Tuesday, 17 January 2023

17-01-2023 (मेरी यादों में बसा है जोशीमठ)


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मेरी यादों में बसा है जोशीमठ
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दिनेश कुकरेती
ज दोपहर खबर मिली कि जोशीमठ शहर के नीचे बसा चुनारगांव भी भूधंसाव की जद में है। गांव के नीचे पहाडी़ के अंदर भूगर्भीय हलचल हो रही है और कभी भी गांव जमींदोज हो सकता है। यह सुनकर मुझे जोशीमठ में गुजारे बचपन के वो सुनहरे दिन याद हो आए, जब मैं बदरीनाथ हाइवे (मारवाडी़-जोशीमठ) के ऊपर की पहाडी़ पर बसे इस गांव की चढा़ई-उतराई नापा करता था। यादें दृश्य बनकर आंखों में चलचित्र की तरह तैरनें लगीं और आंखों के पोर कब गीले हो गए पता ही नहीं चला। मेरे लिए चुनारगांव कोई सामान्य गांव नहीं है। यह मेरे अंतर्मन में बसा गांव है। इस गांव से मेरा ऐसा रिश्ता है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस गांव में दस परिवार रहते हैं। सभी के घरों पर लाल निशान लग चुके हैं और उन्हें खाली कराया जा रहा है। कुछ ही दिन में इन घरों को ढहा दिया जाएगा और फिर यह गांव इतिहास बन जाएगा।

मेरे बचपन के दो साल जोशीमठ शहर के नीचे बसे मारवाडी़ गांव में ही बीते। वर्ष 1978 में मैं दूसरी कक्षा पास कर भलगांव (पौडी़ जिले के द्वारीखाल ब्लाक की लंगूर पट्टी में स्थित मेरा मूल गांव) से जोशीमठ चला गया था। मेरे पिता तब ग्रेफ (जनरल रिजर्व इंजीनियर फोर्स)/बीआरओ के मारवाडी़ कैंप में तैनात थे। उस दौरान मेरी उम्र आठ साल रही होगी यानी सात साल पूरे करने के बाद आठवां साल चल रहा था। हम मारवाडी़ में बीआरओ के डीजल जैनरेटर हाउस के पास किराये के कमरे में रहते थे। बीस रुपये प्रतिमाह था किराया। ऊपरी मंजिल पर कुमौनी (कुमाऊंनी) परिवार रहता था। गोविंद और गंगा था इस दंपत्ती का नाम। कुछ समय बाद गोविंदजी का तबादला हो गया। वो भी ग्रेफ में ही थे। बहुत ही मिलनसार परिवार था यह, बिल्कुल अपना जैसे। उनके साथ रहते हुए मैं भी कुमाऊंनी बोलना सीख गया था। इसके बाद उस कमरे पर भगवती भाई का परिवार आया। उनकी नई-नई शादी हुई थी। ग्रेफ में कार्यरत भगवती भाई भी कुमाऊं से ही थे। वे लंबे-घुंघराले बाल रखते थे, बिल्कुल उस दौर के अभिनेताओं जैसे। पति-पत्नी दोनों ही गोविंदजी के परिवार जैसे ही आत्मीय थे। ऐसे प्रेमी पडो़सी सौभाग्य से ही मिलते हैं।

