Friday, 9 July 2021

26-06-2021 (मेरा विद्यालय) (भाग-तीन)

(भाग-तीन)
मेरा विद्यालय
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दिनेश कुकरेती

पाटी (तख्ती) को चमकाने के बाद उस पर एक ओर हिंदी वर्णमाला लिखने के लिए सीधी लाइन डाली जातीं, वहीं दूसरी ओर गिनती व पहाडे़ के लिए सीधी और खडी़ लाइन। ये लाइन एक मोटे सूत को कमेडे़ में डुबोकर डाली जातीं, लेकिन बेहद सावधानी से। यह रोजाना का कार्य था। विद्यालय से घर लौटते ही मैं सबसे पहले घोटा-पोथ्या और लाइन डालने का काम ही निपटाता। यह देख दादी और मां मुझ पर चिल्लातीं कि पहले खाना क्यों नहीं खा रहा। हालांकि, मैं उनकी बात पर ध्यान न देकर अपने काम में जुटा रहता। इससे गुरुजी लोग मुझसे खुश रहते थे।

मैं बचपन से ही शर्मीले स्वभाव का रहा हूं। खासकर लड़कियों से तो बिल्कुल भी बात नहीं करता था। विद्यालय में तो अपनी दीदी (ताऊजी की बेटी) से भी नहीं। वही मुझसे पूछती, तब जवाब देता। हालांकि,  खुरापात करना मुझे हमेशा ही सुहाता रहा है। जहां तक मुझे याद है दूसरी कक्षा में तब दो किताब होती थीं, एक हिंदी की व दूसरी गणित की। इसके अलावा एक पट्टी पहाडा़ भी। तब मैं कागज का जहाज बनाना जानता था, लेकिन मेरे दोस्त नहीं, सो मैंंनै गणित की किताब के पन्ने फाड़कर उन्हें भी जहाज बनाना सिखा दिया। वह तो संयोग से यह बात मरख्वड़्या गुरुजी (हेडमास्टर) को पता नहीं लगी, अन्यथा मार-मार कर हम सबकी चमडी़ उधेड़ देते। मेरी सबसे ज्यादा, क्योंकि दोस्तों को तो ऐसा करने के लिए मैंने ही उकसाया था।

उस दौर में भी विद्यालय में टिफिन (रोटी-सब्जी, रोटी-हरा नमक या रोटी-गुड़) ले जाने का चलन रहा है, लेकिन मैं कभी ऐसा साहस नहीं जुटा पाया। मां और दादी कितनी उलाहना देते, मगर मैं कभी स्कूल रोटी नहीं ले गया। हाफटाइम यानी इंटरवल (बोलचाल में तब बच्चे हाफटैन बोलते थे) में जब अन्य बच्चे रोटी खा रहे होते थे, मैं ऐसी जगह बैठ जाता, जहां से उन पर नजर न पडे़। हां! विद्यालय के आंगन में तब एक भारी-भरकम पेड़ हुआ करता था, जिसके दाने (फल) खाना मुझे बेहद पसंद था। मुझे आज भी याद है, हल्की मिठास लिए कसैला स्वाद होता था उन दानों का। वह किस प्रजाति का पेड़ रहा होगा, मुझे नहीं मालूम, लेकिन हम बच्चे उसे डैंगण का पेड़ कहते थे। शायद पहाड़ में उसे डैंगण ही बोलते हैं।

इसके अलावा विद्यालय से घर लौटते हुए हिंसर, किनगोड़, भुयां काफल (जमीनी काफल) जैसे जंगली फल भी बच्चे खूब खाते थे। विद्यालय में मेरा एक दोस्त हुआ करता था गिरीश। उसके पिता हमारे खेतों में हल लगाते थे, इसलिए उन्हें हम हमारा हल़्या कहते थे। उनके घर के आंगन में संतरे का एक पेड़ था, जो हर सीजन में फलों से लकदक रहता था। एक दिन विद्यालय से घर लौटते हुए गिरीश मुझसे बोला कि मैं उसके घर से संतरे लेकर जाऊं, पेड़ से ताजे तोड़कर देगा। मैंने कितना मना किया, लेकिन वो नहीं माना। मुझे डर लग रहा था कि घर में क्या बोलूंगा। पर, करता क्या, वो तो जिद पर अडा़ था। हालांकि, मेरी आशंका निर्मूल साबित हुई और संतरे देखकर मां और दादी ने कुछ नहीं कहा। वैसे अपनी सफाई में मैंने उन्हें पूरा किस्सा भी सुना दिया था।

