Thursday, 4 April 2024

04-04-2024 (कण्वाश्रम को नहीं मिल पाई आज तक उसकी पहचान)

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कण्वाश्रम को नहीं मिल पाई आज तक उसकी पहचान
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दिनेश कुकरेती
त्तराखंड के पौराणिक महत्व के स्थलों में महर्षि कण्व की तपोस्थली, शकुंतला-दुष्यंत की प्रणय स्थली एवं चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली कण्वाश्रम का विशिष्ट स्थान है। 17 नवंबर 1955 को जब अभिभाजित उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद कोटद्वार आए थे, तब उन्होंने कहा था, 'मुझे आश्चर्य हुआ यह जानकर कि जिस स्थान में उस बालक ने जन्म लिया, जिसके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा, उसे कोई नहीं जानता। दूसरे देशों में तो न जाने वहां क्या बन गया होता।' दुर्भाग्य देखिए कि सरकारों ने इसके बाद भी कभी कण्वाश्रम की अहमियत नहीं समझी। उत्तराखंड के उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद भी। इसी उपेक्षा का नतीजा है कि कण्वाश्रम देश तो छोड़िए, उत्तराखंड के प्रमुख पर्यटन स्थलों में भी स्थान नहीं बना पाया, जबकि देखा जाए तो कण्वाश्रम देश की एक महत्वपूर्ण धरोहर है।

गढ़वाल का प्रवेश द्वार कोटद्वार पौड़ी गढ़वाल जिले का सबसे बड़ा ही नहीं, हर दृष्टि से महत्वपूर्ण शहर है। शिवालिक पर्वतमाला की गोद मे बसा यह शहर एक दौर में बदरी-केदार का प्रवेश द्वार भी रहा है। यहां से महज दस किमी दूर चारों ओर वनों से आच्छादित वह ऐतिहासिक खूबसूरत घाटी है, जिसे कण्वघाटी नाम से पुकारा जाता है। तमाम खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि प्राचीन कण्वाश्रम का अस्तित्व भी इसी घाटी में रहा है। इसलिए यहीं वर्तमान कण्वाश्रम की आधारशिला रखी गई। कण्वघाटी से होकर ही मालन (मालिनी) नदी मैदान में प्रवेश करती है, इसलिए इसे मालन घाटी भी कहते हैं। मालन नदी गढ़वाल के चंडाखाळ डांडा से निकलती है और हिमालय की शिवालिक पर्वतमाला को पार कर उत्तर से दक्षिण की ओर सर्पिणी की भांति तीव्र वेग से आगे बढ़ती है। कण्वाश्रम पहुंचने के बाद मालन गढ़वाल भाबर के ऊबड़-खाबड़ मैदान से होकर उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले की समतल भूमि वाले एक बड़े नगर नजीबाबाद से कुछ दूर रावलीघाट नामक स्थान पर गंगा में विलय हो जाती है। गह स्थान बिजनौर शहर से छह मील उत्तर की ओर पड़ता है।

