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जीवन की राहें-6
आंदोलन ने दी लेखन को धार
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दिनेश कुकरेती
वर्ष 1993 की बात है। मेरी एमकॉम की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी, सो रोजी-रोटी के लिए किसी स्थायी ठौर की भी तलाश होने लगी। चाह मीडिया में नौकरी करने की ही थी, इसलिए लेखन की गति और तेज कर दी थी। साथ ही आंदोलनों में सक्रियता भी बढ़ गई थी। उस दौर में कहां-कहां प्रदर्शन नहीं किए, कहां-कहां रैलियां नहीं निकालीं, कहां-कहां गिरफ्तारियां नहीं दीं, अब तो यह सब कहानी-किस्सों की बातें लगती हैं। वैसे सच कहूं तो आंदोलनों में सक्रियता ने मेरे लेखन को धार ही दी। कहते हैं अच्छा लिखने के लिए अच्छा पढ़ना भी जरूरी है और ये आंदोलन मेरे लिए एक तरह से अनुभव की किताब साबित हुए। अब मैं शाम के वक़्त अमूमन अमर उजाला के दफ़्तर में बैठने लगा था। अभी खबरें लिफाफे में भेजने का ही दौर था, इसलिए शाम को लिखी जाने वाली खबरें अगले दिन की डाक में भेजी जाती थीं।इसे भी पढ़ें: https://dinesh221.blogspot.com/2024/04/10-04-2024.html
इधर मंडल कमीशन के विरोध की आग पहाड़ में भी धधकने लगी थी। छोटे-छोटे पॉकेट में शुरू हुआ आंदोलन संगठित होने के साथ उत्तराखंड राज्य आंदोलन का रूप लेता जा रहा था। हालांकि, मेरी और मेरे साथियों की स्पष्ट मान्यता थी कि उत्तराखंड के अलग राज्य बनने से न तो कोई क्रांतिकारी बदलाव आने वाला है और न इस पर्वतीय क्षेत्र के विकास की बहुत ज्यादा संभावना ही है। क्योंकि बदलाव विचारों से आता है और इसके लिए हम कतई तैयार नहीं हैं। आज राज्य बनने के चौबीस साल बाद यह सोच हकीकत बन गई है। जिन उद्देश्यों के लिए पृथक राज्य की लड़ाई लड़ी गई थी, वह नेपथ्य में चले गए हैं और स्वार्थ इस राज्य को दीमक की तरह खोखला किए जा रहे हैं। खैर! इन बिंदुओं पर चर्चा फिर कभी, फिलहाल तो बात हो रही है कि मंडल कमीशन के विरोध में शुरू हुआ यह आंदोलन राज्य निर्माण आंदोलन में कैसे तब्दील हुआ और तब मुझ जैसे युवाओं की इसमें क्या भूमिका रही।
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यहां एक बात स्पष्ट कर दूं कि मंडल कमीशन का मैं विरोधी कभी नहीं रहा और एक पढ़े-लिखे एवं मानसिक रूप से स्वस्थ इंसान को होना भी नहीं चाहिए। आरक्षण का जन्म असमानता से हुआ है और जब तक असमानता की खाई हमारे समाज में है, आरक्षण जारी रहना चाहिए। लेकिन, तब मैं व मेरे साथी मंडल कमीशन का विरोध कर रहे थे और इसकी वजह थी कि उत्तराखंड में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का न होना। मंडल कमीशन में जिन जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग की माना गया है, उनकी संख्या उत्तराखंड में तब नगण्य थी। जाहिर है इससे इस पर्वतीय भूभाग के युवाओं का हक मारा जा रहा था। क्योंकि मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने पर ओबीसी की सीट उत्तराखंड से बाहर के अभ्यर्थियों से भरी जानी थीं। हम चाहते थे आंदोलन इसी बिंदु पर केंद्रित रहे, अन्यथा इसमें भटकाव आ जाएगा, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और आंदोलन पृथक राज्य की मांग पर केंद्रित हो गया। ऐसे में मुझे और मेरे साथियों को भी जनभावनाओं का सम्मान करते हुए राज्य आंदोलन का हिस्सा बनना पड़ा।
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महत्वपूर्ण बात यह कि उस दौर में अखबारों का झुकाऊ भी पूरी तरह राज्य आंदोलन की ओर रहा। इसलिए नहीं कि अखबार आंदोलन से भावनात्मक रूप से जुड़े थे या अखबारों के मालिक उत्तराखंड के हितैषी थे, बल्कि इसलिए की अखबारों को उत्तराखंड में स्थापित होना था और इसके लिए बड़े पाठक वर्ग पर कब्जा जरूरी था। इसलिए खबर चाहे दस लाइन की हो, लेकिन उसमें नाम 150 छापने से भी परहेज नहीं होता था। इसका फायदा भी हुआ और नुकसान भी। फायदा यह कि आंदोलन को मुकाम तक पहुंचाने में मदद मिली और नुकसान यह कि तब अखबारों में नाम छपवाकर कई बाद में उन कटिंग के सहारे राज्य आंदोलनकारी भी घोषित हो गए। उनमें से कई सरकारी नौकरी कर रहे हैं तो कई आंदोलनकारी की पेंशन ले रहे हैं। इस सबके विपरीत अपनी कहानी कुछ और ही है। मैं तब पत्रकार भी था और आंदोलनकारी भी। जिस भी जुलूस में जाता, उसकी तन्मयता से खबर भी बनाता। साथ ही आंदोलन को गति देने के लिए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित रूप से लेख भी लिखता। स्वतंत्र रूप से लिखता था, सो किसी के प्रति जवाबदेह भी नहीं था। पत्र-पत्रिकाओं में लगातार नाम छपने से समाज में एक अलग पहचान भी स्थापित हो गई थी। जो भी मिलता, सम्मान देता था। फिर पत्र-पत्रिकाओं में लेखन के पैसे भी मिलते थे, इसलिए कई-कई बार तो पूरी रात जागकर भी लेख लिखता था।
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उस दौर में साथी जीतेंद्र चौहान और अरुण बहुखंडी का भी अच्छा साथ मिला। दोनों ही साप्ताहिक 'ठहरो' से भी जुड़े हुए थे। कहने का मतलब 'ठहरो' में तब हमारी अच्छी और मजबूत टीम हुआ करती थी। लेकिन, मैं कुछ ज्यादा ही उत्साही था इसलिए संपादकीय लिखने का जिम्मा ज्यादातर मेरे पास ही रहता था। यहां मुझे लिखने की पूरी छूट थी, इसलिए अंतर्मन के भाव भी सहजता से व्यक्त कर देता था। सचमुच क्या दौर था वो भी। लिखने में ऐसे असीम आनंद की अनुभूति मुझे कभी नहीं हुई, जैसे उत्तराखंड आंदोलन के दौर में होती थी। तब लिखे गए लेखों की कटिंग आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं। सच कहूं तो इस कालखंड ने मुझे पत्रकार के रूप में तरासने में अहम भूमिका निभाई और मैं पूरी तरह कोटद्वार की पत्रकार बिरादरी का हिस्सा बन गया।
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Life's paths
(The movement sharpened my writing)
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Dinesh Kukreti
