Monday, 15 January 2024

15-01-2024 (कला जगत को गढ़वाली शैली देने वाले मौलाराम)


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कला जगत को गढ़वाली शैली देने वाले मौलाराम
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दिनेश कुकरेती
ध्य हिमालय की गोद में बसे गढ़वाल की कला, संस्कृति व साहित्य को समय-समय पर अनेक प्रतिभाओं ने चहुंमुखी समृद्धि एवं सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान की। इन प्रतिभाओं में सर्वाधिक सशक्त हस्ताक्षर स्व.मौलाराम तूंवर का अपना विशिष्ट स्थान है। डॉ.आनंद कुमार स्वामी ने मौलाराम को चित्रकला की गढ़वाल शैली का निर्माता कहा है। मौलाराम ने अपनी तूलिका के माध्यम से गढ़वाल के सामाजिक एवं राजनीतिक परिदृश्य को चित्रित कर आलोकित किया। साथ ही दोहों, सवैय्यों व अन्य काव्य कृतियों की रचना करके अपनी विलक्षण काव्य प्रतिभा का परिचय भी दिया। इतिहास लेखक एवं कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में मौलाराम को आज भी गरिमामय स्थान प्राप्त है।

गढ़वाल दरबार के चितेरे कवि मौलाराम का जन्म 1743 ईस्वी में श्रीनगर में हुआ। तब श्रीनगर में गढ़वाल की राजधानी हुआ करती थी। इनके पिता का नाम मंगतराम व माता का रामी देवी था। गढ़वाल के कलानुरागी राजाओं ने इनके पूर्वजों को संरक्षण प्रदान किया था। मौलाराम के दादा के दादा केहरदास अपने पिता शामदास के साथ श्रीनगर आए थे। शामदास के पिता बनवारीदास मुगल सम्राट शाहजहां के दरबार में चित्रकार थे। दाराशिकोह की मौत के बाद उसके पुत्र सुलेमान शिकोह को दिल्ली छोड़कर भागना पड़ा। सुलेमान शिकोह ने गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर मे राजा पृथ्वी शाह से शरण मांगी। शामदास अपने पुत्र केहरदास सहित सुलेमान के साथ ही श्रीनगर पहुंचे। इन्हीं की पांचवीं पीढ़ी में मंगतराम (मौलाराम के पिता) का जन्म हुआ। कुशाग्र बुद्धि के धनी मौलाराम ने अपने पिता व दादा से चित्रकारी और स्वर्णकारी सीखी। उस दौर में अधिकांश चित्रकारों का मुख्य व्यवसाय स्वर्णकारी हुआ करता था। लेकिन, मौलाराम ने स्वर्णकारी की अपेक्षा चित्रकारी की ओर अधिक ध्यान दिया और इस क्षेत्र में आश्चर्यजनक उन्नति भी की।

गढ़वाल शैली की चित्रकला का भारतीय कलाजगत में अपना विशिष्ट स्थान है। यहां तक की लंबी यात्रा में गढ़वाल चित्रकला शैली अन्य वास्तु एवं कला शिल्पियों के योगदान से निरंतर लाभान्वित होती रही है। गढ़वाल चित्रांकन शैली पतित पावनी गंगा की भांति अपनी विशिष्टताओं से युक्त अनेक लघु धाराओं के सतत समागम का प्रतिफल है। गढ़वाल की आदि चित्रकला शैली पर मालवा, मथुरा, दिल्ली, राजस्थान, अहिक्षेत्र (बरेली), कांगड़ा आदि की चित्रांकन शैलियों का प्रभाव इसी समागम को इंगित करता है। गढ़वाल शैली के निर्माता मौलाराम अनेक प्रकार की कृतियां सृजित करते हुए अपने मन-मस्तिष्क से गाते थे। उनकी तूलिका रंगों के कुशल संयोजन की आदी थी तो उनके मस्तिष्क को राजनीतिक गुत्थियां सुलझाने में महारथ हासिल थी। उनकी रचनाओं ने गढ़वाल की कला को समृद्ध किया तो काव्य कृतियों ने साहित्य को। इस अनन्य कला साधक के जीवनकाल में गढ़वाल राज सिंहासन पर चार शासक महाराजा प्रदीप शाह (1757 से 1772 ईस्वी), महाराजा ललित शाह (1772 से 1780 ईस्वी), महाराजा जयकृत शाह (1780 से 1785 ईस्वी) व महाराजा प्रद्युम्न शाह (1785 से 1804 ईस्वी) आसीन हुए और चारों ने ही मौलाराम को राजकीय सहायता पूर्ववत जारी रखी।
 
