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मेरी मातृभाषा
मेरा गौरव
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दिनेश कुकरेती
मैं हमेशा मातृभाषा (दुधबोली या दूध की भाषा)में शिक्षा का पैरोकार रहा हूं। आज भी मेरी दृढ़ मान्यता है कि मातृभाषा का ज्ञान ही व्यक्ति को संपूर्णता प्रदान कर सकता है। व्यक्ति में संवेदना, संस्कृति और संस्कार मातृभाषा से ही आते हैं। सच कहूं तो मातृभाषा मां का ही एक रूप है। विज्ञान भी कहता है कि जिस भाषा में हम तुतलाना सीखते हैं, जिस भाषा में हम हंसते और रोते हैं, वही भाषा हमें जीवन की वास्तविक राह दिखा सकती है। पराई भाषा हमें धनवान तो बना सकती है, संपन्न नहीं। इसीलिए आधुनिक हिंदी के पितामह भारतेंदु हरिश्चन्द्र कहते हैं, "निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न हिय के सूल।" (मातृभाषा की उन्नति के बिना किसी भी व्यक्ति की तरक्की संभव नहीं है। साथ ही मातृभाषा के ज्ञान के बिना मन की पीडा़ को दूर करना भी मुश्किल है।)
मैंने ऐसे अनगिनत लोग देखे हैं जिनके पास दुनिया जहान की खुशियां हैं, लेकिन सुकून नहीं। जो आसमान की बात तो कर सकते हैं, लेकिन जमीन की नहीं। हम स्वयं को ही टटोलें, क्या जानते हैं अपने परिवेश के बारे में। अपनी परंपराओं तक की हमें जानकारी नहीं। जिसे हम अपनी तरक्की समझते हैं, वास्तव में वह हमारा अहंकार है। गांव में रहने वाले या सीधे-सादे व्यक्ति को अपमानित करने के लिए हम उसे "गंवार" की उपमा देने में संकोच नहीं करते। और...दोहरा चरित्र देखिए- भाषण देते हैं कि भारत गांवों में बसता है। मेरे आसपास ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं, जो भूले-भटके कभी गांव जाते हैं तो कहते हैं, "गढ़वाल जा रहे हैं।" चार लोगों के बीच में उन्हें अपनी भाषा बोलने में शर्म महसूस होती है।
वो भूल जाते हैं कि दुनिया के जितने भी संपन्न और विकसित देश हैं, उन्होंने तरक्की अपनी मातृभाषा में ही की। इजरायल इसका उदाहरण है। इजरायल के अस्तित्व में आने से पूर्व यहूदियों की मातृभाषा हिब्रू बोलने वालों की संख्या गिनती की रह गई थी। लेकिन, यहूदी लोग मातृभाषा की अहमियत समझते थे, इसलिए उन्होंने राष्ट्र के रूप में संगठित होने के बाद सबसे पहला काम हिब्रू को समृद्ध बनाने का किया। आज हिब्रू इजरायल की राष्ट्र भाषा है और वहां प्राथमिक शिक्षा भी हिब्रू भाषा में ही दी जाती है। इसके बाद बच्चों को अंग्रेजी समेत अन्य भाषाएं पढा़ई जाती हैं। चीन, जापान, कोरिया, स्पेन, अमेरिका, इटली, फ्रांस आदि मुल्कों की संपन्नता का रहस्य भी यही है।
