Thursday, 29 July 2021

17-07-2021 (गुड़ की मिठाई) (यादें-तीन)














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(यादें-तीन)
गुड़ की मिठाई
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दिनेश कुकरेती
ई पीढी़ को शायद ही यह इल्म हो कि कभी गुड़-चना और चना-इलैची (इलायची) दाना को पहाड़ में मिठाई का दर्जा हासिल था। कोई भी व्यक्ति शहर से या नौकरी से छुट्टी पर गांव आता तो आस-पडो़स में हर किसी को उम्मीद रहती कि गुड़-चना या चना-इलैची दाना जरूर बंटेगा। तब गांव के ज्यादातर लोग फौज में होते थे और छुट्टी आने पर वही ये मिठाई लाते थे। जो लोग दिल्ली, चंडीगढ़, लुधियाना आदि शहरों में प्राइवेट नौकरी करते थे, वो भी कम तनख्वाह होने के बावजूद छुट्टी आने पर चना-इलैची बांटना नहीं भूलते थे। ऐसा करने के पीछे उनकी सोच यही होती थी कि गांव वालों की नजर में स्वयं को शहरी साबित किया जाए।
गांव में चना-इलैची अपेक्षाकृत ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति वाले लोग ही बांटते थे, लेकिन ऐसे परिवारों में, जहां सदस्य ज्यादा होते, वहां हर सदस्य के हिस्से आठ-आठ, दस-दस दाने से ज्यादा नहीं आ पाते थे। जबकि, गुड़-चना बांटने पर कम से कम गुड़ तो सभी सदस्यों के हिस्से में ठीक-ठाक आ ही जाता। गुड़ में भेली का गुड़ ज्यादा पसंद किया जाता था। भेली भी खरी (निर्दोष) और ढाई किलो वाली। वैसे कई लोग गिंदोडे़ वाला गुड़ भी बांटते थे, लेकिन उसमें कालर खडे़ करने वाली फीलिंग नहीं आ पाती थी। दूसरे की ही नहीं, अपनी नजर में भी। ज्यादातर लोग भेली या गिंदोडो़ं की खरीदारी कोटद्वार से ही करते थे। दो-एक किलो गिंदोडे़ या एकाध भेली की खरीद ही द्वारीखाल बाजार से की जाती थी।
वैसे मिठाई के तौर पर सबसे ज्यादा पसंद अंदरखी (परिष्कृत गुड़) की जाती थी। वह भी हल्के भूरे रंग वाली। इससे संबंधित परिवार के स्टेटस का भी पता चलता था, क्योंकि इसकी कीमत भेली और गिंदोडो़ं से अधिक होती थी। जिसे गांव में चर्चा की ज्यादा चाह होती, वह अंदरखी ही बांटता था। अंदरखी के साथ चना बांटना जरूरी नहीं समझा जाता था। सिर्फ अंदरखी बांटने से गांव में स्टेटस हाई रहता था। ...और, हां! जो सबसे अहम बात मैं भूल रहा था, वह यह कि गुड़ को तब "मिठाई" ही बोला जाता था। यानी मिठाई का मतलब ही गुड़ होता था। बाकी मिठाइयों के बारे में तो तब आम लोग जानते भी नहीं थे।

लोग बरफी का नाम जरूर लेते थे, लेकिन खाने को कभी नसीब नहीं होती थी। बल्कि, कई लोगों ने तो बरफी को देखा भी नहीं था। गांव में रहते तो मैंने भी नहीं। अंदरखी भी मैंने सन् 1978 के बाद कोटद्वार में देखी। उस दौर की सबसे महंगी मिठाई लड्डू हुआ करते थे। लड्डू बांटने वाले को रसूखदार माना जाता था। शादी-ब्याह में अगर कोई मेहमान लड्डू ले आता तो समझ लीजिए, उस जैसा बडा़ आदमी कोई नहीं। मैंने भी लोगों के मुंह से ही ये बात सुनी थी। तब देखा मैंने भी नहीं था, किसी को लड्डू बांटते हुए। हां! इतना जरूर था कि मुझे लड्डू खाने का सौभाग्य मिल चुका था।