मितरों! जैसे-जैसे मैं अतीत की कडि़यां पिरो रहा हूं, वैसे-वैसे स्मृति की परतें उघड़ती जा रही हैं और कहानी लंबी होती चली जा रही है। वैसे सच कहूं तो मुझे इसमें असीम आनंद आ रहा है। ...और मुझे पूरा भरोसा है कि आप भी आनंदित हो रहे होंगे। बालपन की यादें होती ही ऐसी हैं। मेरी ही नहीं, अमीर-गरीब सबकी। बस! हैसियत के हिसाब से यादों का अंदाज जुदा हो जाता है। खैर! आज आपको इतने पर ही संतोष करना पडे़गा। आगे की कडी़ लेकर मैं इसी वक्त फिर हाजिर होता हूं। तब तक के लिए खुदा हाफिज़!!

(जारी...)

इन्‍हें भी पढ़ें : 

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(Part-Three)

My School

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Dinesh Kukreti

After shining the patti, a straight line was drawn on it for writing the Hindi alphabet on one side, while on the other hand a straight and vertical line for counting and hilling.  These lines were inserted by dipping a thick yarn into the shirt, but very carefully.  This was a daily job.  As soon as I got home from school, the first thing I would do was to deal with the scams and lines.  Seeing this, grandmother and mother used to shout at me why I was not eating food earlier.  However, I kept busy with my work ignoring his words.  Due to this, Guruji people were happy with me.

I have been shy since childhood.  Especially did not talk to girls at all.  Not even with my didi (Tauji's daughter) in school.  He would ask me, then he would answer.  However, I have always liked taking supplements.  As far as I remember there were two books in the second grade, one on Hindi and the other on Mathematics.  Apart from this, there is also a strip mountain.  Then I knew how to make a paper ship, but my friends did not, so I tore the pages of a math book and taught them to make a ship.  It was by chance that Markhwadya Guruji (Headmaster) did not come to know about this, otherwise we would have ripped everyone's skin by beating them.  My most, because I had instigated friends to do this.

Even in that era it is a trend to carry tiffin (roti-sabzi, roti-green salt or roti-jaggery) to school, but I could never muster up such courage.  Mother and grandmother used to scold so much, but I never took roti to school.  In the halftime interval (colloquially then children used to say halftan) when other children were eating roti, I would sit in such a place from where they could not be seen.  Yes!  There used to be a huge tree in the courtyard of the school, whose grains (fruits) I loved to eat.  I still remember, those grains used to have an astringent taste with a slight sweetness.  What species of tree it must have been, I do not know, but we children used to call it Dangan tree.  Perhaps he is called Dangan in the mountain.

Apart from this, while returning home from school, children used to eat a lot of wild fruits like hinsar, kingod, bhuyan kafal (ground kafal).  I used to have a friend in school, Girish.  His father used to plow our fields, so we called him our halya.  There was an orange tree in the courtyard of his house, which was full of fruits in every season.  One day, while returning home from school, Girish told me that I should take oranges from his house, plucking fresh ones from the tree.  How much I refused, but he did not accept.  I was afraid what to say at home.  But, what would he do, he was adamant on his insistence.  However, my apprehension proved to be unfounded and seeing the oranges, mother and grandmother did not say anything.  By the way, in my explanation, I narrated the whole story to him.

Friends!  As I keep threading the links of the past, the layers of memory are getting peeled off and the story is getting longer.  To be honest, I am really enjoying it.  ...and I'm sure you must be rejoicing too.  The memories of childhood are like this.  Not only mine, rich and poor everyone.  Bus!  According to the status, the style of memories gets separated.  Well!  Today you have to be content with just that.  I am present again at this very moment with the next episode.  Till then Khuda Hafiz!!

(To be continued...)

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