Saturday, 31 July 2021

26-07-2021 (Water in petrol tank)

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पेट्रोल में पानी
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दिनेश कुकरेती
मैं जो चाहता था, वही हुआ और आज दोपहर तक मौसम मेहरबान रहा। इसका सबसे बडा़ फायदा यह हुआ कि मुझे बाइक की टंकी साफ कराने का मौका मिल गया। हालांकि, इसके चलते मैं योगाभ्यास को समय नहीं दे पाया। दरअसल, स्नान के बाद मैंने जैसे-तैसे बाइक स्टार्ट की और चल पडा़ इंदिरा नगर स्थित गैराज की ओर। तब सुबह के दस बज रहे थे, लेकिन गैराज का मालिक अभी दुकान में नहीं पहुंचा था। अलबत्ता, एक लड़का वहां जरूर मौजूद था और काम में जुटा हुआ था। मैंने लड़के से दुकान मालिक के बारे में पूछा तो उसने उसके दसेक मिनट में पहुंचने की बात कही। बाइक में किस तरह की दिक्कत है, यह मैंने उसे ही डिटेल में बता दिया।

इस पर लड़का बोला- "टंकी साफ करने में वक्त लगेगा।"

"लगभग कितना"- मैंनै पूछा।

"यही कोई पौन घंटा"- लड़के ने कहा।

"इतना तो चलेगा"- मैंने कहा और वहीं एक कुर्सी पर बैठ गया। दूसरी ओर लड़का भी बाइक से टंकी उतारने लगा। दस मिनट लगे होंगे उसे टंकी निकालने में। इसके बाद उसने पाइप से पेट्रोल निकालना शुरू किया तो दो-दो लीटर की दो बोतल फुल भर गईं। इसमें एक लीटर तो पानी रहा होगा। इस बीच गैराज का मालिक भी आ गया। मैंने उससे टंकी में पानी भरने की इस समस्या का समाधान पूछा तो उसने इसके लिए एक कवर बनाने की बात कही। बोला, "भैया! जिस दिन बाइक को सर्विस के लिए लाओगे, उसी दिन शहर ले जाकर टंकी के ढक्कन पर कवर भी चढ़वा दूंगा।"

मैंने उसे यह भी बताया कि इंजन के नीचे एक स्क्रू लूज होने के कारण लगातार इंजन आयल गिर रहा था, इसलिए मैंने कपडा़ लगाकर उसे टाइट कर दिया। इस पर गैराज मालिक बोला, "उसी दिन स्क्रू भी ठीक करवा दूंगा और अपराह्न तीन बजे तक आपको बाइक भी मिल जाएगी।"

मैंने कहा, "दो-चार दिन में बारिश थम जाने पर बाइक को सर्विस के लिए लाऊंगा" और बाइक लेकर वापस आ गया। मैकेनिक ने एक लीटर से अधिक पेट्रोल टंकी में वापस डाल दिया था। इसके अलावा पंप में जाकर मैंने भी दो लीटर पेट्रोल और डलवा दिया। हालांकि, लगभग ढाई लीटर पेट्रोल बर्बाद होना मुझे काफी अखर रहा था। ऐसा होना लाजिमी था। आखिर पेट्रोल सौ रुपये लीटर जो हो गया है और मुझे तो अपनी जेब ढीली कर भरवाना पड़ता है। परिवार का बजट गड़बडा़ता है, सो अलग।

बहरहाल! रात को घर लौटने से पहले मैंने पेट्रोल की टंकी के ऊपर प्लास्टिक का कवर कर उस पर अच्छी तरह टेप लगा दिया। टेप मैं आफिस आते वक्त घर से लेकर ही चला था। सुकून वाली बात यह थी कि टंकी साफ करवाने के बाद बाइक का बीच-बीच में रुकना बंद हो गया। साथ ही महज सौ रुपये खर्च हुए। इससे आज मेरा मन शांत है। सुबह तक तो इसी उधेड़बुन के चलते मन विचलित था कि न जाने कितने का चूना लगेगा। ऐसे में न तो ठीक तरह से नींद आ पा रही थी, न यू-ट्यूब चैनल देखने में मन लग रहा था। लेकिन, आज चैन की नींद सोऊंगा। भारी होती जा रही पलकें इसी ओर इशारा कर रही हैं।

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Water in petrol

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Dinesh Kukreti

Whatever I wanted, it happened and till this afternoon the weather was kind.  The biggest advantage of this was that I got a chance to clean the tank of the bike.  However, due to this, I could not give time to yoga practice.  Actually, after bathing, I started my bike and started towards the garage located in Indira Nagar.  It was ten o'clock in the morning, but the owner of the garage had not yet reached the shop.  However, a boy was definitely present there and was busy working.  I asked the boy about the shop owner and he told him to reach in ten minutes.  What kind of problem is there in the bike, I told him in detail.

On this the boy said - "It will take time to clean the tank."

"Approximately how much" - I asked.

"That's one and a half hours," said the boy.

"It will be enough" - I said and sat there on a chair.  On the other hand, the boy also started taking off the tank from the bike.  It would have taken ten minutes for him to take out the tank.  After this he started extracting petrol from the pipe, then two bottles of two liters each were full.  There must have been one liter of water in it.  Meanwhile the owner of the garage also arrived.  When I asked him the solution to this problem of filling water in the tank, he told him to make a cover for it.  Said, "Brother! The day you bring the bike for service, I will also take the cover on the tank cover to the city on the same day."

I also told him that the engine oil was constantly pouring out due to a loose screw under the engine, so I tightened it with a cloth.  On this the garage owner said, "I will get the screws fixed the same day and you will get the bike by 3 pm."

I said, "I will bring the bike for service after the rain stops in a day or two" and came back with the bike.  The mechanic had put more than a liter of petrol back in the tank.  Apart from this, by going to the pump, I also got two liters of petrol poured.  However, I was very worried about wasting about two and a half liters of petrol.  It was bound to happen.  After all, petrol is a hundred rupees a liter and I have to fill my pocket loosely.  The family budget messes up, so different.

However!  Before returning home at night, I covered the petrol tank with a plastic cover and taped it well.  I had taken the tape from home while coming to the office.  The comforting thing was that after getting the tank cleaned, the bike stopped stopping intermittently.  Also only one hundred rupees were spent.  This calms my mind today.  Till morning, due to this turmoil, the mind was disturbed that it would take a lot of lime.  In such a situation, neither I was able to sleep properly, nor did I feel like watching YouTube channel.  But today I will sleep peacefully.  The eyelids becoming heavy are pointing in this direction.

