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(भाग-तीन)
कोरवा की मनभावन शाम
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दिनेश कुकरेती
मैं जब भी घर से बाहर या सफर में होता हूं तो सुबह जागने में कतई विलंब नहीं करता। आज भी मैं अपने संकल्प के अनुसार सुबह ठीक साढे़ छह बजे जाग गया। आधा-पौन घंटे में फ्रैश होने के बाद मैं तैयार होकर विश्राम गृह के आंगन में आ गया। स्नान मैं ठंडे पानी से ही करता हूं, इसलिए निश्चिंतता रहती है। बाकी साथियों ने गर्म पानी से ही स्नान किया। केदारजी को देहरादून वापस लौटना था, इसलिए बड़थ्वालजी उन्हें सेमवालजी की कार से हाइवे तक छोड़ आए। हाइवे पर सिटी बस, विक्रम व आटो देहरादून के लिए हर वक्त मिल जाते हैं। बड़थ्वालजी के लौटने पर सभी ने चाय के साथ ब्रेड-मक्खन का नाश्ता किया और फिर आंगन में आकर आसपास के परिवेश की तस्वीरें उतारने लगे।
नौ बजे हमने कोरवा के लिए प्रस्थान किया। गुलेरियाजी की कार में मैं और सतीजी बैठे, जबकि सेमवालजी की कार में किरण भाई और बड़थ्वालजी। बारह बजे के आसपास हमें कालसी के आसपास साथी चंदराम राजगुरु ने मिलना था। उनसे सतीजी की बात हो गई थी। हम आराम से चल रहे थे। किरण भाई को कमर में दिक्कत है, इसलिए कार धीमे ही चलानी थी, ताकि कहीं पर गड्ढे या डिवाइडर में कार उछले नहीं। विकासनगर से पहले हमें एक जगह सड़क के किनारे पान वाला दिखा तो वहां रुककर सभी ने अपने-अपने हिसाब से पान लगवाया। पास ही गन्ने के जूस वाला भी था, सो मैंने व बड़थ्वालजी ने मुंह में पान दबाने से पहले जूस पीने का निर्णय लिया। तकरीबन 15 मिनट हम वहां रुके होंगे और इसके बाद धीरे-धीरे मंजिल की ओर बढ़ गए।
विकासनगर, लांघा, अंबाडी़, बाड़वाला व हरिपुर को पार कर अब हम कालसी की ओर बढ़ रहे थे। नए भूगोल को देखने का आनंद ही अलग होता है, इसलिए मैं बडी़ उत्सुकता से प्रकृति के नजारों को निहार रहा था। दूर यमुना नदी पर बना पुल नजर आने लगा था। गंगा की तरह मैं यमुना के कल-कल निनाद को सुनकर भी भावविभोर हो जाता हूं। अजीब-सा रिश्ता है पहाड़ की सदानीरा नदियों से मेरा। सचमुच देहरादून जिले में यमुना का दीदार करना कितना सुखद एहसास है। साफ-स्वच्छ अठखेलियां करती हुई बह रही है यहां से यमुना। जिसने दिल्ली, आगरा आदि शहरों में यमुना को अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाते देखा होगा, उसे विश्वास ही नहीं होगा कि यह बेपरवाह बहती नदी वही यमुना है। सचमुच कैसी विडंबना है कि जिस यमुना को हम यमुनोत्री धाम में मां के रूप में पूजने का दिखावा करते हैं, व्यवहार में उसकी निर्मला एवं पवित्रता की हमें रत्तीभर भी परवाह नहीं है।
खैर! यह एक लंबा एवं गंभीर विषय है, इस पर अलग से चर्चा करूंगा। अब हम यमुना पुल पर पहुंच चुके थे। ठीक सामने हरी-भरी पहाडि़यों से घिरे कालसी का नजारा सम्मोहित कर रहा था। देहरादून शहर से 56 किमी दूर यमुना और टोंस नदी के संगम पर यह वही कालसी है, जिस पर महाभारत काल में राजा विराट का शासन रहा और तब इसकी राजधानी विराटनगर हुआ करती थी। कालसी में यमुना नदी के किनारे अशोक के शिलालेख प्राप्त होने से इस बात की पुष्टि होती है कि यह क्षेत्र कभी वैभवशाली रहा होगा। सातवीं सदी में इस क्षेत्र को 'सुधनगर' के रूप में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी देखा था। यही सुधनगर कालांतर में कालसी (कलसी) के नाम से जाना गया। ऐसे गौरवमयी अतीत वाले नगर में कदम रखना मेरे लिए तो प्रफुल्लित कर देने वाली अनुभूति है।
