(भाग-दस)
तेरह साल बाद गांव की सैर
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दिनेश कुकरेती
सात साल की उम्र में गांव छोड़ने के बाद फिर मैं स्थायी रूप से कभी गांव नहीं लौटा। यूं कह लीजिए कि पारिवारिक दुराग्रहों की वजह से गांव मुझसे बहुत दूर चला गया। कभी-कभी तो ऐसा लगता है, मानो मैं बंजारा हूं। मेरा न कहीं गांव है, न नाते-रिश्ते ही। इसकी भी एक लंबी कहानी है, जिसे कभी फुर्सत में सुनाऊंगा, फिलहाल तो मैं आपको अपने उस अतीत में लिए चलता हूं, जब खुशकिस्मती से मेरे कदम दोबारा गांव की सरजमीं पर पडे़ थे। तब मैं संभवतः बीकाम प्रथम वर्ष में पढ़ रहा था यानी गांव छोड़ने के ठीक तेरह साल बाद।
दरअसल, तब मेरी दोनों ताईयों ने गांव में पूजा की तिथि तय कर दी थी। कुल देवी बालकुंवारी और कुल देवता नृसिंह की पूजा होने के कारण इसमें पूरे परिवार का शामिल होना जरूरी था। इसलिए उन्होंने मां से भी गांव चलने को कहा। सपरिवार जाना संभव नहीं था, इसलिए मां ने मुझे भेजने की हामी भर दी। इस निर्णय से मैं बेहद खुश था, वर्षों बाद गांव के दीदार का मौका जो मिल रहा था। तय हुआ कि दो दिन बाद सभी पूर्वाहन 11 बजे बस अड्डे पर मिलेंगे। जबकि, टिकट लेने वाले सुबह साढे़ दस बजे बस अड्डा पहुंच जाएंगे।
वह दिन आ गया था, जब हमें गांव जाना था। दोनों ताऊजी के परिवार से लगभग सभी सदस्य बस अड्डा पहुंचे थे, सिर्फ मैं ही अकेला था। खैर! साढे़ ग्यारह बजे बस चल पडी़ और अपराह्न तीन बजे के आसपास हम द्वारीखाल में थे। चाय पीने के लिए पंद्रह-बीस मिनट वहां रुके होंगे हम। इसके बाद चल पडे़ गांव की डगर पर। तब द्वारीखाल से थानखाल तक मार्ग काफी चौडा़ हो चुका था। टैक्सी गुजरती थी उस पर। इससे आगे भलगांव तक स्थिति जस की तस थी। जाते हुए वही सीधी उतराई। घुटने आपस में कीर्तन करने लगते थे। लेकिन, गांव के दीदार की उत्सुकता ने यह सब महसूस नहीं होने दिया। तब वह पीढी़ भी गांव में मौजूद थी, जिसे मैं जानता था। लिहाजा उससे मिलने की आतुरता भी मेरे चेहरे पर साफ झलक रही थी।
दो-ढाई घंटे में हम भलगांव पहुंच गए। सब-कुछ वैसा ही था, जैसा मैं छोड़कर गया था। हां! कुछ परिवार जरूर सहूलियत के लिए थानखाल शिफ्ट हो गए थे। खुशी की बात यह थी कि हमारा मकान जर्जर होने के बावजूद सुरक्षित था। जिस कमरे में हम रहा करते थे, उसमें तब गोदांबरी चाची रह रही थी। बगल वाला कमरा और ऊपरी मंजिल के दोनों कमरे बंद थे, जो हमारे पहुंचने के बाद ही खुले। इनकी चाभी संभवतः छोटी ताई के पास थी। चौक (आंगन) के आगे खडे़ आडू़ के दोनों पेड़ काफी कमजोर हो गए थे। इनमें से एक तो वही पेड़ था, जिसे बचपन में मैं सींचा करता था। मूल पेड़ अब वहां नहीं था।
लाइट अभी भी गांव में नहीं पहुंची थी, अलबत्ता खंभे जरूर आ गए थे। उम्मीद थी कि दोएक साल में घर भी बिजली से रोशन हो जाएंगे। हां! हमारे चौक में नल जरूर लग चुका था, जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूं। मेरे सोने की व्यवस्था कैलाश भाई (नत्थी चाचा के बडे़ बेटे) ने अपने मकान में की हुई थी। नत्थी चाचा ने तब अपने मकान के पिछले हिस्से में लिंटर वाले दो नए कमरे बना लिए थे। इन्हीं में एक कमरे में मुझे रहना था। पूजा तीसरे दिन से शुरू होने वाली थी, जिसके लिए तैयारियां चल रही थीं। एक भेड़ और एक बकरे की भी व्यवस्था हो चुकी थी...।
(जारी...)
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(Part-Ten)
Village tour after thirteen years
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Dinesh Kukreti
After leaving the village at the age of seven, I never returned to the village permanently. For example, the village went far away from me due to family squabbles. Sometimes I feel as if I am a barren. I have neither a village nor any relation. It also has a long story, which I will tell in my spare time, for the moment I take you back to my past, when fortunately my feet again fell on the village soil. Then I was probably studying B.Com in the first year i.e. exactly thirteen years after leaving the village.
Actually, then both my maids had fixed the date of worship in the village. Due to the worship of Kul Devi Balkumari and Kul Devta Narasimha, it was necessary for the whole family to participate in it. That's why he asked his mother to go to the village. It was not possible to go to the family, so mother agreed to send me. I was very happy with this decision, which was getting the opportunity of seeing the village after years. It was decided that after two days everyone would meet at the bus stand at 11 am. Whereas, the ticket takers will reach the bus stand at 10:30 in the morning.
The day had come when we had to go to the village. Almost all the members of both Tauji's family had reached the bus stand, I was the only one. Well! The bus started at 11.30 pm and we were at Dwarikhal around 3 pm. We must have stayed there for fifteen to twenty minutes to have tea. After this he started on the road to the village. Then the road from Dwarakhal to Thankhal had become quite wide. A taxi used to pass over it. Beyond this the situation remained the same till Bhalgaon. While leaving, the same straight landed. The knees started chanting among themselves. But, the eagerness of the village deedar did not allow all this to be felt. Then that generation was also present in the village, whom I knew. So the eagerness to meet him was also clearly visible on my face.
We reached Bhalgaon in two-and-a-half hours. Everything was as I had left it. Yes! Some families must have shifted to Thankhal for convenience. The good news was that our house was safe even though it was dilapidated. Godambari Aunty was staying in the room where we used to stay. The adjoining room and the rooms on the upper floor were both closed, which only opened after we reached. Their keys were probably with Choti Tai. Both the peach trees standing in front of the chowk (courtyard) had become very weak. One of these was the same tree that I used to water in my childhood. The original tree was no longer there.
The light had not yet reached the village, although the pillars had definitely arrived. It was expected that in two years the house would also be illuminated with electricity. Yes! There was definitely a tap in our square, which I have already mentioned. My sleeping arrangements were made by Kailash Bhai (eldest son of attached uncle) in his house. The attached uncle had then built two new rooms with linters in the back of his house. I had to stay in one of these rooms. The puja was to begin on the third day for which preparations were going on. A sheep and a goat had also been arranged….
(To be continued...)
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