Tuesday, 13 July 2021

01-07-2021 (एक अनूठी शादी)





















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(भाग-आठ)

एक अनूठी शादी

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दिनेश कुकरेती

मेरी बचपन की स्मृतियों में एक ऐसी शादी भी कैद है, जिसमें दूल्हा बारात लेकर नहीं गया था, बल्कि दुल्हन खुद डोली में बैठकर दूल्हे के घर पहुंची थी। पहाड़ में तब पैसा खाने की प्रथा प्रचलन में थी। इसमें लड़की का पिता लड़के वालों से एकमुश्त रकम लेकर लड़की उन्हें सौंप देता था। इसमें लड़की की पसंद-नापसंद कोई मायने नहीं रखती है। यहां तक कि दूल्हा किस उम्र का है, उसकी कहीं पहले से शादी तो नहीं हो रखी है, इससे भी लड़की को वाकिफ कराना जरूरी नहीं समझा जाता था। सिर्फ और सिर्फ पैसा ही इसमें निर्णायक भूमिका निभाता था। इसके पीछे न केवल गरीबी, बल्कि पुरुषवादी मानसिकता भी बडी़ वजह हुआ करती थी।

ऐसी शादियों में गलादार (बिचौलिया) भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था। किसी स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए। बस! उसकी आवभगत खूब हो जाती थी। दरअसल, गलादार एक चलायमान प्राणी होता था। वह आज एक गांव में नजर आता था तो कल दूसरे गांव में। इसी गलादारी से उसकी गृहस्थी की गाडी़ भी चलती थी। वह शादी भी ऐसे ही गलादार ने फिक्स की थी। जिस घर में यह शादी हुई थी, वह हमारे ख्वाल़ (मुहल्ले) से चंद कदम के फासले पर गांव के मुख्य मार्ग में पड़ता था। दोपहर दो बजे के आसपास का वक्त रहा होगा, जब उस घर से दुल्हन की विदाई हुई थी।

उस वक्त मैं मां, काकी-बोडी (चाची-ताई) आदि के साथ चरग्यड की ओर जा रहा था। (मैं पूर्व में भी बता चुका हूं कि चरग्यड हमारे गांव का पेयजल स्रोत था।) ब्रह्मानंद चाचा के घर के पास की सीढि़यां उतरकर हम मुख्य मार्ग पर पहुंचते थे। वहां पर हमारे ही परिवार की छानी (जहां मवेशी रखे जाते हैं) पड़ती थी। उसी के पीछे से होकर चरग्यड के लिए रास्ता जाता था। जैसे ही हम रास्ते में पहुंचे, बायीं ओर स्थित उस घर में ढोल-दमाऊ और मसक (पारंपरिक वाद्ययंत्र) की सुरलहरियां गूंजने लगीं । तभी पास खडी़ एक चाची  ने बताया कि सीता (संभवतः यही नाम था दुल्हन का) ससुराल के लिए विदा हो रही है। सो, यह देखने के लिए हम वहीं रुक गए।

एक बात बताना तो मैं भूल ही गया था। दरअसल उस दौर में पैसे खाकर जो शादी होती थी, उसमें गांव वालों को नहीं बुलाया जाता था। इसलिए इस शादी के बारे में भी गांव में चुनिंदा लोगों को ही जानकारी थी यानी सिर्फ लड़की के कुटुंब वालों को ही। ऐसी शादियों में साज-सज्जा जैसी कोई बात भी नहीं होती थी। खैर! वहां हम दसेक मिनट रहे होंगे, इस बीच दुल्हन की विदाई की घडी़ आ गई। डोली सज चुकी थी, तभी एक व्यक्ति दुल्हन को गोद में उठाकर बाहर लाया और डोली में बिठाने लगा। वह जोर-जोर से रो रही थी। कुछ क्षण बाद कहारों ने डोली उठा ली और दुल्हन अपने उस पिया के घर के लिए विदा हो गई, जिसकी उसने झलक तक नहीं देखी थी।