मौलाराम के पूर्वजों को राज्‍य की ओर से 60 गांवों की जागीर व पांच रुपये प्रतिदिन के हिसाब से वेतन मिलता था। इस तरह मौलाराम तमाम आर्थिक चिंताओं से मुक्‍त होकर कला साधना में लीन रहे। मौलाराम एक दार्शनिक भी थे और राजनीतिक कला पटु भी। इसी कारण इन्‍हें राजा-प्रजा सभी का सम्‍मान प्राप्‍त था। अपनी योग्‍यता के बल पर मौलराम दरबार के विश्‍वासपात्र परामर्शदाता भी बन गए। इनकी प्र‍सिद्धि गढ़वाल राज्‍य तक की सीमित नहीं थी, बल्कि पूर्व में नेपाल से लेकर पश्चिम में कांगड़ा, सिरमौर, गुलेर, मंडी आदि हिमालयी रजवाड़ों में भी इन्‍हें सम्‍मान प्राप्‍त था। श्रीनगर में महाराजा अजयपाल द्वारा निर्मित चित्रशाला ही मौलाराम की कर्मस्‍थली रही। यहीं रहकर वे चित्रकला की साधना में लीन थे कि 1803 ईस्वी में गढ़वाल राज्‍य पर गोरखों का अधिकार हो गया। प्रद्युम्‍न शाह अपने परिवार सहित देहरादून चले गए, लेकिन कला का यह अनन्‍य भक्‍त अपनी साधना स्‍थली छोड़कर कहीं नहीं गया। उसी चित्रशाला में रहकर मौलाराम अपनी कला साधना में रत रहे।
गोरखा राज्‍य की स्‍थापना के बाद मौलाराम को कई आशंकाओं ने घेर लिया, किंतु जब गोरखा सेनापति हस्तिदल ने चित्रशाला जाकर इनकी कृतियों को देखा तो प्रभावित हुए बिना न रह सका। इससे पहले भी हस्तिदल ने नेपाल में मौलाराम की विद्वता और कुशलता के बारे में काफी कुछ सुना था। फलत: हस्तिदल ने मौलाराम को पहले से प्राप्‍त आर्थिक संरक्षण जारी रखा। हस्तिदल इनकी राजनीतिक कुशलता से भी प्रभावित था और समय-समय पर खुद भी इनसे परामर्श लेता रहता था। जब हस्तिदल कांगड़ा आदि की ओर लक्ष्‍य करने की सोच रहा था तब मौलाराम ने उसे अंग्रेजों की बढ़ती शक्ति की ओर ध्‍यान देने और राज्‍य संगठित करने की सलाह दी। इससे लगता है कि मौलाराम ने तत्‍कालीन राजनीतिक परिस्थिति का गहन अध्‍ययन किया था। उन्होंने इस तथ्‍य को भी रेखांकित किया था कि भारतीय राजा आपसी द्वेष में ही अपनी शक्ति गंवा रहे हैं, जिसका लाभ अंग्रेज उठा लेंगे। इसीलिए उन्‍होंने हस्तिदल को अंग्रेजों से संधि करने की सलाह भी दी थी, जिसे गोरखों ने नहीं माना। नतीजा अपना राज्‍य विस्‍तारित करने के बजाय दस-बारह साल में ही उन्हें गढ़वाल-कुमाऊं भी गंवाना पड़ा।
मौलाराम को स‍बसे अधिक कष्‍टपूर्ण जीवन तब बिताना पडा, जब गढ़वाल के एक भाग में ब्रिटिश राज्‍य स्‍थापित हो गया। किंतु, इससे पूर्व ही मौलाराम की कला तमाम मानदंडों को पार कर चुकी थी। अंग्रेजों के शासनकाल में उनकी जागीर जब्‍त कर ली गई और अनुदान भी बंद कर दिए गए। लेकिन, एक बार टिहरी जाने से इन्‍कार करने के कारण मौलाराम दोबारा वहां जाने का विचार न कर सके। वह आर्थिक चिंताओं से घिरे होने के बावजूद श्रीनगर में रहकर ही कला साधना में लगे रहे। वृद्धावस्‍था व आर्थिक चिंता ने इन्‍हें अध्‍यात्‍म की राह पर जाने को प्रेरित किया। इस काल में सृजित 'दशावतार', 'अष्‍टदुर्गा', 'ग्रह' आदि कलाकृतियां इनके आध्‍यात्मिक रुझान काे परिलक्षित करती हैं।
कला समीक्षक जेसी फ्रेंच ने मौलाराम के जीवन को हिमालयी (पहाड़ी) चित्रकला के उत्‍थान और पतन की गाथा कहा है। मौलाराम अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक सृजन में लगे रहे। वर्ष 1833 में इनका देहांत हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल 'चारण' ने इनकी 35 से अधिक काव्‍य कृतियों को पांच भागों 'नीति एवं शृंगारपरक काव्‍य', 'पौराणिक आख्‍यानों पर आधारित काव्‍य', 'ए‍ेतिहासिक गाथाओं पर आधारित काव्‍य', 'राष्‍ट्रीय उद्बोधन संबंधी काव्‍य' व 'संत काव्‍य' में वर्गीकृत किया है। इनमें 'शृंगार मंजरी', 'बारामासा', 'आसक-उपासक', 'राम महिमा', 'चंडी की हिकायत', 'ज्‍चाला महिमा', 'मंगतराम-मौलाराम संवाद', 'गढ़वाल विध्‍वंस', 'मूल गनिका नाटक', 'गढ़गीता संग्राम', 'गढ़ राजवंश काव्‍य', 'गोरखाली अमल', 'फिरंगी अमल', विज्ञप्ति पंचक', 'राम-मौला', 'मन्‍मथ सागर', 'मन्‍मथ निर्वाण तरंगिणी', 'मन्‍मथ योग', 'मन्‍मथ रामायण', 'दीवान', 'आदि माया', 'वैराग्‍य मंजरी' आदि काव्‍य कृतियां प्रमुख हैं।

