Sunday, 28 November 2021

28-11-2021 (नेचर पार्क की सैर)



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नेचर पार्क की सैर
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दिनेश कुकरेती
म कई दिनों से सोच रहे थे कि इतवार को डोईवाला के पास लच्छीवाला नेचर पार्क की सैर करने जाएंगे। हालांकि, ठीक-ठीक कुछ तय नहीं हो पा रहा था। लेकिन, कल दिन में जब किरण भाई ने आज पूर्वाह्न 11 बजे तक आफिस पहुंचने के लिए कहा तो लच्छीवाला जाने का कार्यक्रम पक्का हो गया। उन्होंने यह भी कहा कि अगर एक प्रतिशत किसी कारणवश जाना न हो पाया तो यहीं आफिस में राजमा-चावल मंगवा लेंगे। वैसे दोपहर के भोजन को लेकर सतीजी की डोईवाला कोठारीजी से बात हो गई है। अब इतना सब तय हो जाए तो इन्कार का सवाल ही नहीं उठता, सो स्नान-ध्यान के बाद पूर्वाह्न ठीक 11 बजे मैं आफिस पहुंच गया।
आफिस में पता चला कि केदारजी नहीं आ रहे हैं, जबकि बड़थ्वालजी चलने को तैयार थे। हालांकि, जब सतीजी ने केदारजी को चलने के लिए कहा तो वे भी तैयार हो गए। तय हुआ कि सेमवालजी की कार में जाएंगे। सो, किरण भाई, सेमवालजी के साथ फ्रंट सीट में बैठे और मैं, सतीजी, केदारजी व बड़थ्वालजी पीछे वाली सीट में लद गए। थोडा़ दिक्कत तो हो रही थी, लेकिन बहुत दूर नहीं जाना था, इसलिए जैसे-तैसे एडजस्ट हो लिए। नेशनल हाइवे से जाने पर टोल टैक्स देना पड़ता है, इसलिए हमने दुधली वाला रास्ता पकडा़। यह रास्ता देहरादून वनप्रभाग के जंगल के बीच से होते हुए सीधे डोईवाला बाजार में खुलता है।
दोपहर साढे़ बारह बजे के आसपास हम लच्छीवाला नेचर पार्क के गेट पर थे। वहां रेंजर चंडीप्रसाद उनियाल जी से मिलने के बाद हमने पार्क में प्रवेश किया। अब तक कोठारीजी का कोई पता नहीं था और वे फोन भी नहीं उठा रहे थे। सो, हम सीधे म्यूजियम 'धरोहर' की तरफ बढ़ गए, जो कुछ समय पूर्व ही बना है। बहुत ही शानदार म्यूजियम है, अंदर जाते ही पर्यटकों को ठेठ उत्तराखंडी लोक में पहुंचा देता है। वह सभी वस्तुएं, जो हमारे पूर्वजों द्वारा उपयोग में लाई जाती रही होंगी और वर्तमान में लुप्त या चलन से बाहर हो चुकी हैं, यहां मौजूद हैं।
पारंपरिक कृषि बीज, हाथ चक्की (जंदरी), गंज्यली़ (धान कूटने वाला लकडी़ का उपकरण), ओखली (उरख्यली़), पर्या (दही बिलोने वाला लकडी़ का बर्तन ), डखुला़ (दही जमाने वाला चीनी मिट्टी का बर्तन ), राई (पर्या में दूध मथने वाली लकडी़ की छड़ यानी मथनी) नर्यलु़ (अनाज रखने वाला रिगांल से बना बर्तन), रिंगाल़ की कंडी, घीडा़, डलुण, भड्डू (कांसे का मोटी परत वाला बर्तन, जिसमें मोटी दाल पकाई जाती थी), तांबे व पीतल की तौल -तौली और गागर, पीतल का कस्यरा, कच्चे लोहे की कढा़ई, परात, लोक वाद्ययंत्र, अस्त्र-शस्त्र, लोक देवताओं की प्रतिमाएं, मुखौटे (ये मुख्य रूप से विश्व धरोहर रम्माण नृत्य में प्रयुक्त होते हैं) जैसी तमाम दुर्लभ वस्तुएं इस संग्रहालय में देखी जा सकती हैं।






