आज भले ही ये बातें काल्पनिक लगती हों, लेकिन मितरों! दुनिया ऐसे ही आगे बढी़ है। यही मानव के क्रमिक विकास का क्रम है। लेकिन, यह भी सच है कि आगे बढ़ने के साथ हम शांति, सुकून, संतुष्टि, मानवीयता, मेल-जोल, प्यार-प्रेम, अपनत्व यानी सब-कुछ उसी दौर में छोड़ आए। जबकि, इन समस्त भावों की आज हमें सबसे ज्यादा जरूरत है। सबसे दुःखद तो यह है कि आधुनिक दिखने की होड़ में हमने अपने अतीत को ही भुला दिया। हम यह भी भूल गए कि इतिहास के सबक ही हमें आगे की राह दिखाते हैं। इतिहास ही विज्ञान का आधार है...।
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(memories three)
Jaggery sweets
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Dinesh Kukreti
The new generation hardly has any idea that once jaggery-gram and gram-elaichi (cardamom) grain had the status of sweets in the mountain.  If any person came to the village from the city or on leave from job, then everyone in the neighborhood would have expected that jaggery-gram or gram-cardamom seeds would definitely be distributed.  Then most of the people of the village were in the army and they used to bring these sweets when the holiday came.  Those who used to do private jobs in cities like Delhi, Chandigarh, Ludhiana etc., they also did not forget to distribute gram-cardamom when the holiday came, despite having less salary.  His thinking behind doing this was that in the eyes of the villagers, they should prove themselves as urban.
In the village, gram-cardamom was distributed only by people of relatively good economic condition, but in such families, where there were more members, the share of each member could not exceed eight-eight, ten-ten grains.  Whereas, on distributing jaggery and gram, at least jaggery would have come well in the share of all the members.  Bheli's jaggery was preferred over jaggery.  Bheli too khari (innocent) and two and a half kilos.  Although many people used to distribute the jaggery of Gindode, but the feeling of making a caller could not come in it.  Not only in others' eyes, but also in your own eyes.  Most of the people used to buy Bheli or Gindodon from Kotdwar itself.  Only two kilograms of gindode or a few bhel was bought from Dwarkhal market.

By the way, the most liked as a sweet was Andarkhi (refined jaggery).  She is also light brown.  It also revealed the status of the family concerned, as it cost more than the Bheli and Gindodon.  Whoever wanted more discussion in the village, he used to distribute it inside.  It was not considered necessary to distribute gram with the insider.  The status in the village remained high just by distributing the insides.  ...And yes!  The most important thing I was forgetting was that jaggery was called "sweet" back then.  That is, the meaning of sweets was jaggery.  The common people did not even know about the rest of the sweets then.
People used to take the name of barfi, but never had any luck to eat it.  Rather, many people had not even seen Barfi.  I didn't even live in the village.  I also saw Insidekhi after 1978 in Kotdwar.  The most expensive sweets of that era used to be laddus.  The one who distributed the laddoos was considered influential.  If a guest brings laddus to the wedding, then understand that there is no big man like him.  I too had heard this from the mouths of the people.  Then I was not even there, distributing laddoos to anyone.  Yes!  It was so sure that I had had the good fortune of eating laddus.

These things may seem imaginary today, but friends!  The world has progressed like this.  This is the sequence of human evolution.  But, it is also true that as we move forward, we leave peace, peace, contentment, humanity, harmony, love-love, affinity i.e. everything in that period.  Whereas, we need all these expressions the most today.  The saddest part is that in the race to look modern, we have forgotten our past.  We also forgot that the lessons of history show us the way forward.  History is the basis of science.

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