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दिनेश कुकरेती
तेरह साल हो गए वनवास को, न जाने कब पूरा होगा। वैसे वनवास की अधिकतम अवधि तो अब तक चौदह साल ही रही है। हो सकता है कि अगले साल पूरा हो जाए। अन्यथा ये वनवास का नया रिकार्ड होगा। आप सोच रहे होंगे कि मैं कहां रामायण-महाभारत के प्रसंग सुनाने लगा। लेकिन, मितरों! मुझे भी घर छोडे़ पूरे तेरह साल हो चुके हैं। आठ मई 2008 को मैं कोटद्वार छोड़कर देहरादून आ गया था। उसके बाद समय का चक्र ऐसा घूमा कि मैं यहीं घिरकर रह गया। चाहते हुए भी कहीं निकलना ही नहीं हो पाया। जबकि, पहले मैं दो साल से ज्यादा कहीं टिकता ही नहीं था।
मुझे याद है 2008 में आठ मई को मैं देहरादून झूठ बोलकर आया था। तब मैं कोटद्वार में अमर उजाला का रिपोर्टर हुआ करता है। हमारा इंचार्ज छुट्टी देने के मामले में बेहद कंजूस था। इसलिए हम छुट्टी कभी लेते ही नहीं थे। लेकिन, तब मैं ठान चुका था कि अब न तो अमर उजाला में रहना है, न कोटद्वार में ही। यहां दैनिक जागरण में मेरी बात हो गई थी। सात मई की शाम मेरे पास जागरण से फोन आया कि आठ मई को इंटरव्यू के लिए देहरादून पहुंच जाऊं। मैं संकट में पड़ गया कि छुट्टी कैसे ली जाएगी।
खैर! काफी विचार करने के बाद मेरे दिमाग में एक आइडिया आ ही गया। आठ मई को आफिस जाते ही मैंने इस पर अमल किया। मैंने अपने इंचार्ज से कहा कि देहरादून में ससुरजी का पथरी का आपरेशन हुआ है, उन्हें देखने जाना है। शाम को वापस लौट आऊंगा।दरअसल, पांच-छह मई को देहरादून के एक हास्पिटल में मेरे ससुरजी का पथरी का आपरेशन हुआ था। इसलिए मेरे पास अच्छा बहाना था देहरादून आने का। आखिरकार इंचार्ज ना-नुकर करते हुए मान ही गया। बस! फिर क्या था, मैं देहरादून आ गया।
शाम को मैं जागरण के आफिस पहुंचा। बातचीत हुई और फिर आफिस से मुझे उसी दिन ज्वाइन करने के लिए कह दिया गया। साथ ही नौ मई को रुकने के लिए भी कहा गया। अब मैं दस मई से पहले कोटद्वार नहीं लौट सकता था। उस पर इंचार्ज का फोन पर फोन आ रहा था। हालांकि मैं उठा नहीं रहा था। मेरे रुख को देखते हुए इंचार्ज ने यहां अमर उजाला मुख्यालय को अवगत करा दिया था। लिहाजा अमर उजाला के संपादक के भी फोन आने लगे। आखिरकार, परेशान होकर मैंने फोन ही स्विच आफ कर दिया।
इसके बाद 11 मई शाम कोटद्वार वापस गया और 13 मई को अपना सामान समेटकर देहरादून आ गया। तब से आज तक न तो अखबार बदलने का योग बना, न शहर बदलने का ही। ऐसा लगता है, मानो मैं ऐसे सिंगल ट्रैक पर चल रहा हूं, जो वन-वे है। यही वजह है कि इन तेरह साल में मैं कभी देहरादून को अपना शहर नहीं मान पाया। पता नहीं क्यों, मुझे इस शहर और यहां के लोगों में अपनापन नजर ही नहीं आता। इसलिए मैं हमेशा यही सोचता रहता हूं कब इस शहर को छोड़ना हो पाएगा। आज भी यही सोच रहा हूं।
अब आप यह न सोचने लगो कि मैं तनाव में हूं। मितरों! ऐसा कुछ नहीं है। यह किस्सा तो मैंने सिर्फ आपके मनोरंजन के लिए सुनाया है, क्योंकि मैं भी परिस्थितियों को इंज्वाय करता हूं। घटनाक्रम पूरी तरह सही है, मगर मैं इसे नियति मानकर चलता हूं। इसलिए आप तो बस मजा लीजिए। फिलहाल रात काफी हो गई है, क्यों न अब नींद का आनंद लिया जाए। शुभरात्रि!!
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Thirteen years of exile
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Dinesh Kukreti
It has been thirteen years of exile, don't know when it will end. By the way, the maximum period of exile has been only fourteen years so far. Maybe next year it will be completed. Otherwise it will be a new record of exile. You must be thinking that where I started narrating the stories of Ramayana-Mahabharata. But, friends! It's been thirteen years since I left home. On May 8, 2008, I left Kotdwar and came to Dehradun. After that the wheel of time turned such that I was stuck here. I could not get anywhere even if I wanted to. Whereas, earlier I did not stay anywhere for more than two years.
I remember in 2008, on May 8, I had come to Dehradun with a lie. Then I used to be the reporter of Amar Ujala in Kotdwar. Our in-charge was very stingy in granting leave. That's why we never used to take leave. But, then I had decided that now I have to live neither in Amar Ujala nor in Kotdwar. I spoke here in Dainik Jagran. On the evening of 7th May, I got a call from Jagran to reach Dehradun for an interview on 8th May. I was in trouble as to how the leave would be taken.
Well! After much thought an idea came to my mind. On May 8, as soon as I went to the office, I followed it. I told my in-charge that father-in-law has undergone stone operation in Dehradun, he has to go to see. I will return in the evening. Actually, on May 5-6, my father-in-law had a stone operation in a hospital in Dehradun. So I had a good excuse to come to Dehradun. Eventually the in-charge agreed with no hesitation. Bus! What was then, I came to Dehradun.
In the evening I reached Jagran's office. Negotiations took place and then I was asked to join the office the same day. Also asked to stay on May 9. Now I could not return to Kotdwar before May 10. He was getting a call on the phone of the in-charge. Although I was not lifting. Seeing my stand, the in-charge had informed the Amar Ujala Headquarters here. So the editor of Amar Ujala also started getting calls. Eventually, getting upset, I switched off the phone itself.
After this he went back to Kotdwar on 11th May evening and on 13th May packed his belongings and came to Dehradun. From then till date neither the sum of changing the newspaper nor the change of city has been made. It is as if I am walking on a single track which is one-way. This is the reason that in these thirteen years I have never been able to consider Dehradun as my city. I don't know why, I don't even see the belongingness in this city and its people. That's why I always wonder when I will be able to leave this city. I'm still thinking the same thing today.
Now don't you start thinking that I am under stress. Friends! Nothing like that. I have narrated this anecdote just for your entertainment, because I also enjoy the circumstances. Events are completely correct, but I take it as destiny. So you just enjoy. Now night is enough, why not enjoy the sleep now. good night!!
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