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(भाग-ग्यारह)
पूजा की तैयारी
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दिनेश कुकरेती
गांव की सुबह सचमुच बेहद खूबसूरत होती है। इस सुबह के सौंदर्य को निहारने की चाह में मेरी आंख जल्दी खुल गई थी। सो, मैंने तत्काल बिस्तर छोडा़ और छज्जे में आ गया। अभी सूर्य उदय नहीं हुआ था, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता डांडी-कांठ्यों में पसर रही लालिमा सूर्य के जल्द आगमन की ओर इशारा कर रही थी। चिडि़यों की चहचहाहट कानों में संगीत घोल रही थी। ग्वेर छ्वारों (गाय-बकरी चुगाने वाले युवा) ने मवेशियों के साथ जंगल की राह पकड़ ली थी। महिलाएं सखियों को पुकार रही थीं कि "चलो! घास- लकडी़ लेने बण (जंगल) जाने का वक्त हो गया।"
मुझे भी थोडी़ देर में पुजाई के लिए जागरी को न्यौता देने गांव के ही एक भाई महिपाल के साथ राजखिल जाना था। सो, जल्दी-जल्दी नित्य क्रियायों से निवृत्त होकर मैं नाश्ता करने बैठ गया। इस बीच महिपाल भाई भी हमारे घर पहुंच चुके थे। नौ-साढे़ नौ बजे के आसपास हमने राजखिल के लिए प्रस्थान किया। राजखिल भलगांव के दक्षिण-पूर्व की पहाडी़ पर भैरवगढी़ मंदिर से एक-डेढ़ किमी नीचे बसा हुआ गांव है। भयनाशक कालभैरव हमारे इस पूरे क्षेत्र के क्षेत्रपाल देवता हैं।
खैर! तीन घंटे के कठिन सफर के बाद हम राजखिल अपने जागरी के घर पहुंच चुके थे। घर के आंगन में भैरवगढी़ से घंटा-घडि़याल की सुमधुर ध्वनि स्पष्ट सुनाई दे रही थी। मन कर रहा था कि भैरवगढी़ का एक चक्कर लगा आऊं, लेकिन व्यवहार में ऐसा संभव नहीं था। चाय-पानी के बाद तय हुआ कि जागरी अगली सुबह भलगांव पहुंच जाएंगे। डौंर और थाली (पूजा के पारंपरिक वाद्य यंत्र) को जागरी ने हमारे सुपुर्द कर दिया। उन्होंने हमसे दोपहर के भोजन का भी आग्रह किया, लेकिन हमने यह कहकर कि भोजन करके आए हैं, विनम्रतापूर्वक इन्कार कर दिया और भलगांव की राह पकड़ ली।
वापसी में पूरा रास्ता उतराई का था, इसलिए दो घंटे में ही हम भलगांव पहुंच गए। हालांकि, जूतों से मेरे पैर बुरी तरह छिल चुके थे। असल में एक तो जूते नए थे और उस पर इतना लंबा पहाडी़ सफर मैं वर्षों बाद कर रहा था। स्थिति यह हो गई थी कि अगले आठ-दस दिन तक उन जूतों को दोबारा नहीं पहन सकता था। सुकून इस बात का था कि मैं सैंडिल भी साथ लेकर गया था। बहरहाल! घर लौटकर सबसे पहला कार्य मैंने भोजन करने का ही किया। सचमुच पहाड़ के पानी में कितना स्वाद है, सिर्फ नमक-मिर्च, हल्दी-धनिया ही भोजन का जायका बदल देते हैं और मन तृप्त हो जाता है।
उस शाम सारे परिवार ने एक साथ भोजन किया। पूजा के लिए समस्त सामग्री जुटाई जा चुकी थी। मुझे तो तब बहुत ज्यादा जानकारी थी नहीं, इसलिए मैंने किसी कार्य में टांग अडा़ना मुनासिब भी नहीं समझा। वैसे भी पूजा-पाठ में मेरी रुचि कभी नहीं रही। मेरा मानना है कि अगर आपका मन साफ है और किसी के प्रति राग-द्वेष का भाव नहीं रखते तो निश्चित रूप से आपके हृदय में ईश्वर का वास है। बाकी सब तो दिखावा है। पर, ये परिवार का मामला था, इसलिए जो-कुछ घट रहा था, उसे मूकदर्शक बनकर देखना मेरी मजबूरी थी...।
(जारी...)
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(Part-Eleven)
preparation for worship
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Dinesh Kukreti
The morning of the village is really very beautiful. My eyes were quickly opened in the desire to behold the beauty of this morning. So, I immediately left the bed and entered the balcony. The sun had not risen yet, but the redness slowly spreading in the Dandi-kanthys (mountain peaks) was indicating the early arrival of the sun. The chirping of birds was mixing music in the ears. The Guer Chhavaras (young men who pluck cows and goats) had taken their way to the forest with the cattle. The women were calling out to the friends that "Come on! It's time to go to the forest (forest) to get grass and wood."
I too had to go to Rajkhil with Mahipal, a brother from the village, to invite Jagri for worship in a short while. So, after retiring from daily activities, I sat down to have breakfast. Meanwhile, Mahipal Bhai had also reached our house. Around 9.30 pm we left for Rajkhil. Rajkhil is a village situated on the south-east hill of Bhalgaon, one and a half km below Bhairavgarhi temple. The fearsome Kaal Bhairav is the Kshetrapal deity of our entire region.
So! After a arduous journey of three hours, we had reached Rajkhil, our Jagari house. In the courtyard of the house, the melodious sound of bell and gong was clearly heard from Bhairavgarhi. I felt like taking a round of Bhairavgarhi, but in practice it was not possible. After tea and water, it was decided that Jagri would reach Bhalgaon the next morning. The daur and thali (traditional instruments of worship) were handed over to us by the Jagri. They also requested us to have lunch, but we politely refused, saying that we had eaten and headed for Bhalgaon.
On the way back, the entire route was unloaded, so within two hours we reached Bhalgaon. However, my feet were badly chipped by the shoes. In fact, one of the shoes was new and I was doing such a long mountain journey on it after years. The situation had become such that he could not wear those shoes again for the next eight-ten days. It was a matter of comfort that I had also taken sandals with me. However! The first thing I did after returning home was to eat food. Really, there is so much taste in the mountain water, only salt-pepper, turmeric-coriander change the taste of food and the mind becomes satisfied.
That evening the whole family had dinner together. All the materials had been gathered for the worship. I did not have much knowledge then, so I did not even consider it appropriate to put my legs in any work. Anyway, I was never interested in worship. I believe that if you have a clean mind and do not have any feelings of attachment or animosity towards anyone, then surely God resides in your heart. Everything else is sham. But, it was a family affair, so it was my compulsion to watch what was happening as a mute spectator….
(To be continued...)
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