Thursday, 24 November 2022

24-11-2022 (गढ़वाल पर प्रथम गोरखा आक्रमण का गवाह लंगूरगढ़)


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लंगूरगढ़ : गढ़वाल पर प्रथम गोरखा आक्रमण का गवाह 
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दिनेश कुकरेती
तिहास न केवल अतीत से परिचित कराता है, बल्कि आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देता है। एक तरह से यह अतीत और वर्तमान के बीच का सेतु है। इतिहास विज्ञान का भी मार्गदर्शक है, इसलिए उसे भविष्य का आईना कहा गया है। इसीलिए राजनीति, दर्शन शास्त्र, अर्थशास्त्र व विज्ञान के साथ इतिहास भी मेरा प्रिय विषय रहा है। इतिहास ने ही समाज के प्रति मेरी क्या जिम्मेदारियां हैं, इसका अहसास कराया। खुद को तलाशने और अपने परिवेश को जानने में मेरी मदद की। मुझे लगता है कि मनुष्य होने के नाते हमें अपने इतिहास से अवश्य परिचित होना चाहिए। इसीलिए हमेशा मेरी कोशिश पहाड़ को अधिक से अधिक जानने की रही है। चलिए! इसी कडी़ में आपको लंगूरगढ़ (भैरवगढ़) के अतीत और वर्तमान से परिचित कराता हूं।
गढ़वाल को 52 गढो़ं का देश कहा गया है। कहते हैं कि कत्यूरी शासन की समाप्ति के पश्चात गढ़वाल में बहुराजकता का काल आरंभ हुआ तो गढ़वाल क्षेत्र छोटी-छोटी इकाइयों में विभाजित हो गया। ऐसा माना जाता है कि तब गढ़वाल में 52 गढ़ (किले) स्थापित थे, जिनका संचालन छोटे-छोटे राजा करते थे। इन्हें गढ़पति कहा जाता था। लेकिन, धीरे-धीरे ये गढ़ गढ़वाल राज्य के अधीन होते चले गए। प्रसिद्ध इतिहासकार डा. शिवप्रसाद डबराल 'चारण' लिखते हैं कि वर्ष 1790 में गोरखा फौज द्वारा कुमाऊं पर अधिकार कर लिए जाने के बाद गोरखा सैनिकों का ध्यान गढ़वाल की ओर गया। तब गढ़वाल में परमार वंश का शासन था और राजा प्रद्युम्न शाह गद्दीनशीन थे। वर्ष 1791 में हर्ष देव जोशी (हरक देव) की सहायता से गोरखों ने गढ़वाल पर हमला बोल दिया। लंगूरगढ़ में दोनों सेनाओं का आमना-सामना हुआ। (लंगूरगढ़ तत्कालीन गढ़वाल राज्य की दक्षिणी सीमा पर स्थित परगना गंगा सलाण का सामरिक रूप से संवेदनशील एवं प्रमुख गढ़ हुआ करता था।) तब गोरखा सेना का नेतृत्व चंद्रवीर और भक्ति थापा कर रहे थे। यह युद्ध 28 दिन चला, लेकिन अंततः प्रद्युम्न शाह की सेना ने गोरखाओं को नाकों चने चबाने के लिए मजबूर कर दिया। गोरखा सेना की हार हुई और उसे संधि के लिए विवश होना पडा़।
वर्ष 1792 में लंगूरगढ़ की संधि हुई, जिसके तहत गोरखाओं ने गढ़वाल पर कभी आक्रमण न करने का वचन दिया। साथ ही गोरखाओं पर 25 हजार रुपये वार्षिक कर भी आयद किया गया। कहते हैं कि गोरखाओं को पराजित करने वाले सेनापति रामा खंडूडी़ ने यहां चोटी पर भैरवनाथ का पूजन किया और अनुष्ठान के बाद सेना सहित वापस श्रीनगर (गढ़वाल) लौट गए। इसके बाद गढ़वाल नरेश ने इस क्षेत्र से एकत्र होने वाले भू-राजस्व को भैरवगढी़ मंदिर में पूजा-अर्चना पर खर्च करने के निर्देश दिए। हालांकि, वर्ष 1804 के दूसरे हमले में लंगूरगढ़ गोरखाओं के कब्जे में चला गया। तब उनके द्वारा यहां मंदिर की स्थापना की गई।
क्षेत्रीय पुरातत्व इकाई पौडी़ की रिपोर्ट के अनुसार यहां भैरव मंदिर में स्थापित शिवलिंग पर एक मन (40 सेर या किलो) वजनी ताम्रपत्र चढा़ है। इस पर फाल्गुन संवत 1884 और देवनागरी लिपि में भक्ति थापा के नाम का उल्लेख है। कहते हैं कि गोरखाओं ने इसे अपना वर्चस्व साबित करने के लिए मंदिर में चढा़या था। मंदिर में 30 गुणा 15 सेमी माप की पंचाग्नितप हरे रंग की देवी पार्वती की पाषाण प्रतिमा भी दर्शनीय है। शैलीगत आधार पर यह प्रतिमा दसवीं व 11वीं शताब्दी के बीच की बताई जाती है।