It was the year 1993. I had completed my M.Com studies, so I started looking for a permanent place to earn my livelihood. I wanted to work in the media, so I increased the pace of my writing. Along with that, my involvement in movements had also increased. In that period, where all I did not protest, where all I did not take out rallies, where all I did not get arrested, now all this seems like a matter of stories. To be honest, my involvement in movements sharpened my writing. It is said that to write well, it is also necessary to read well and these movements proved to be a book of experience for me. Now I had started sitting in the office of Amar Ujala in the evening. It was still the time to send news in envelopes, so the news written in the evening was sent in the next day's post.
Meanwhile, the fire of opposition to the Mandal Commission had started burning in the hills as well. The movement that started in small pockets was getting organised and taking the shape of the Uttarakhand State Movement. However, I and my colleagues clearly believed that neither any revolutionary change would come about by the formation of a separate state of Uttarakhand, nor was there much possibility of development of this mountainous region. Because change comes from ideas and we are not at all prepared for this. Today, twenty-four years after the formation of the state, this thinking has become a reality. The objectives for which the fight for a separate state was fought have gone into the background and selfish interests are hollowing out this state like termites. Well! We will discuss these points some other time, for now we are talking about how this movement that started in opposition to the Mandal Commission turned into a state formation movement and what role did youngsters like me play in it.
Let me clarify one thing here that I have never been against the Mandal Commission and an educated and mentally healthy person should not be. Reservation is born out of inequality and as long as the gap of inequality exists in our society, reservation should continue. But, then I and my colleagues were opposing the Mandal Commission and the reason for this was the absence of Other Backward Classes (OBC) in Uttarakhand. The number of castes which have been considered as Other Backward Classes in the Mandal Commission was negligible in Uttarakhand then. Obviously, this was depriving the youth of this mountainous region of their rights. Because when the Mandal Commission report was implemented, the OBC seats were to be filled by candidates from outside Uttarakhand. We wanted the movement to remain focused on this point, otherwise it would get distracted, but this could not happen and the movement became focused on the demand for a separate state. In such a situation, I and my colleagues also had to become a part of the state movement respecting the public sentiments.
The important thing is that during that period, the newspapers were also completely inclined towards the state movement. Not because the newspapers were emotionally attached to the movement or the owners of the newspapers were well-wishers of Uttarakhand, but because the newspapers had to establish themselves in Uttarakhand and for this it was necessary to capture a large readership. Therefore, even if the news was of ten lines, there was no hesitation in printing 150 names in it. This had both advantages and disadvantages. The advantage was that it helped in taking the movement to its destination and the disadvantage was that by getting their names printed in the newspapers, many were later declared state agitators with the help of those cuttings. Many of them are in government jobs and many are taking pension as agitators. In contrast to all this, my story is something else. I was then a journalist as well as an agitator. Whichever procession I went to, I would cover it with full concentration. Along with this, I would also write articles regularly for various newspapers and magazines to give momentum to the movement. I used to write independently, so I was not accountable to anyone. By getting my name printed regularly in newspapers and magazines, a different identity was also established in the society. Whoever I met, respected me. Then, I also got money for writing in magazines and newspapers, so many times I would stay awake the entire night to write articles.
During that period, I got good support from my friends Jitendra Chauhan and Arun Bahukhandi. Both of them were also associated with the weekly 'Thahro'. I mean to say that we had a good and strong team in 'Thahro' then. But, I was a little more enthusiastic, so the responsibility of writing editorials mostly remained with me. Here I had complete freedom to write, so I used to express my inner feelings easily. What a time that was. I never experienced such immense joy in writing, as I felt during the period of Uttarakhand movement. The cuttings of the articles written then are still safe with me. To be honest, this period played an important role in shaping me as a journalist and I completely became a part of the journalist fraternity of Kotdwar.
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