn't care about all this.  So as soon as evening fell, I started kneading the garland of Khurafat.

After the evening meal was over, everyone started preparing to sleep after a short walk.  During this, everyone was discussing the incident of last night itself.  My family members were also scared about the recurrence of the incident, but were not saying anything.  I also had my own arguments, to which they had no answer.  Then for their satisfaction, I had kept Hanuman Chali by my head.  But, I had to wait a while that day to go ahead with the campaign, as everyone was taking extra precautions.  So!  When everything was normal till 12.30 o'clock everyone went to sleep.  Now it was my turn to wake up, so as soon as one o'clock I started aiming at the roof of the neighboring sheet in an interval of five minutes.

Then what, everyone came out of the house.  Some had sticks in their hands.  That is, if the stone thrower had really come in his hands at that time, he would have made his Kachumar.  Abusing was pouring down like flower rain from the friend's grandmother's head.  Some new abuses and some are going on in the tradition i.e. traditional.  The stone pelter was being searched all over the locality, but no one could find any clue.  This also strengthened the belief among many neighbors that this is the affair of ghosts.  Although I never believed in the existence of ghosts, but there was a little fear that these people might not go to any questioner (the one who finds out the reality by calculation) and my secret might not be revealed.  Because, one or two neighbors were chirping amongst themselves that now the solution to this problem can only be found by someone.
By the way, a mind was also saying that even if they go to anyone, nothing is going to be done.  Don't know in this turmoil, when you took me in the lap of sleep, I did not even know.  The next day the issue took on more prominence.  All day long!  This topic started living on the tongue of the people.  Those on whose roof the stones were raining, neither could it be swallowed nor swallowed.  His eldest son lived with me.  He was also very scared.  In the next few days, the situation became such that the neighbors who had licensed guns in their homes, they took it out.  There were also talks of going to the police.

It had been ten days since the campaign.  The pressure of the family members was increasing on me not to sleep outside.  This was the biggest concern for me.  Cause, if I didn't sleep outside, even the stones wouldn't rain and that would have turned the needle of doubt straight towards me.  So on the ninth day I myself declared a ceasefire.  At the same time, I also convinced the family members that I would stop sleeping outside without any buts if the stones rained.

There was no incident of stone pelting for the next two-three days.  Everyone was in peace, but at the same time everyone had accepted with one vote that ghosts were behind the incident.  It was in my best interest to listen to everyone and keep my tongue shut.  Friends!  For almost ten years, I stood firm on this resolution and one day when I told the truth in front of some friends and relatives of that era, everyone's eyes were wide open.  That dangerous grandmother of my friend, from whose tongue various types of abuses flowed like flowers, hearing all this from my mouth, started cursing herself for those abuses.

Then he kindly offered me tea and along with it he also uttered two abuses to his grandson i.e. my friend according to the habit that he must have been aware of the incident.  If I would have told them then why would she have abused me so much.  I said, he also did not know anything, because I had kept this secret hidden from him too.  If I had told, how could such a memorable story be made.  There are so many such memories, which are now being narrated with a feeling of joy.  ...so see you again tomorrow, with a new memorable story....

 (Ongoing...)

13-11-2024 (खुशनुमा जलवायु के बीच सीढ़ियों पर बसा एक खूबसूरत पहाड़ी शहर)

खुशनुमा जलवायु के बीच सीढ़ियों पर बसा पहाड़ी शहर ------------------------------------------------ ------------- भागीरथी व भिलंगना नदी के संग...