लंगूरगढ़ का परिचय
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समुद्रतल से 2750 मीटर की ऊंचाई पर पौडी़ गढ़वाल जिले के द्वारीखाल विकासखंड में स्थित भैरवगढ़ गढ़वाल के 52 गढो़ं में से एक है। इसका वास्तविक नाम लंगूरगढ़ है। संभवत: लांगूल पर्वत पर स्थित होने के कारण इसे लंगूरगढ़ कहा गया। लांगूल पर्वत की आमने-सामने स्थित चोटियों पर दो किले (गढ़) हैं, जिनमें एक का नाम लंगूरगढ़ और दूसरे का भैरवगढ़ है। लंगूरगढ़ को हनुमानगढ़ और भैरवगढ़ को भैरवगढी़ भी कहा जाता है। इन चोटियों तक पहुंचने के रास्ते भी अलग-अलग हैं, बावजूद इसके दोनों गढ़ को एक ही माना गया है।

ऐसे पहुंचते हैं लंगूरगढ़
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भैरवगढ़ जाने के लिए पहले गढ़वाल के प्रवेशद्वार कोटद्वार पहुंचना पड़ता है। कोटद्वार से 36 किमी की दूरी पर गुमखाल और यहां से ऋषिकेश रोड पर चार किमी आगे कीर्तिखाल़ (केतुखाल़) पड़ता है। यहां से लंगूरगढ़ पहुंचने के लिए ढाई की खडी़ चढा़ई पैदल तय करनी पड़ती है। कीर्तिखाल ऋषिकेश और कोटद्वार से सीधे पहुंचा जा सकता है। जबकि, गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंटल सेंटर एवं छावनी शहर लैंसडौन से भैरवगढ़ की दूरी राजखिल गांव होते हुए लगभग 17 किमी है।आपको अगर भैरवगढ़ से लंगूरगढ़ पहुंचना है तो इस चोटी से आधा किमी नीचे उतरना पडे़गा। यहां घास के एक छोटे से मैदान (बुग्याल) से कच्चा रास्ता दाहिनी ओर जाता है। इस पर कुछ दूर तक उतराई के बाद फिर चढा़ई शुरू हो जाती है। यह चढा़ई आपको सीधे इसी पर्वत की दूसरी चोटी यानी लंगूरगढ़ पहुंचा देगी। यहां से नीचे उतरने के भी दो रास्ते हैं। पहला वापस घास के मैदान से होते हुए सीधे कीर्तिखाल पहुंचाता है। जबकि, दूसरा रास्ता भैरवगढी़ से थोडा़ नीचे आने के बाद दाहिनी ओर पगडंडी के रूप में है। बाहर से आने वाले लोग इस टेढे़-मेढे़ रास्ते का कम ही उपयोग करते हैं।


लंगूरगढ़ के भैरव
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भगवान शिव के 15 अवतारों में से एक नाम भैरव का आता है, उसी भैरव रूप को समर्पित है, भैरवगढ़ की चोटी पर स्थित बाबा कालनाथ भैरव (भैरोंनाथ) का प्रसिद्ध मंदिर। यह मंदिर भैरव की गुमटी पर बना हुआ है और इसके बायें हिस्से में शक्तिकुंड स्थित है। भैरोंनाथ को गढ़वाल का रक्षक (द्वारपाल) माना गया है। मनोकामना पूर्ति पर भक्त यहां चांदी के छत्र चढा़ते हैं। क्षेत्र के नवविवाहित जोडे़ तो भैरोंनाथ के दर्शनों के बाद ही अपने दाम्पत्य जीवन की शुरूआत करते हैं। धाम का प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटकों को भी अपनी ओर खींचता है। शीतकाल के दौरान यहां बर्फबारी का आनंद भी लिया जा सकता है। चोटी पर होने के कारण यहां से हिमालय का विहंगम नजारा देखते ही बनता है। साथ ही आसपास बिखरी हरियाली भी पर्यटकों असीम शांति की अनुभूति कराती है।

