Tuesday, 27 July 2021

15-07-2021 (हलुवा पार्टी) यादें (1)


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यादें  (1)
हलुवा पार्टी

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दिनेश कुकरेती

न दिनों आफिस के कार्य का कोई टेंशन नहीं है। समय से जागना, समय से खाना और समय से सोना। स्वाभाविक है दिमाग में नए-नए विचार आएंगे ही। उस पर सुबह-शाम लगातार बारिश हो रही है और दुपहरी में उमस से बुरा हाल है। ऐसे में घर से बाहर निकलने का मन भी कहां करता है। इस समय पूर्वाह्न के ग्यारह बजे हैं और बाहर बारिश की झडी़ लगी है। खाली-खाली बैठे आंखों में नींद के झोंके आ रहे हैं, पर मुझे दिन में सोना अच्छा नहीं लगता। इसलिए सोचा, क्यों न आज दिन में ही डायरी लिख ली जाए। इसका सबसे बडा़ फायदा तो यह होगा कि नींद दूर भाग जाएगी।

मैं अमूमन मोबाइल पर ही लिखता हूं। वैसे मेरे पास लैपटाप भी है, लेकिन मोबाइल पर लिखना ज्यादा सहूलियत वाला लगता है। कहीं पर भी बैठे-बैठे लिख लीजिए, कोई झंझट नहीं। पर, आज सूझ ही नहीं रहा कि नया क्या लिखूं। इसलिए सोच रहा हूं कि क्यों न मैं आपको अपने बचपन के दिनों में ले चलूं। कुछ ऐसी यादें हैं, जिन्हें मैं आपसे शेयर करना इसलिए प्रासंगिक समझता हूं, क्योंकि समाज को आज ऐसे ही सरोकारों की जरूरत है। आपको यह भी बता दूं कि बचपन का ये किस्सा मुझे घर में बनी सूजी (हलुवा) को देखकर याद आया।

उस दौर में हलुवा विशिष्ट व्यंजन हुआ करता था और विशेष मौकों पर ही बनता भी था। इसलिए गांव में ऐसे मौकों का बच्चों ही नहीं, बडे़-बुजुर्गों को भी बेसर्बी से इंतजार रहता था। कभी-कभी विशिष्ट मौकों पर गांव के लोग सामूहिक रूप से हलुवा बनाते थे और इसके लिए सामग्री भी सामूहिक रूप से ही जुटाई जाती थी। लेकिन, सबसे खास होते थे वे मौके, जब किसी घर में कोई कारिज (कार्य) होता था और उसे निभाते सब मिल-जुलकर थे। मसलन, किसी को जब अपने खेतों में गोबर की खाद (जैविक खाद) डालनी होती थी (इसे सहेल कहा जाता था) तो वो यह कार्य अकेला न कर इसके लिए सारे गांव को न्यौता देता था।

इससे जहां सामूहिकता एवं प्यार-प्रेम का भाव विकसित होता था, वहीं कार्य भी चुटकी बजाते निपट जाता था। हर परिवार बारी-बारी से यही क्रम दोहराता था और सारा गांव इसमें भागीदार बनता था। कार्य पूरा होने के बाद काम करने वाले सारे लोग उस परिवार के आंगन (चौक) में जुटते थे, जिसके खेतों में गोबर की खाद डाली गई होती थी। उनके लिए वहां पहले से ही हलुवा तैयार होता था, जिसे प्रसाद कहते थे। सूजी को देसी घी में खूब भूनकर तैयार किए इस हलुवे की खुशबू ही मुंह में पानी ला देती थी।

हलुवा खाने को लेकर बच्चे सबसे ज्यादा लालायित रहते थे। उनके लिए तो ये मौके त्यौहार जैसे होते थे। इसलिए सहेल में शामिल लोग बच्चों के लिए भी हलुवा जरूर ले जाते थे। हलुवा खाने और घर ले जाने के लिए बर्तनों की जरूरत तो होती ही नहीं थी। मालू के पत्ते और उनसे बने पत्तल बर्तनों की भरपाई कर देते थे। सहेल ही नहीं, सेरों में रोपणी लगाने (सिंचाई वाले खेतों में धान की रोपाई करने), धान-गेहूं की फसल काटने और झाड़ने-मांडने के मौकों पर भी सामूहिक रूप से हलुवे की दावत जरूर होती थी। इसके अलावा सभी कटिंग वाली चाय (बिना चीनी की चाय, जिसकी गुड़ के टुकडे़ के साथ चुस्कियां ली जाती हैं ) का लुत्फ भी उठाते थे।

