Monday, 5 July 2021

25-06-2021 (मेरा विद्यालय) (भाग-दो)



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(भाग-दो)
मेरा विद्यालय
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दिनेश कुकरेती
ब मैंने परिवार के साथ गांव छोडा़, तब मैं दूसरी कक्षा पास कर चुका था। मेरा विद्यालय गांव के ठीक नीचे डेढ़ से दो किमी की उतराई पर रहा होगा। विद्यालय के ठीक नीचे इतनी ही दूरी पर दूसरा गांव क्यर्द पड़ता है। वहां से भी बच्चे इसी विद्यालय में पढ़ने आते थे। विद्यालय में दो शिक्षक हुआ करते थे, एक हेड मास्टर और एक सहायक अध्यापक। हेड मास्टर विद्यालय में ही रहते थे। उनकी सेवा-टहल के लिए हर दिन दो-दो छात्रों की बारी लगती थी। ये छात्र पानी लाने से लेकर बर्तन धोने तक का कार्य करते थे। भोजन भी ये शिक्षक के साथ ही करते थे। विद्यालय में परिवार का सा माहौल होता था, इसलिए गांव के लोग खुशी-खुशी अपने पाल्य को शिक्षक के साथ भेज देते थे।
शिक्षक के लिए साग-सब्जी, आटा, दाल-चावल, केरोसिन आदि की व्यवस्था भी गांव के लोग ही कर देते थे। वे शिक्षक को अपने परिवार का ही हिस्सा मानते थे। हफ्ते में एक दिन विद्यालय में खीर बनती थी। इसके लिए दूध भी गांव से ही आता था। जिन बच्चों की ड्यूटी शिक्षक के साथ होती थी, वो खीर की पतीली या कढा़ई चाटना विशेष रूप से पसंद करते थे। प्योर दूध की इस खीर का स्वाद लाजवाब होता था, जो गुड़ के साथ तैयार होती थी। उस दौर में चीनी कुछ परिवार ही इस्तेमाल करते थे। मसलन जिस परिवार से कोई सदस्य फौज या किसी अन्य सरकारी नौकरी में होता था। गुड़ की भेली सस्ती होने के कारण हर घर में हुआ करती थी।
मेरी पाटी

तब शिक्षक पढा़ई के मामले में बेहद सख्त हुआ करते थे। बच्चा क्या कर रहा है और क्या नहीं, इस पर उनकी कडी़ नजर होती थी। कहने का मतलब माता-पिता से भी ज्यादा जिम्मेदार होते थे शिक्षक। शिक्षकों के सख्त और कड़क मिजाज होने के कारण बच्चे भी अपनी हैसियत के हिसाब से उनके नए-नए नाम रख देते थे। जैसे हमने अपने हेडमास्टर का नाम मरख्वड़्या (मार करने वाला। यह संबोधन पहाड़ में उस बैल को दिया जाता है, जो मार करता है) रखा हुआ था। हेडमास्टर इस कदर सख्त थे कि हम लोग उनकी झलक देखना तक पसंद नहीं करते थे। कोई बच्चा दो-तीन दिन बिना बताए अनुपस्थित रह जाता था तो वह विद्यालय की छुट्टी के बाद भीमल (चारा-पत्ती वाला पेड़) की लपलपाती छडी़ लेकर उसके घर में जा धमकते थे। बदकिस्मती से बच्चा उनके हाथ पड़ जाता तो अभिभावकों के सामने उसकी चमडी़ उधेड़ देते। यही वजह है कि हेडमास्टर के गांव की सरहद में प्रवेश करते ही अभिभावक अपने बच्चों को छिपा देते, ताकि उन्हें हेडमास्टर की मार से बचाया जा सके।

हेडमास्टर भी इस बात की जानते थे कि अभिभावक बच्चों को जानबूझकर गायब करते हैं। इसलिए उस दिन की कसर वो अगले दिन विद्यालय में निकाल देते। मैं इस मामले में स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूं कि हेडमास्टर मुझ पर कभी रुष्ट नहीं हुए। दरअसल मैं उनका आज्ञाकारी छात्र हुआ करता था। वो जो भी काम देते जिम्मेदारी से करता, उन्हें कभी भी शिकायत का मौका नहीं देता, साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखता वगैरह-वगैरह। तब आज की तरह कापी-पेंसिल या पेन-पेंसिल का जमाना नहीं था। लकडी़ की तख्ती हुआ करती थी, जिसे पाटी बोलते थे। इस पर कमेडा़ (चूने की तरह सफेद मिट्टी ) से लिखा जाता था। यह मिट्टी खान से निकलती थी। मेरी मां जंगल में स्थित खान से मेरे लिए यह मिट्टी लाती थी। कमेडा़ जिस पात्र में रखा जाता था, उसे बोल़ख्या बोलते थे। 
रिंगाल़ की कलम