इनकी चित्रकला के अनुपम उदाहरण के रूप में गढ़ नरेशों के चित्र, बारामासा चित्र, काव्‍य चित्र, अष्‍टदुर्गा चित्र, दशावतार चित्र आदि का उल्‍लेख किया जा सकता है।मौलाराम ने चित्रकला काव्‍य रचना व इतिहास लेखन के क्षेत्र में गौरवपूर्ण सफलताएं प्राप्‍त करके अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक व साहित्यिक गतिविधियों को प्रभावित ही नहीं किया, बल्कि भविष्‍य के लिए कई संभावनाओं को इंगित भी किया। इनकी काफी कम कलाकृति व पांडुलिपि ही प्रकाश में आ सकी हैं। इनमें भी अधिकांश देश-विदेश के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। आज जरूरत उनकी शेष कृतियों को प्रकाश में लाने की है, ताकि भविष्य की पीढ़ी गढ़वाली चित्रकला के गौरवपूर्ण अतीत से परिचित हो सके।
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Maula Ram, who gave Garhwali style to the art world
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Dinesh Kukreti
F
rom time to time, many talents have provided all-round prosperity and powerful expression to the art, culture and literature of Garhwal, situated in the lap of the Central Himalayas. Among these talents, Late Maula Ram Tunwar has his own special place as the most powerful signature. Dr. Anand Kumar Swami has called Maula Ram the creator of the Garhwal style of painting. Maula Ram portrayed and illuminated the social and political scenario of Garhwal through his paintbrush. He also demonstrated his unique poetic talent by composing couplets, savaiyas and other poetic works. Even today, Maula Ram enjoys a dignified place as a historical writer and skilled politician.

Maula Ram, the famous poet of Garhwal court, was born in Srinagar in 1743 AD. At that time Srinagar used to be the capital of Garhwal. His father's name was Mangatram and mother's name was Rami Devi. The art-loving kings of Garhwal had provided protection to his ancestors. Maularam's grandfather's grandfather Kehardas had come to Srinagar with his father Shamdas. Shamdas's father Banwaridas was a painter in the court of Mughal emperor Shah Jahan. After the death of Darashikoh, his son Suleman Shikoh had to flee Delhi. Suleman Shikoh sought refuge from King Prithvi Shah in Srinagar, the capital of Garhwal. Shamdas along with his son Kehardas reached Srinagar along with Suleman. Mangatram (father of Maularam) was born in his fifth generation. Maula Ram, who was a sharp mind, learned painting and goldsmithing from his father and grandfather. In that period, the main occupation of most of the painters was goldsmithing. But, Maula Ram paid more attention towards painting than goldsmithing and also made amazing progress in this field.

