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जीवन की राहें-5
अतीत पर गर्व की अनुभूति
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दिनेश कुकरेती
कभी-कभी खुद पर गर्व भी होता है कि मैंने पत्रकारिता की शुरुआत ऐसे रीढ़ वाले संपादकों के साथ की, जिनकी समाज में अपनी विशिष्ट छवि हुआ करती थी। उनकी विद्वता पर कोई अंगुली खड़ी नहीं कर सकता था। विभिन्न विषयों पर उनकी मजबूत पकड़ होती थी, फिर वह साहित्य हो, राजनीति शास्त्र हो, भूगोल हो, अर्थशास्त्र हो, मानविकी हो या कोई और। सभी विषयों पर वह प्रभावशाली ढंग से लिख भी सकते थे और धाराप्रवाह बोल भी सकते थे। उनसे मिलने के लिए, चाहे नेता हो या अफसर, सभी को अनुमति लेनी पड़ती थी। वह स्वछंद होकर काम करना पसंद करते थे। अखबार में क्या छपेगा, क्या नहीं, यह मैनेजमेंट नहीं, संपादक और संपादकीय विभाग तय करता था। इसलिए जब कोई हर तरफ़ से निराश हो जाता था, तो उसकी उम्मीद की आखिरी किरण अखबार ही होता था। ...और सच तो यह है कि अखबार में छपने के बाद उसकी सुनवाई भी होती थी।
मुझे एक वाकया याद आ रहा है। तब मैं पत्रकारिता में बिल्कुल नया (नौसिखिया) था। हालांकि, भाषा, शैली व व्याकरण पर मेरी पूरी पकड़ थी, लेकिन कुछ पत्रकारीय मानकों से अभी भी अनभिज्ञ था। मसलन, कुछ गलत हो रहा है और मुझे समाज के हित में गलत करने वाले को दंडित करवाना है, तो उसके विरुद्ध पुख्ता सुबूत मेरे पास होना जरूरी है, इसका इल्म मुझे नहीं था। मैं ठीक से नहीं समझ पाया था कि पत्रकार भावुक होकर कार्य नहीं कर सकता। उसका तटस्थ रहना नितांत जरूरी है। हां! तो, मामला यह है कि मुझे लंबे समय से अपने क्षेत्र के एक गेस्ट हाउस में ब्लू फिल्म बनाने की जानकारी मिल रही थी, सो एक दिन मैंने अपने सूत्रों से पूरी जानकारी जुटाकर प्रशासन और गेस्ट हाउस संचालक एजेंसी की लापरवाही पर सवाल खड़े करती खबर छाप दी। खबर ऐसी बनी थी कि किसी को भी मिर्ची लग जाती।
हालांकि, यह खबर मैंने साप्ताहिक में छापी थी, लेकिन असर फिर भी जबर्दस्त हुआ। जिले में पुलिस-प्रशासन के कान खड़े हो गए और एसपी के निर्देश पर कोटद्वार में क्राइम बैठक बुला ली गई। मुझे भी बैठक में शामिल होने के लिए बुलावा भेजा गया। एसपी चाहते थे कि सारी कहानी मैं उन्हें सुना दूं और पुलिस का काम हल्का हो जाए। लेकिन, मैं पुलिस की चाल को भली-भांति समझता था, इसलिए स्पष्ट कह दिया कि मेरा काम खबर के माध्यम से पुलिस-प्रशासन को सतर्क करना था, अब खोजबीन करना पुलिस का काम है। मुझे तो जो भी अपडेट मिलेगा आगे भी छापता रहूंगा। यह बात मैंने कह तो दी थी, लेकिन सच्चाई यही थी कि तब इस बात को प्रमाणित करने के लिए मेरे पास कोई दस्तावेज नहीं था और न मैंने गेस्ट हाउस का संचालन करने वाली एजेंसी से इस संबंध में उसका पक्ष ही लिया था।
बाद में मेरी समझ में आया कि बिना पुख्ता प्रमाण के कोई भी खबर नहीं लिखी जानी चाहिए और यदि लिखना जरूरी हो तो किसी तीसरे पक्ष के हवाले से लिखी जाए। यह पक्ष पुलिस अथवा कोई जिम्मेदार व्यक्ति या संस्था हो सकती है, लेकिन पत्रकार को तटस्थ ही होना चाहिए। अन्यथा गलत होने की भी आशंका बनी रहती है और पत्रकार की निष्पक्षता पर सवाल खड़े होते हैं, सो अलग। हां! अपने लेख के माध्यम से वह जरूर किसी पक्ष में खड़ा हो सकता है। बावजूद इसके अपेक्षा यही की जाती है कि उसकी दृष्टि वैज्ञानिक और विचार समाज को आगे ले जाने वाले हों। जड़ विचार तर्क-वितर्क करने को शक्ति को कुंद कर देते हैं। खैर! कहने का तात्पर्य यही है कि उस दौर में मीडिया सचमुच लोकतंत्र का चौथा स्तंभ था। और भी ऐसे कई वाकया हैं, जिन्होंने मीडिया के प्रति मेरे भरोसे को लगातार मजबूत ही किया।
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