25-07-2021 (बरसात बढ़ा रही मुश्किलें)























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बरसात बढ़ा रही मुश्किलें

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दिनेश कुकरेती

स बार मानसून अपनी पूरी रंगत में है। शुरुआत में जरूर लग रहा था कि इस साल भी वर्षा ऋतु बिना बारिश के विदा हो जाएगी, लेकिन आषाढ़ के आखिर से बदरा बरसने लगे। सावन में तो लगभग रोज ही बारिश की झडी़ लगी रहती है। इससे हम जैसे कामकाजी लोगों की मुश्किलें बढ़ना लाजिमी है। अब देखिए, लगातार बारिश के चलते बाइक की टंकी में पानी आ गया है। इससे इंजन कहीं पर भी बंद हो जा रहा है। तीन-चार दिन से तो यह समस्या ज्यादा ही गहराई हुई है। बारिश थमे तो मैकेनिक के पास जाया जाए, लेकिन ऐसा भी नहीं हो रहा। मित्र नवल किशोर भी लगातार अपने घर बुला रहा है और मैं अब तक "हां-हां" कहकर टाले जा रहा था। लेकिन, दो दिन पूर्व मैंने इतवार को आने का वादा कर ही दिया।

आज इतवार है। सुबह ही नवल का फोन आ गया था कि, "साढे़ बारह-एक बजे तक पहुंच जाना, मैं सड़क में लेने आ जाऊंगा।" बेटी की बीमारी के चलते वो देहरादून में ही रह रहा है और यहां अजबपुर-सरस्वती विहार में किराये पर टू-रूम सैट लिया हुआ है। जबकि, स्कूल में ज्वाइनिंग उसकी ढांगू के ग्वील-जसपुर में है। मौसम का मूड आज भी उखडा़-उखडा़ सा है। लग रहा है बारिश होगी, पर मैंने भी ठान लिया है कि आज तो नवल से हर हाल में मिलकर रहूंगा। सो, साढे़ ग्यारह बजे के आसपास मैं घर से निकल पडा़, लेकिन पटेल नगर पहुंचते-पहुंचते बूंदाबांदी होने लगी। बाइक के बैग में बरसाती भी रखी हुई है, पर सड़क में पहनी नहीं जा सकती। सबसे बडी़ दिक्कत तो बाइक के बार-बार बंद होने से हो रही है।

खैर! बारह बजे मैं रिस्पना बाईपास हाइवे पर कैनरा बैंक के पास पहुंच गया। वहां नवल पहले से ही मेरा इंतजार कर रहा था। जिस मकान पर वह रहता है, वो अंदर गली में है, इसलिए मुझे रास्ता बताने वाला कोई तो चाहिए ही था। तकरीबन तीन साल बाद मेरी नवल से मुलाकात हो रही थी। बेटी की बीमारी के चलते वह बहुत परेशान है, ऐसे में कोई करीबी मिल जाए तो काफी सुकून मिल जाता है। एक-दूसरे से दर्द बांटने पर मन का बोझ भी हल्का हो जाता है। इसलिए मुझसे मिलकर उसके चेहरे पर खुशी साफ झलक रही थी। लगभग दो घंटे मैं नवल के घर पर रहा हूंगा। भोजन भी वहीं किया। चावल, हरड़ की दाल, पालक की काफली और खीर बनवा रखी थी मामी से उसने।

अपराह्न पौने तीन बजे के आसपास मैं नवल के रूम से आफिस के लिए रवाना हुआ। बाइक ने तो परेशान करना था ही, इसलिए मैंने मन ही मन ठान लिया कि कल यानी सोमवार को मैकेनिक के पास जरूर जाऊंगा। विचार तो मैं यह भी कर रहा हूं कि अगले साल किश्तों पर नई बाइक ले ली जाए और इस बाइक को रिन्यूअल कर जितने में भी बिकती है, बेच दिया जाए। दो-तीन साल से हर बरसात ऐसे ही परेशान कर रही है। खैर! ये बाद की बातें हैं, फिलहाल तो कल मैकेनिक के पास टंकी साफ कराने जाना है।

इसी उधेड़बुन के बीच यही कोई बीस मिनट लगे होंगे मुझे आफिस पहुंचने में। आज घर में बात नहीं हो पाई थी, इसलिए लाइब्रेरी में आकर सबसे पहला काम घर फोन करने का ही किया। हालांकि, डेढ़ बजे के आसपास रजनी का फोन आया था, लेकिन तब मैं नवल के घर पर था, इसलिए "बाद में बात करूंगा" कहकर फोन काट दिया। तकरीबन पंद्रह मिनट बात हुई होगी, फिर मैं अपने काम में जुट गया। ...फिलहाल रात के बारह बज चुके हैं और मैं अब बिस्तर में जाने की तैयारी कर रहा हूं। अभी कुछ देर एकाध यू-ट्यूब चैनल देखूंगा, कुछ गज़ल सुनूंगा और फिर नींद के आगोश में चला जाऊंगा।

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Rain increasing difficulties

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Dinesh Kukreti

This time monsoon is in full swing.  In the beginning it seemed that this year too the rainy season would go away without rain, but from the end of Ashadh it started raining badly.  In Sawan, it rains almost daily.  This is bound to increase the difficulties of working people like us.  Now see, due to continuous rain, water has come in the tank of the bike.  This causes the engine to stop at some point.  After three or four days, this problem has become more and more serious.  If the rain stops, go to the mechanic, but this is not happening either.  Friend Naval Kishore is also constantly calling his house and I was being avoided by saying "yes-yes" till now.  But, two days ago, I made a promise to come on Sunday.













Today is sunday.  In the morning, Naval's call came that, "Reaching by 12.30 pm, I will come to pick you up on the road."  Due to his daughter's illness, he is staying in Dehradun and has taken a two-room set on rent at Ajabpur-Saraswati Vihar.  Whereas, his joining school is in Gweel-Jaspur, Dhangu.  The mood of the weather is still rough today.  Looks like it will rain, but I have also decided that today I will meet Naval in any situation.  So, I left the house around 11.30 pm, but by the time we reached Patel Nagar, it started drizzling.  The raincoat is also kept in the bag of the bike, but it cannot be worn on the road.  The biggest problem is due to frequent shutdown of the bike.