भैरोंनाथ को लगता है मंडुवे के आटे से बने रोट का भोग
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लोक मान्यता है कि कालनाथ भैरों को काली वस्तुएं सर्वाधिक पसंद हैं। इसलिए यहां मंडुवे के आटे का रोट के रूप में प्रसाद तैयार किया जाता है। हर साल जेठ (ज्येष्ठ) के महीने यहां जात (जात्रा या यात्रा) के साथ दो-दिवसीय मेले का आयोजन होता है। मेले के प्रथम दिन राजखिल गांव से भैरवगढ़ तक जात निकाली जाती है। इस वार्षिक अनुष्ठान में हजारों की संख्या में श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं। एक दौर में भले ही यहां पशुबलि की प्रथा रही हो, लेकिन अब यह प्रथा पूरी तरह बंद हो चुकी है।


लंगूरगढ़ का एक नाम अजेयगढ़ भी
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गढ़वाल पर गोरखाओं का प्रथम आक्रमण लंगूरगढ़ में ही हुआ था। इस युद्ध को लंगूरगढ़ युद्ध के नाम से जाना जाता है। तब लंगूरगढ़ पर असवाल ठाकुरों का राज हुआ करता था, जिन्होंने गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह की सेना की मदद से गोरखा सैनिकों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। तब इस किले को अजेय मानते हुए अजेयगढ़ (अजयगढ़) नाम से भी जाना जाने लगा।

हमारे ईष्ट भी हैं लंगूरगढ़ के भैरव
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संयोग से मेरा गांव भलगांव भी भैरवगढ़ की परिधि में आता है और भैरोंनाथ हमारे परिवार के भी ईष्ट देव हैं। वैसे मेरा मूल गांव बरसूडी़ है, लेकिन बाद में मेरे परदादा या उनसे पहले की पीढी़ दो मील नीचे भलगांव आ गई। मुझे ठीक से तो याद नहीं है, लेकिन 22-23 साल पहले जब मैं देवपूजा में शामिल होने के लिए गांव गया था तो इस दौरान मुझे राजखिल जाने का भी मौका मिला। राजखिल जाने और वहां से भलगांव वापस लौटने में मुझे लगभग पांच घंटे का समय लगा था। राजखिल से लंगूरगढ़ की चोटी दो किमी के फासले पर है। वहां भैरों मंदिर के पुजारी राजखिल के डोबरियाल जाति के लोग ही होते हैं।

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The first Gorkha attack on Garhwal took place in Langurgarh
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Dinesh Kukreti
History not only introduces us to the past, but also inspires us to move forward. In a way, it is a bridge between the past and the present. History is also the guide of science, hence it has been called the mirror of the future. That's why along with politics, philosophy, economics and science, history has also been my favorite subject. History itself made me realize what are my responsibilities towards the society. Helped me discover myself and know my surroundings. I think that as human beings we must be familiar with our history. That is why it has always been my endeavor to know the mountain as much as possible. Let go! In this episode, let me introduce you to the past and present of Langurgarh (Bhairavgarh).

Garhwal has been called the country of 52 citadels. It is said that after the end of the Katyuri rule, the period of polyarchy started in Garhwal, then the Garhwal region was divided into small units. It is believed that then there were 52 garhs (forts) established in Garhwal, which were operated by small kings. He was called Gadhapati. But, gradually these forts came under the rule of Garhwal state. Famous historian Dr. Shivprasad Dabral 'Charan' writes that in the year 1790, after the Gorkha army took over Kumaon, the attention of Gorkha soldiers turned towards Garhwal. Then Garhwal was ruled by the Parmar dynasty and King Pradyuman Shah was the ruler. In the year 1791, with the help of Harsh Dev Joshi (Harak Dev), the Gurkhas attacked Garhwal. Both the armies came face to face in Langurgarh. (Langurgarh used to be a strategically sensitive and major stronghold of Pargana Ganga Salan, located on the southern border of the then Garhwal state.) Then the Gorkha army was led by Chandraveer and Bhakti Thapa. This war lasted for 28 days, but finally Pradyuman Shah's army forced the Gorkhas to chew gram. The Gorkha army was defeated and had to be forced to negotiate.

In the year 1792, the Treaty of Langurgarh took place, under which the Gurkhas pledged never to attack Garhwal. Along with this, an annual tax of 25 thousand rupees was also imposed on Gorkhas. It is said that Rama Khanduri, the commander who defeated the Gurkhas, worshiped Bhairavnath on the top here and returned to Srinagar (Garhwal) along with the army after the rituals. After this, the Garhwal King gave instructions to spend the land revenue collected from this area on worship in the Bhairavgarhi temple. However, in the second attack of 1804, Langurgarh was captured by the Gorkhas. Then the temple was established here by him.