यमुना पुला में उतरकर हमने वहां के नजारों को को कैमरे में कैद किया और फिर बढ़ गए मंजिल की ओर। साथी राजगुरु का फोन आ गया था कि वह कुछ दूरी पर ही अपनी कार के पास हमारा इंतजार कर रहे हैं। पांच-सात मिनट में उनसे मुलाकात भी हो गई। राजगुरु ने कार वहीं पास स्थित अपने मामा के घर में खडी़ की और हमारे साथ गुलेरियाजी वाली कार में सवार हो गए। अब वे हमारे गाइड की भूमिका भी निभा रहे थे। कालसी से चकराता तक का रास्ता पहाडि़यों से होकर गुजरता है। यह हाइवे वैसे तो दो लेन का भी नहीं है, लेकिन है बेहद रोमांचक। इस पर सफर करने का अपना अलग ही आनंद है। आगे पहाडि़यों की तलहटी में बसा साहिया कस्बा पड़ता है, जो जौनसार-बावर की व्यावसायिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र है। साहिया के बाद चढा़ई शुरू हो जाती है। इस क्षेत्र में ज्यादातर सड़क नंगी पहाड़ियों पर कटी हुई हैं। चुनिंदा स्थानों पर ही पेड़ नजर आते हैं।
कोरवा की ओर बढ़ते हुए वातावरण में ठंडक घुलने लगती है। कोरवा कालसी से 15 या 16 किमी की दूरी पर है, समुद्रतल से लगभग 4600 फीट की ऊंचाई पर। यह एक बेहद खूबसूरत गांव है। यहां से दो किमी के फासले पर पर्यटकों के लिए छोटी-छोटी काटेज कालोनियां बनी हुई हैं। खास बात यह कि पूरा इलाका देवदार के जंगल से घिरा हुआ है। दोपहर दो बजे के आसपास हम यहां पहुंचे होंगे। साथी चंदराम ने हमारे लिए तीन काटेज खुलवा दिए थे। ये उनके दोस्त के काटेज हैं, इसलिए हमारे लिए घर जैसे थे। हम दो काटेज के बाहर बेंच लगकर बैठ गए। चाय आ चुकी थी, जिसकी हमें इस वक्त सख्त जरूरत भी थी। कुछ ही देर में भोजन के लिए बुलावा आ गया। चावल, मिक्स मोटी दाल और रायता बना हुआ था। बहुत दिनों बाद ऐसा मनपसंद भोजन सामने था। सचमुच मजा आ गया। इसके बाद हम अपने-अपने काटेज में आराम करने लगे।
काटेज में इलेक्ट्रिक केतली और चाय का सामान भी रखा हुआ था, सो हमने सोने के बजाय चाय बनाई और मजे से चुस्कियां लेने लगे। पांच बजे के आसपास हम टहलने के लिए हाइवे की ओर निकल पडे़। ऊंचाई पर होने के कारण यहां शाम ढलने के साथ ही पाला भी गिरने लगा था। शीतल मंद पवन के झोंके तन-मन को उल्लासित कर रहे थे। अपनी काटेज कालोनी से तकरीबन 500 मीटर दूर दूसरी काटेज कालोनी तक हम टहलते-टहलते गए और दस-पंद्रह मिनट वहां रुकने के बाद फिर वापस लौट आए। काटेज कालोनी के आंगन में झूला लगा हुआ है, जिस पर हम काफी देर झूलते रहे। इस बीच वहीं खुले आसमान के नीचे टेबल सज चुकी थी। मुझे भी साथियों के साथ बैठने में कोई दिक्कत नहीं थी। भई! कलेजी व फ्राई मटन का जायका तो लिया ही जा सकता था। पाला काफी पड़ने लगा तो यह सारा इंतजाम काटेज में शिफ्ट कर दिया गया।
अब रात के दस बज चुके थे। कैंटीन से भोजन के लिए पुकार होने लगी थी। सो, हम चल पडे़ कैंटीन की ओर चावल, मटन, पनीर और रायता की दावत का लुत्फ लेने। दोपहर से कुछ न कुछ खा ही रहे थे, इसलिए पेट भरा था। लेकिन, पहाड़ के हवा-पानी की यही खूबी है कि भरे पेट भी भूख लग जाती है। इसलिए मैंने तो फिर भरपेट भोजन किया। इसके बाद आधा घंटा हम आसपास ही टहलते रहे। इस समय रात के बारह बजे हैं। नींद नहीं आ रही है और सुबह जल्दी भी उठता है। फिर भी कोशिश तो करनी ही पडे़गी। सेमवालजी ने अपने मोबाइल पर सुबह चार बजे का अलार्म लगा दिया है, नींद खुल ही जाएगी। ...तो ठीक है कल देहरादून में मिलते हैं। शुभरात्रि!!
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(Part-3)
Pleasant evening of Korwa
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Dinesh Kukreti
Whenever I am out of the house or traveling, I never delay in waking up in the morning. Even today, as per my resolve, I woke up exactly at 6.30 in the morning. After getting fresh in half an hour and a half, I got ready and came to the courtyard of the rest house. I take bath only with cold water, so there is peace. The rest of the comrades took bath with hot water only. Kedarji had to return to Dehradun, so Badthwalji dropped him in Semwalji's car till the highway. On the highway, city buses, Vikram and autos are available for Dehradun all the time. On the return of Barthwalji, everyone had a bread-butter breakfast with tea and then came to the courtyard and started taking pictures of the surroundings.