So!  At 12 o'clock I reached near Canara Bank on Rispana Bypass Highway.  There Naval was already waiting for me.  The house where he lives is inside the street, so I needed someone to guide me.  About three years later, I was meeting Naval.  She is very upset due to the daughter's illness, in such a situation, if she meets someone close, she gets a lot of relief.  By sharing the pain with each other, the burden of the mind also becomes lighter.  That's why the happiness was clearly visible on his face meeting me.  I have been at Naval's house for almost two hours.  Had food there too.  He had made rice, myrobalan dal, spinach kafali and kheer from his maternal uncle.

Around 3.45 pm, I left for the office from Naval's room.  The bike had to bother me, so I made up my mind that I will definitely go to the mechanic tomorrow i.e. on Monday.  I am also thinking of getting a new bike on installments next year and renewing this bike and selling it for whatever it is sold for.  Every rain for two-three years is troubling like this.  So!  These are later things, for now, tomorrow I have to go to the mechanic to get the tank cleaned.













In the midst of this chaos, it must have taken me some twenty minutes to reach the office.  Today there was no talk in the house, so the first thing to do after coming to the library was to call home.  However, Rajni's call came around 1.30 pm, but I was at Naval's house then, so disconnected the call saying "will talk later".  It must have been about fifteen minutes, then I got busy with my work.  ...It's twelve o'clock at night and I'm getting ready to go to bed.  Right now, I will watch a few YouTube channels for some time, listen to some ghazals and then go into the lap of sleep.

Friday, 30 July 2021

19-07-2021 (बारिश के बीच दून वापसी)

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बारिश के बीच दून वापसी
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दिनेश कुकरेती

रात से ही बारिश हो रही है। कब रुकेगी, कहा नहीं जा सकता। यही वर्षा ऋतु का स्वभाव भी है। पर, मुझे तो आज हर हाल में देहरादून पहुंचना है, इसलिए बिस्तर त्यागने के साथ ही मैं अपनी तैयारियों में जुट गया हूं। भोजन भी तैयार हो चुका है। लौटने वाले दिन मैं रोटी के बजाय दाल-भात (दाल-चावल) खाना ही पसंद करता हूं, इसलिए मेरी पसंद का ही भोजन बना है। बैग भी पैक करके मैंने किनारे रख लिया है और भोजन के लिए पालथी बांधकर जमीन पर बैठ गया हूं। भोजन मैं जमीन पर बैठकर करना ही पसंद करता हूं। घर में तो ये मेरे लिए अनुशासन का हिस्सा है। विज्ञान भी जमीन पर आराम से बैठकर भोजन करने को ही सर्वोत्तम मानता है, बस! जगह साफ-सुथरी होनी चाहिए। फिर मैं तो विज्ञान का विद्यार्थी जो हूं।
















इस बीच रजनी ने चावल और लाने को कहा तो मैंने मना कर दिया। सुबह-सुबह कहां इतना खाया जाता है। देखा जाएगा, दिन में भूख लगेगी तो फल खा लूंगा। रजनी ने फल, बिस्कुट, नमकीन- सभी-कुछ बैग में रखा है। बारिश अब भी जारी ले, लेकिन सवा नौ बज चुके हैं और मुझे देहरादून पहुंचने की जल्दी है। पता है क्यों? भई! पानी की वजह से। दरअसल जिस इलाके में मैं रहता हूं, वहां गर्मियों में पानी की भारी किल्लत हो जाती है। इस साल तो कुछ ज्यादा ही है। पानी दोपहर बारह बजे के आसपास आता है और कुछ ही देर में बंद भी हो जाता है। इसके बाद ढाई बजे के आसपास पानी आने का टाइम है, लेकिन रोजाना आएगा, इसकी गारंटी नहीं। रात को 11 बजे पानी आता है, लेकिन इन दिनों अनिश्चितता की स्थिति है। मेरे जल्दी जाने की यही मुख्य वजह है।

बारिश के बीच ही ठीक सवा नौ बजे मैं घर से निकल गया। बीस मिनट लगे नजीबाबाद रोड चौक स्थित टैक्सी स्टैंड पहुंचने में। उस समय देहरादून के लिए एक टैक्सी निकल रही थी। तभी एक अन्य टैक्सी वाला देहरादून-देहरादून पुकार लगाने लगा। मैं उसी में बीच की सीट पर जा बैठा। आधा घंटा लगा, टैक्सी को फुल भरने में और फिर फुहारों के बीच निकल पडी़ टैक्सी देहरादून के लिए। वैसे मुझे बस-टैक्सी या कार में बैठते ही नींद आ जाती है, लेकिन आज न जाने क्यों वह मेरे पास नहीं फटक रही। बारिश के कारण बैग भी मैंने अपने पास ही रखा है। दिक्कत तो हो रही है, पर इसके सिवा कोई विकल्प भी तो नहीं। खैर! यह सब तो चलता रहता है, मुश्किलें न हों तो फिर जीने के मायने ही क्या हैं। संघर्ष से ही तो इन्सान आगे बढ़ता है।

अब मैं हरिद्वार में हूं। गंगा अपने पूरे वेग से बह रही है। इस समय उसमें अथाह पानी है, लेकिन सौंदर्य भी अद्भुत है। सच कहूं तो गंगा की झलकभर देखने से ही मन को असीम आनंद की अनुभूति हो उठती है। वास्तव में हम कितने सौभाग्यशाली हैं, जिनके पास गंगा जैसी विलक्षण नदी है। जिसका स्पर्श करने को पूरी दुनिया लालायित रहती है। टैक्सी तेजी से हाइवे पर आगे बढ़ रही है। अब ज्यादा से ज्यादा एक-सवा घंटा लगेगा देहरादून पहुंचने में। भानियावाला में दो सवारियों के उतरने से काफी आराम हो गया है। अब बैग भी मैंने सीट पर ही रख दिया। अरे! यह क्या? डोईवाला पहुंचते ही ड्राइवर ने टैक्सी दूधली वाले रूट पर डाल दी।

