Thursday, 15 July 2021

02-07-2021 (गांव की शादी और मैं) (भाग-नौ)




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(भाग-नौ)

गांव की शादी और मैं

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दिनेश कुकरेती

ब लोग आज जैसे एडवांस नहीं थे, लेकिन तब आपस में दूरियां भी तो नहीं थीं। आस-पडो़स ही नहीं, पूरा गांव एक परिवार हुआ करता था। एक-दूसरे के प्रति स्नेह समाज का स्थायी भाव था। एक के दुखी होने पर सब दुखी हो उठते थे और खुश होने पर सारे प्रफुल्लित। किसी का कोई कार्य व्यक्तिगत नहीं होता था, बल्कि सब उसे मिल-जुलकर करते थे। मसलन किसी घर में शादी होती तो तैयारियों में पूरा गांव जुट जाता था। ऐसा माहौल होता था, जैसे पूरे गांव में उत्सव मनाया जा रहा हो। मैं खुद ऐसे ही उत्सव का हिस्सा रहा हूं।

वह हमारे परिवार की शादी नहीं थी, लेकिन मेरी मां, दादी, काका-काकी (चाचा-चाची), ब्वाडा-बोडी (ताऊ-ताई), दीदी, बुआ, भाभी, भाई, यहां तक कि स्वयं मैं भी 15 दिन पहले से तैयारियों में जुट गए थे। कुछ महिलाएं अरसा (पारांपरिक मिठाई) बनाने के लिए ओखली में चावल कूटने की जिम्मेदारी संभाले हुई थीं तो कुछ पत्तल बनाने बनाने के लिए जंगल से मालू के पत्ते लाने की। कोई सजावट के लिए रंगीन कागज की झंडियां तैयार कर रहा था तो कोई मालू़ के पत्तों से पत्तल बनाने में जुटा हुआ था। मेरे हिस्से भी पत्तल बनाने की जिम्मेदारी आई थी।

अपने लिए यह जिम्मेदारी मैंने स्वयं तय की थी। हालांकि, मां नहीं चाहती थी कि मैं पत्तल बनाऊं, क्योंकि मेरी उम्र तब सात साल भी नहीं थी और मां को लगता था कि मैं ऐसा नहीं कर पाऊंगा। लेकिन, मैं भला कहां मानने वाला था। आखिरकार मां को मेरी जिद माननी पडी़ और मैं जुट गया पत्तल बनाने में। एक-दो नहीं, पूरे 23 पत्तल बनाए थे मैंने, वह भी बेहद सफाई से। एक भी पत्तल बेढंगी नहीं थी। जिसने भी ये पत्तल देखी, तारीफ किए बिना नहीं रहा। पूरे गांव में चर्चा थी कि मैंने ये पत्तल बनाई हैं। सचमुच मेरे लिए यह तारीफ किसी पारितोषिक के समान थी।

शादी में अरसा बनाने वाली मंडली में मेरी मां भी शामिल थी। इस दौरान बच्चों को भी गर्म-गर्म अरसे खाने को मिल जाते। यह ऐसा आनंद था, जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। तब शादियों में लोग रस्म-अदायगी के लिए नहीं, बल्कि परिवार का हिस्सा बनकर जाया करते थे। वो आज जैसा प्रीतिभोज का दौर नहीं था, बल्कि बारात में भोजन करना लोग अपना अधिकार समझते थे। जिस घर में शादी होती थी उस घर में कम से कम चार दिन सारा गांव दावत छकता था। सचमुच सामूहिक रूप से पत्तल में खाने का आनंद ही कुछ और होता था।

मुझे आज भी याद है, शादी के खाने में दाल और बेसन की पकौडी़, अरसा, घी, बूरा, उड़द और अरहर की दाल, कद्दू की सब्जी, हरी सब्जी, पूडी़, चावल व हलुवा अनिवार्य आइटम हुआ करते थे। खास बात यह कि तब कुटुंब में न तो आज की तरह कार्ड बांटे जाते थे और न मौखिक आमंत्रण ही दिया जाता था। ऐसा करने का मतलब होता था कि परिवार के बीच दूरियां हैं। सिर्फ गांव से बाहर रह रहे (प्रवासी) परिजन को ही चिट्ठी भेजी जाती थी। जिस कुटुंब में शादी होती थी, उसके हर परिवार और हर सदस्य के ऊपर स्वतः जिम्मेदारी आयद हो जाती थी कि वह इस मांगलिक अनुष्ठान को संपन्न कराने में जुट जाए...।

(जारी...)

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(Part-Nine)

Village wedding and me

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Dinesh Kukreti

Then people were not as advanced as they are today, but then there were no distances among themselves.  Not only the neighbourhood, the entire village used to be one family.  Affection towards each other was a permanent feeling of the society.  Everyone used to get sad when one was sad and all were happy when they were happy.  No one's work was individual, but everyone used to do it together.  For example, if there was a marriage in a house, then the whole village used to get involved in the preparations.  There was an atmosphere as if a festival was being celebrated in the whole village.  I myself have been a part of such celebrations.

It was not our family wedding, but my mother, grandmother, kaka-kaki (uncle-aunty), bwada-bodi (tau-tai), didi, bua, sister-in-law, brother, even myself, since 15 days ago  Was busy in preparations.  Some women were in charge of crushing rice in Okhli to make Arsa (traditional sweet) and some bringing Malu leaves from the forest to make Pattal.  Some were preparing flags of colored paper for decoration, while some were busy making leaves from Malu leaves.  The responsibility of making my part also had come.

I myself had decided this responsibility for myself.  However, my mother did not want me to make pattals, because I was not even seven years old then and my mother thought that I would not be able to do it.  But, where was I supposed to believe?  Eventually the mother had to accept my insistence and I got involved in making the leaves.  Not one or two, I had made all 23 pattals, that too very clearly.  Not a single leaf was rotten.  Whoever saw this leaf could not remain without praise.  There was a discussion in the whole village that I have made these leaves.  Really, this compliment was like a reward for me.

My mother was also involved in the troupe that made the time for the wedding.  During this, the children also got to eat hot and hot for a long time.  It was a joy that cannot be expressed in words.  Then people used to go to weddings not for rituals, but as part of the family.  It was not the time of the party like today, but people considered it their right to have food in the procession.  The whole village used to feast for at least four days in the house where the marriage took place.  Indeed, the pleasure of eating together in the pattal was something else.

I still remember, lentils and gram flour dumplings, arasa, ghee, boora, urad and tur dal, pumpkin curry, green vegetables, puri, rice and pudding used to be essential items in the wedding dinner.  The special thing is that neither cards were distributed in the family like today nor oral invitation was given.  To do so meant that there were distances between the families.  Letters were sent only to the (migrant) family members living outside the village.  The responsibility of every family and every member of the family in which the marriage took place was automatically imposed on him to get involved in performing this auspicious ritual.

(To be continued...)

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1 comment:

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