अब आता हूं मूल विषय पर। दरअसल मुझे अपनी मातृभाषा गढ़वाली बेहद प्रिय है। सच कहूं तो कुमाऊंनी को छोड़कर गढ़वाली जैसी संपन्न भाषा दुनिया में दूसरी नहीं। यह एकमात्र भाषा है, जिसमें शब्द संबंधित वस्तु का पूरा खाका (चित्र) खींच देते हैं। मसलन गंध या सुगंध के लिए गढ़वाली में गंध, बास, किड़्याण, चर्याण, सड़्याण, खिखराण, भुट्याण, खट्याण, लुण्याण, बस्याण, पिपराण, कुतराण, गुवाण जैसे अनेक शब्द मौजूद हैं। इसी तरह पत्थर के लिए भी गारु, ढुंगु, ल्वाडु़, गंगल्वडु़, पोड़ जैसे अनेक शब्द अस्तित्व में हैं। लेकिन, आधुनिक दिखने की चाह में हम इस शब्द संपदा को ही भुला बैठे। कुमाऊंनी भाषा का भी हमने यही हाल कर दिया है।
खैर! इसका खामियाजा तो देर-सबेर हमको भुगतना ही है। हालांकि, मुझे लगता है कि इस खतरे को महसूस करने वाला मैं अकेला नहीं हूं। अच्छी बात है कि युवा पीढी़ इसे ज्यादा गंभीरता से महसूस कर रही है। नई पीढी़ में युवा साहित्यकार संदीप रावत, डा.उमेश चमोला, गणेश खुगशाल "गणी", गिरीश सुंद्रियाल, मधुसूदन थपलियाल, पयाश पोखडा़, आशीष सुंद्रियाल, मदन मोहन डुकलाण, वीरेंद्र पंवार, जगदंबा चमोला, डा.जगदंबा प्रसाद कोटनाला, शांति प्रकाश जिज्ञासु , लोकेश नवानी, गीतेश सिंह नेगी, जगमोहन सिंह जियाडा़, जगमोहन सिंह रावत (कृपया लेखकों के क्रम पर ध्यान न दें) जैसे अनेक लोक के पुरोधा मातृभाषा की समृद्धि के लिए पूरी जीवटता से कार्य कर रहे हैं।
मेरे लिए गर्व की बात यह है कि ये तमाम लोग मुझे भी अपनी इस लडा़ई का अभिन्न हिस्सा मानते हैं। इनमें से अधिकांश जो कुछ भी लिखते हैं या सृजन करते हैं, उससे मुझे अवश्य अवगत कराते हैं। हालांकि, इसके पीछे जो मूल भाव छिपा है, वह यह कि इनकी नवप्रकाशित पुस्तक की समीक्षा हो जाए। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। लेखकों के उत्साहवर्द्धन और सृजन को बढा़वा देने के लिए समीक्षा बेहद जरूरी है। क्योंकि ये लोग सृजन का यह कार्य लाभ कमाने नहीं, बल्कि लोक की समृद्धि के लिए कर रहे हैं।
हाल ही में मुझे गणेश खुगशाल "गणी" द्वारा संपादित गढ़वाली मासिक पत्रिका "धाद" की प्रति के अलावा डा. उमेश चमोला के कहानी संग्रह "छै फुटै जमीन", संदीप रावत के गढ़वाली गीत संग्रह "तू हिटदी जा", संदीप रावत व गीतेश सिंह नेगी द्वारा संपादित महिलाओं के पहले वृहद गढ़वाली कविता संग्रह "आखर" की एक-एक प्रति प्राप्त हुई हैं। "धाद" और "छै फुटै जमीन" में अनूदित कहानियां हैं। खासकर रूसी लेखक लियो टालस्टाय की कहानियां मुझे बेहद पसंद है। उनकी कहानियों का अनुवाद कर डा.उमेश चमोला ने निश्चित रूप से गढ़वाली साहित्य को समृद्धि प्रदान की है। मुझे गढ़वाली भाषा में लिखने-पढ़ने और भाषा की समृद्धि में योगदान करने को प्रेरित करने के लिए इन सभी मितरों का हृदय की गहराइयों से आभार!!