संयोग से देहरादून में रिस्पना पुल से  पहले किसी को उतरना नहीं है, इसलिए दूधली वाले रूट से जाने में कोई आपत्ति नहीं। ड्राइवर का कहना है कि उसे रास्ते में कोई जरूरी सामान खरीदना है। यह रास्ता बडा़ रौनक वाला है। चारों ओर हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है। सड़क के एक ओर घना जंगल है, इसलिए इस रूट पर सुबह-शाम वन्य जीव आसानी से दिख जाते हैं। हाथी तो कभी-कभी दुपहरी में भी सड़क पर आ जाते हैं। जैसे ही हमने देहरादून की सीमा में प्रवेश किया, एक दुकान के सामने ड्राइवर ने टैक्सी रोकी और वहां बैठे दो व्यक्तियों (एक युवा और एक उम्रदराज) की ओर इशारा करते उन्हें सामान देने को कहा। उम्रदराज व्यक्ति ने काउंटर पर रखी दरी को उठाया और दो पैकेट निकालकर ड्राइवर को थमा दिए।

 











पैकेट देख ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो चने के पैकेट हों, लेकिन मन में सवाल उठ रहा था कि दुकानदार ने ये पैकेट छिपाकर क्यों रखे थे। सामान लेने के बाद ड्राइवर ने टैक्सी आगे बढा़ई और अपनी और देख रहे पास बैठे व्यक्ति से मुखातिब होते हुए बोला- ये नशा है और यहीं मिलता है। इसी के लिए इधर से आना पडा़। हालांकि, किसी ने भी उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया। आगे हाईवे में पहुंचने पर उसने टैक्सी का स्टेयरिंग रिस्पना पुल की ओर घुमा दिया। बारिश बूंदाबांदी तक सिमट चुकी थी, लेकिन टैक्सी से उतरते ही फिर तेज हो गई। मैं छाता खोलकर हरिद्वार रोड के कार्नर पर विक्रम (आटो) का इंतजार करने लगा। काफी विलंब से विक्रम मिल पाया और रास्तेभर जाम लगा होने के कारण प्रिंस चौक पहुंचने में भी काफी देर हो गई।

प्रिंस चौक में भी काफी विलंब से विक्रम मिला, इसलिए मुझे रूम तक पहुंचने में दो बज गए। सुखद यह है कि ढाई बजे के आसपास पानी भी आ गया। मैंने फटाफट दो बाल्टियां भरी और सुकून से आफिस के लिए प्रस्थान किया। हालांकि, जल्दबाजी के चलते फल खाने का मौका नहीं मिल पाया। आठ-साढे़ आठ घंटे बाद अब रूम में पहुंचा हूं। रात के ग्यारह बज रहे हैं और थके होने के कारण फिलहाल दलिया बनाना ही मुझे सबसे उपयुक्त लग रहा है। यह हल्का, पौष्टिक और पाचक भोजन है। बाकी सुबह की सुबह देखी जाएगी। वैसे भी सब्जी मैं ले ही आया हूं।

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Doon return amid rain

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Dinesh Kukreti

It has been raining since night.  Can't say when it will stop.  This is also the nature of the rainy season.  But, I have to reach Dehradun today by all means, so along with leaving the bed, I have started my preparations.  The food is also ready.  On the returning day, I prefer to eat dal-bhaat (lentil-rice) instead of roti, hence my choice of food is prepared.  I have also packed the bag and kept it aside and sat on the ground, tying a cross for food.  I prefer to eat food while sitting on the ground.  At home, it is a part of discipline for me.  Science also considers it best to have food sitting comfortably on the ground, that's all!  The place should be clean.  Then I am a student of science.

Meanwhile, when Rajni asked to bring more rice, I refused.  Where do you eat so much in the morning?  It will be seen, if I feel hungry during the day, I will eat fruits.  Rajni has kept fruits, biscuits, namkeen - everything in the bag.  The rain may still continue, but it is quarter past nine and I am in a hurry to reach Dehradun.  know why?  Hey!  Because of water.  In fact, in the area where I live, there is a severe shortage of water in summers.  This year is a little more.  The water comes around 12 noon and stops shortly after.  After this, there is time for water to come around 2.30 pm, but there is no guarantee that it will come daily.  Water comes at 11 o'clock in the night, but these days there is a situation of uncertainty.  This is the main reason for my early departure.

I left the house at exactly nine:15 in the middle of the rain.  It took 20 minutes to reach the taxi stand located at Najibabad Road Chowk.  At that time a taxi was leaving for Dehradun.  Then another taxi driver started calling Dehradun-Dehradun.  I sat in the middle seat in that.  It took half an hour, to fill the taxi to full and then the taxi left for Dehradun between the showers.  Well, I fall asleep as soon as I sit in a bus-taxi or car, but today I don't know why it is not coming near me.  I have also kept the bag with me because of the rain.  There is a problem, but there is no other option than this.  So!  All this goes on, if there are no difficulties then what is the meaning of living.  Man progresses only through struggle.

Now I am in Haridwar.  The Ganges is flowing at its full speed.  At this time there is boundless water in it, but the beauty is also wonderful.  To be honest, just seeing a glimpse of the Ganges gives a feeling of immense joy to the mind.  How fortunate indeed we are to have a wonderful river like the Ganges.  Whose whole world longs to touch.  The taxi is moving fast on the highway.  Now it will take at most one-and-a-half hours to reach Dehradun.  The landing of two passengers at Bhaniyawala has brought a lot of relief.  Now I put the bag on the seat itself.  Hey!  What is this?  As soon as he reached Doiwala, the driver put the taxi on the Dudhli route.
















Incidentally, no one has to get down before the Rispana bridge in Dehradun, so there is no objection to going through the Dudhli route.  The driver says that he has to buy some essential items on the way.  This road is very beautiful.  Greenery is visible all around.  There is a dense forest on one side of the road, so wildlife is easily visible in the morning and evening on this route.  Elephants sometimes come on the road even in the afternoon.  As we entered the Dehradun border, the driver stopped the taxi in front of a shop and pointed to two persons sitting there (one young and one old) asking them to deliver the goods.  The old man picked up the carpet kept on the counter and took out two packets and handed them to the driver.

Seeing the packet, it seemed as if there were packets of gram, but the question was arising in the mind that why the shopkeeper had kept these packets hidden.  After taking the goods, the driver proceeded to take the taxi and while talking to the person sitting nearby looking at him, he said – this is intoxication and it is found here.  That's why I had to come from here.  However, no one paid heed to his words.  On reaching the highway further, he turned the steering response of the taxi towards the bridge.  The rain had stopped till drizzle, but it intensified again as soon as I got down from the taxi.  I opened my umbrella and started waiting for Vikram (auto) at the corner of Haridwar road.  Vikram was found with a long delay and due to the jam all along the way, it was too late to reach Prince Chowk.