बोल़ख्या किसी छोटे डिब्बे को काटकर बनाया जाता था, जिसके दो कोनों में कील से सुराख कर उनमें डोर बांध दी जाती थी। ठीक कमंडल की तरह। लिखने के लिए रिंगाल़ की कलम इस्तेमाल में लाई जाती थी, जिसे चाकू या छोटी दरांती से छीला जाता था। पाटी को साफ-सुथरा रखने के लिए उस पर घोटा-पोथ्या लगाया जाता था। किसी कपडे़ से बैटरी या तवे की की कालिख लगाने को पोथ्या कहते थे, जबकि घोटा (कांच की शीशी को तिरछी कर पाटी पर रगड़ना) इस कालिख के सूखने पर लगाया जाता था। ताकि पाटी चमचमाने लगे। कभी-कभी पोथ्या की जगह एक विशेष प्रकार के पत्तों को भी पाटी पर रगडा़ जाता था।

मितरों, विद्यालय का यह सुनहरा दौर कभी भुलाया नहीं जा सकता। सच कहूं तो हमें इसे भूलना भी नहीं चाहिए। यह हमारे जीवन की अमूल्य धरोहर है। भविष्य की पीढी़ तो कभी यकीन भी नहीं करेगी कि हमने ऐसे पढा़ई की। लेकिन, इसी तरह अनुभूतियों को लिपिबद्ध कर हम अगली पीढी़ तक पहुंचा सकते हैं। खैर! वक्त काफी हो गया है। फिलहाल मैं अपनी लेखनी को यहीं विराम दे रहा हूं। कल फिर मिलने हैं नई ऊर्जा और नई उम्मीदों के साथ। तब तक के लिए नमस्कार! खुदा हाफिज!!

(जारी...)
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My school
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Dinesh Kukreti
When I left the village with my family, I had passed the second standard.  My school must have been at a descent of one and a half to two km just below the village.  Just below the school at the same distance lies another village, Kyrd.  From there also children used to come to study in this school.  The school used to have two teachers, a head master and an assistant teacher.  The head master lived in the school itself.  Every day it was the turn of two students for his service.  These students used to work from fetching water to washing dishes.  He used to eat food along with the teacher.  There was a family atmosphere in the school, so the people of the village happily sent their children along with the teacher.
रिंगाल़ की कलम
For the teacher, the people of the village used to make arrangements for greens-vegetables, flour, pulse-rice, kerosene etc.  He considered the teacher as part of his family.  Kheer was made once a week in the school.  For this milk also used to come from the village itself.  The children, whose duty was with the teacher, especially liked to lick the pan or pan of kheer.  The taste of this pure milk kheer was wonderful, which was prepared with jaggery.  At that time, the Chinese were used by only a few families.  For example, the family from which a member was in the army or any other government job.  Because of the cheapness of jaggery, it used to be in every house.

Then the teachers used to be very strict in the matter of studies.  He used to keep a close watch on what the child was doing and what not.  It means to say that teachers were more responsible than parents.  Due to the strict and harsh mood of the teachers, the children also used to give them new names according to their status.  Like we had named our headmaster as Markhwadya (the one who kills. This address is given to the bull in the mountain that kills).  The headmaster was so strict that we did not even like to catch a glimpse of him.  If a child remained absent for two or three days without informing, he used to threaten to go to his house after the school holiday with a ladleful stick of Bhimal (fodder-leaf tree).  Unfortunately, if the child fell in their hands, they would have peeled off their skin in front of the parents.  This is the reason why parents would hide their children as soon as the headmaster entered the outskirts of the village, so that they could be saved from the headmaster's beatings.

























The headmaster was also aware of the fact that parents deliberately make children disappear.  That's why he would have taken that day out in school the next day.  I consider myself fortunate that the headmaster has never been angry with me.  Actually I used to be his obedient student.  Whatever work he does responsibly, never gives him a chance to complain, takes special care of cleanliness, etc. etc.  Then there was no era of copy-pencil or pen-pencil like today.  There used to be a wooden plank, which was called Pati.  It was written with Kameda (white clay like lime).  This soil came out of the mine.  My mother used to bring this soil for me from a mine located in the forest.  The vessel in which Kameda was kept was called Bolkhya.

Bolkhya was made by cutting a small box, the two corners of which were pierced with a nail and a string was tied in them.  Just like Kandal.  For writing, a ringel pen was used, which was peeled off with a knife or a small sickle.  In order to keep the patti clean, it was used to swindle.  Pothya was applied to the soot of a battery or a pan with a cloth, while Ghota (rubbing the glass vial diagonally on the pot) was applied when the soot had dried.  So that the patty starts to sparkle.  Sometimes instead of pothya, a special type of leaf was also rubbed on the patti.

Friends, this golden era of school can never be forgotten.  To be honest, we shouldn't even forget it.  It is a priceless asset of our life.  The future generation will never believe that we studied like this.  But, by recording the experiences in the same way, we can pass it on to the next generation.  Well!  Enough time has passed.  For the time being, I am stopping my writing here.  See you again tomorrow with new energy and new hopes.  Goodbye until then!  Khuda Hafiz!!

(To be continued...)

1 comment:

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