इसके अलावा पारंपरिक वेशभूषा, लोक नृत्य और लोक परंपराओं के दर्शन भी यह संग्रहालय कराता है। साथ ही विज्ञान, भूगोल व इतिहास भी यहां समाहित है। आप पहाड़ से जरा भी प्यार करते हैं तो यहां से लौटने का मन ही नहीं करेगा। पार्क के बीच से होकर खूबसूरत नहर भी गुजरती है और सौंग नदी भी। नदी में छोटे-छोटे बांध बनाकर पर्यटकों के लिए नहाने की व्यवस्था की जा रही है। आप यहां झील में बोटिंग का लुत्फ लेने के साथ ही बटरफ्लाई गार्डन, हर्बल गार्डन और बोनसाई गार्डन में भी वक्त गुजार सकते हैं। बाकी प्रकति के खूबसूरत नजारे तो चारों ओर बिखरे हुए हैं ही।
तकरीबन डेढ़ घंटे हम यहां रहे होंगे। इस बीच कोठारीजी भी आ गए थे, लेकिन उन्होंने भोजन की व्यवस्था नहीं की थी। इसलिए मूड आफ होना स्वाभाविक था, लेकिन हमने उनसे कुछ कहा नहीं। हां! उन्होंने चाय जरूर पिलाई। इसके बाद हम दुधली की ओर से ही देहरादून वापसी के लिए निकल पडे़। सुबह से कुछ खाया नहीं था, इसलिए भूख लगना स्वाभाविक था। कोठारीजी भी टांपा दे गए थे, लिहाजा हमारा प्लान बना कि रास्ते में किसी ढाबे में रुककर भोजन किया जाए। करीब पांच किमी चलने के बाद हमें सड़क किनारे एक ढाबा नजर आया। हमने वहीं कार पार्क की और चिकन-चावल और तवा रोटी बनाने का आर्डर कर दिया।
यही कोई आधा घंटा लगा होगा भोजन तैयार होने में। किरण भाई को छोड़कर बाकी सभी ने चिकन-भात का आनंद लिया। वे मांस-मछली नहीं खाते, इसलिए उन्होंने अपने लिया राजमा-चावल आर्डर किया। पेट भरने के बाद हम फिर निकले पडे़ मंजिल की ओर। पौन घंटा लगा होगा वहां से देहरादून पहुंचने में। कारगी चौक क्रास करने के बाद अचानक मन में विचार आया कि क्यों न चाय पीकर आफिस पहुंचा जाए, सो कारगी रोड पर आफिस से आधा-पौन किमी पहले हम एक होटल में रुके और चाय आर्डर कर दी। बाकी रुटीन तो हमेशा की तरह ही है।
इस समय रात के साढे़ बारह बजे हैं और मैं डायरी लिखने में निमग्न हूं। भोजन आज हल्का ही किया यानी दलिया। यही प्रकृति का नियम है। भोजन हमारे लिए है, हम भोजन के लिए नहीं। दिन में भारी भोजन किया था, इसलिए रात में हल्का जरूरी था। बाकी जरूरत गर्म पानी पूरी कर देता है। ठंडियों में मैं गर्म पानी ही पीता हूं। इससे सर्दी-खांसी-जुकाम परेशान नहीं करते। खैर! ये अपनी-अपनी सोच और अपना-अपना तरीका है कि किसे क्या लेना है। फिलहाल तो सोने का वक्त हो गया है और मुझे भी नींद आ रही है। ...तो ठीक है, कल फिर एक नए किस्से के साथ हाजिर होता हूं। नमस्कार!!












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Nature park tour
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Dinesh Kukreti
We were thinking for several days that on Sunday we would go for a visit to Lachhiwala Nature Park near Doiwala.  However, nothing could be decided exactly.  But, yesterday in the day when Kiran Bhai asked to reach the office by 11 am today, the program to go to Lachhiwala was confirmed.  He also said that if one percent is not able to go due to some reason, then he will get Rajma-rice in the office here.  By the way, Satiji has a talk with Doiwala Kothariji about lunch.  Now that all this is settled, then the question of refusal does not arise, so after bathing and meditating, I reached the office at exactly 11 in the morning.






















