Wednesday, 14 August 2024

14-08-2024 (गढ़वालियों का #यरुशलम बना देहरादून)


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गढ़वालियों का यरुशलम बना देहरादून
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दिनेश कुकरेती
त्तराखंड के पर्वतीय अंचल में बीते दो दशक के दौरान गांवों को छोड़ नगर-महानगरों में जा बसने की होड़ तेजी से बढ़ी है। गढ़वाल मंडल में तो जैसे एक अघोषित आंदोलन और अनुच्‍चारित नारे 'देहरादून चलो, देहरादून में मकान बनाना हमारा जन्‍म‍सिद्ध अधिकार है', से अधिकांश लोग प्रभावित हैं और ठीक उसी तरह देहरादून की ओर दौड़े चले आ रहे हैं, जैसे एक जमाने में संसारभर के यहूदी इजरायल की तरफ दौड़ पड़े थे। प्रतीत होता है, मानो देहरादून गढ़वालियों का येरूशलम हो। उनके लिए देहरादून में दो कमरों का एक अदद घर बनवाना फैशन-सा हो गया है। जिसने देहरादून में ईंटों की दीवार खड़ी कर दी, वह खुद को चाहे जो भी समझे, लेकिन दूसरों की नजरों में तो तकरीबन खुदा हो गया।
नहीं! देहरादून, कोटद्वार, हल्द्वानी या फिर कहीं और जाकर बस जाने में किसी को कोई ऐतराज नहीं। होना भी नहीं चाहिए। जिसे जहां सुविधा हो, बेझिझक वहां बसागत कर सकता है। सामाजिक सरोकारों पर गंभीरता से मनन करने वालों की वास्‍तविक चिंता तो इस बात को लेकर है कि ग्रामीण इलाकों में यह पलायन बड़े पैमाने पर हो रहा है और गांव धीरे-धीरे उजाड़ होते चले जा रहे हैं। विचारणीय विषय यही है। हालांकि, सरसरी निगाह डालने पर यह बात आसानी से समझ में नहीं आती। देखा जाए तो लोगों का गांवों से रिश्‍ता सदियों पुराना है। इन्‍हीं गांवों में उन्‍होंने तमाम तकलीफें झेलीं या ऐसा भी कह सकते हैं कि जीवन का स्‍वाभाविक अंग मानकर उनका सामना किया, लेकिन गांव नहीं छोड़ा। 


