Monday, 15 April 2024

15-04-2024 जीवन की राहें-1 (किशोरवय के सपने)



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जीवन की राहें-1 (किशोरवय के सपने)

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दिनेश कुकरेती
मारे दौर में कोई यह बताने वाला नहीं था कि हमें भविष्य में क्या करना चाहिए। हाईस्कूल टापना (पास करना) मुश्किल होता था तो आस-पड़ोस से विचार-विमर्श के बाद मां-बाप फ़ौज की तैयारी करने की सलाह देते थे। संयोग से हाईस्कूल के बाद इंटर भी टाप लिया और फिर बीए करने लगे तो आगे बीटीसी या बीएड करने की सलाह दी जाती थी। खासकर बीटीसी पर ज्यादा जोर रहता था। नौकरी की जो गारंटी थी। तब आम परिवार के बच्चों के सपने भी बहुत बड़े नहीं होते थे। सो, मेरे भी नहीं थे। हां! इतना जरूर है कि किशोरावस्था के दौरान बस कंडक्टर बनने की मेरी बड़ी ख़्वाहिश रही। मैं अक्सर कल्पना किया करता था कि बड़ा होने पर मेरे पास कंडक्टरी का कमर्शियल लाइसेंस होगा और पैसा खर्च किए बिना मैं बसों में कहीं का भी मुफ्त सफर कर सकूंगा। 


मेरी ऐसी धारणा मेरे मामा और कुछ अन्य करीबियों को देखकर बनी। मेरे मामा गढ़वाल मोटर आनर्स यूनियन लिमिटेड (जीएमओयू) की बस में कंडक्टर हुआ करते थे और जीएमओयू की किसी भी बस में कहीं भी यात्रा कर लेते थे। यही देखकर मैं भी मुझे कंडक्टर के रूप देखने को लालायित रहता था। मेरे विचारों में बदलाव तब आया, जब मैंने नियमित रूप से रेडियो सुनना शुरू किया। यह रेडियो हमारे मकान मालिक का हुआ करता था, जिसे वह शाम पांच बजे ऑन करते थे। बड़ा रेडियो था, लकड़ी के फ्रेम वाला तीन बैंड का। बजता था तो ऐसे लगता था, मानो डीजे बज रहा हो। शाम साढ़े पांच बजे आकाशवाणी नजीबाबाद से ग्राम जगत कार्यक्रम आता था, जिसमें हर दिन किसी न किसी प्रतिभा को अपनी कविता, कहानी, वार्ता, नाटक, नृत्य नाटिका आदि प्रस्तुत करने का मौका मिलता था। मेरे मामा अध्यापक ब्रजमोहन कवटियाल भी अक्सर ग्रामजगत में अपनी गढ़वाली कविताएं प्रस्तुत करते थे। भ्‍यूंळै डाळी (भीमल के पेड़) पर लिखी उनकी एक गढ़वाली कविता, 'जुगराज रै मेरी भ्‍यूंळै की डाळी' और रामचरितमानस के किष्किंधा कांड पर लिखी गढ़वाली गीत नाटिका के कुछ अंश तो मुझे आज भी याद हैं। 
मामाजी को सुनकर मन करता कि काश! मुझे भी लोग आकाशवाणी से इसी तरह सुनते। इसके अलावा कभी-कभी मैं कॉलेज से घर लौटते हुए क्षेत्रीय अखबार की प्रति भी साथ ले आता। अखबार में छपे उत्तराखंड से संबंधित लेख मुझे भी कुछ लिखने के लिए प्रेरित करते। अब मैं ग्यारहवीं कक्षा में आ चुका था। मेरे हिंदी गद्य के पाठ्यक्रम में भारतेंदु हरिश्चंद्र का निबंध 'भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है' भी था। यह निबंध मुझे तब ही नहीं, आज भी बेहद प्रिय है। खासकर निबंध का यह पैरा- 'यह समय ऐसा है कि आदि तुरकी ताजी सब सरपट्ट दौड़े जाते हैं। सबके जी में यही है कि पाला हमीं पहले छू लें। उस समय हिंदू काठियावाड़ी खाली खड़े-खड़े टाप से मिट्टी खोदते हैं। इनको औरों को जाने दीजिए, जापानी टट्टुओं को हांफते हुए दौड़ते देखकर के भी लाज नहीं आती। यह समय ऐसा है कि जो पीछे राह जाएगा, फिर कोटि उपाय किए भी आगे न बढ़ सकेगा', मन को छू जाता है।
इस निबंध को बीसियों बार पढ़ा होगा मैंने और इसी से प्रेरित होकर लिखने का अभ्यास भी शुरू किया। कुछ वर्ष मैं स्वान्तःसुखाय ही लिखता रहा, लेकिन अंतर्मुखी स्वभाव के कारण इस लिखे हुए के बारे में किसी से चर्चा तक नहीं कर पाता था। हां! खुद कई बार पढ़ लेता था और किसी तरह की त्रुटि मिलने पर उसमें सुधार भी कर देता। कविता और गीत लिखने की शुरुआत भी मैंने इसी अवधि में की। यह जीवन में बदलाव का अहम दौर था, लेकिन दिशा दिखाने वाला तब भी कोई नहीं था। न जाने किधर का रुख करने वाली थी जीवन की पतवार। मेरे हाथ में तो बस! इतना ही था कि मन लगाकर पढ़ता रहूं।
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Life's paths (Teenagers' dreams)
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Dinesh Kukreti
In our time, there was no one to tell us what we should do in the future. It was difficult to pass high school, so after discussing with the neighbors, parents would advise us to prepare for the army. Incidentally, after high school, I topped intermediate as well and then started doing BA, so I was advised to do BTC or B.Ed. Especially, there was more emphasis on BTC. There was a guarantee of a job. At that time, even the children of ordinary families did not have big dreams. So, I did not have any. Yes! It is certain that during my teenage years, I had a great desire to become a bus conductor. I often used to imagine that when I grow up, I will have a commercial license for conducting and I will be able to travel anywhere in buses for free without spending money.

