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खाने-सोने की भी फुर्सत नहीं--------------------------------
दिनेश कुकरेती
पिछले बीस दिन से खाने-सोने की भी फुर्सत नहीं मिल रही। उत्तरांचल प्रेस क्लब की त्रैमासिक पत्रिका "गुलदस्ता" के वार्षिकांक की तैयारी में वक्त कब गुजर जा रहा है, पता ही नहीं चल रहा। ऐसा लगता है, जैसे काम घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा हो। सुबह दस बजे कमरे से निकल पड़ता हूं और फिर पांच घंटे स्वयं की भी सुध नहीं रहती। दोपहर का भोजन भी ऐसे होता है, जैसे जबर्दस्ती हलक में उडे़ला जा रहा हो। जब तक पत्रिका छपने के लिए प्रेस में नहीं पहुंचा दी जाती, तब तक सुकून की उम्मीद करना भी सपने देखना जैसा है। ऐसे में आफिस में भी ठीक से मन नहीं लगता, पर कोई चारा भी नहीं है। इस बार तो सब-कुछ अकेले ही निपटाना है। कोई सहयोग करने को तैयार ही नहीं है।पत्रिका में प्रकाशित एक-एक लेख को संपादित करने से लेकर लेआउट तैयार करने तक, हर कार्य खुद ही करना पड़ रहा है। कुछ लेख तो नए सिरे से भी लिखने पडे़। इतना ही नहीं, हर लेख के लिए फोटो भी स्वयं ही मैनेज करने पड़े। सोच रहा हूं, बस! जैसे-तैसे साल के इस आखिरी अंक को निकाल लूं, फिर तो इस बारे में सोचूंगा तक नहीं। यह ठीक है कि मुझे पढ़ना-लिखना बहुत अच्छा लगता है, पर इसका यह मतलब कतई नहीं कि सारे जहां के बोझ को अपने सिर पर उठा लूं। कान पकड़ लिए बाबा अब तो।
दरअसल, इस बार काम का दबाव अधिक होने की वजह यह भी है कि 20 दिसंबर को प्रेस क्लब की आखिरी आम सभा होनी है। फिर नई कार्यकारिणी के लिए चुनाव की घोषणा के साथ तैयारियां भी शुरू हो जाएंगी और आज दस दिसंबर बीत चुका है। कल से क्रिकेट टूर्नामेंट का आयोजन भी होना है, जो चार दिन चलेगा। जाहिर है, अब पत्रिका को किसी भी सूरत में आज-कल पर नहीं टाला जा सकता। सबसे बडी़ दिक्कत पावर कट की वजह से पेश आ रही है। दिन में रोजा़ना कई बार बिजली गुल हो जाती है। कई बार तो आधा से एक घंटे के लिए।
फिर नौकरी भी तो करनी है। आफिस से निकलते-निकलते रात के ग्यारह बज जाते हैं। ऐसी स्थिति में तनाव होना स्वाभाविक है। आज भी यही हाल है। सिर भारी-सा लग रहा है। ऊपर से जल्दी सोना भी अच्छा नहीं लगता। किसी मनपसंद पुस्तक या पत्रिका के दो-चार पन्ने पढ़ लेने के बाद ही सुकून मिलता है। शायद ये पुस्तकें ही मुझे ताकत देती हैं। कठिन परिस्थितियों में जीने का सलीका सिखाती हैं।
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There is no time to eat or sleep
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Dinesh Kukreti
For the last twenty days, there is no time to eat or sleep. It is not known when the time is going to prepare for the annual issue of Uttarakhand Press Club's quarterly magazine "Guldasta". It seems as if work is increasing rather than decreasing. I leave the room at ten o'clock in the morning and then for five hours I do not even remember myself. Lunch is also like being forced into the circle. Until the magazine is sent to the press for publication, it is like dreaming to expect peace. In this case, the office does not feel well, but there is no option. This time everything has to be disposed of alone. Nobody is willing to cooperate.
From editing each article published in the magazine to preparing the layout, every task has to be done by itself. Some articles also had to be written anew. Not only this, photos for every article also had to be managed by themselves. Thinking, that's it! As soon as I remove this last issue of the year, I will not even think about it. It is okay that I like to read and write, but this does not mean that I should bear the burden of all the places. Baba has caught his ear now.
Actually, this time the pressure of work is more because it is the last general meeting of the Press Club to be held on 20 December. Then preparations will start with the announcement of elections for the new executive and today, December 10 has passed. A cricket tournament is also scheduled to be held tomorrow, which will run for four days. Obviously, now the magazine cannot be avoided on any occasion. The biggest problem is due to the power cut. Lightning flames occur several times a day. Sometimes for half an hour.
Then you also have to do a job. It is eleven o'clock at night. In such a situation it is natural to have tension. It is the same today. The head looks heavy. Sleeping too fast is not good. Relaxation is attained only after reading two to four pages of a favorite book or magazine. Perhaps these books give me strength. Teaches them how to live in difficult situations.
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