Saturday, 23 October 2021

23-10-2021 (तुम बहुत याद आओगे)


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तुम बहुत याद आओगे
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दिनेश कुकरेती
दोपहर में साथी अजय खंतवाल ने फोन कर बताया कि बडे़ भाई पत्रकार सुधींद्र नेगी दुनिया-ए-फा़नी से रुखसत हो लिए। बताया कि रात में सांस लेने में तकलीफ होने के कारण उन्हें बेस अस्पताल में भर्ती कराया गया था, वहीं कुछ देर बाद उन्होंने अंतिम सांस ली। मेरे लिए यह सूचना मन-मस्तिष्क को झकझोरने वाली थी। सुधींद्र बडे़ भाई ही नहीं, मेरे शुभचिंतक भी थे। उनके परिवार से मेरा बेहद आत्मीय रिश्ता रहा है। एक तरह से मेरी पत्रकारिता की असल शुरुआत भी इसी परिवार के साथ जुड़कर हुई। हालांकि, मैं वर्ष 1990 से पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रख चुका था, लेकिन पत्रकार बिरादरी से मेल-मिलाप मेरा इसी परिवार ने कराया।

वर्ष 1990 के आखिर या 1991 की शुरुआत में सुधींद्र भाई के पिताजी कामरेड भूपेंद्र सिंह नेगी 'सर्वहारा' ने साप्ताहिक 'ठहरो' का पुनःप्रकाशन शुरू किया था। मैं तब एमकाम कर रहा था और छात्र राजनीति में सक्रिय होने के कारण अखबार के दफ्तरों में भी अच्छी घुसपैठ थी। साथ में स्वतंत्र लेखन के अलावा नैसर्गिक रूप में कविता लेखन भी जारी था। इस बीच मेरे एक सहपाठी अरुण बहुखंडी को भी कविता लिखने का चस्का लग गया था। एक दिन वो 'ठहरो' का नया अंक दिखाते हुए बोला, 'इसमें मेरी कविता छपी है। तू भी दे देना अपनी कविता। ताऊजी (भूपेंद्र सिंह नेगी) बैठते हैं आफिस में। बहुत अच्छे आदमी हैं। बराबर लिखने को कहते रहते हैं। देवीरोड पर रिफ्यूजी कालोनी में है उनका आफिस।'

अगले दिन कालेज बंद था, सो पूर्वाह्न 11 बजे बजे हम सीधे 'ठहरो' के दफ्तर में जा धमके। फ्रंट साइड में एक छोटा-सा कमरा और उसके बाद वाले कमरे में ट्रेडल मशीन लगी थी। ताऊजी कुछ लिखने में व्यस्त थे। शायद व्यंग्य लिख रहे थे। अरुण ने उनसे मेरा परिचय कराया और फिर चाय भी आ गई। बातचीत में पता चला कि ताऊजी सीपीआई के जुझारु नेता भी हैं और वर्षों पहले भी जनआंदोलन  को धार देने के लिए 'ठहरो' का प्रकाशन किया करते थे। हालांकि, आर्थिक तंगी के चलते यह उपक्रम लंबा नहीं चल सका। अब स्थिति सुधरी तो फिर अखबार को जीवित कर दिया। अब 'ठहरो' का दफ्तर गप्पबाजी करने के लिए हमारा परमानेंट अड्डा बन गया था। मैं साप्ताहिक 'सत्यपथ' के लिए भी आलेख लिखा करता था, लेकिन 'ठहरो' के लिए तो बाकायदा खबरें भी लिखने लगा। कविता और व्यंग्य लिखना तो निरंतर चल ही रहा था।

कुछ समय बाद सुधींद्र भाई भी दफ्तर में आने लगे। उनमें पत्रकारिता का नैसर्गिक गुण था। निर्वात में भी खबरें उनकी आंखों के सामने तैरने लगती थीं। साथ ही वे सिद्धान्तों की जगह व्यवहार को ज्यादा तवज्जो देते थे। लेकिन, जनपक्ष उनके लिए भी ताऊजी की तरह सबसे ऊपर था। धीरे-धीरे अखबार की कमान सुधींद्र भाई ने ही संभाल ली। मेरी और उनकी खूब छनती थी। कोई भी कार्य हो, उसमें वे मेरी सलाह अवश्य लेते थे। उनके घर भी मैं अधिकारपूर्वक जाता था। 'ठहरो' का विशेषंक छपवाने तो मैं कई बार ताऊजी के साथ हरिद्वार और सुधींद्र भाई के साथ दिल्ली तक गया। हालांकि, पैसे अपनी जेब से ही खर्च होते थे, लेकिन इसमें भी आनंद बहुत आता था। विशेषांक छापने की जिम्मेदारी तो मेरी ही होती थी। लिखने से लेकर कटिंग-पेस्टिंग तक मैं खुद ही करता। उस दौर में अखबार के निगेटिव-पाजिटिव बना करते थे। बाद में बटर पेपर पर यह काम होने लगा। इस दौरान 24 अप्रैल 1996 को अचानक ताऊजी ने दुनिया-ए-फा़नी से रुखसत ले ली। इसके बाद 'ठहरो' का प्रबंधन पूरी तरह सुधींद्र भाई ने संभाल लिया।

