Thursday, 29 July 2021

16-07-2021 (गांव के सुनहरे पल) (यादें-दो)


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(यादें-दो)
गांव के सुनहरे पल
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दिनेश कुकरेती
वादे के मुताबिक आज मैं आपका परिचय पहाड़ के उन खास पकवानों से करा रहा हूं, जो फुर्सत के मौकों पर सामूहिक रूप से बनाए और खाए जाते थे। फुर्सत के मौके गांव में खेती-किसानी के काम से निपटने के बाद तब मिलते थे, जब मौसम भी खुशगवार होता था। ऐसे आयोजनों के लिए सारा सामान (मसलन आटा, चावल, दाल, मसाले, घी वगैरह-वगैरह) भी सामूहिक रूप से ही जुटाया जाता था। पकवानों में ढुंगले़ (गेहूं व मंडुवे के आटे या खालिस मंडुवे के आटे की मोटी-मोटी रोटियां) और भड्डू (कांसे का बना गगरी नुमा गोल एवं मोटा बर्तन) में बनी रलौ़ (मिक्स) मोटी दाल मुख्य होते थे। कई बार खटाई (चटनी) भी इसमें शामिल होती थी। ये खटाई नींबू के साथ भट्ट या तिल मिलाकर बनती थी।
यह आयोजन खुले लंबे-चौडे़ खेत में होता था। खास बात यह कि ढुंगले़ तवे पर नहीं बनते थे। रोटी बेलने के लिए भी चकला-बेलन की जरूरत नहीं पड़ती थी। महिलाएं हाथ से ही आटे की गोली को रोटी का आकार देकर उसे पत्तों से अच्छी तरह लपेट लेती थीं। इसके बाद उसे चूल्हे के भीतर गर्म राख में दबा दिया जाता था। कुछ देर में जब गर्मागर्म रोटी को राख के अंदर से निकाला जाता तो उसकी महक से वातावरण महक उठता था। ये रोटी इतनी मोटी होती थी कि सामान्य व्यक्ति का एक से ही पेट भर जाता। हालांकि, गांव के हाड़तोड़ मेहनत करने वाले लोग तीन से चार रोटी मजे-मजे में खा लेते थे।

भड्डू आज भले ही चलन से बाहर हो गया हो, लेकिन उस दौर में दाल भड्डू में ही बनती थी। यह महंगा बर्तन जरूर होता था, लेकिन गरीब से गरीब परिवार भी एक भड्डू तो घर में जरूर रखता था। मेरे घर में आज भी एक भड्डू है, जो वर्षों पहले हमने 116 रुपये का लिया था। हालांकि, प्रेशर कूकर ने बीते लंबे अर्से से उसे शो-पीस बनाया हुआ है। खैर! भड्डू को चूल्हे में चढा़ने से पहले उस पर मिट्टी या राख का लेप लगाया जाता था। इससे वह काला नहीं पड़ता था और मांजने में भी आसानी रहती थी। भड्डू को गर्म होने में काफी वक्त लगता है, लेकिन गर्म हो जाने में कैसी भी दाल को वह मिनटों में गला देता है। फिर तो ऐसी लसपसी  दाल बनती है कि खाने वाला अंगुलियां चाटता रह जाए।

ढुंगले़ और दाल बनाने के लिए तैयारियां पहले दिन से ही होने लगती थीं। बच्चों का भी इसमें बडा़ योगदान होता था। खेत में जहां खाना बनता था, वहां सफाई करना, चूल्हे के लिए लकडि़यां इकट्ठी करना जैसी व्यवस्थाएं बच्चों की ही होती थीं। खाना भी सबसे पहले बच्चों को ही बंटता था। अमूमन ढुंगलो़ं की दावत रात की ही होती थी। जो खाना बच जाता, उसे गांव वाले घर ले जाते थे। वैसे ऐसी नौबत कम ही आती थी। साल में दो बार तो ढुंगले़ बन ही जाते थे। जहां तक मुझे याद है, मैं भी गांव में एक बार ढुंगलो़ं की दावत का हिस्सा बना हूं।
इसके अलावा एक बार कोटद्वार में भी हमने ढुंगलो़ं की दावत की थी। शायद वर्ष 1983 में, तब मैं आठवीं में पढ़ता था। हालांकि, तब खाना हमने पत्तल के बजाय थालियों में खाया था। इसके अलावा गांव में कभी-कभी जलेबी की दावत भी होती थी। जो बंदा जलेबी बनाने आता था, उसे सब बैरागी कहते थे। यह उसका असली नाम था या बोलचाल का नाम, मुझे नहीं मालूम। वह किस गांव से आता था, यह भी अब याद नहीं रहा, लेकिन था भलगांव के आसपास ही किसी गांव का। चार-पांच महीने में एक बार जलेबी बनाने की पूरी तैयारी के साथ वह भलगांव अवश्य आता था।
जलेबी बनाने का कार्यक्रम मुडी़ ख़्वाल़ (गांव के नीचे का हिस्सा) में आयोजित होता था। इसके लिए सारे गांव को सूचना दे दी जाती थी। जलेबी कितनी बननी है, यह लोगों की मांग पर निर्भर करता था। कोई-कोई तो एक-एक किलो जलेबी अकेले ही खा जाता था। तब शायद जलेबी एक या दो रुपये किलो हुआ करती थी। कुछ लोग सामान के बदले भी जलेबी खरीदते। गांव में किसी को लगता कि फलां व्यक्ति के पास पैसे नहीं हैं तो वह उसके लिए भी खरीद लेता। ऐसा प्यार-प्रेम और अपनत्व का भाव आज कहां देखने को मिलता है। हमने आर्थिक रूप से जरूर उन्नति कर ली, लेकिन सामाजिक रूप से बहुत पिछड़ गए हैं। काश! गुजरा वक्त वापस आ पाता...।
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(memories-two)

