Saturday, 15 June 2024

15-06-2024 जीवन की राहें-3 (बढ़ने लगा अखबारों के प्रति आकर्षण)





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जीवन की राहें-3

(बढ़ने लगा अखबारों के प्रति आकर्षण)
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दिनेश कुकरेती
साप्ताहिक 'सत्यपथ' से जुड़ने के बाद अखबारों से मेरी निजता बढ़ने लगी। इधर, अमर उजाला में मेरी चिट्ठियां छपने लगी थीं। एसएफआई में सक्रिय होने के कारण अखबारों के दफ्तर में जाना लगातार होता रहता था। इससे अखबारों के प्रति आकर्षण भी बढ़ रहा था। साथ ही बढ़ती जा रही थी अच्छा साहित्य पढ़ने की लालसा। यह अंतर्द्वंद्व का ऐसा दौर था, जब जीवन को किसी भी सांचे में ढाला जा सकता था। लेकिन, मैं लगभग तय कर चुका था कि पत्रकार ही बनना है। हालांकि, बीच-बीच में बाहर जाकर पढ़ने की इच्छा भी प्रबल होती रहती थी। खासकर एमबीए करने की। इसके लिए मैं प्रवेश परीक्षा की तैयारी भी कर रहा था। वहीं, राजनीतिक सक्रियता छात्रसंघ चुनाव में हिस्सेदारी करने को भी उकसा रही थी।



इसी बीच मेरी एमबीए प्रवेश परीक्षा की तिथि भी आ गई। बरेली में सेंटर पड़ा था। यह 1991-92 की बात है। तब मैं एमकॉम कर रहा था। संयोग से मेरा सलेक्शन भी हो गया और पैसे का जोड़-जुगाड़ कर मैंने लखनऊ स्थित मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट में प्रवेश भी ले लिया। लेकिन, नियति को शायद यह मंजूर नहीं था और अनवरत आर्थिक तंगी के कारण मुझे छह महीने बाद ही वापस लौटना पड़ा। तब इतने पैसे होते भी कहां थे। अगर मैं लौटता नहीं तो घर का खर्च चलाना मुश्किल हो जाता। फिर कर्ज भी तो मजबूत आर्थिक स्थिति वाले को ही मिलता है। खैर! जो अपने हाथ में न हो, उसका अफसोस करने का भी कोई लाभ नहीं। अब मुझे एमकॉम की पढ़ाई पूरी करनी थी और पत्रकार बनने का जुनून तो था ही। इसके लिए रास्ते भी बनते जा रहे थे। एक मित्र के साथ एक दिन मुझे साप्ताहिक 'ठहरो' के दफ्तर में जाने का मौका मिला।

कोटद्वार रिफ्यूजी कॉलोनी में यह दफ्तर था। एक कमरे में बैठकी लगती थी और दूसरे में प्रेस थी। तब ज्यादातर छोटे अखबार ट्रेडल प्रेस पर ही छपते थे। अखबार के संपादक थे कॉमरेड भूपेंद्र सिंह नेगी। पहली मुलाकात के बात उनसे बेहद आत्मीय रिश्ता बन गया। अब यह दफ्तर मेरा दूसरा घर बन चुका था। कॉमरेड नेगी को हम ताऊजी कहते थे। मेरी पहली कविता 'मैं कविता लिखता हूं' ताऊजी ने ही छापी थी 'ठहरो' में। यह कविता उन्हें बेहद पसंद आई थी और उन्होंने मुझसे कहा था कि इसी तरह लिखते रहो। फिर तो कविता ही क्या, खबरें, खबरों का विश्लेषण, व्यंग्य व रिपोर्ट नियमित रूप से 'ठहरो' में छपने लगीं। इससे पहले साप्ताहिक 'सत्यपथ' में मेरा पहला लेख प्रकाशित हो चुका था। यह लेख मैंने अपने जीवन के सबसे बड़े प्रेरक शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह पर लिखा था। लेख का शीर्षक था, 'स्थितियां बदलनी होंगी'।