जिस मकान में हम रहते थे, वह मिट्टी-पत्थर का बना हुआ था और किसी जोगी का था। बचपन में ही वो वृंदावन से जोशीमठ आ गए थे। जोगीजी कहने को तो गृहस्थ नहीं थे, लेकिन उनका चेले-चेलियों का भरा-पूरा परिवार था, जो जोशीमठ जाने वाले पैदल मार्ग पर सिंहधार से नीचे (जगह का नाम याद नहीं आ रहा) रहता था। वहां जोगीजी का सुविधा-संपन्न घर था। मवेशी थे। खेतीबाड़ी थी। सेवा करने के लिए माई थी। उनके चेले का नाम लोण महाराज था। उसके पास एक बिल्ली भी थी। उस दौर में मारवाडी़ में बिजली नहीं थी हमारे घर के पास ही एक गदेरा बहता था, जिसका पानी हम पीने के उपयोग में लाते थे। इस गदेरे में पानी हमारे घर के ऊपर जंगल के मध्य स्थित प्राकृतिक स्रोत से आता था। बरसात के दौरान यह पानी काफी बढ़ जाता था। हमारे घर के ठीक नीचे बदरीनाथ हाईवे था और उसके नीचे एक मंदिर। बगल में स्थित बीआरओ के जैनरेटर हाउस में सुबह-सुबह हनुमान चालीसा का टेप बजा करता था। रोजाना सुन-सुनकर मुझे हनुमान चालीसा कंठस्थ हो गई थी।
खैर! जोशीमठ पहुंचने के हफ्तेभर बाद मैं स्कूल भी जाने लगा। मेरा दाखिला चुनारगांव स्थित प्राइमरी स्कूल में तीसरी कक्षा में करा दिया गया। यह स्कूल मेरे घर से शायद दो किमी दूर रहा होगा। अब ठीक से याद नहीं रहा कि स्कूल में कितने कमरे थे, लेकिन इतना जरूर ध्यान आ रहा है कि स्कूल के नीचे गोशाला थी। जिस पैदल रास्ते में बायीं ओर यह स्कूल पड़ता था, वह आगे जाकर जोशीमठ में नृसिंह मंदिर से पहले जूनियर हाईस्कूल के पास मिलता था। स्कूल में शायद दो शिक्षक थे। प्रधानाध्यापक का नाम तो मुझे आज भी याद है। लीला रावत था उनका नाम। स्कूल में कितने छात्र-छात्राएं रहे होंगे, यह अब ठीक से याद नहीं रहा। 60-70 के आसपास तो रहे ही होंगे।
मेरे सहपाठियों में से भी अब कुछेक के नाम ही मुझे याद हैं। उनमें आनंद कप्रवाण, दिनेश भट्ट, दिनेश, अशोक वर्मा व छुमा प्रमुख हैं। आनंद का बडा़ भाई विनोद भी इसी स्कूल में पढ़ता था। शायद पांचवीं में। इसके अलावा पांचवीं में ही एक लड़की ज्योति हुआ करती थी। बेहद झगडा़लू, किसी से भी लड़ पड़ती थी। उसका गांव मेरे घर से ठीक ऊपर सिंहधार के नीचे की पहाडी़ पर था। मेरी कक्षा में एकमात्र लड़की छुमा ही थी। चुनारगांव में छह-सात महीने तक यह स्कूल रहा। इसके बाद स्कूल का नया भवन बन गया, जो बदरीनाथ हाइवे के निचले छोर पर विष्णु प्रयाग की ओर जाने वाले पैदल रास्ते से लगा हुआ था। इस भवन में बडे़-बडे़ कक्षा-कक्ष थे। इसकी छत टिन की चद्दर की थी। यहां हमारी एक नई शिक्षक भी आई थी, जिनका नाम सरोज शाह था। शायद वह उनकी पहली नियुक्ति थी।
























वह नाक में लौंग के बजाय रिंग पहनती थीं, इसलिए उनका चेहरा मुझे आज भी याद है। हमारी क्लास टीचर भी वही थीं। मैं बचपन से ही संकोची स्वभाव का रहा हूं, फिर भी अशोक वर्मा, दिनेश भट्ट व छुमा से मेरी खूब छनती थी। दिनेश भट्ट के पिता की मेरे घर से लगभग डेढ़ किमी नीचे मारवाडी़ में ही सब्जी की दुकान थी। हां! एक नाम और याद आया। स्कूल के नए भवन में शिफ्ट होने के बाद तीन भाई-बहन ने भी वहां प्रवेश लिया था। इनमें गजेंद्र राणा सबसे बडा़ था। उसका छोटा भाई मेरी कक्षा में था और बहन शायद दूसरी कक्षा में। उनका गांव विष्णु प्रयाग के ठीक ऊपर पहाडी़ पर था। गांंव का नाम चाई था या थाई, ठीक से याद नहीं। स्कूल से तीन-साढे़ किमी दूर तो रहा ही होगा यह गांव। तीनों भाई-बहन अकेले ही वहां से आते थे। वहां से आने-जाने के लिए विष्णु प्रयाग में धौली़ गंगा पर बने झूला पुल को पार करना पड़ता था। उस उम्र में तीनों भाई-बहन का यह सफर साहसिक ट्रैकिंग का प्रमाण है।
उस दौर में यदा-कदा ही जोशीमठ बाजार जाना होता था। मुझे ऐसे चार-छह मौके याद हैं। दो बार मैं परिवार के साथ सिनेमा देखने गया था। एक बार गांधी मैदान के पास गांधी आश्रम और दो-तीन बार भोटिया बंधु की दुकान में सामान खरीदने। उसी दौर में एक बार बदरीनाथ के कपाट खुलने से पूर्व नृसिंह मंदिर में आयोजित होने वाले प्रसिद्ध वीर तिमुंड्या (तिमुंडिया) मेले में जाने का भी अवसर मिला। यह मेला बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने के ठीक एक या दो हफ्ते पूर्व पड़ने वाले शनिवार या मंगलवार को होता है। जिस व्यक्ति पर तिमुंड्या वीर अवतरित होता है, वह रौद्र रूप धारण कर एक बकरा, 40 किलो के आसपास कच्चा चावल व दस किलो गुड़ खाने के साथ ही दो घड़े पानी पी जाता है। 

