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My mother tongue my pride
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Dinesh Kukreti
I have always been an advocate of education in the mother tongue (Dudhboli or the language of milk). Even today I firmly believe that the knowledge of mother tongue can provide completeness to a person. Sensation, culture and rites in a person come from mother tongue only. To be honest, mother tongue is a form of mother. Science also says that the language in which we learn to lisp, the language in which we laugh and cry, that language can show us the real path of life. A foreign language can make us rich, not rich. That is why Bhartendu Harishchandra, the father of modern Hindi, says, "Nij bhaasha unnati ahai, sab unnati ko mool, bin nij bhaasha gyaan ke, mitan na hiy ke sool." (Without the progress of the mother tongue, the progress of any person is not possible. Also it is difficult to remove the pain of the mind without the knowledge of the mother tongue.)
I have seen countless people who have the happiness of the world, but no peace. Those who can talk about the sky, but not the land. We explore ourselves, what do we know about our surroundings. We don't even know about our traditions. What we consider to be our progress, is actually our ego. We don't hesitate to use the analogy of a "loaf" to humiliate a village dweller or a simpleton. And... Look at the double character - speeches that India lives in villages. There is no dearth of people around me who sometimes go to the village by mistake and say, "Garhwal is going." He feels ashamed to speak his own language in the midst of four people.
They forget that all the rich and developed countries of the world have progressed in their mother tongue only. Israel is an example of this. Before Israel came into existence, the number of people who spoke Hebrew, the mother tongue of the Jews, was few. However, the Jewish people understood the importance of the mother tongue, so the first thing they did after being organized as a nation was to enrich Hebrew. Today Hebrew is the national language of Israel and primary education there is also taught in the Hebrew language. After this children are taught other languages including English. This is also the secret of prosperity of countries like China, Japan, Korea, Spain, America, Italy, France etc.
Now coming to the main topic. Actually I love my mother tongue Garhwali very much. To be honest, except Kumaoni, there is no other rich language like Garhwali in the world. It is the only language in which words draw a complete picture of the object concerned. For example, in Garhwali for smell or fragrance, there are many words like Gandha, Bass, Kidyan, Charyan, Sadyan, Khikhraan, Bhutyan, Khatyan, Lunyaan, Basyan, Piparan, Kutran, Guwan. Similarly, for stone also many words like garu, dhungu, lvadu, ganglvudu, pod exist. But, in the desire to look modern, we have forgotten this word property. We have done the same thing with Kumaoni language.
Well! We will have to bear the brunt of this sooner or later. However, I think I am not the only one to feel this danger. The good thing is that the younger generation is feeling it more seriously. Young litterateurs in the new generation are Sandeep Rawat, Dr. Umesh Chamola, Ganesh Khughshal "Gani", Girish Sundriyal, Madhusudan Thapliyal, Payash Pokhda, Ashish Sundriyal, Madan Mohan Duklan, Virendra Panwar, Jagdamba Chamola, Dr. Jagdamba Prasad Jigyasu Kotnala, , Lokesh Navani, Gitesh Singh Negi, Jagmohan Singh Jiyada, Jagmohan Singh Rawat (Please do not pay attention to the order of authors) are working wholeheartedly for the prosperity of mother tongue.
It is a matter of pride for me that all these people consider me as an integral part of their fight. Most of them do make me aware of what they write or create. However, the underlying sentiment behind it is that his newly published book should be reviewed. There's no harm in that either. Reviews are essential to encourage authors and encourage creation. Because these people are doing this work of creation not for profit, but for the prosperity of the people.
Recently I received a copy of Garhwali monthly magazine "Dhad" edited by Ganesh Khughshal "Gani" besides Dr. Umesh Chamola's story collection "Chai Futai Zameen", Sandeep Rawat's Garhwali song collection "Tu Hitdi Ja", Sandeep Rawat and Gitesh A copy each of "Akhar", the first major Garhwali poetry collection for women edited by Singh Negi, has been received. There are translated stories in "Dhad" and "Chai Futai Zameen". I especially like the stories of the Russian writer Leo Tolstoy. Dr. Umesh Chamola has certainly provided prosperity to Garhwali literature by translating his stories. Thanks from the bottom of my heart to all these friends for motivating me to write and read in Garhwali language and contribute to the prosperity of the language!!
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