(भाग-पांच)
गांव के प्राकृतिक जल धारे
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दिनेश कुकरेती
मेरा गांव भलगांव विकास के मामले में काफी पिछडा़ रहा है। अब जरूर वहां घर-घर बिजली-पानी पहुंच गया है, गांव के ऊपर से सड़क गुजर रही है, लेकिन मेरे बचपन के दौर में ऐसा नहीं था। गांव की छोडि़ए, आसपास के इलाके में भी कहीं बिजली नहीं थी। पानी घर-घर पहुंचना भी सपने जैसा ही था। चिमनी, ढिबरी व लालटेन के सहारे हमारी रातें गुजरती थीं। जो थोडा़ पैसे वाले लोग थे, उनके घर में यदा-कदा गैस की रोशनी भी हो जाया करती थी। यह रोशनी मेंटल से होती थी, जो रेयान या सिल्क के धागे से बना होता था। मेरे पास आज भी तब के मेंटल मौजूद हैं।
इसी तरह पानी के लिए पूरा गांव प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर था। खुशकिस्मती से प्राकृतिक स्रोतों की गांव में कमी नहीं थी। हालांकि, जिस पानी को गांव वाले पीने के इस्तेमाल में लाते थे, वह गूल (नहर) के जरिये चरग्यड स्थित स्रोत तक पहुंचता था। स्रोत की गांव से दूरी तकरीबन एक किमी रही होगी। स्रोत की गूल गांव से लगभग दो किमी दूर पहाडी़ पर स्थित गदेरे से निकाली गई थी। विकास के नाम पर यही एकमात्र निशानी मेरे गांव में मौजूद थी। कभी जंगली जानवरों की धमाचौकडी़ के कारण गूल का बंधा टूट जाता तो, उसे दोबारा लगाने जाना पड़ता था। अन्यथा स्रोत में पानी सूख जाता था। वैसे ऐसी नौबत कम ही आती थी।
दूसरा प्राकृतिक स्रोत चरग्यड से थोडा़ दूर छापर नामक स्थान पर था। यह जगह उतराई पर थी। छापर गांव के लोग सिर्फ गर्मियों के दौरान जेठ-अषाढ़ (ज्येष्ठ-आषाढ़) में ही जाते थे। कारण, इस स्रोत का पानी गर्मियों में बर्फ जैसा ठंडा और सर्दियों में सुबह के वक्त काफी गर्म होता था। हालांकि, यह जगह घने पत्ते वाले बडे़-बडे़ दरख्तों से घिरी थी, जिससे यहां भरी दुपहरी में भी न सिर्फ अंधेरे का सा एहसास होता था, बल्कि डर भी लगने लगता था। लिहाजा गांव की महिलाएं काकी, बोडी (चाची-ताई), भाभी, दीदी, फूफू (बुआ) आदि यहां समूह में ही आते थे। बडे़-बूढे़ बताया करते थे कि यहां भूत रहता है। इसी अंधविश्वास के कारण शायद यह जगह डरावनी हो गई थी।
डर की एक वजह और भी थी। दरअसल, धारे के ठीक ऊपर एक विशालकाय चट्टान थी। जो वैसे तो मजबूती से जमी हुई थी, लेकिन समय को किसने देखा है। सच कहूं तो मुझे भी उस चट्टान को देखकर बहुत डर लगता था। हालांकि, ये भी सच है कि आज तक वो चट्टान अपनी जगह मजबूती से जमी हुई है। इसके अलावा एक अन्य प्राकृतिक स्रोत मेरे घर से कुछ दूरी पर उत्तर दिशा में था। यहां रिस-रिसकर पानी आता था और एक गड्ढे में जमा होता था। स्रोत मेरे चाचा के खेत में था, पर इस रिसते पानी से घर की जरूरतें पूरी नहीं हो सकती थीं।
हालांकि, बाद के वर्षों में (जब हम गांव छोड़ चुके) इस स्रोत का संरक्षण कर चाचा ने वहां एक पक्का टैंक बना दिया। इससे पानी गड्ढे से होकर टैंक में जमा होने लगा। इस टैंक से घर तक चाचा ने पाइप लाइन भी बिछा दी, जिससे पानी के लिए धारे में चरग्यड जाने का झंझट खत्म हो गया। लेकिन, सिर्फ हमारे दो-तीन परिवारों का। बाकी गांव वालों को इसका कोई लाभ नहीं मिला।
(क्रमशः...)
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(Part-Five)
Village's natural water streams
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Dinesh Kukreti
My village Bhalgaon is lagging behind in terms of development. Now, of course, electricity and water have reached every house, the road is passing over the village, but it was not so during my childhood. Except in the village, there was no electricity anywhere in the surrounding area. Getting water from door to door was like a dream. We used to pass our nights with the help of chimney, stove and lantern. Those who were little moneyed, there used to be occasional gas light in their house. This light came from the mantle, which was made of rayon or silk thread. I still have the mantles from then.
Similarly, the entire village was dependent on natural sources for water. Fortunately, there was no dearth of natural resources in the village. However, the water that the villagers used for drinking used to reach the source at Chargyad through a gul (canal). The distance of the source from the village must have been about one kilometer. The source gullet was extracted from a gadera situated on a hill, about two km from the village. In the name of development, this was the only sign that existed in my village. Sometimes the tying of the gull was broken due to the ruckus of wild animals, it had to be re-established. Otherwise the water in the source would have dried up. Well, such a situation rarely came.
The second natural source was at a place called Chhapar, a little away from Chargyad. This place was on landing. The people of Chhapar village used to visit Jeth-Ashadh (Jyestha-Ashadh) only during summers. Because, the water of this source was ice cold in summer and very hot in the morning in winter. However, this place was surrounded by large trees with dense foliage, which not only gave a feeling of darkness, but also felt fear even in the full afternoon. Therefore, the women of the village used to come here in groups like Kaki, Bodi (Aunt-Tai), Bhabhi, Didi, Fufu (Aunt) etc.
The elders used to tell that ghosts live here. Perhaps due to this superstition, this place had become scary. There was another reason for fear. Actually, there was a huge rock just above the stream. Although it was firmly frozen, but who has seen the time. To be honest, I too used to be very scared seeing that rock. However, it is also true that till date that rock is firmly frozen in its place. Apart from this, another natural source was in the north at some distance from my house. The water used to seep here and collect in a pit. The source was in my uncle's farm, but this seeping water could not meet the needs of the house.
However, in later years (when we left the village) the uncle built a pucca tank there, conserving this source. Due to this the water started accumulating in the tank through the pit. The uncle also laid a pipeline from this tank to the house, which ended the hassle of going to Chargyad for water. But, only of our two-three families. The rest of the villagers did not get any benefit from it.
(To be continued...)
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