परिवार से अलग स्कूल के बच्चों के साथ एक ही बार मुझे जोशीमठ जाने का मौका मिला। शायद स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस या गांधी जयंती के मौके पर। तब सिंहधार स्थित जूनियर हाईस्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित हुए थे। इसी कालखंड में मेरा दो बार बदरीनाथ धाम जाना भी हुआ। इसमें से एक दफा मैं माणा गांव भी गया। ऐसी तमाम सुनहरी यादें हैं जोशीमठ की, भला इन्हें बिसराया जा सकता है? आज जब प्रकृति के कोप से मेरा यह यादों में बसा शहर उजड़ रहा है तो रह-रहकर मन बेचैन हो उठता है। इतनी पीडा़ मुझे हो रही है तो उन्हें कितनी पीडा़ हो रही होगी, जिन्होंने जोशीमठ को सजाने-संवारने में अपना जीवन खफा दिया और अब रहने को ठौर तक नहीं बचा है।
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Joshimath resides in my memories

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Dinesh Kukreti

This afternoon news was received that Chunargaon, situated below Joshimath town, is also under the threat of landslide.  Geological movements are taking place inside the hill below the village and the village can be razed to the ground anytime.  Hearing this, I remembered those golden days of my childhood spent in Joshimath, when I used to measure the rise and fall of this village situated on the hill above the Badrinath Highway (Marwari-Joshimath).  Memories started floating like a movie in the eyes after becoming visible and I did not know when the knuckles of the eyes became wet.  Chunargaon is not an ordinary village for me.  This is my inner village.  I have such a relation with this village, which can never be forgotten.  Ten families live in this village.  Everyone's houses have been red marked and they are being evacuated.  These houses will be demolished in a few days and then this village will become history.









Two years of my childhood were spent in Marwadi village situated below Joshimath city.  In the year 1978, after passing second class, I moved from Bhalgaon (my native village in Langur Patti of Dwarikhal block of Pauri district) to Joshimath.  My father was then posted in the Marwari camp of GRAF (General Reserve Engineer Force)/BRO.  During that time my age must have been eight years i.e. after completing seven years, the eighth year was going on.  We lived in a rented room near BRO's diesel generator house in Marwari.  The rent was twenty rupees per month.  The Kumaoni (Kumaoni) family lived on the upper floor.  The name of this couple was Govind and Ganga.  After some time Govindji was transferred.  He was also in the graph.  It was a very friendly family, just like our own.  While living with him, I also learned to speak Kumaoni.  After this Bhagwati Bhai's family came to that room.  He had a new marriage.  Bhagwati Bhai working in Graf was also from Kumaon.  He had long, curly hair, just like the actors of that era.  Both husband and wife were as intimate as Govindji's family.  Such loving neighbors are found only by good fortune.