इस दावत में कितना आनंद, कितना अपनत्व, कितना प्यार-प्रेम होता था, इसे सिर्फ वही महसूस कर सकता है, जिसने ये दौर जिया है। मैं भले ही तब छोटा था, लेकिन ये सुखद अनुभूतियां मेरे अंतर्मन में इतने गहरे समाई हुई हैं कि ऐसा लगता है, मानो कल की ही बात हो। यादों का सिलसिला चल ही पडा़ है तो आपको क्यों न उस दौर की एक और खास दावत में ले जाया जाए। मेरा दावा है कि आपको इस दावत में मजा आ जाएगा और कहोगे, काश! ऐसी दावत उडा़ने का एक बार हमें भी मौका मिला होता...।

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Memories (1)

Pudding party

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Dinesh Kukreti

There is no tension in office work these days.  Waking up on time, Eating on time and Sleeping on time.  It is natural that new ideas will come in the mind.  It is raining continuously in the morning and evening and it is worse than the humidity in the afternoon.  In such a situation, where does he even want to get out of the house?  It is eleven o'clock in the morning and it is raining outside.  There are sighs of sleep in my eyes sitting empty, but I do not like to sleep during the day.  So thought, why not write a diary today itself.  The biggest advantage of this will be that sleep will run away.

I usually write on mobile.  Well I have a laptop too, but writing on mobile seems more convenient.  Write anywhere while sitting, no hassle.  But, today I do not know what to write new.  So I am thinking why not take you back to my childhood days.  There are some such memories, which I consider relevant to share with you, because society needs such concerns today.  Let me also tell you that I remembered this childhood anecdote after seeing home-made semolina (haluva).

In those days, halwa used to be a typical dish and it was also made on special occasions.  Therefore, not only the children but also the elders used to wait impatiently for such occasions in the village.  Sometimes on specific occasions, the people of the village used to make pudding collectively and the material for this was also collected collectively.  But, the most special were those occasions, when there was a karij (work) in a house and everyone was doing it together.  For example, when someone had to apply cow dung (organic manure) in his fields (this was called Sahel), he would not do this work alone and invite the whole village for it.

Due to this, where the feeling of collectivism and love-love was developed, the work was also handled in a pinch.  Each family used to repeat this sequence in turn and the whole village became a participant in it.  After the completion of the work, all the working people used to gather in the courtyard (Chowk) of the family, whose fields were fertilized with cow dung.  There was already prepared pudding for them, which was called Prasad.  The fragrance of this pudding prepared by roasting semolina in desi ghee, used to bring water in the mouth.

Children were most eager to eat pudding.  For them, these occasions were like festivals.  That is why the people involved in Sahel used to take halwa for the children as well.  There was no need of utensils to eat the pudding and take it home.  The leaves of Malu and the leaves made from them used to compensate for the utensils.  Not only Sahel, there was a collective feast of pudding on the occasions of planting saplings in cere (planting paddy in irrigated fields), harvesting paddy-wheat and weeding.  Apart from this, everyone used to enjoy cutting tea (without sugar, which is sipped with a piece of jaggery).

How much joy, so much affinity, how much love and love was there in this feast, it can only be felt by the one who has lived this period.  Even though I was young then, these pleasant feelings are so deeply ingrained in my heart that it seems as if it was only yesterday.  The chain of memories has already started, so why not take you to another special feast of that era.  I bet you will enjoy this feast and say, I wish!  We too would have had a chance once to make such a feast….

1 comment:

  1. मितरों! अगर आपको मेरा ब्लाग अच्छा लगे तो इसे फालो अवश्य कीजिएगा। साथ ही कमेंट बाक्स में जाकर अपनी राय भी जरूर दीजिए, ताकि आगे मैं इसे और भी बेहतर बना सकूं। समाज में पढ़ने-लिखने की संस्कृति विकसित करने के लिए मेरी ये एक छोटी-सी कोशिश है। इसमें सहभागी अवश्य बनें। धन्यवाद!!

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