अब उन्होंने ट्रेडल प्रेस बेचकर अखबार आफसेट प्रेस में छपवाना शुरू कर दिया था। समय के साथ हम लोग भी रोजी-रोजी की तलाश में इधर-उधर हो गए थे। हालांकि, दिल्ली, मेरठ, लखनऊ, हल्द्वानी, पौडी़, गोपेश्वर, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर आदि स्थानों पर प्रवास के दौरान भी मैं 'ठहरो' में बराबर लिखता रहा। इस बीच सुधींद्र भाई ने 'ठहरो' का प्रकाशन बंद कर साप्ताहिक 'दुंदुभि' का प्रकाशन शुरू कर दिया। इसके पीछे क्या वजह रही होगी, यह मैंने उनसे कभी पूछा नहीं। हालांकि, 'दुंदुभि' की टैग लाइन उन्होंने 'ठहरो! भागो नहीं, दुनिया बदलो' ही रखी। यह ध्येय वाक्य ताऊजी ने महापंडित राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक 'भागो नहीं, दुनिया बदलो' से लिया था। साल में एक बार वे पत्रिका के रूप में 'दुंदुभि' का विशेषांक अवश्य निकालते थे, जिसमें मुझे भी कुछ-न-कुछ अनिवार्य रूप से लिखना होता था।

वर्ष 2008 में मैं देहरादून आ गया, लेकिन 'ठहरो' के रूप में 'दुंदुभि' से नाता बना रहा। जब भी पत्रिका का विशेषांक निकलना होता था, सुधींद्र भाई दो महीने पहले ही मुझे फोन कर देते थे कि मैं दो-एक लेख व कुछ कविताएं भेज दूं। दो लेख भेजने पर वे एक लेख रजनी के नाम से छाप देते थे। पत्रिका मैं उनसे कोटद्वार जाने पर ले लेता था। कभी-कभार उनसे आफिस में भी मुलाकात हो जाती थी। इस साल भी अस्वस्थ होने के बावजूद सुधींद्र भाई ने 'दुंदुभि' का अंतिम विशेषांक निकाला। अप्रैल में उनका फोन आया तो पत्रिका और उनके स्वास्थ्य को लेकर काफी देर बातचीत हुई। कहने लगे, 'अभी मौका है, इसलिए सोचा विशेषांक निकाल लिया जाए। बाद का क्या भरोसा।' फिर उन्होंने वही अपने पुराने अंदाज में पर्यावरण से संबंधित दो-एक लेख व कुछ कविताएं भेजने की कहा। मुझे हमेशा अफसोस रहेगा कि नौकरी की व्यस्तताओं के चलते मैं इस अंक के लिए लेख नहीं भेज पाया।

दरअसल, मुझे कुंभ-2021 की रिपोर्टिंग के लिए अप्रैल में हरिद्वार जाना था, इसलिए लेख लिखने को वक्त ही नहीं निकाल पाया। सुधींद्र भाई ने कई बार मुझे फोन किया, लेकिन हरिद्वार के बिजी शेड्यूल के कारण मेरे पास अफसोस जताने के सिवा और कोई विकल्प नहीं था। दो-एक बार तो मैंने जवाब देने से बचने के लिए फोन भी नहीं उठाया। हां! कविताएं जरूर मैंने मेल से भेज दी थीं। क्या मालूम था कि सुधींद्र भाई इस तरह रूठ कर चले जाएंगे, अन्यथा जैसे भी होता, मैं किसी-न-किसी विषय पर लेख जरूर भेजता। यह भी दुर्भाग्य ही है कि आखिरी वक्त में मेरी उनसे मुलाकात भी नहीं हो पाई। खैर! यह सारे नियति के खेल हैं, जिन पर हमारा कोई बस नहीं चलता। लेकिन, यह भी सच है कि सुधींद्र भाई की कमी हमेशा खलती रहेगी। उनके जैसा दूसरा साथी मिलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।

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You will be missed a lot

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Dinesh Kukreti

In the afternoon, fellow Ajay Khantwal called and told that elder brother journalist Sudheendra Negi had left Duniya-e-Fani.  Told that he was admitted to the base hospital due to difficulty in breathing at night, while he breathed his last after some time.  For me this information was mind-blowing.  Sudheendra was not only an elder brother but also my well wisher.  I have a very close relationship with his family.  In a way, the real beginning of my journalism also started by joining this family.  Although I had entered the field of journalism from the year 1990, but this family got me reconciled with the journalist fraternity.