तब मैं बच्चा था, इसलिए भाव और भावनाओं की समझ मुझे नहीं थी। लेकिन समय के साथ धीरे-धीरे मेरी समझ में आने लगा कि इस समाज में जब तक पुरुषवादी मनोवृत्ति हावी रहेगी, तब तक बेटी कभी बेटे की बराबरी पर खडी़ नहीं हो सकती। उसके बेटे से आगे जाने की बात तो कल्पनाओं के घोडे़ दौडा़ने जैसी है। यह ऐसी बीमारी है, जो पीढि़यों से चली आ रही है और कब तक चलती रहेगी, इसका भी उत्तर शायद ही कोई दे पाए। लेकिन...मुझे यकीन है कि एक न एक दिन जरूर इस रात की सुबह होगी। आमीन!!

(क्रमशः...)

इन्‍हें भी पढ़ें : 

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(Part-Eight)

A unique wedding

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Dinesh Kukreti

There is also a wedding imprisoned in my childhood memories, in which the groom did not take the procession, but the bride herself reached the groom's house sitting in the doli.  The practice of eating money in the mountain was in vogue then.  In this, the girl's father used to take a lump sum amount from the boys and hand over the girl to them.  It doesn't matter what the girl likes or dislikes.  Even the age of the groom, whether he has already been married somewhere, it was not considered necessary to make the girl aware of this.  Only and only money played a decisive role in this.  Not only poverty, but also malevolent mentality used to be a big reason behind this.

Galadar (middleman) also played an important role in such marriages.  Not for any selfishness, but to fulfill our social responsibility.  Bus!  He was well received.  Actually, Galadar was a moving animal.  Today he was seen in one village and yesterday in another village.  The car of his household also used to run with this galdari.  That marriage was also fixed by Galadar in the same way.  The house where this marriage took place was on the main road of the village at a distance of a few steps from our khwal (locality).  It must have been around two o'clock in the afternoon, when the bride's departure from that house took place.

At that time I was going towards Chargyad with mother, Kaki-Bodi (Aunt-Tai) etc.  (I have already mentioned that Chargyad was the drinking water source of our village.) We used to reach the main road by descending the steps near Brahmanand uncle's house.  There our own family's chhani (where cattle are kept) used to be there.  The way to Chargyad used to pass through him.  As we arrived on the way, the dhol-damau and masak (traditional musical instruments) resonated in the house on the left.  Then an aunt standing nearby told that Sita (presumably this was the name of the bride) was leaving for her in-laws' house.  So, we stopped there to see this.

I forgot to mention one thing.  In fact, the villagers were not invited in the marriages that took place after eating money.  Therefore, only the selected people in the village knew about this marriage, that is, only the family members of the girl.  There was no such thing as decoration in such weddings.  Well!  We must have been there for ten minutes, meanwhile the hour of the bride's farewell arrived.  The doli was ready, then a person brought the bride out in her lap and started making her sit in the doli.  She was crying out loud.  Moments later, the Kahars lifted the doli and the bride left for the house of her piya, whom she had not even glimpsed.

I was a child then, so I didn't understand emotions and feelings.  But gradually over time, I started to understand that as long as the malevolent attitude prevails in this society, the daughter can never stand equal to the son.  To go ahead of his son is like running a horse of imagination.  This is such a disease, which has been going on for generations and for how long it will continue, hardly anyone can answer it.  But...I am sure that one day or the other, this night will surely have its morning.  Amen!!

(To be continued...)

1 comment:

  1. मितरों! अगर आपको मेरा ब्लाग अच्छा लगे तो इसे फालो अवश्य कीजिएगा। साथ ही कमेंट बाक्स में जाकर अपनी राय भी जरूर दीजिए, ताकि आगे मैं इसे और भी बेहतर बना सकूं। समाज में पढ़ने-लिखने की संस्कृति विकसित करने के लिए मेरी ये एक छोटी-सी कोशिश है। इसमें सहभागी अवश्य बनें। धन्यवाद!!

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