This notion of mine was formed by seeing my maternal uncle and some other close friends.  My maternal uncle used to be a conductor in the bus of Garhwal Motor Owners Union Limited (GMOU) and used to travel anywhere in any bus of GMOU. Seeing this, I too used to yearn to be seen as a conductor. My thoughts changed when I started listening to the radio regularly. This radio used to belong to our landlord, which he used to switch on at five in the evening. It was a big radio, with a wooden frame and three bands. When it used to play, it used to sound as if a DJ was playing. At five-thirty in the evening, Gram Jagat program used to come from Akashvani Najibabad, in which every day some talent got a chance to present his poem, story, talk, play, dance drama, etc. My maternal uncle, teacher Brajmohan Kavatiyal also often used to present his Garhwali poems in Gram Jagat.  I still remember one of his Garhwali poems written on Bhyunlai Dali (Bhimal tree), 'Jugaraj Rai Meri Bhyunlai Ki Dali' and some excerpts from the Garhwali song-drama written on Kishkindha Kand of Ramcharitmanas.

Listening to Mamaji, I felt like wishing that people would listen to me on Akashvani in the same way. Apart from this, sometimes while returning home from college, I would also bring a copy of the regional newspaper. The articles related to Uttarakhand printed in the newspaper would inspire me to write something. Now I had reached the eleventh class. Bharatendu Harishchandra's essay 'Bharatvarsh ki unnati kaise ho sakti hai' was also there in my Hindi prose syllabus. I like this essay very much not only then but even today. Especially this paragraph of the essay- 'This is such a time that the old, the old, the new and the new are all running around. Everyone wants to touch the ground first. At that time, the Hindu Kathiawadi stands idle and digs the soil with his hoof. Let them go, even after seeing the Japanese ponies running panting, they do not feel ashamed. This is such a time that whoever is left behind, will not be able to move forward even after trying a million ways', touches the heart.

I must have read this essay dozens of times and inspired by this, I also started the practice of writing.  For some years I kept writing for my own pleasure, but due to my introvert nature I was not able to discuss my writings with anyone. Yes! I used to read it myself many times and if I found any kind of mistake, I used to correct it. I also started writing poetry and songs during this period. This was an important phase of change in life, but even then there was no one to show me the direction. I didn't know in which direction the rudder of life was going to take me. All I had to do was to keep reading with full concentration.




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