हां! परिवार के युवाओं का नौकरी-धंधे के लिए मजबूरीवश मैदानी इलाकों में जाना काफी पुरानी बात है। इसके सिवाय कोई चारा भी तो नहीं था। अर्थ के बिना जीवन चल ही नहीं सकता और पहाड़ में अर्थोपार्जन की कोई सूरत आज तक बन नहीं पाई। लेकिन, विचारणीय बिंदु यह है कि पहले गांव 'त्‍यागा' नहीं जाता है, बल्कि लोग जीवनभर बाहर नौकरी कर अंत में बुढ़ापा बिताने गांव ही वापस लौटते थे। वर्तमान में इसके ठीक उलट कम ही नाैकरी-पेशा लोग गांव की ओर रुख करते हैं। 
इस अरुचि के कुछ निहितार्थ हैं, जिन्‍हें शहरी मूल के ग्रामीणों के हमदर्द शायद ही आसानी से समझ पाएं। लेकिन, एक तथ्‍य यह भी है कि पलायन की जैसी बुरी छवि पेश की जाती है, स्थिति वास्‍तव में उतनी निराशाजनक है नहीं। यह पलायनवादी रुझान कुछ खास किस्‍म के गांव या क्षेत्र में ही विशेषतौर पर देखने में आता है। एक तो पहाड़ और उस पर भी कुछ गांव ऐसी जगहों पर बसे हैं कि अमीन उन गांवों का नक्‍शा बनाने में ही हांफ जाए। वहां जीवन किसी सश्रम कारावास से कम नहीं। इन जगहों में मनुष्‍य बस! जीवित रह सकता है। सालभर हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी यहां की जमीन से तीन महीने की गुजर को भी अन्‍न मिल जाए ताे गनीमत। पानी के मामले में ज्‍यादातर गांवों की स्थिति रेगिस्तान सरीखी है। सड़क गांव से इतनी दूर हैं कि बीमार को ढोकर अस्‍पताल ले जाने वाला सड़क तक पहुंचते-पहुंचते खुद ही अधमरा हो जाए। बीमार तो अमूमन अस्पताल पहुंचने से पूर्व ही भगवान को प्‍यारे हो जाते हैं। 
शहर में कमाना-खाना और रात में सोनेभर के लिए गांव जाना पिकनिक में भले ही सुहाता हो, किंतु जीवन ऐसे कब तक चलेगा। जब जरूरत की हर चीज (ईंधन तक) शहर से बोककर ही गांव में ले जानी है तो फिर जो समर्थ हैं, वे शहर का रुख क्‍यों न करें। क्‍यों और कब तक खटते रहें ऐसे गांवों में। क्‍यों न आदमी वही कमरतोड़ मेहनत शहर या शहर के आसपास उपशहरीय इलाके में रहकर करे और बिजली-पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं हासिल कर ले। आखिर ठंडे इलाकों के जानवर भी तो जाड़ों में थोड़ा नीचे उतर आते हैं। हां! इस बात का अवश्य ध्‍यान रखा जाना चाहिए कि मनुष्‍य कहीं सुविधाओं का गुलाम बनकर न रह जाए। यह उसकी हार होगी। इतनी सामर्थ्य तो हमारे बाजुओं में होनी ही चाहिए कि जब कभी नल पर पानी न आए तो हम पानी की चिंता में घुलने के बजाय बाल्‍टी को धारे (प्राकृतिक स्रोत) से भरकर ला सकें।  
देखा जाए तो जन्‍मभूमि से मुंह फेरना मानव की फितरत नहीं है। जन्‍मभूमि उसे मजबूरीवश ही त्‍यागनी पड़ती है। इसके लिए सरकारी नौकरियां भी कम दोषी नहीं हैं,  जिनमें जवाबदेही का अभाव तो है ही, पहाड़ के भूगोल की उपेक्षा भी साफ झलकती है। उत्तराखंड की राजधानी को गैरसैंण से दूर करने के पीछे भी यही प्रवृत्ति काम कर रही है। सड़कों की भी सम्भवतः इसमें महत्‍वपूर्ण भूमिका है। यह भी देखने में आया है कि शहरों की ओर पलायन उन्‍हीं गांवों में ज्‍यादा हो रहा है, जो सड़क से काफी दूर हैं और वहां कभी सड़क पहुंचेगी, ऐसी सिर्फ उम्‍मीद ही की जा सकती है। 
इसके विपरीत सड़कों के निकट बसे गांवों में यह प्रवृत्ति काफी कम है। इन गांवों में करीब-करीब हर सुविधा मौजूद है। अलसुबह अखबार पहुंच जाता है। छतों पर डिश एंटेना भी नजर आते हैं। दवाई की दुकान हैं, मोबाइल नेटवर्क है और अंग्रेजी स्‍कूल भी आसानी से मिल जाएंगे। इन गांवों से दूध-सब्‍जी शहर पहुंचाने में भी कोई मुश्किल नहीं आती। मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं कि इन गांवों में जीवन शहरों के मुकाबिल हो गया है। अब तो अमूमन कुछ स्‍वयंसेवी संस्‍थाएं भी हालचाल जानने इन गांवों में पहुंच जाती हैं। यह दीगर बात है कि उनका उद्देश्य भी बजट ठिकाने लगाना ही है। 
अब सवाल यह है कि विकास, संपन्‍नता और खुशहाली जैसी चीजें क्या पैदल नहीं चल सकतीं। पर्वतीय राज्‍य के जटिल भूगोल को देखते हुए इन्‍हें अनिवार्य रूप से थोड़ा  पैदल तो चलना ही पड़ेगा। हमें इस धारणा को भी तोड़ना होगा कि देहरादून में मकान बना लेने भर से हमारे कष्‍ट मिट जाएंगे। हमारे लिए देहरादून में बसना सुखद एहसास भले ही हो, लेकिन यह वास्तविक सुख की अनुभूति भी कराएगा, यह कहना बेमानी होगा। इस बात को कभी न भूलें कि मंजिल का पता नहीं होने पर हम वहीं पहुंचते हैं, जहां सड़क हमें ले जाती है। और...सड़क हमें कहां ले जा रही है, यह हम अच्‍छी तरह जान रहे हैं।
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Dehradun became the Jerusalem of Garhwalis
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Dinesh Kukreti
In the last two decades, the race to leave villages and settle in cities and metropolises has increased rapidly in the mountainous region of Uttarakhand. In Garhwal division, it seems as if an undeclared movement and the unpromoted slogan 'Come to Dehradun, building a house in Dehradun is our birthright' have influenced most of the people and they are rushing towards Dehradun in the same way as Jews from all over the world once rushed towards Israel. It seems as if Dehradun is the Jerusalem of Garhwalis. For them, building a two-room house in Dehradun has become a fashion. Whoever has built a brick wall in Dehradun, he may think of himself as whatever, but in the eyes of others he has almost become God.