मालन घाटी में जंगली आम, पीपल, शीशम, हैड़, बहेड़ा, आंवला, साल, सागौन, खैर, कींकर, चमेली, अमलतास, सरीस, जंगली गुलाब, ढाक, कुश, अपराजिता, इंगुदी, वनज्योत्सना आदि वनस्पतियों की भरमार है। जगह-जगह नजर आने वाले केले के झुरमुट भी घाटी का आकर्षण बढ़ाते हैं। स्वच्छंद विचरण करते हिरण, सुअर, हाथी, गुलदार, जड़ाऊ, नीलगाय जैसे वन्य जीव और कोयल, चकोर, तीतर, मोर, जंगली मुर्गे, कबूतर इत्यादि पक्षियों का कलरव यहां मन को मोह लेता है। शृंगार रस में डूबी मालन आज भी उसी अल्हड़ता से अठखेलियां करती हुई बह रही है, उसके जिस अल्हड़पन का उल्लेख महाकवि कालिदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'अभिज्ञान शाकुंतल' में किया है। जैसे-जैसे हम घाटी में प्रवेश करते हैं, उसकी मोहकता बढ़ती चली जाती है। मृगों के झुंड अब भी चौकड़ी भरते हुए यत्र-तत्र दिखाई पड़ते हैं। कण्व स्मारक से उत्तर की ओर जाने पर पर्यटक मालन की रमणीक घाटी में प्रवेश करता है।
नदी के बांयी ओर जिला बोर्ड की पुरानी सड़क है, जिस पर कभी खच्चरों से सामान का ढुलान होता था। पहले यह प्रमुख सड़क हुआ करती थी, जो गंगा और नयार नदी के संगम स्थल व्यासघाट (व्यासचट्टी) को जोड़ती है। एक दौर में हरिद्वार से चौकीघाटा (कण्वाश्रम) होते हुए इसी रास्ते यात्री व्यासघाट होकर बदरी-केदार दर्शन को जाते थे। उस समय अकाल पड़ने पर यहां से 14 मील दूर नजीबाबाद मंडी से अनाज गढ़वाल पहुंचाया जाता था। चौकीघाटा पहले छोटी एवं भरपूर मंडी था, लेकिन वर्ष 1924 की बाढ़ ने इसे एक प्रकार से नष्ट कट दिया। चौकीघाटा के समीप सतीमठ और अन्य जीर्ण-शीर्ण प्राचीन खंडहर, जिनका ऐतिहासिक महत्व है, आज भी जंगल में लावारिस पड़े देखे जा सकते हैं। काश! इस अमूल्य धरोहर को सरकार सुरक्षित रखने का उपाय करती।

कण्वाश्रम से व्यासघाट मार्ग पर करीब डेढ़ किमी चलने के बाद एक पुराना पुल पड़ता है, जिसके बायें बाजू से उतरकर एक संकरी बटिया होते हुए सहस्रधारा के दीदार होते हैं। यहां करीब 200 फ़ीट की ऊंचाई से जब मोतियों जैसे श्वेत बिंदु तन का स्पर्श करते हैं तो मार्ग की थकान उड़नछू हो जाती है। झरने के समीप आम और केले के झुरमुट हैं। इतने खूबसूरत स्थल को कितने लोग जानते हैं, यह सवाल आज भी मुहं चिढ़ा रहा है। पर्यटन विभाग भी शायद ही इस बारे में जानकारी रखता हो। वैसे तो कण्वाश्रम के विकास को कई योजनाएं फाइलों में बनीं, लेकिन न कुछ बदलना था, न बदला ही। वर्ष 1955 में अविभाजित उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद ने गढ़वाल के जिलाधीश गौरीशंकर बागची को कण्वाश्रम का जीर्णोद्धार करने के लिए प्रेरित किया। परिणामस्वरूप एक समिति गठित हुई।

इस समिति ने वर्ष 1956 में अभिभाजित उत्तर प्रदेश के तत्कालीन वनमंत्री जगमोहन सिंह नेगी के हाथों कण्व स्मारक की शिला रखवाई और निश्चय किया कि प्रतिवर्ष वसंत पंचमी को यहां भव्य मेला आयोजित किया जाएगा। तब से मेला तो यहां वर्ष-दर-वर्ष आयोजित हो रहा है, लेकिन यह मेला भी अपनी छवि अन्य मेलों से हटकर नहीं बना पाया। यहां तक कि इसके बारे में जानकारी भी अभी बेहद सीमित है। शायद ही कोटद्वार से बाहर के लोग इस बारे में कुछ जानते होंगे। पर्यटन विभाग ने यहां जो खूबसूरत टूरिस्ट बंगला बनवाया हुआ है, उसमें ठहरना भी कोई पसंद नहीं करता। माहौल ही ऐसा है।
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Kanvashram could not get its identity till date
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Dinesh Kukreti
Among the places of mythological importance in Uttarakhand, Kanvashram, the place of penance of Maharishi Kanva, the place of love of Shakuntala-Dushyant and the birthplace of Emperor Bharat, has a special place. On 17 November 1955, when the then Chief Minister of divided Uttar Pradesh, Dr. Sampurnanand came to Kotdwar, he said, 'I was surprised to know that no one knows the place where the boy was born, after whom this country was named Bharat. Who knows what would have happened in other countries.' It is unfortunate that even after this, the governments never understood the importance of Kanvashram. Even after Uttarakhand was separated from Uttar Pradesh. The result of this neglect is that Kanvashram could not make a place in the major tourist places of Uttarakhand, leave alone the country, whereas if seen, Kanvashram is an important heritage of the country.