Vikram got late at Prince Chowk too, so it took me two o'clock to reach the room.  The good thing is that around 2.30 pm the water also came.  I quickly filled two buckets and left for the office with ease.  However, due to haste, I did not get a chance to eat the fruit.  After eight-and-a-half hours I have now reached the room.  It is eleven o'clock in the night and being tired, I am finding it best to make porridge at the moment.  It is light, nutritious and digestible food.  The rest will be seen in the early morning.  Anyway, I have brought vegetables.

Thursday, 29 July 2021

17-07-2021 (गुड़ की मिठाई) (यादें-तीन)














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(यादें-तीन)
गुड़ की मिठाई
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दिनेश कुकरेती
ई पीढी़ को शायद ही यह इल्म हो कि कभी गुड़-चना और चना-इलैची (इलायची) दाना को पहाड़ में मिठाई का दर्जा हासिल था। कोई भी व्यक्ति शहर से या नौकरी से छुट्टी पर गांव आता तो आस-पडो़स में हर किसी को उम्मीद रहती कि गुड़-चना या चना-इलैची दाना जरूर बंटेगा। तब गांव के ज्यादातर लोग फौज में होते थे और छुट्टी आने पर वही ये मिठाई लाते थे। जो लोग दिल्ली, चंडीगढ़, लुधियाना आदि शहरों में प्राइवेट नौकरी करते थे, वो भी कम तनख्वाह होने के बावजूद छुट्टी आने पर चना-इलैची बांटना नहीं भूलते थे। ऐसा करने के पीछे उनकी सोच यही होती थी कि गांव वालों की नजर में स्वयं को शहरी साबित किया जाए।
गांव में चना-इलैची अपेक्षाकृत ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति वाले लोग ही बांटते थे, लेकिन ऐसे परिवारों में, जहां सदस्य ज्यादा होते, वहां हर सदस्य के हिस्से आठ-आठ, दस-दस दाने से ज्यादा नहीं आ पाते थे। जबकि, गुड़-चना बांटने पर कम से कम गुड़ तो सभी सदस्यों के हिस्से में ठीक-ठाक आ ही जाता। गुड़ में भेली का गुड़ ज्यादा पसंद किया जाता था। भेली भी खरी (निर्दोष) और ढाई किलो वाली। वैसे कई लोग गिंदोडे़ वाला गुड़ भी बांटते थे, लेकिन उसमें कालर खडे़ करने वाली फीलिंग नहीं आ पाती थी। दूसरे की ही नहीं, अपनी नजर में भी। ज्यादातर लोग भेली या गिंदोडो़ं की खरीदारी कोटद्वार से ही करते थे। दो-एक किलो गिंदोडे़ या एकाध भेली की खरीद ही द्वारीखाल बाजार से की जाती थी।
वैसे मिठाई के तौर पर सबसे ज्यादा पसंद अंदरखी (परिष्कृत गुड़) की जाती थी। वह भी हल्के भूरे रंग वाली। इससे संबंधित परिवार के स्टेटस का भी पता चलता था, क्योंकि इसकी कीमत भेली और गिंदोडो़ं से अधिक होती थी। जिसे गांव में चर्चा की ज्यादा चाह होती, वह अंदरखी ही बांटता था। अंदरखी के साथ चना बांटना जरूरी नहीं समझा जाता था। सिर्फ अंदरखी बांटने से गांव में स्टेटस हाई रहता था। ...और, हां! जो सबसे अहम बात मैं भूल रहा था, वह यह कि गुड़ को तब "मिठाई" ही बोला जाता था। यानी मिठाई का मतलब ही गुड़ होता था। बाकी मिठाइयों के बारे में तो तब आम लोग जानते भी नहीं थे।

लोग बरफी का नाम जरूर लेते थे, लेकिन खाने को कभी नसीब नहीं होती थी। बल्कि, कई लोगों ने तो बरफी को देखा भी नहीं था। गांव में रहते तो मैंने भी नहीं। अंदरखी भी मैंने सन् 1978 के बाद कोटद्वार में देखी। उस दौर की सबसे महंगी मिठाई लड्डू हुआ करते थे। लड्डू बांटने वाले को रसूखदार माना जाता था। शादी-ब्याह में अगर कोई मेहमान लड्डू ले आता तो समझ लीजिए, उस जैसा बडा़ आदमी कोई नहीं। मैंने भी लोगों के मुंह से ही ये बात सुनी थी। तब देखा मैंने भी नहीं था, किसी को लड्डू बांटते हुए। हां! इतना जरूर था कि मुझे लड्डू खाने का सौभाग्य मिल चुका था।

आज भले ही ये बातें काल्पनिक लगती हों, लेकिन मितरों! दुनिया ऐसे ही आगे बढी़ है। यही मानव के क्रमिक विकास का क्रम है। लेकिन, यह भी सच है कि आगे बढ़ने के साथ हम शांति, सुकून, संतुष्टि, मानवीयता, मेल-जोल, प्यार-प्रेम, अपनत्व यानी सब-कुछ उसी दौर में छोड़ आए। जबकि, इन समस्त भावों की आज हमें सबसे ज्यादा जरूरत है। सबसे दुःखद तो यह है कि आधुनिक दिखने की होड़ में हमने अपने अतीत को ही भुला दिया। हम यह भी भूल गए कि इतिहास के सबक ही हमें आगे की राह दिखाते हैं। इतिहास ही विज्ञान का आधार है...।
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(memories three)
Jaggery sweets
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Dinesh Kukreti
The new generation hardly has any idea that once jaggery-gram and gram-elaichi (cardamom) grain had the status of sweets in the mountain.  If any person came to the village from the city or on leave from job, then everyone in the neighborhood would have expected that jaggery-gram or gram-cardamom seeds would definitely be distributed.  Then most of the people of the village were in the army and they used to bring these sweets when the holiday came.  Those who used to do private jobs in cities like Delhi, Chandigarh, Ludhiana etc., they also did not forget to distribute gram-cardamom when the holiday came, despite having less salary.  His thinking behind doing this was that in the eyes of the villagers, they should prove themselves as urban.
In the village, gram-cardamom was distributed only by people of relatively good economic condition, but in such families, where there were more members, the share of each member could not exceed eight-eight, ten-ten grains.  Whereas, on distributing jaggery and gram, at least jaggery would have come well in the share of all the members.  Bheli's jaggery was preferred over jaggery.  Bheli too khari (innocent) and two and a half kilos.  Although many people used to distribute the jaggery of Gindode, but the feeling of making a caller could not come in it.  Not only in others' eyes, but also in your own eyes.  Most of the people used to buy Bheli or Gindodon from Kotdwar itself.  Only two kilograms of gindode or a few bhel was bought from Dwarkhal market.