The house in which we lived was made of mud and stone and belonged to a Jogi.  In his childhood, he had come to Joshimath from Vrindavan.  Jogiji was not a householder to be called, but he had a whole family of disciples, who lived below Singhdhar (can't remember the name of the place) on the footpath leading to Joshimath.  Jogiji had a comfortable house there.  There were cattle.  There was agriculture.  Mother was there to serve.  His disciple's name was Lon Maharaj.  He also had a cat.  At that time, there was no electricity in Marwadi. There used to be a stream flowing near our house, whose water we used to drink.  The water in this trough used to come from a natural spring located in the middle of the forest above our house.  This water used to increase a lot during the rainy season.  There was Badrinath Highway just below our house and below that a temple.  Hanuman used to play the tape of Chalisa early in the morning in the generator house of BRO located next to it.  I had memorized the Hanuman Chalisa by listening to it every day.

So!  A week after reaching Joshimath, I started going to school.  I was enrolled in the third grade in the primary school in Chunargaon.  This school might have been two km away from my house.  Now I can't remember exactly how many rooms were there in the school, but I can definitely remember that there was a cowshed below the school.  The pedestrian path on the left side of which this school used to go, goes ahead and meets near the Junior High School before the Narasimha Temple in Joshimath.  There were probably two teachers in the school.  I still remember the name of the headmaster.  His name was Leela Rawat.  How many students must have been in the school, it is not remembered properly now.  Must have been around 60-70.

Even among my classmates, I remember only a few names.  Anand Kaprwan, Dinesh Bhatt, Dinesh, Ashok Verma and Chuma are prominent among them.  Anand's elder brother Vinod also studied in this school.  Maybe in the fifth.  Apart from this, there used to be a girl Jyoti in the fifth.  Very quarrelsome, used to fight with anyone.  His village was just above my house on the hill below Singhdhar.  Chuma was the only girl in my class.  This school remained in Chunargaon for six-seven months.  After this, the new building of the school was built, which was adjacent to the footpath leading to Vishnu Prayag at the lower end of the Badrinath Highway.  There were big class rooms in this building.  Its roof was of tin sheet.  We also had a new teacher here, whose name was Saroj Shah.  Perhaps it was his first appointment.

She used to wear a ring instead of a clove in her nose, so I still remember her face.  Our class teacher was also the same.  I have been of shy nature since childhood, yet I used to be very attracted to Ashok Verma, Dinesh Bhatt and Chuma.  Dinesh Bhatt's father had a vegetable shop in Marwadi, about one and a half km below my house.  Yes!  I remembered one more name.  After the school shifted to the new building, three siblings also took admission there.  Gajendra rana was the eldest among them.  His younger brother was in my class and sister probably in another class.  His village was on the hill just above Vishnu Prayag.  The name of the village was Chai or Thai, don't remember exactly.  This village must have been three-and-a-half km away from the school.  All three siblings used to come from there alone.  To come and go from there, one had to cross the suspension bridge built on the Dhauli Ganga in Vishnu Prayag.  This journey of all three siblings at that age is proof of adventure trekking.

In those days, I had to go to Joshimath market every now and then.  I remember four-six such occasions.  Twice I went to the cinema with the family.  Once at Gandhi Ashram near Gandhi Maidan and two-three times at Bhotia Bandhu's shop to buy goods.  In the same period, once before the opening of the doors of Badrinath, there was also an opportunity to go to the famous Veer Timundya (Timundiya) fair held in the Narasimha temple.  This fair takes place on a Saturday or Tuesday that falls just a week or two before the opening of the doors of Badrinath Dham.  The person on whom Timundya Veer incarnates, assumes a fierce form and eats a goat, around 40 kg of raw rice and ten kg of jaggery and drinks two pitchers of water.

Apart from the family, I got a chance to visit Joshimath only once with the school children.  Maybe on the occasion of Independence Day or Republic Day or Gandhi Jayanti.  Then cultural programs were organized at the Junior High School in Sinhadhar.  During this period, I happened to visit Badrinath Dham twice.  One of these times I also went to Mana village.  There are many such golden memories of Joshimath, they can be forgotten? Today, when this city of my memories is getting ruined due to nature's anger, my mind gets restless by living here and there.  If I am suffering so much, then how much pain they must be feeling, who have wasted their lives in decorating Joshimath and now have no place to live.

1 comment:

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