Garhwal style of painting has its own special place in the Indian art world. Even in its long journey, the Garhwal painting style has been continuously benefiting from the contribution of other architectural and art craftsmen. The Garhwal painting style is the result of the continuous confluence of many small streams with their own specialties, like the purified Ganga. The influence of the painting styles of Malwa, Mathura, Delhi, Rajasthan, Ahikshetra (Bareilly), Kangra etc. on the Adi painting style of Garhwal indicates this combination. Maula Ram, the creator of Garhwal style, used to sing from his heart while creating many types of creations. While his paintbrush was adept at skillful combination of colours, his mind was adept at solving political puzzles. His works enriched the art of Garhwal and his poetic works enriched the literature. During the lifetime of this unique art practitioner, four rulers ruled the Garhwal throne - Maharaja Pradeep Shah (1757 to 1772 AD), Maharaja Lalit Shah (1772 to 1780 AD), Maharaja Jaikrit Shah (1780 to 1785 AD) and Maharaja Pradyumna Shah (1785 to 1804). AD) came to power and all four continued the same government support to Maula Ram.

Maularam's ancestors used to get jagir of 60 villages and a salary of five rupees per day from the state. In this way, Maula Ram remained engrossed in the practice of art, freed from all financial worries. Maula Ram was both a philosopher and adept in political art. For this reason, he had the respect of both the king and the people. On the basis of his ability, Maulram also became a trusted advisor of the court. His fame was not limited to Garhwal state, but he was also respected in the Himalayan kingdoms ranging from Nepal in the east to Kangra, Sirmaur, Guler, Mandi etc. in the west. The Chitrashala built by Maharaja Ajaypal in Srinagar remained the workplace of Maula Ram. While staying here, he was engrossed in the practice of painting when in 1803 AD, the Gorkhas took control of the Garhwal state. Pradyumna Shah went to Dehradun along with his family, but this great devotee of art did not leave his place of worship anywhere. Staying in the same painting studio, Maula Ram remained engrossed in his art practice.

After the establishment of the Gorkha state, Maula Ram was surrounded by many apprehensions, but when Gorkha commander Hastidal went to the gallery and saw his works, he could not remain impressed. Even before this, Hastidal had heard a lot about the scholarship and efficiency of Maula Ram in Nepal. As a result, Hastidal continued the financial protection he had already received from Maula Ram. Hastidal was also impressed by his political skills and used to consult him from time to time. When Hastidal was thinking of aiming towards Kangra etc., Maula Ram advised him to pay attention to the growing power of the British and organize the state. It seems that Maula Ram had made a deep study of the political situation of that time. He also underlined the fact that Indian kings were losing their power due to mutual hatred, which the British would take advantage of. That is why he also advised Hastidal to make a treaty with the British, which the Gorkhas did not accept. As a result, instead of expanding his kingdom, he had to lose Garhwal-Kumaon within ten-twelve years.

Maula Ram had to live the most painful life when the British rule was established in a part of Garhwal. But, even before this, Maula Ram's art had crossed all the norms. During the British rule, their estates were confiscated and grants were also stopped. But, due to his refusal to go to Tehri once, Maula Ram could not think of going there again. Despite being surrounded by financial worries, he remained engaged in art practice while staying in Srinagar. Old age and financial worries inspired him to go on the path of spirituality. The artworks like 'Dasavatar', 'Ashtadurga', 'Grah' etc. created during this period reflect their spiritual inclination.

Art critic Jesse French has called Maula Ram's life the saga of the rise and fall of Himalayan (pahari) painting. Maula Ram remained engaged in creation till the last moments of his life. He died in the year 1833. Famous historian Dr. Shiv Prasad Dabral 'Charan' has divided his more than 35 poetic works into five parts 'Poetry on policy and decorative poetry', 'Poetry based on mythological stories', 'Poetry based on historical stories', 'Poetry related to national exhortation' and It is classified in 'Sant Kavya'. These include 'Shringaar Manjari', 'Baramasa', 'Aasak-Upasak', 'Ram Mahima', 'Chandi Ki Hikayat', 'Jchala Mahima', 'Mangataram-Maularam Samvad', 'Garhwal Demolition', 'Mool Ganika Natak', 'Gadh Geeta Sangram', 'Garh Rajvansh Kavya', 'Gorkhali Amal', 'Firangi Amal', Samvidha Panchak', 'Ram-Maula', 'Manmath Sagar', 'Manmath Nirvana Tarangini', 'Manmath Yoga', 'Manmath Ramayana' ', 'Deewan', 'Aadi Maya', 'Vairagya Manjari' etc. are important poetic works.

As unique examples of his painting, paintings of Garh kings, Baramasa paintings, poetry paintings, Ashtadurga paintings, Dashavatar paintings etc. can be mentioned. Maula Ram achieved great success in the field of painting, poetry and history writing of his time. Not only influenced social, political and literary activities, but also indicated many possibilities for the future. Only very few of his artworks and manuscripts have come to light. Most of these are safe in museums in the country and abroad. Today there is a need to bring his remaining works to light, so that the future generation can become familiar with the glorious past of Garhwali painting.





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