By the way, the most liked as a sweet was Andarkhi (refined jaggery).  She is also light brown.  It also revealed the status of the family concerned, as it cost more than the Bheli and Gindodon.  Whoever wanted more discussion in the village, he used to distribute it inside.  It was not considered necessary to distribute gram with the insider.  The status in the village remained high just by distributing the insides.  ...And yes!  The most important thing I was forgetting was that jaggery was called "sweet" back then.  That is, the meaning of sweets was jaggery.  The common people did not even know about the rest of the sweets then.
People used to take the name of barfi, but never had any luck to eat it.  Rather, many people had not even seen Barfi.  I didn't even live in the village.  I also saw Insidekhi after 1978 in Kotdwar.  The most expensive sweets of that era used to be laddus.  The one who distributed the laddoos was considered influential.  If a guest brings laddus to the wedding, then understand that there is no big man like him.  I too had heard this from the mouths of the people.  Then I was not even there, distributing laddoos to anyone.  Yes!  It was so sure that I had had the good fortune of eating laddus.

These things may seem imaginary today, but friends!  The world has progressed like this.  This is the sequence of human evolution.  But, it is also true that as we move forward, we leave peace, peace, contentment, humanity, harmony, love-love, affinity i.e. everything in that period.  Whereas, we need all these expressions the most today.  The saddest part is that in the race to look modern, we have forgotten our past.  We also forgot that the lessons of history show us the way forward.  History is the basis of science.

16-07-2021 (गांव के सुनहरे पल) (यादें-दो)


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(यादें-दो)
गांव के सुनहरे पल
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दिनेश कुकरेती
वादे के मुताबिक आज मैं आपका परिचय पहाड़ के उन खास पकवानों से करा रहा हूं, जो फुर्सत के मौकों पर सामूहिक रूप से बनाए और खाए जाते थे। फुर्सत के मौके गांव में खेती-किसानी के काम से निपटने के बाद तब मिलते थे, जब मौसम भी खुशगवार होता था। ऐसे आयोजनों के लिए सारा सामान (मसलन आटा, चावल, दाल, मसाले, घी वगैरह-वगैरह) भी सामूहिक रूप से ही जुटाया जाता था। पकवानों में ढुंगले़ (गेहूं व मंडुवे के आटे या खालिस मंडुवे के आटे की मोटी-मोटी रोटियां) और भड्डू (कांसे का बना गगरी नुमा गोल एवं मोटा बर्तन) में बनी रलौ़ (मिक्स) मोटी दाल मुख्य होते थे। कई बार खटाई (चटनी) भी इसमें शामिल होती थी। ये खटाई नींबू के साथ भट्ट या तिल मिलाकर बनती थी।
यह आयोजन खुले लंबे-चौडे़ खेत में होता था। खास बात यह कि ढुंगले़ तवे पर नहीं बनते थे। रोटी बेलने के लिए भी चकला-बेलन की जरूरत नहीं पड़ती थी। महिलाएं हाथ से ही आटे की गोली को रोटी का आकार देकर उसे पत्तों से अच्छी तरह लपेट लेती थीं। इसके बाद उसे चूल्हे के भीतर गर्म राख में दबा दिया जाता था। कुछ देर में जब गर्मागर्म रोटी को राख के अंदर से निकाला जाता तो उसकी महक से वातावरण महक उठता था। ये रोटी इतनी मोटी होती थी कि सामान्य व्यक्ति का एक से ही पेट भर जाता। हालांकि, गांव के हाड़तोड़ मेहनत करने वाले लोग तीन से चार रोटी मजे-मजे में खा लेते थे।

भड्डू आज भले ही चलन से बाहर हो गया हो, लेकिन उस दौर में दाल भड्डू में ही बनती थी। यह महंगा बर्तन जरूर होता था, लेकिन गरीब से गरीब परिवार भी एक भड्डू तो घर में जरूर रखता था। मेरे घर में आज भी एक भड्डू है, जो वर्षों पहले हमने 116 रुपये का लिया था। हालांकि, प्रेशर कूकर ने बीते लंबे अर्से से उसे शो-पीस बनाया हुआ है। खैर! भड्डू को चूल्हे में चढा़ने से पहले उस पर मिट्टी या राख का लेप लगाया जाता था। इससे वह काला नहीं पड़ता था और मांजने में भी आसानी रहती थी। भड्डू को गर्म होने में काफी वक्त लगता है, लेकिन गर्म हो जाने में कैसी भी दाल को वह मिनटों में गला देता है। फिर तो ऐसी लसपसी  दाल बनती है कि खाने वाला अंगुलियां चाटता रह जाए।

ढुंगले़ और दाल बनाने के लिए तैयारियां पहले दिन से ही होने लगती थीं। बच्चों का भी इसमें बडा़ योगदान होता था। खेत में जहां खाना बनता था, वहां सफाई करना, चूल्हे के लिए लकडि़यां इकट्ठी करना जैसी व्यवस्थाएं बच्चों की ही होती थीं। खाना भी सबसे पहले बच्चों को ही बंटता था। अमूमन ढुंगलो़ं की दावत रात की ही होती थी। जो खाना बच जाता, उसे गांव वाले घर ले जाते थे। वैसे ऐसी नौबत कम ही आती थी। साल में दो बार तो ढुंगले़ बन ही जाते थे। जहां तक मुझे याद है, मैं भी गांव में एक बार ढुंगलो़ं की दावत का हिस्सा बना हूं।
इसके अलावा एक बार कोटद्वार में भी हमने ढुंगलो़ं की दावत की थी। शायद वर्ष 1983 में, तब मैं आठवीं में पढ़ता था। हालांकि, तब खाना हमने पत्तल के बजाय थालियों में खाया था। इसके अलावा गांव में कभी-कभी जलेबी की दावत भी होती थी। जो बंदा जलेबी बनाने आता था, उसे सब बैरागी कहते थे। यह उसका असली नाम था या बोलचाल का नाम, मुझे नहीं मालूम। वह किस गांव से आता था, यह भी अब याद नहीं रहा, लेकिन था भलगांव के आसपास ही किसी गांव का। चार-पांच महीने में एक बार जलेबी बनाने की पूरी तैयारी के साथ वह भलगांव अवश्य आता था।
जलेबी बनाने का कार्यक्रम मुडी़ ख़्वाल़ (गांव के नीचे का हिस्सा) में आयोजित होता था। इसके लिए सारे गांव को सूचना दे दी जाती थी। जलेबी कितनी बननी है, यह लोगों की मांग पर निर्भर करता था। कोई-कोई तो एक-एक किलो जलेबी अकेले ही खा जाता था। तब शायद जलेबी एक या दो रुपये किलो हुआ करती थी। कुछ लोग सामान के बदले भी जलेबी खरीदते। गांव में किसी को लगता कि फलां व्यक्ति के पास पैसे नहीं हैं तो वह उसके लिए भी खरीद लेता। ऐसा प्यार-प्रेम और अपनत्व का भाव आज कहां देखने को मिलता है। हमने आर्थिक रूप से जरूर उन्नति कर ली, लेकिन सामाजिक रूप से बहुत पिछड़ गए हैं। काश! गुजरा वक्त वापस आ पाता...।
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(memories-two)