इसी कालखंड में मेरा रेडियो से भी जुड़ाव हुआ। हुआ यूं कि एक दिन मैंने गढ़वाली में लिखी कुछ कविताएं आकाशवाणी नजीबाबाद के ग्रामजगत अनुभाग को पोस्ट कर दीं। संयोग देखिए कि कुछ ही दिन बाद मुझे आकाशवाणी से रजिस्टर्ड डाक के जरिये एक पत्र (कॉन्टेक्ट लेटर) प्राप्त हुआ, जिसमें ग्रामजगत को भेजी गई कविताओं की रिकॉर्डिंग के लिए मुझे बुलाया गया था। इसकी एवज में मुझे संभवतः 764 रुपये का भुगतान भी मिलना था। इधर, अमर उजाला में भी डाक से मैंने एक लेख भेजा था, उसका भी प्रकाशन हो गया। लेख गढ़वाल की वीरांगना तीलू रौतेली पर केंद्रित था। शीर्षक था 'कत्यूरों के खून से खेली थी होली तीलू रौतेली ने'। इस लेख के लिए अमर उजाला ने मुझे संभवतः 350 रुपये का भुगतान किया था। लेख व कविताओं के एवज में मिलने वाले पारिश्रमिक एवं लोगों से मिली सराहना ने पत्रकारिता के ही क्षेत्र में जाने को लेकर मेरे इरादों को और मजबूती प्रदान की। 
जीवन का यह ऐसा दौर है, जब छात्र व जनांदोलनों में मैंने सबसे अधिक भागीदारी की। इसी अवधि में मैं स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन ऑफ इंडिया की कोटद्वार महाविद्यालय ईकाई का अध्यक्ष भी रहा। इस नाते भी अखबारों से मेरा वास्ता रहा। जुलूस, प्रदर्शन, धरना, रैली, बंद, गिरफ्तारी आदि में मुख्य भूमिका निभाने के साथ इसकी विज्ञप्ति तैयार करना और फिर उसे अखबार के दफ्तरों में पहुंचाना मेरी ही जिम्मेदारी हुआ करती थी। अमर उजाला में तो मैं खबर भी बना आता था। इसके अलावा एसएफआई की कॉल पर दिल्ली-लखनऊ रैलियों में भी अक्षर जाना होता था। वर्ष 1992 की एक लखनऊ रैली में तो ऐसा भी संयोग बना कि सात दिन वहां केंद्रीय कारागार में बिताने पड़े। दरअसल, परसपुर-गोंडा गोलीकांड के विरोध में गोमती पुल के पास प्रदर्शन और नुक्कड़ नाटक करते हुए पुलिस ने हमें गिरफ्तार कर लिया था। पौड़ी जिले से मुझ समेत सात साथी गिरफ्तार हुए थे। यह सभी अनुभव मेरी पत्रकारिता की बुनियाद को मजबूत कर रहे थे।
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Life's paths

(Attraction towards newspapers started increasing)
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Dinesh Kukreti
After joining the weekly 'Satyapath', my intimacy with newspapers started increasing. Meanwhile, my letters started getting published in Amar Ujala. Being active in SFI, I had to visit newspaper offices regularly. This was increasing my attraction towards newspapers. Along with this, my desire to read good literature was also increasing. This was a period of internal conflict, when life could be molded into any mold. But, I had almost decided that I have to become a journalist. However, in between, the desire to go out and study also kept getting stronger. Especially to do MBA. For this, I was also preparing for the entrance exam. At the same time, political activism was also tempting me to participate in the student union elections.

Meanwhile, the date of my MBA entrance exam also came. The centre was in Bareilly. This was in 1991-92. I was doing M.Com then. By chance, I got selected and after arranging money, I took admission in Lucknow-based Management Institute. But, perhaps destiny did not want this and due to continuous financial crisis, I had to return after six months. I did not have that much money then. If I had not returned, it would have been difficult to manage the household expenses. Also, loans are given only to those with strong financial status. Anyway! There is no use in regretting about what is not in your hands. Now I had to complete my M.Com and I had the passion to become a journalist. Ways were also being made for this. One day, I got a chance to go to the office of the weekly 'Thahro' with a friend.

This office was in Kotdwar Refugee Colony. There was a sitting room in one room and the press was in the other. At that time, most of the small newspapers were printed on trade press only. The editor of the newspaper was Comrade Bhupendra Singh Negi.  After the first meeting, I developed a very close relationship with him. Now this office had become my second home. We used to call Comrade Negi as Tauji. It was Tauji who published my first poem 'Main Kavita Likhta Hoon' in 'Thahro'. He liked this poem very much and he told me to keep writing like this. Then not only poems, but news, analysis of news, satire and reports started getting published regularly in 'Thahro'. Before this, my first article had been published in the weekly 'Satyapath'. I had written this article on the biggest motivator of my life, Shaheed-e-Azam Sardar Bhagat Singh. The title of the article was, 'Situations will change'.

During this period, I also got connected with radio. It so happened that one day I posted some poems written in Garhwali to Gramjagat section of Akashvani Najibabad. Coincidentally, a few days later I received a letter (contact letter) from Akashvani through registered post, in which I was invited for recording the poems sent to Gramjagat. In return for this, I was supposed to get a payment of Rs. 764. Meanwhile, I had also sent an article to Amar Ujala through post, which also got published. The article was focused on the brave woman of Garhwal, Teelu Rauteli. The title was 'Telu Rauteli played Holi with the blood of Katyurs'. Amar Ujala probably paid me Rs. 350 for this article. The remuneration received for articles and poems and the appreciation received from people further strengthened my resolve to go into the field of journalism. 

This is such a period of life, when I participated the most in student and people's movements.  During this period, I was also the president of the Kotdwar College unit of the Students' Federation of India. In this capacity, I was also associated with newspapers. Along with playing a key role in processions, demonstrations, protests, rallies, bandhs, arrests, etc., it was my responsibility to prepare the press releases and then deliver them to the newspaper offices. I used to write news in Amar Ujala. Apart from this, I also had to go to Delhi-Lucknow rallies on the call of SFI. In a Lucknow rally in 1992, it so happened that I had to spend seven days in the central jail there. Actually, the police arrested us while we were demonstrating and performing street plays near the Gomti bridge in protest against the Paraspur-Gonda firing incident. Seven colleagues including me were arrested from Pauri district. All these experiences were strengthening the foundation of my journalism.

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