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वनवास, जो जारी है
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दिनेश कुकरेती
वैसे तो छोटे-छोटे वनवास मेरे जीवन का स्थायी भाव बन चुके हैं, लेकिन यह ऐसा वनवास है, जिसके खत्म होने की उम्मीद फिलहाल दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही। आज ही के दिन 11 मई 2008 को इस वनवास की शुरुआत हुई थी। यह वनवास किसी द्युत क्रीडा़ में हार जाने अथवा किसी के वचनों का मान रखने के लिए नहीं मिला, बल्कि इसे मैंने स्वयं ही खुशी-खुशी अंगीकृत किया। हालांकि, इस वनवास पर निकलते हुए मैंने कल्पना तक नहीं की थी कि आगे बढ़ते-बढ़ते पीछे की राह अवरुद्ध होती चली जाएगी। लेकिन, अब लगता है कि मैं गलत था। मुझे जिस सपने की तलाश थी, उसकी राह तो यह थी ही नहीं।
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वर्षों पहले मैंने अब्दुल हमीद अदम की एक गज़ल पढी़ थी, जिसका एक शेर मुझे बेहद पसंद है। शेर है कि "सिर्फ़ इक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में, मंजि़ल तमाम उम्र मुझे ढूंढती रही।" लगता है मानो यह शेर अदम ने मेरे लिए ही कहा। तब लगता था कि मेरी राह भले ही संघर्षों से भरी पडी़ हो, लेकिन जमाने के लिए यह उम्मीद की राह है। अब लगता है समय ने मुझे झुठला दिया। अकेले में जब कभी अतीत की गहराइयों में उतरने की कोशिश करता हूं तो सच आइने की तरह स्पष्ट चमकने लगता है। एहसास होता है कि मैं तो इस राह के लिए बना ही नहीं हूं। यह तो परिक्रमा की राह है, जो गोल-गोल घूमती है और मैं चाहकर भी सूरजमुखी नहीं बन सकता।
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इस सबके बावजूद मेरा भरोसा अब भी कायम है। जिस राह पर चल रहा हूं, उस पर नहीं, बल्कि खुद पर और यकीन जानिए मेरी जिद इसे टूटने भी नहीं देगी। हां! इस बात का अफसोस मुझे हमेशा रहेगा ही कि मैंने गलत राह चुनी, जिसकी परिणति है यह खत्म न होने वाला वनवास। काश! इस वनवास के साथ अज्ञातवास भी जुडा़ होता। काश! अज्ञातवास की इस अवधि में स्वयं की पहचान को छिपाकर मैं फिर खुशहाली कि राह पर चल पाता। लेकिन, यहां तो कौरव बेहद शक्तिशाली हो चले हैं। समय पर हर दिशा से उनका पहरा है। खैर! ये सब भावनात्मक बातें हैं और मेरा उद्देश्य आपको भावनाओं में बहाना नहीं, बल्कि भावनाओं से परिचित कराना है।
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सच कहूं तो आज मुझे सूझ ही नहीं रहा था कि क्या लिखूं। वह तो अचानक याद हो आया कि चौदह बरस पहले आज ही के दिन मेरे कदम द्रोणनगरी (मान्यता है कि गुरु द्रोण ने यहां तप किया था, इसलिए देहरादून का एक नाम द्रोणनगरी भी है) में पडे़ थे, इसलिए भाव खुद-ब-खुद छलक पडे़। 14 बरस के प्रवास को वनवास मानने की एक वजह यह भी है कि मैं चाहकर भी कभी इस शहर को आत्मसात नहीं कर पाया। यहां चकाचौंध और दिखावे के सिवा मुझे कुछ और नजर ही नहीं आता। अपनत्व का भाव तो इस शहर की मिट्टी में है ही नहीं। तभी तो अक्सर मुझे उम्मीद फा़ज़ली का एक शेर याद हो आता है, जो थोडा़ संशोधन के साथ कुछ यूं है, "ये उदास रातें, ये आवारगी, ये नींद का बोझ, मैं अपने शहर में होता तो घर चले जाता।"
हालांकि, मैं जानता हूं कि अतीत को कोसने का कोई प्रतिफल नहीं है, सिवाय मनो मालिन्य करने के। जिंदगी तो हर हाल में आगे बढ़ने का नाम है, क्योंकि इतिहास ही हमें विज्ञान की दृष्टि प्रदान करता है। ठोकर खाकर ही तो संभलने का हुनर आता है। इसीलिए परिस्थितियां कैसी भी रही हों, मैंने कभी हार मानना नहीं नहीं सीखा। मेरा सबक तो हमेशा यही रहा है, "ऐ वक्त की रेत मुझे एडि़यां रगड़ने दे, मुझे यकीं है कि पानी यहीं से निकलेगा।"
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--------------------------------------------------------------Exile, which continues
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Dinesh Kukreti
Although small exiles have become a permanent feature of my life, but this is such an exile, whose hope of ending is not visible far and wide. This exile started on this day on 11th May 2008. This exile was not found to be lost in a gaming game or to honor someone's words, but I accepted it happily myself. However, while going out on this exile, I did not even imagine that the way back would be blocked as I progressed. But, now it seems I was wrong. The dream I was looking for, this was not the way.
Years ago, I read a ghazal by Abdul Hameed Adam, a sher of which I really liked. The lion is that "Only one step was taken in the wrong way, the destination kept searching for me all the time." It seems as if this Sher Adam said it for me only. Then it seemed that my path may be full of struggles, but it is a road of hope for the time being. Now it seems time has betrayed me. Whenever I try to delve into the depths of the past alone, the truth shines like a mirror. Realize that I am not made for this path. This is the path of circumambulation, which revolves round and round and I cannot become a sunflower even if I want to.
Despite all this, my faith still stands. Not on the path I am walking, but know myself and have faith, my stubbornness will not let it break. Yes! I will always regret the fact that I chose the wrong path, the result of which is this never ending exile. If only! Ignorance would also have been associated with this exile. If only! By hiding my identity during this period of exile, I would be able to walk on the path of happiness again. But, here Kauravas have become very powerful. He is guarded from every direction in time. So! These are all sentimental things and my aim is not to delude you into feelings, but to introduce you to feelings.
To be honest, today I did not know what to write. He suddenly remembered that fourteen years ago, on this day, my feet were lying in Dronagri (it is believed that Guru Drona had meditated here, hence Dehradun has a name as Dronagri), so the feeling spread by itself. Fall. One of the reasons I consider the 14-year stay as exile is that I could never assimilate this city even if I wanted to. I can't see anything here except the glitz and the pretense. There is no sense of belongingness in the soil of this city. That's why I often remember a sher from Umeed Fazli, which, with a slight modification, is something like, "These gloomy nights, these vagabonds, these sleepy loads, if I were in my city, I would have gone home."
However, I know that there is no reward for cursing the past, except for humility. Life is the name of moving forward in any case, because history itself gives us the vision of science. It is only by stumbling that one has the ability to recover. That's why no matter what the circumstances were, I never learned to give up. My lesson has always been, "O time, let the sand of time rub my heels, I am sure the water will come out from here."
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