Golden moments of the village
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Dinesh Kukreti
As promised, today I am introducing you to those special dishes of the hill, which were prepared and eaten collectively on leisure occasions.  Opportunities of leisure were available after dealing with the agricultural work in the village, when the weather was also pleasant.  All the materials (such as flour, rice, pulses, spices, ghee, etc.) for such events were also collected collectively.  Dhungle (thick loaves of wheat and Manduve flour or pure Manduve flour) and Ralo (mix) thick lentils made in Bhaddu (bronze-shaped, round and thick vessel made of bronze) were the main dishes.  Sometimes khatai (chutney) was also included in it.  This sourness was made by mixing bhat or sesame with lemon.

 This event was held in an open wide field.  The special thing is that Dhungle was not made on the pan.  There was no need for a rolling pin to roll out the roti.  Women used to give the shape of a roti to the dough ball by hand and wrap it well with leaves.  It was then buried in hot ashes inside the stove.  After some time, when the hot roti was taken out from inside the ashes, the atmosphere was filled with its fragrance.  This roti was so thick that a normal person would fill his stomach with just one.  However, the hard working people of the village used to eat three to four rotis with pleasure.

Bhaddu may have gone out of fashion today, but in that era, pulses were made in Bhaddu only.  It was definitely an expensive pot, but even the poorest of the poor family used to keep a bhaddu in the house.  There is a Bhaddu in my house even today, which we had taken for Rs 116 years ago.  However, the pressure cooker has made it a showpiece for a long time.  So!  Before placing the bhaddu in the stove, a coating of mud or ash was applied to it.  Due to this it did not darken and it was easy to wash.  It takes a long time for the bhaddu to heat up, but it melts any dal in minutes to become hot.  Then such lentils are made that the eater keeps licking his fingers.

Preparations for making dhungle and dal started from day one.  Children also played a big part in this.  Arrangements like cleaning the farm where food was prepared, collecting wood for the stove were made by the children only.  The food was also first distributed to the children.  Usually the feast of the Dhungals was held at night only.  Whatever food was left, the villagers used to take it home.  Well, such a situation rarely came.  Twice a year, Dhungle used to be made.  As far as I can remember, I too have once been a part of the Dhungalo Ki Dawat in the village.

Apart from this, once in Kotdwar also we had a feast of Dhungals.  Maybe in the year 1983, then I used to study in class VIII.  However, then we ate the food in plates instead of pattals.  Apart from this, sometimes Jalebi feast was also held in the village.  Everyone who used to come to make jalebi was called Bairagi.  Whether it was his real name or a colloquial name, I don't know.  From which village he used to come, it is also not remembered now, but it was from a village near Bhalgaon.  He used to come to Bhalgaon once in four-five months with full preparation for making jalebi.

The process of making jalebi was held at Mudi Khwaal (the lower part of the village).  For this the entire village was informed.  How much jalebi was to be made, it depended on the demand of the people.  Some people used to eat one kilogram of jalebi alone.  Then probably Jalebi used to be one or two rupees a kilo.  Some people buy Jalebi in exchange for the goods.  If someone in the village felt that such a person did not have money, he would have bought it for him also.  Where do you find such a sense of love and affection today?  We have made progress economically, but have lagged behind socially.  If only!  The passing time could come back….

Tuesday, 27 July 2021

15-07-2021 (हलुवा पार्टी) यादें (1)


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यादें  (1)
हलुवा पार्टी

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दिनेश कुकरेती

न दिनों आफिस के कार्य का कोई टेंशन नहीं है। समय से जागना, समय से खाना और समय से सोना। स्वाभाविक है दिमाग में नए-नए विचार आएंगे ही। उस पर सुबह-शाम लगातार बारिश हो रही है और दुपहरी में उमस से बुरा हाल है। ऐसे में घर से बाहर निकलने का मन भी कहां करता है। इस समय पूर्वाह्न के ग्यारह बजे हैं और बाहर बारिश की झडी़ लगी है। खाली-खाली बैठे आंखों में नींद के झोंके आ रहे हैं, पर मुझे दिन में सोना अच्छा नहीं लगता। इसलिए सोचा, क्यों न आज दिन में ही डायरी लिख ली जाए। इसका सबसे बडा़ फायदा तो यह होगा कि नींद दूर भाग जाएगी।

मैं अमूमन मोबाइल पर ही लिखता हूं। वैसे मेरे पास लैपटाप भी है, लेकिन मोबाइल पर लिखना ज्यादा सहूलियत वाला लगता है। कहीं पर भी बैठे-बैठे लिख लीजिए, कोई झंझट नहीं। पर, आज सूझ ही नहीं रहा कि नया क्या लिखूं। इसलिए सोच रहा हूं कि क्यों न मैं आपको अपने बचपन के दिनों में ले चलूं। कुछ ऐसी यादें हैं, जिन्हें मैं आपसे शेयर करना इसलिए प्रासंगिक समझता हूं, क्योंकि समाज को आज ऐसे ही सरोकारों की जरूरत है। आपको यह भी बता दूं कि बचपन का ये किस्सा मुझे घर में बनी सूजी (हलुवा) को देखकर याद आया।