Kotdwar, the gateway of Garhwal, is not only the biggest city of Pauri Garhwal district, but is also important in every respect. Situated in the lap of Shivalik mountain range, this city was once the gateway to Badri-Kedar. Just ten km from here is that historic beautiful valley covered with forests on all sides, which is called Kanvaghati. It has been proved from various discoveries that the ancient Kanvashram also existed in this valley. Therefore, the foundation stone of the present Kanvashram was laid here. The Malan (Malini) river enters the plains through Kanvaghati, hence it is also called Malan Valley. The Malan river originates from Chandakhal Danda of Garhwal and after crossing the Shivalik mountain range of the Himalayas, moves forward at a rapid speed like a serpent from north to south.  After reaching Kanvashram, Malan passes through the rugged plains of Garhwal Bhabar and merges with Ganga at a place called Ravalighat, some distance away from Najibabad, a big town in the plains of Bijnor district of Uttar Pradesh. This place is six miles north of Bijnor city.

Malan valley is full of plants like wild mango, peepal, sheesham, had, baheda, amla, sal, teak, khair, kinkar, jasmine, golden shower, sarisa, wild rose, dhak, kush, aparajita, ingudi, vanjyotsna etc. Banana thickets seen at various places also add to the attraction of the valley. The freely roaming wild animals like deer, pig, elephant, leopard, jadau, nilgai and the chirping of birds like cuckoo, chakor, partridge, peacock, wild hen, pigeon etc. captivate the mind here. Immersed in the love of love, Malan is still flowing with the same carefreeness, the carefreeness of which has been mentioned by the great poet Kalidas in his famous book 'Abhigyan Shakuntalam'. As we enter the valley, its charm keeps increasing. Herds of deer are still seen galloping here and there.  Going northwards from the Kanva Smarak, the tourist enters the picturesque valley of Malan.


On the left side of the river is the old road of the District Board, on which goods were once transported by mules. Earlier, this used to be the main road, which connects Vyasghat (Vyas Chatti), the confluence of the Ganga and the Nayar rivers. At one time, pilgrims used to go to Badri-Kedar Darshan via Vyasghat from Haridwar via Chaukighata (Kanvashram). In those days, in case of famine, grains were transported to Garhwal from the Najibabad Mandi, 14 miles away from here. Chaukighata was earlier a small and full-fledged market, but the flood of 1924 destroyed it in a way. Near Chaukighata, Satimath and other dilapidated ancient ruins, which have historical importance, can still be seen lying unclaimed in the forest. If only the government would take measures to protect this invaluable heritage.

After walking about 1.5 km from Kanvashram on Vyasghat road, there is an old bridge, from the left side of which one can get a view of Sahasradhara through a narrow butiya. Here, when the pearl-like white drops touch the body from a height of about 200 feet, the fatigue of the journey vanishes. There are mango and banana groves near the waterfall. How many people know about such a beautiful place, this question still eludes us. The tourism department also hardly knows about this. Although many plans were made in files for the development of Kanvashram, but nothing was to be changed, nor did it change. In the year 1955, the then Chief Minister of undivided Uttar Pradesh, Dr. Sampurnanand, inspired the District Magistrate of Garhwal, Gaurishankar Bagchi, to renovate Kanvashram. As a result, a committee was formed.  

In 1956, this committee laid the foundation stone of the Kanva Smarak by the then Forest Minister of the divided Uttar Pradesh, Jagmohan Singh Negi, and decided that a grand fair would be organized here every year on Vasant Panchami. Since then, the fair has been organized here year after year, but this fair has also not been able to create an image different from other fairs. Even the information about it is very limited. Hardly people outside Kotdwar would know anything about it. No one likes to stay in the beautiful tourist bungalow built by the Tourism Department here. The atmosphere is such.


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