At 9 o'clock we left for Korwa. Me and Satiji sat in Guleriaji's car, while Kiran Bhai and Barthwalji sat in Semwalji's car. Around twelve o'clock we were to be met by fellow Chandram Rajguru around Kalsi. Satiji had spoken to him. We were walking smoothly. Kiran Bhai has a problem in his back, so the car had to be driven slowly, so that the car would not jump in the pothole or divider. Before Vikasnagar, when we saw a paan on the side of the road at one place, everyone stopped there and got paan applied according to their own accord. There was also a sugarcane juicer nearby, so I and Barthwalji decided to drink the juice before pressing the paan in the mouth. We would have stayed there for about 15 minutes and after that slowly moved towards the destination.
After crossing Vikasnagar, Langha, Ambadi, Barwala and Haripur, we were now moving towards Kalsi. The joy of seeing the new geography is different, so I was very eagerly looking at the views of nature. A bridge over the Yamuna river was visible in the distance. Like Ganga, I also get emotional after hearing the sound of Yamuna. I have a strange relationship with the evergreen rivers of the mountain. Truly what a pleasant feeling it is to see Yamuna in Dehradun district. Yamuna is flowing cleanly from here. The one who would have seen Yamuna in the cities of Delhi, Agra etc. shedding tears over its plight, would not believe that this careless flowing river is the same Yamuna. How ironic indeed is that the Yamuna which we pretend to worship as mother in Yamunotri Dham, in practice we do not care at all about its Nirmala and purity.
So! This is a long and serious topic, which I will discuss separately. Now we had reached the Yamuna bridge. The view of Kalsi surrounded by green hills right in front was mesmerizing. This is the same Kalsi at the confluence of Yamuna and Tons river, 56 km from Dehradun city, which was ruled by King Virat during the Mahabharata period and then its capital was Biratnagar. The receipt of inscriptions of Ashoka on the banks of river Yamuna in Kalsi confirms that this region must have been once prosperous. The region was also visited by the famous Chinese traveler Hiuen Tsang in the seventh century as 'Sudhnagar'. This Sudhnagar later came to be known as Kalsi (Kalsi). It is a humbling feeling for me to step into a city with such a glorious past.
After landing in Yamuna Pula, we captured the views there in the camera and then proceeded towards the destination. There was a call from fellow Rajguru that he was waiting for us near his car at some distance. In five-seven minutes he also met. Rajguru parked the car at his maternal uncle's house located there and boarded Guleriaji's car with us. Now he was also playing the role of our guide. The road from Kalsi to Chakrata passes through hills. Although this highway is not even two lane, but it is very exciting. Traveling on it has its own pleasure. Further at the foot of the hills lies the town of Sahiya, which is the main center of commercial activities of Jaunsar-Bawar. After Sahiya the climbing starts. Most of the roads in this area are cut on bare hills. Trees are visible only in selected places.
Moving towards Korwa, the coolness starts dissolving in the atmosphere. Korwa is at a distance of 15 or 16 km from Kalsi, at an altitude of about 4600 feet above sea level. This is a very beautiful village. There are small cottage colonies for tourists at a distance of two km from here. The special thing is that the whole area is surrounded by deodar forest. We would have reached here around two o'clock in the afternoon. Fellow Chandram had opened three cottages for us. These are his friend's cottages, so it was like home to us. We sat on a bench outside the two cottages. Tea had arrived, which we desperately needed at this time. In no time the call came for food. Rice, mix thick dal and raita were made. After a long time, such a favorite food was in front. Really enjoyed it. After that we started taking rest in our respective cottages.
Electric kettle and tea items were also kept in the cottage, so instead of sleeping, we made tea and started taking sips with pleasure. Around five o'clock we started towards the highway for a walk. Being at a high altitude, the frost started falling here as the evening progressed. The gusts of cool gentle wind were cheering the body and mind. We went for a walk till the second cottage colony, about 500 meters away from our cottage colony and came back after staying there for ten to fifteen minutes. There is a swing in the courtyard of Katej Colony, on which we used to swing for a long time. Meanwhile, the table was decorated there under the open sky. I also had no problem in sitting with my friends. Hey! The taste of liver and fried mutton could only be taken. When the frost started falling enough, all this arrangement was shifted to the cottage.
It was now ten o'clock in the night. There was a call for food from the canteen. So, we headed towards the canteen to enjoy a feast of rice, mutton, paneer and raita. I had been eating something since noon, so my stomach was full. But, this is the quality of the air and water of the mountain that even a full stomach feels hungry. So I ate a full meal again. After that we kept walking around for half an hour. It is now twelve o'clock in the night. Can't sleep and wakes up early in the morning. Still, you will have to try. Semwalji has set an alarm on his mobile at four o'clock in the morning. ...Okay then see you tomorrow in Dehradun. Good night!!
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