मेरा विद्यालय
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दिनेश कुकरेती
जब मेरा विद्यालय में दाखिला कराया गया, तब मैं पांच वर्ष की उम्र पूरी कर छठे वर्ष में प्रवेश कर चुका था। तब विद्यालय में दाखिले की उम्र यही हुआ करती थी। जन्म प्रमाण पत्र का चलन उस दौर में था नहीं, इसलिए जो तिथि, महीना व वर्ष अभिभावक की जुबान से निकल जाए, वही अंतिम सत्य हुआ करता था। कई बच्चों के दाखिले तो दस-दस साल की उम्र में होते थे, लेकिन अभिभावक उनकी उम्र पांच साल ही लिखवाते थे। कक्षा में ऐसे बच्चों की पहचान उन पर निगाह पड़ते ही हो जाती थी। जैसे-जैसे वे कक्षाओं में आगे बढ़ते थे, डील-डौल के आधार पर उनका नाम "ढांट" पड़ जाता था। कालांतर में मेरे साथ भी ऐसे कई "ढांट" रहे।
खैर! तय हो चुका था कि मुझे विद्यालय में प्रवेश दिलाना है। पिताजी तब नौकरी से छुट्टी आए हुए थे। वही मुझे विद्यालय में जमा करने ले गए। औपचारिकताएं पूरी करने के बाद जैसे ही पिताजी ने मुझे पहली कक्षा बैठाया, मैं रोने लगा और उनके पीछे दौड़ लगा दी। उन्होंने मुझे रोककर लालच दिया कि वो मेरे लिए बेडू (एक प्रकार का जंगली फल, जिसे बच्चे बेहद पसंद करते थे) लाने जा रहे हैं, तब तक मुझे कक्षा में ही बैठे रहना है। मैं मान गया, लेकिन वे नहीं आए। छुट्टी के वक्त मां मुझे लेने आई, जो वहीं पास में गाय के लिए घास काट रही थी। दूसरे दिन से मैं दीदी (ताऊजी की बेटी कमला) के साथ स्कूल जाने लगा। वही तब अभिभावक की भूमिका में होती थी। काफी दिनों तक मुझे घर ले जाने मां ही छुट्टी के वक्त विद्यालय के पास तक आती रही।
धीरे-धीरे मेरे दो-तीन दोस्त बन गए। उनमें गिरीश सबसे करीब था। दीदी बडी़ कक्षा में (शायद पांचवीं में) थी, इसलिए विद्यालय में उसके साथ रहने का कोई मतलब नहीं बनता था। पांचवीं से आगे पढ़ने के लिए गांव में कोई विद्यालय नहीं था। इसलिए ज्यादातर लड़कियों की पढा़ई पांचवीं से आगे नहीं हो पाती थी।जिन्हें आगे पढ़ना होता था, वो द्वारीखाल जाते थे। वहां तब उच्च प्राथमिक विद्यालय हुआ करता था। उस दौर में द्वारीखाल एक छोटा-सा, लेकिन आसपास के गांवों की सभी जरूरतें पूरी करने वाला परफैक्ट कस्बाई बाजार हुआ करता था। इसके अलावा द्वारीखाल आसपास के क्षेत्र का एकमात्र बस स्टाप भी था।
मेरे गांव भलगांव से द्वारीखाल की दूरी शायद तीन मील (साढे़ चार किलोमीटर) थी। जो बाद के वर्षों में थानखाल तक सड़क बन जाने के कारण लगभग दो मील रह गई। हालांकि, कठिन रास्ता तब भी थानखाल तक ही था। यहां तक पहुंचने के लिए खडी़ चढा़ई चढ़नी पड़ती थी। कहने का मतलब उस दौर में पांचवीं से आगे की पढा़ई के लिए द्वारीखाल जाना पहाड़ चढ़ने जैसा था। संयोग से मुझे गांव में रहते हुए द्वारीखाल जाने का मौका सिर्फ दो बार मिला। एक बार तब, जब मैं मां के साथ बाजार गया था और दूसरी बार गांव छोड़ते समय बस पकड़ने के लिए...।
(जारी...)
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(Part-Four)
My School
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Dinesh Kukreti
When I was admitted to the school, I was five years old and had entered the sixth year. This was the age of admission to the school then. Birth certificate was not in trend at that time, so the date, month and year that came out of the guardian's tongue, used to be the final truth. The admission of many children was done at the age of ten years, but the parents used to get their age written down only by five years. Such children in the class would be recognized as soon as they were noticed. As he progressed through classes, he was nicknamed "Dhant" based on his stature. In the course of time, there were many such "contracts" with me too.
Well! It was decided that I had to get admission in the school. Dad was on leave from his job then. He took me to deposit in the school. After completing the formalities, as soon as Dad made me sit in the first class, I started crying and ran after him. He stopped me and lured me that he was going to bring me Bedu (a kind of wild fruit which the children loved very much), till then I have to sit in the class. I agreed, but they didn't come. On vacation, my mother came to pick me up, who was cutting grass for the cow nearby. From the second day I started going to school with Didi (Tauji's daughter Kamala). She was then in the role of guardian. For a long time, my mother kept coming to the school during the holidays to take me home.
Gradually I became two or three friends. Girish was the closest among them. Didi was in an older class (probably in fifth grade), so it didn't make sense to be with her in school. There was no school in the village to study beyond the fifth standard. That's why most of the girls could not study beyond the fifth standard. Those who had to study further, they used to go to Dwarikhal. There used to be an upper primary school there. At that time, Dwarikhal was a small, but perfect town market, catering to all the needs of the surrounding villages. Apart from this, Dwarkhal was also the only bus stop in the surrounding area.
The distance from my village Bhalgaon to Dwarikhal was probably three miles (four and a half kilometres). Which in later years was reduced to about two miles due to the road to Thankhal. However, the difficult road was still till Thankhal. One had to climb a steep climb to reach here. To say that at that time going to Dwarkhal for further studies from the fifth was like climbing a mountain. Incidentally, I got a chance to visit Dwarikhal only twice while living in the village. Once, when I went to the market with my mother and the second time to catch the bus while leaving the village….
(To be continued...)
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