No! No one has any objection in settling in Dehradun, Kotdwar, Haldwani or anywhere else. Nor should there be.  Whoever finds it convenient can settle there without hesitation. The real worry of those who seriously ponder over social issues is that this migration from rural areas is taking place on a large scale and the villages are slowly getting deserted. This is the subject worth thinking about. However, this thing is not easily understood at a cursory glance. If seen, the relation of people with villages is centuries old. They faced all the hardships in these villages or it can also be said that they faced them considering them a natural part of life, but did not leave the village.

Yes! It is quite an old thing that the youth of the family were compelled to go to the plains for employment. There was no other option. Life cannot go on without money and no means of earning money has been found in the mountains till date. But, the point to consider is that earlier, the village is not 'abandoned', rather people used to work outside their whole life and finally return to the village to spend their old age. At present, on the contrary, very few employed people turn towards the village.

This aversion has some implications, which the sympathizers of urban villagers may not be able to understand easily. But, it is also a fact that the situation is not as depressing as the bad image of migration is presented. This migration tendency is especially seen in some specific type of village or area. Firstly, it is a mountain and on top of that, some villages are located in such places that the Amin would be breathless in making a map of those villages.  Life there is no less than a rigorous imprisonment. In these places, man can barely survive. Even after a year of hard work, it is a blessing if one gets enough food to survive for three months. In terms of water, most villages are like deserts. The roads are so far from the village that the person who carries the sick to the hospital is himself half dead by the time he reaches the road. The sick usually die before reaching the hospital.

Earning and eating in the city and going to the village to sleep at night may seem like a picnic, but how long will life go on like this? When everything needed (even fuel) has to be brought to the village from the city, then why should those who are capable not go to the city? Why and for how long should one keep working in such villages? Why should not a person do the same backbreaking work by living in the city or in the suburban areas around the city and get basic facilities like electricity and water?  After all, even the animals of cold regions come down a little in winters. Yes! It must be kept in mind that man should not become a slave of facilities. This will be his defeat. We must have enough strength in our arms that whenever there is no water in the tap, instead of worrying about water, we should be able to fill the bucket from the stream (natural source) and bring it.

If we look at it, it is not in the nature of man to turn his back on his birthplace. He has to leave his birthplace only out of compulsion. Government jobs are equally responsible for this, in which there is lack of accountability and neglect of the geography of the mountains is also clearly visible. The same tendency is working behind shifting the capital of Uttarakhand away from Gairsain. Roads also probably have an important role in this. It has also been seen that migration towards cities is happening more in those villages which are far away from the road and it can only be hoped that the road will reach there someday. 

On the contrary, this tendency is much less in the villages situated near the roads. Almost every facility is available in these villages. Newspaper reaches early in the morning. Dish antennas are also seen on the roofs. There are medicine shops, mobile network and English schools are also easily available. There is no difficulty in bringing milk and vegetables from these villages to the city.  I have no hesitation in saying that life in these villages has become comparable to that in cities. Now, some NGOs also visit these villages to know about the situation. It is a different matter that their aim is also to spend the budget. 

Now the question is, can't things like development, prosperity and happiness walk on foot? Considering the complex geography of the hilly state, they will inevitably have to walk a little. We will also have to break the notion that our troubles will end just by building a house in Dehradun. Settling in Dehradun may be a pleasant feeling for us, but it will be meaningless to say that it will also make us experience real happiness. Never forget that when we don't know the destination, we reach where the road takes us. And...we know very well where the road is taking us.

13-11-2024 (खुशनुमा जलवायु के बीच सीढ़ियों पर बसा एक खूबसूरत पहाड़ी शहर)

खुशनुमा जलवायु के बीच सीढ़ियों पर बसा पहाड़ी शहर ------------------------------------------------ ------------- भागीरथी व भिलंगना नदी के संग...