Golden moments of the village
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Dinesh Kukreti
As promised, today I am introducing you to those special dishes of the hill, which were prepared and eaten collectively on leisure occasions.  Opportunities of leisure were available after dealing with the agricultural work in the village, when the weather was also pleasant.  All the materials (such as flour, rice, pulses, spices, ghee, etc.) for such events were also collected collectively.  Dhungle (thick loaves of wheat and Manduve flour or pure Manduve flour) and Ralo (mix) thick lentils made in Bhaddu (bronze-shaped, round and thick vessel made of bronze) were the main dishes.  Sometimes khatai (chutney) was also included in it.  This sourness was made by mixing bhat or sesame with lemon.

 This event was held in an open wide field.  The special thing is that Dhungle was not made on the pan.  There was no need for a rolling pin to roll out the roti.  Women used to give the shape of a roti to the dough ball by hand and wrap it well with leaves.  It was then buried in hot ashes inside the stove.  After some time, when the hot roti was taken out from inside the ashes, the atmosphere was filled with its fragrance.  This roti was so thick that a normal person would fill his stomach with just one.  However, the hard working people of the village used to eat three to four rotis with pleasure.

Bhaddu may have gone out of fashion today, but in that era, pulses were made in Bhaddu only.  It was definitely an expensive pot, but even the poorest of the poor family used to keep a bhaddu in the house.  There is a Bhaddu in my house even today, which we had taken for Rs 116 years ago.  However, the pressure cooker has made it a showpiece for a long time.  So!  Before placing the bhaddu in the stove, a coating of mud or ash was applied to it.  Due to this it did not darken and it was easy to wash.  It takes a long time for the bhaddu to heat up, but it melts any dal in minutes to become hot.  Then such lentils are made that the eater keeps licking his fingers.

Preparations for making dhungle and dal started from day one.  Children also played a big part in this.  Arrangements like cleaning the farm where food was prepared, collecting wood for the stove were made by the children only.  The food was also first distributed to the children.  Usually the feast of the Dhungals was held at night only.  Whatever food was left, the villagers used to take it home.  Well, such a situation rarely came.  Twice a year, Dhungle used to be made.  As far as I can remember, I too have once been a part of the Dhungalo Ki Dawat in the village.

Apart from this, once in Kotdwar also we had a feast of Dhungals.  Maybe in the year 1983, then I used to study in class VIII.  However, then we ate the food in plates instead of pattals.  Apart from this, sometimes Jalebi feast was also held in the village.  Everyone who used to come to make jalebi was called Bairagi.  Whether it was his real name or a colloquial name, I don't know.  From which village he used to come, it is also not remembered now, but it was from a village near Bhalgaon.  He used to come to Bhalgaon once in four-five months with full preparation for making jalebi.

The process of making jalebi was held at Mudi Khwaal (the lower part of the village).  For this the entire village was informed.  How much jalebi was to be made, it depended on the demand of the people.  Some people used to eat one kilogram of jalebi alone.  Then probably Jalebi used to be one or two rupees a kilo.  Some people buy Jalebi in exchange for the goods.  If someone in the village felt that such a person did not have money, he would have bought it for him also.  Where do you find such a sense of love and affection today?  We have made progress economically, but have lagged behind socially.  If only!  The passing time could come back….

1 comment:

  1. मितरों! अगर आपको मेरा ब्लाग अच्छा लगे तो इसे फालो अवश्य कीजिएगा। साथ ही कमेंट बाक्स में जाकर अपनी राय भी जरूर दीजिए, ताकि आगे मैं इसे और भी बेहतर बना सकूं। समाज में पढ़ने-लिखने की संस्कृति विकसित करने के लिए मेरी ये एक छोटी-सी कोशिश है। इसमें सहभागी अवश्य बनें। धन्यवाद!!

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