उस दौर में हलुवा विशिष्ट व्यंजन हुआ करता था और विशेष मौकों पर ही बनता भी था। इसलिए गांव में ऐसे मौकों का बच्चों ही नहीं, बडे़-बुजुर्गों को भी बेसर्बी से इंतजार रहता था। कभी-कभी विशिष्ट मौकों पर गांव के लोग सामूहिक रूप से हलुवा बनाते थे और इसके लिए सामग्री भी सामूहिक रूप से ही जुटाई जाती थी। लेकिन, सबसे खास होते थे वे मौके, जब किसी घर में कोई कारिज (कार्य) होता था और उसे निभाते सब मिल-जुलकर थे। मसलन, किसी को जब अपने खेतों में गोबर की खाद (जैविक खाद) डालनी होती थी (इसे सहेल कहा जाता था) तो वो यह कार्य अकेला न कर इसके लिए सारे गांव को न्यौता देता था।

इससे जहां सामूहिकता एवं प्यार-प्रेम का भाव विकसित होता था, वहीं कार्य भी चुटकी बजाते निपट जाता था। हर परिवार बारी-बारी से यही क्रम दोहराता था और सारा गांव इसमें भागीदार बनता था। कार्य पूरा होने के बाद काम करने वाले सारे लोग उस परिवार के आंगन (चौक) में जुटते थे, जिसके खेतों में गोबर की खाद डाली गई होती थी। उनके लिए वहां पहले से ही हलुवा तैयार होता था, जिसे प्रसाद कहते थे। सूजी को देसी घी में खूब भूनकर तैयार किए इस हलुवे की खुशबू ही मुंह में पानी ला देती थी।

हलुवा खाने को लेकर बच्चे सबसे ज्यादा लालायित रहते थे। उनके लिए तो ये मौके त्यौहार जैसे होते थे। इसलिए सहेल में शामिल लोग बच्चों के लिए भी हलुवा जरूर ले जाते थे। हलुवा खाने और घर ले जाने के लिए बर्तनों की जरूरत तो होती ही नहीं थी। मालू के पत्ते और उनसे बने पत्तल बर्तनों की भरपाई कर देते थे। सहेल ही नहीं, सेरों में रोपणी लगाने (सिंचाई वाले खेतों में धान की रोपाई करने), धान-गेहूं की फसल काटने और झाड़ने-मांडने के मौकों पर भी सामूहिक रूप से हलुवे की दावत जरूर होती थी। इसके अलावा सभी कटिंग वाली चाय (बिना चीनी की चाय, जिसकी गुड़ के टुकडे़ के साथ चुस्कियां ली जाती हैं ) का लुत्फ भी उठाते थे।

इस दावत में कितना आनंद, कितना अपनत्व, कितना प्यार-प्रेम होता था, इसे सिर्फ वही महसूस कर सकता है, जिसने ये दौर जिया है। मैं भले ही तब छोटा था, लेकिन ये सुखद अनुभूतियां मेरे अंतर्मन में इतने गहरे समाई हुई हैं कि ऐसा लगता है, मानो कल की ही बात हो। यादों का सिलसिला चल ही पडा़ है तो आपको क्यों न उस दौर की एक और खास दावत में ले जाया जाए। मेरा दावा है कि आपको इस दावत में मजा आ जाएगा और कहोगे, काश! ऐसी दावत उडा़ने का एक बार हमें भी मौका मिला होता...।

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Memories (1)

Pudding party

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Dinesh Kukreti

There is no tension in office work these days.  Waking up on time, Eating on time and Sleeping on time.  It is natural that new ideas will come in the mind.  It is raining continuously in the morning and evening and it is worse than the humidity in the afternoon.  In such a situation, where does he even want to get out of the house?  It is eleven o'clock in the morning and it is raining outside.  There are sighs of sleep in my eyes sitting empty, but I do not like to sleep during the day.  So thought, why not write a diary today itself.  The biggest advantage of this will be that sleep will run away.

I usually write on mobile.  Well I have a laptop too, but writing on mobile seems more convenient.  Write anywhere while sitting, no hassle.  But, today I do not know what to write new.  So I am thinking why not take you back to my childhood days.  There are some such memories, which I consider relevant to share with you, because society needs such concerns today.  Let me also tell you that I remembered this childhood anecdote after seeing home-made semolina (haluva).

In those days, halwa used to be a typical dish and it was also made on special occasions.  Therefore, not only the children but also the elders used to wait impatiently for such occasions in the village.  Sometimes on specific occasions, the people of the village used to make pudding collectively and the material for this was also collected collectively.  But, the most special were those occasions, when there was a karij (work) in a house and everyone was doing it together.  For example, when someone had to apply cow dung (organic manure) in his fields (this was called Sahel), he would not do this work alone and invite the whole village for it.

Due to this, where the feeling of collectivism and love-love was developed, the work was also handled in a pinch.  Each family used to repeat this sequence in turn and the whole village became a participant in it.  After the completion of the work, all the working people used to gather in the courtyard (Chowk) of the family, whose fields were fertilized with cow dung.  There was already prepared pudding for them, which was called Prasad.  The fragrance of this pudding prepared by roasting semolina in desi ghee, used to bring water in the mouth.

Children were most eager to eat pudding.  For them, these occasions were like festivals.  That is why the people involved in Sahel used to take halwa for the children as well.  There was no need of utensils to eat the pudding and take it home.  The leaves of Malu and the leaves made from them used to compensate for the utensils.  Not only Sahel, there was a collective feast of pudding on the occasions of planting saplings in cere (planting paddy in irrigated fields), harvesting paddy-wheat and weeding.  Apart from this, everyone used to enjoy cutting tea (without sugar, which is sipped with a piece of jaggery).

How much joy, so much affinity, how much love and love was there in this feast, it can only be felt by the one who has lived this period.  Even though I was young then, these pleasant feelings are so deeply ingrained in my heart that it seems as if it was only yesterday.  The chain of memories has already started, so why not take you to another special feast of that era.  I bet you will enjoy this feast and say, I wish!  We too would have had a chance once to make such a feast….

13-11-2024 (खुशनुमा जलवायु के बीच सीढ़ियों पर बसा एक खूबसूरत पहाड़ी शहर)

खुशनुमा जलवायु के बीच सीढ़ियों पर बसा पहाड़ी शहर ------------------------------------------------ ------------- भागीरथी व भिलंगना नदी के संग...