According to the report of Regional Archaeological Unit Pauri, a copper plate weighing one mind (40 ser or kg) is mounted on the Shivling installed in the Bhairav ​​temple here. It is dated Falgun Samvat 1884 and mentions the name of Bhakti Thapa in Devanagari script. It is said that the Gurkhas had offered it in the temple to prove their supremacy. The stone idol of Panchagnitap green colored Goddess Parvati measuring 30 x 15 cm is also visible in the temple. On stylistic grounds, this statue is said to be between 10th and 11th century.


Introduction to Langurgarh
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Bhairavgarh, located in the Dwarikhal development block of Pauri Garhwal district, at an altitude of 2750 meters above sea level, is one of the 52 Garhwal caves. Its real name is Langurgarh. Probably because of its location on the Langul mountain, it was called Langurgarh. There are two forts (citadels) on opposite peaks of Langul mountain, one is named Langurgarh and the other is Bhairavgarh. Langurgarh is also known as Hanumangarh and Bhairavgarh as Bhairavgarhi. The ways to reach these peaks are also different, yet both the citadels have been considered the same.

This is how to reach Langurgarh
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To go to Bhairavgarh, first one has to reach Kotdwar, the gateway of Garhwal. Gumkhal is situated at a distance of 36 km from Kotdwar and Kirtikhal (Ketukhal) lies four km ahead on the Rishikesh road. To reach Langurgarh from here one has to walk a steep climb of two and a half feet. Kirtikhal is directly accessible from Rishikesh and Kotdwara. Whereas, the distance from Garhwal Rifles Regimental Center and Cantonment town Lansdowne to Bhairavgarh via Rajkhil village is about 17 km. If you want to reach Langurgarh from Bhairavgarh, you will have to descend half a km from this peak. Here a dirt road leads to the right through a small grassy field (bugyal). After descending for some distance, the ascent starts again. This climb will directly take you to the second peak of this mountain i.e. Langurgarh. There are two ways to get down from here. The first leads directly back to Kirtikhal through the meadows. Whereas, the second way is in the form of a footpath on the right side after coming down a little from Bhairavgarhi. People coming from outside rarely use this zigzag path.

Bhairav ​​of Langurgarh
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The name Bhairav ​​comes from one of the 15 incarnations of Lord Shiva, dedicated to the same Bhairav ​​form, the famous temple of Baba Kalnath Bhairav ​​(Bhaironnath) situated on the top of Bhairavgarh. This temple is built on the dome of Bhairav ​​and Shaktikund is situated on its left side. Bhairon Nath has been considered as the protector (gatekeeper) of Garhwal. Devotees offer silver umbrellas here to fulfill their wishes. The newly married couples of the region start their married life only after visiting Bhairon Nath. The natural beauty of Dham also attracts tourists. One can also enjoy snowfall here during winters. Being on the top, one can get a panoramic view of the Himalayas from here. Along with this, the greenery scattered around also gives the tourists a feeling of infinite peace.

Bhairavnath enjoys bread made from Manduve flour

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It is a popular belief that Kalnath Bhairon likes black things the most. That's why Prasad is prepared here in the form of bread made of Manduve flour. Every year in the month of Jeth (eldest) a two-day fair is held here along with Jat (Jatra or Yatra). On the first day of the fair, a procession is taken out from Rajkhil village to Bhairavgarh. Thousands of devotees take part in this annual ritual. Even though there was a practice of animal sacrifice here at one time, but now this practice has completely stopped.

Ajeygarh is also a name of Langurgarh
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The first attack of Gurkhas on Garhwal took place in Langurgarh itself. This war is known as Langurgarh war. Langurgarh was then ruled by the Aswal Thakurs, who with the help of Garhwal King Pradyuman Shah's army forced the Gorkha soldiers to surrender. Then considering this fort as invincible, it also came to be known as Ajeygarh (अजयगढ़).

Bhairav ​​of our presiding deity Langur Garh
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Incidentally, my village Bhalgaon also comes under the purview of Bhairavgarh and Bhairon Nath is also the presiding deity of our family. Although my native village is Barsudi, but later my great grandfather or the generation before him came to Bhalgaon two miles down. I do not remember exactly, but 22-23 years ago when I had gone to the village to participate in Devpuja, during this time I also got a chance to visit Rajkhil. It took me about five hours to go to Rajkhil and back to Bhalgaon. The peak of Langurgarh is at a distance of two km from Rajkhil. There the priests of Bhairon temple are the people of Dobriyal caste of Rajkhil.


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