In the late 1990s or early 1991, Sudhindra Bhai's father, Com. Bhupendra Singh Negi 'Proletarian', started the republishing of the weekly 'Stahro'.  I was doing M.Com then and being active in student politics, there was good infiltration in the newspaper offices as well.  Along with independent writing, poetry writing was also continued in a natural form.  Meanwhile, Arun Bahukhandi, a classmate of mine, also had a passion for writing poetry.  One day, showing the new issue of 'Stay', he said, 'My poem is printed in it.  You also give your poem.  Tauji (Bhupendra Singh Negi) sits in the office.  Very nice man.  Keep asking to write.  His office is in the refugee colony on Devi Road.

The next day the college was closed, so at 11 a.m. we went straight to the 'stay' office.  There was a small room in the front side and a treadle machine in the next room.  Tauji was busy writing something.  Maybe he was writing satire.  Arun introduced me to him and then tea also arrived.  It was revealed in the conversation that Tauji is also a militant leader of the CPI and even years ago used to publish 'Stahro' to give edge to the mass movement.  However, this venture could not last long due to financial constraints.  Now the situation improved, then the newspaper was revived.  Now the 'stay' office had become our permanent den for gossip.  I used to write articles for the weekly 'Satyapath' too, but for 'Stay', I started writing news stories too.  Writing poetry and satire was going on continuously.

After some time Sudheendra Bhai also started coming to the office.  He had a natural quality of journalism.  Even in a vacuum, the news used to float before his eyes.  At the same time, he gave more importance to practice rather than principles.  But, Janapaksha was above all for him like Tauji.  Gradually, Sudheendra Bhai took over the command of the newspaper.  Me and his were filtered a lot.  In any work, he would definitely take my advice.  I used to go right to his house also.  Many times I went to Haridwar with Tauji and to Delhi with Sudhindra Bhai to get the special issue of 'Stay' printed.  Although the money was spent from his own pocket, but there was a lot of joy in it too.  It was my responsibility to print the special issue.  From writing to cutting-pasting, I would do it myself.  In that era, negative-positives of the newspaper used to be made.  Later this work started on butter paper.  During this, on April 24, 1996, Tauji suddenly took a leave from Duniya-e-Fani.  After this, the management of 'Stahro' was completely taken over by Sudheendra Bhai.

Now he sold the traditional press and started publishing it in the newspaper Offset Press.  With the passage of time, we also moved here and there in search of livelihood.  However, even during my stay in places like Delhi, Meerut, Lucknow, Haldwani, Pauri, Gopeshwar, Rudraprayag, Srinagar etc. I kept on writing in 'stay'.  Meanwhile, Sudheendra Bhai stopped publishing 'Stahro' and started publishing weekly 'Dundubhi'.  What would have been the reason behind this, I never asked him.  However, the tag line of 'Dundubhi' was 'Stay!  Don't run, change the world.  This motto was taken by Tauji from Mahapandit Rahul Sankrityayan's book 'Don't run, change the world'.  Once a year, he used to bring out a special issue of 'Dundubhi' in the form of a magazine, in which I also had to write something compulsorily.

In the year 2008, I moved to Dehradun, but remained associated with 'Dundubhi' as 'Stay'.  Whenever the special issue of the magazine was to come out, Sudheendra Bhai used to call me two months in advance to send me two articles and some poems.  On sending two articles, he used to print one article in the name of Rajni.  I used to take the magazine from him when I went to Kotdwar.  Sometimes he used to meet him in the office too.  Despite being unwell this year too, Sudheendra Bhai brought out the last special issue of 'Dundubhi'.  When his call came in April, there was a long conversation about the magazine and his health.  They started saying, 'Now is the time, so thought of taking out the special number.  What about the latter?  Then he asked to send two articles and some poems related to the environment in his old style.  I will always regret that I could not submit the article for this issue due to my job schedules.

Actually, I had to go to Haridwar in April for the reporting of Kumbh-2021, so I could not find time to write the article.  Sudheendra bhai called me several times, but due to the busy schedule of Haridwar, I had no option but to express my regret.  Once or twice I did not even pick up the phone to avoid answering.  Yes!  I had definitely sent the poems by mail.  Did you know that Sudheendra Bhai would go away in anger like this, otherwise I would have sent articles on some or the other subject, as it were.  It is also unfortunate that I could not even meet him at the last moment.  So!  These are all games of destiny, on which we have no bus.  But, it is also true that the lack of Sudheendra Bhai will always be missed.  Finding another partner like him is not only difficult, it is impossible.


13-11-2024 (खुशनुमा जलवायु के बीच सीढ़ियों पर बसा एक खूबसूरत पहाड़ी शहर)

खुशनुमा जलवायु के बीच सीढ़ियों पर बसा पहाड़ी शहर ------------------------------------------------ ------------- भागीरथी व भिलंगना नदी के संग...