It was found in the office that Kedarji was not coming, while Barthwalji was ready to leave.  However, when Satiji asked Kedarji to go, he too agreed.  It was decided to go to Semwalji's car.  So, Kiran Bhai sat with Semwalji in the front seat and I, Satiji, Kedarji and Barthwalji got into the back seat.  There was a little problem, but did not have to go very far, so I adjusted somehow.  Toll tax has to be paid on going through the National Highway, so we took the two-way route.  This road passes through the forest of Dehradun Forest Division and opens directly to Doiwala Bazar.
We were at the gate of Lachhiwala Nature Park around 12.30 pm.  We entered the park after meeting Ranger Chandiprasad Uniyal ji there.  Till now there was no trace of Kothariji and he was not even picking up the phone.  So, we headed straight to the museum 'Dharhar', which has been built some time back.  It is a very wonderful museum, as soon as it goes inside, it takes tourists to the typical Uttarakhandi folk.  All those things, which would have been used by our ancestors and are currently extinct or out of use, are present here.

Traditional agriculture seed, hand mill (jandri), ganjyli (wooden instrument for crushing paddy), okhali (urkhayli), parya (wooden utensil for making curd), dakhula (porcelain for curdling), rai (in parya)  Wooden stick for churning milk, i.e. churning),    Narylu (a utensil made of rigal containing grains), Ringal ki kandi, Gheeda, Dalun, Bhaddu (a thick bronze vessel in which thick pulses were cooked), Copper and Brass weights  All the rare items like Touli and Gagar, brass casserole, cast iron kadhai, parat, folk instruments, weapons, statues of folk deities, masks (these are mainly used in World Heritage Raman dance) in this museum  can be seen.

Apart from this, this museum also offers traditional costumes, folk dance and folk traditions.  Along with this, science, geography and history are also included here.  If you love the mountain at all, then you will not feel like returning from here.  The beautiful canal also passes through the middle of the park and also the Saung River.  Bathing arrangements are being made for the tourists by making small dams in the river.  Apart from enjoying boating in the lake here, you can also spend time in Butterfly Garden, Herbal Garden and Bonsai Garden.  The beautiful views of the rest of the nature are scattered all around.
We must have been here for about an hour and a half.  Meanwhile, Kothariji had also come, but he had not arranged for food.  So it was natural to be in an off mood, but we didn't say anything to them.  Yes!  He did drink tea.  After this we set out from Dudhli to return to Dehradun.  Had not eaten anything since morning, so it was natural to feel hungry.  Kothariji had also been given to Tampa, so our plan was made to stop at some dhaba on the way to have food.  After walking for about five km, we saw a dhaba on the side of the road.  We parked the car there and ordered for making chicken-rice and tawa roti.















It would have taken about half an hour for the food to be ready.  Except Kiran bhai, everyone else enjoyed the chicken-bhaat.  He does not eat meat and fish, so he ordered his own rajma-rice.  After filling our stomach, we again started towards the floor.  It would have taken half an hour to reach Dehradun from there.  After crossing Kargi Chowk, suddenly a thought came to mind that why should not we reach the office after drinking tea, so we stayed in a hotel half-and-half km before the office on Kargi Road and ordered tea.  Rest of the routine is the same as usual.






















It is now twelve.30 pm and I am busy writing my diary.  The food was light today i.e. porridge.  This is the law of nature.  Food is for us, we are not for food.  Had a heavy meal during the day, so it was necessary to have a light one at night.  The rest of the requirement is met by hot water.  In winter I drink hot water only.  Due to this, cold, cough and cold do not bother.  So!  It's their own way of thinking and their own way of who to take what.  Right now it's time to sleep and I'm feeling sleepy too.  ... well then, tomorrow I will come again with a new anecdote.  Hi!!

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